बनेगी रणस्थली, खूबसूरत मणिबेली

धन और समय के कारण जन-आंदोलनों की अपनी सीमाएं होती है। लेकिन फिर भी आंदोलन का दावा है कि लोगों की संख्या एक लाख तक पहुंचेगी। आंदोलन का दावा छोड़ भी दें तो भी इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि नर्मदा घाटी में कम से कम 60 हजार लोग तो ऐसे हैं ही जिन्होंने घोषणा की है कि वे नहीं हटेंगे। फिर समर्पित दल के लोग हैं जो डूब जाने तक के लिए तैयार है। इसके अलावा जो दो-तीन साल पहले पुनर्सित हो चुके थे वे भी वापिस लौट रहे हैं। होली के दो दिन पूर्व की चांदनी रात उनके लिए अविस्मरणीय रहेगी जो मणिबेली में मौजूद थे। होली का जश्न तो कहीं भी और कभी भी मनाया जाए, आनंद आ ही जाता है। लेकिन जब प्रकृति अपने भरपूर सौंदर्य के साथ खेल रही हो तब उसके साथ और उसके अभिन्न अंग बनकर जश्न मनाएं तो बात कुछ और ही होती है। मणिबेली बसा हुआ है नर्मदा की ऊंची घाटी पर, वहां ठीक नीचे नर्मदा बहती है-अपनी सुंदरता बिखेरते हुए। ऐसे सुंदर स्थल हमारे पूर्वजों की नजर से कभी ओझल नहीं हुए इसीलिए वहां एक अति प्राचीन मंदिर भी है जहां कहा जाता है कि “स्वयंभूशिव” विराजमान है। इसी शूलपाणेश्वर के मंदिर पर मई के आसपास एक बड़ा मेला भरता है जिसमें असंख्य लोग एकत्रित होते हैं। आस-पास का इलाका आदिवासी बहुल इलाका है।

मणिबेली (महाराष्ट्र) के मैदान पर पेड़ों के नीचे ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ द्वारा आयोजित एक सभा दोपहर से ही चल रही थी। ज्यों ही संध्या फैलने लगी मैंने देखा कि नर्मदा के इस ओर उस पार से छोटे-छोटे बच्चे, युवक-युवतियां, स्त्री-पुरुष और वृद्ध चले आ रहे हैं, सजधज कर। बच्चों के हाथ में तीर कमान थे तो युवक मुकुट धारण किए हुए थे जिनमें ऊंचे-ऊंचे मोर के पंख लगे हुए थे। जिन्हें पंख नहीं मिले उन्होंने साटी ही खोंस ली थी। उनके चेहरे और शरीर भिन्न-भिन्न रंगों से रंगे हुए थे। कुछ ने सुंदर आकृतियां भी बना रखी थी। कुछ अधिक अनुभवी लोग बड़े-बड़े ढोल लिए हुए थे।

आंदोलन का अनुशासन बड़ा कड़ा है इसलिए मंच पर मेरा शरीर बैठा तो रहा लेकिन दरअसल मन इन उल्लास भरे नव-आगन्तुकों के बीच चला गया था। यों आंदोलन की सभाएं भी नीरस नहीं होती हैं।

आंदोलन के सिपाही जब जोश भरे गाने गाते हैं या गुजरात की भद्रा बेन बताती है कि “अमे डेम रोकवा माटे ढोल बगाड़यो छेः” तो समा बंध जाता है और अहमदाबाद की एक संस्था “लोकनाद” के चारु और विनय अपने पैरों में बंधे घुंघरू की नाद से लय मिलाकर कविता में बात करते हैं तो वृद्ध से वृद्ध भी एक बार तो हिल उठता है। लेकिन फिर भी आयोजकों ने सभा को समेट लिया है। शायद इसीलिए कि उस भूमि पर बरसात शुरू होते ही एक बड़ी लड़ाई छिड़ने वाली है। पता नहीं इस लड़ाई में कितनी कुर्बानी देनी होगी। इसलिए लड़ाई छिड़ने के पूर्व जो यह मधुर चांदनी रात की यह आखिरी होली है उसे लोग जी भर के मना लें यह भावना भी मन की किसी कोने में रही होगी।

