बीहड़ सुधार की विशाल योजना

1971 में शुरू हुई केंद्र सरकार की योजना के अलावा केंद्र ने एक और बड़ा काम हाथ में लिया था। कई लोगों को यह जान कर अचरज होगा कि बीहड़ सुधार की यह योजना कृषि मंत्रालय की नहीं, गृह मंत्रालय की थी। उसकी निगाह में बीहड़ पर्यावरण की नहीं, डाकुओं की समस्या का केंद्र थे। कोई 500 से ज्यादा कुख्यात डाकू यहां तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान) की पुलिस को धता बताकर एक तरह से समानांतर सरकार चला रहे थे। 27 सालों में उस योजना पर कोई 1,224 करोड़ रुपये खर्च होने वाले थे। सात-सात साल के चार कालखंड बनाए गए थे। पहले खंड में तीनों राज्यों में कुल 55,000 हेक्टेयर नई जमीन खेती के लिए, 27,000 हेक्टेयर बाग-बगीचे के लिए और 27,500 हेक्टेयर वन संवर्धन और चरागाह के विकास के लिए जुटाने की बात थी। 2,20,000 हेक्टेयर ऊंची भूमि में मेड़बंदी, पानी की निकास नालियां और बीहड़ रोकने के बांध आदि का निर्णाण भी करना था।

पहले कालखंड में योजना पर 283.62 करोड़ रुपये खर्च होते और 3,273 इंजीनियरों, 11,376 कुशल कारीगरों और 2,40,00 से ज्यादा अकुशल मजदूरों को रोजगार मिलता। उससे कुल निवेश के 11 प्रतिशत की आय होती। लेकिन योजना लागू ही नहीं हुई। क्यों? 1972 में गांधीवादी कार्यकर्ताओं के अथक प्रयत्न से 500 से ज्यादा डाकुओं ने श्री जयप्रकाश नारायण के सामने मध्य प्रदेश में आत्मसमर्पण किया, इसलिए हो सकता है गृह मंत्रालय ने सोचा हो कि अब बीहड़ो को सुधारने की क्या जरूरत है।

1977-78 में मध्य प्रदेश सरकार ने बीहड़ सुधारने की और ऊंचाई वाली भूमि की सुरक्षा की एक योजना केंद्र सरकार को पेश की। उसमें भिंड, मुरैना, ग्वालियर, दतिया और छतरपुर के जलग्रहण क्षेत्र के एक लाख हेक्टेयर को सुधारने की बात थी। यह योजना भी नई दिल्ली के नेताओं और नौकरशाहों के बीहड़ों में भटक कर रह गई। 1979 में एक बार फिर बीहड़ सुधार योजना खटाई में पड़ी। मध्य प्रदेश सरकार ने भूमि-सुधार योजना को इसलिए रद्द कर दिया क्योंकि केंद्र सरकार के तत्वाधान में चलाई जा रही योजनाएं बंद कर दी गई थीं और सुधार में प्रति हेक्टेयर खर्च बहुत बढ़ चला था।

चंबल घाटी विकास प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष श्री वी निगम के अनुसार बीहड़ सुधार के लिए सामान्य लाभ-हानि के नियम ठीक नहीं है। लागत का हिसाब दीर्घकालीन सामाजिक लाभों के आधार पर किया जाना चाहिए। श्री निगम के अनुसार पहले की योजनाओं के असफल होने का कारण यह है कि वे बहुत छोटी और छितरी हुई थीं और इन्हें एक समग्र रूप में देखने-समझने वाले लोगों की भी कमी थी। लागत का कोई ख्याल नहीं रखा गया और ज्यादातर योजनाओं के लागू होने में काफी देर की गई। फिर सुधारी गई जमीन की नीलामी बड़ी कड़ी शर्तों पर की जाने लगी तो गरीब किसानों की वहां तक पहुंच हो नहीं सकी। निजी प्रयास भी हो नहीं सके, क्योंकि बीहड़ सुधार के लिए सबसिडी की दरें बहुत कम थीं। किसानों को नलकूप बनाने के लिए तो 50 प्रतिशत खर्च और 3000 हजार रुपये तक की मदद मिलती थी, पर बीहड़ सुधार के लिए प्रति एकड़ सिर्फ 250 मिलते थे।

1966-67 में मध्य प्रदेश बन विभाग ने एक अलग भूमि संरक्षण विभाग स्थापित किया। इसको 1975 तक 12,000 हेक्टेयर जमीन सुधारने का काम दिया। लेकिन यह सारी जमीन राजस्व विभाग की परती जमीन थी इसलिए चराई और पेड़ो की छंटाई रोकी नहीं जा सकी क्योंकि उस पर केंद्रीय वन कानून लागू नहीं हो सकता था।

1980 में हवाई जहाज से बीज छिड़क कर वन लगाने की भी एक योजना बनी। इससे हर साल कोई 12,000 हेक्टेयर जंगल बढ़ाने की बात थी। 1980 में हवाई बुवाई तो की गई पर लक्ष्य पूरा नहीं हो सका।

चंबल घाटी विकास प्राधिकरण की परियोजना में वन संवर्धन शामिल नहीं था, फिर भी उसके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता था। परियोजना ने चंबल कमांड क्षेत्र के किनारे वाले बीहड़ों में 11,000 हेक्टेयर जमीन में पेड़ लगाने का सुझाव रखा था। पहले चरण में, लगभग 115 किलोमीटर के घेरे में मिट्टी का तटबंध बनाकर उसमें घास लगाई गई। उसके समानांतर निकास-नालियां बनाई गईं ताकि अलग-अलग दर्रों से होकर पानी नदी में जा मिल सके। पहले चरण में लगभग 23,000 हेक्टेयर खेती की जमीन को बीहड़ बनने से बचाया गया। दूसरे चरण में दूसरे 150 किलोमीटर परिधि में, जहां भूक्षरण की मात्रा ज्यादा है, वैसा ही काम किया जाना है। इस प्रकार 25,000 हेक्टेयर जमीन सुधर सकेगी।

पर इस बीच, बीहड़ बेरोक-टोक फैलता जा रहा है। इसके लिए सरकार को ही दोषी ठहराया जाएगा। परिस्थिति की अहमियत ठीक से समझने की शक्ति उसमें नहीं है। हाल में चंबल घाटी के विकास के लिए 2000 करोड़ रुपयों की एक योजना घोषित की गई थी, पर अभी ठीक-ठीक नहीं मालूम नहीं है कि वह केवल चुनावों को ध्यान में रखकर ही तो नहीं की गई थी। पिछले अनुभव से अब कोई ज्यादा उम्मीद नहीं बनती है।

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