युवक-युवतियां, स्त्री-पुरुष, बच्चे सभी रातभर नाचते रहे। ढोल के थाप और कमर में बंधे हुए चोटे-छोटे घंटालनुमा घूंघरू केवल आदिवासियों को ही नहीं बांधे रहे। बंबई, दिल्ली और अन्य नगरों से आई युवक-युवतियां भी इनसे बंधी रही। सभा होली के दो दिन पूर्व थी तो आदिवासियों ने होली का जश्न भी दो दिन पूर्व ही मना लिया। यह भी आंदोलन की नेत्री मेधा बेन का करिश्मा ही है कि नर्मदा आंदोलन हमारी संस्कृति एक अंग बनता जा रहा है। यह स्वाभाविक भी है। नर्मदा नष्ट होती है तो एक विशिष्ट संस्कृति उजड़ती है इसलिए नर्मदा को बचाने का आंदोलन केवल भौतिक आवश्यकताओं भर का ही आंदोलन नहीं है। यह एक सभ्यता और संस्कृति को डूबने से बचाने का भी आंदोलन है।

मणिबेली से पिछली जनवरी की 30 तारीख से एक यात्रा सरदार सरोवर के डूब में आने वाले गांवों में से निकली थी, यह जानने के लिए कि क्या वे अपने संकल्प “डूबेंगे पर हटेंगे नहीं” पर दृढ़ हैं। नर्मदा के दूसरे किनारे के डूब क्षेत्र में भी इसी तरह की यात्रा गुजरात के बड़ग्राम से निकली थी। दोनों यात्रााएं पिछली 4 मार्च को बड़वानी (म.प्र.) में समाप्त हुई थी। इसी के तुरंत बाद दूसरे ही दिन (5 मार्च को) मणिबेली में पड़ाव हुआ। यात्रा की इस प्रक्रिया में लोगों को प्रोत्साहित किया गया था कि सोच समझ कर अपनी राय व्यक्त करें कि वे हटना चाहते हैं कि नहीं। इसे “लोक निवाड़ा” (लोगों का फैसला) कहा गया था। 22,523 परिवारों की ओर से मणिबेली में यह घोषणा हुई थी कि 21,961 परिवारों ने न हटने का संकल्प किया है। सभा उठते-उठते इसमें 300 की संख्या और बढ़ गई थी जो दूसरे दिन तक मणिबेली में साढ़े बाइस हजार तक पहुंच गई थी और संख्या बढ़ती जा रही थी।

धन और समय के कारण जन-आंदोलनों की अपनी सीमाएं होती है। लेकिन फिर भी आंदोलन का दावा है कि लोगों की संख्या एक लाख तक पहुंचेगी। आंदोलन का दावा छोड़ भी दें तो भी इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि नर्मदा घाटी में कम से कम 60 हजार लोग तो ऐसे हैं ही जिन्होंने घोषणा की है कि वे नहीं हटेंगे। फिर समर्पित दल के लोग हैं जो डूब जाने तक के लिए तैयार है। इसके अलावा जो दो-तीन साल पहले पुनर्सित हो चुके थे वे भी वापिस लौट रहे हैं। बड़वानी में 20 लोगों ने अपने पट्टे वापिस करने की घोषणा की। बरसात जैसे ही शुरू होगी मणिबेली में फिर संघर्ष छिड़ेगा। सरकार कहती है कि गांव खाली हो गया लेकिन यह सच नहीं है। आधे से अधिक, करीब 55 परिवार अभी भी वहां बसे हुए हैं। इनकी तथा आस-पास के अन्य डूब में आने वाले लोगों के प्रति अपनी एकता प्रदर्शित करते हुए हजारों आदिवासी किसान एवं नवजवान आगामी जून-जुलाई में यहां एकत्रित होंगे। सरकार के समक्ष बड़ी विकट समस्या खड़ी होगी। लोग तो हटेंगे नहीं। घाटी में बड़ी दृढ़ता है और जोश है। अगर सरकार लोगों को हटने पर राजी नहीं कर पाती है तो सरोवर में पानी नहीं भरा जा सकेगा और यदि जोर जबरदस्ती लाठी-गोली चलाती है तो उसका यह दावा जमींदोज हो जाएगा कि सरदार सरोवर के लिए लोगों ने अपनी सहमति दी है। फिर वह कि समुह से विश्व बैंक या अन्य देशों से सहायता मांगेगी? जिसे सरदार सरोवर की जरा भी जानकारी है वह यह जनता है कि देशी धन के बिना यह भारी-भरकम परियोजना पूरी नहीं हो सकती। असहमत लोगों की संख्या को उपरोक्त साठ हजार का आंकड़ा न्यूनतम है। क्या इतनी बड़ी संख्या को नजरअंदाज करके कोई भी योजना चल सकती है? सरकार कहां-कहां इंतजाम करेगी? यद एक भी आदमी डूब गया तो सरकार पर पानी से हत्या करने का जुर्म लगेगा तथा ऐसी सरकार टिक नहीं सकेगी। कुछ लोग, खास करके घाटी के बाहर के यह कहते हैं कि बांध पर इतना अधिक काम हो गया है कि अब यह कैसे रुक सकता है। इस पर पहली बात तो यह कि यदि किसी ने धोखेधड़ी से राक्षसी बम बना लिए हैं तो क्या इस तरह का तर्क न्यायिक है कि बम अब बन ही चुका है तो इसे छोड़ना ही पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि बांध बन भी गया तो क्यों लोगों की बिना सहमति के उसमें इतना पानी भरा जा सकेगा कि लोग डूब जाएं। बांध से बड़ा खर्चा तो पानी को पहुंचाने का होगा। तर्क तो यह होना चाहिए कि जो-जो लोग अलोकतांत्रिक तरीके से हठधर्मी के आधार पर बांध पर किए गए खर्च के लिए जिम्मेदार है उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाए तथा बांध यदि बना ही लिया गया तो हम उसमें पानी जमा नहीं होने देंगे ताकि खाली बांध भावी पीढ़ी को इस बात की याद दिलाता रहेगा कि हमारे पूर्वज कितने खोखले और पाखंडी थे। बांध की दीवार खड़ी कर लेना सरकार के हाथ में है लेकिन अपनी जमीन पर सत्याग्रह करके डटे रहना लोगों के हाथ में है। लोग दृढ़ रहेंगे तो कैसे पानी भरा जा सकेगा?

इस समय सरकार खुद डरी हुई है। यही कारण है कि उसे झूठ और क्रूरता का सहारा लेना पड़ रहा है। बाबा आमटे जैसे अद्वितीय निस्वार्थी देशभक्त पर यह लांछन लगाया कि वे घाटी छोड़ कर चले गए हैं तथा आंदोलन नेतृत्व विहीन हो गया है। जबकि इस बात पर गौरव करना चाहिए था कि स्वास्थ्य और वृद्धावस्था की कतई परवाह न करते हुए वे साम्प्रदाययिकता की आग को बुझाने निकल पड़े थे। अब वे फिर नर्मदा के किनारे छोटी कसरावद की अपनी कुटिया “निजबल” में लौट आए हैं।

पिछले दिनों की ही घटना है कि सरकार ने अलीराजपुर तहसील के अंजनवारा में दो दिन तक गोलियां दागी, लोगों के झोपड़े तोड़ डाले, महिलाओं के साथ अत्याचार किए और यहां तक कि हाथ चक्कियां तक तोड़ डालीं। कुसूर यह था कि अंजनवारा और उससे लगे हुए बारह गांव के लोगों ने जो मध्य प्रदेश के पहिले चरण में डूब में आ रहे हैं, हटने से इंकार कर दिया है। सरकार को अपनी क्रूरता को उचित बताने के लिए यहां तक झूठ फैलाना पड़ा कि आंदोलन चलाने वाले नक्सलवादी हैं। झूठ और दमन के बल पर ही यदि सरकार बांध का काम चलाती है तो समझ लेना चाहिए कि सरकार नर्मदा आंदोलन के सामने डर चुकी है।

एक बात और, सवाल केवल बांध का नहीं है। इस समय देशभर में पर्यावरण, विकास, विस्थापन, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों को लेकर स्वयंस्फूर्त आंदोलन उठ रहे हैं। ये इस बात के दिशा संकेत हैं कि बुनियादी समस्याएं क्या हैं? नवयुवकों ने इन जन-आंदोलनों से जुड़कर उदाहरण प्रस्तुत किया है। ये सब बातें “व्यवस्था” की समझ से बाहर है लेकिन वे लोग जो “व्यवस्था” के गुलाम नहीं हैं क्या इन्हें समझने का प्रयास करेंगे? ऐसे लोग सरकार और राजनेताओं में भी हो सकते हैं।

साभार-सप्रेस आलेख- 131 92-93, इंदौर, प्रस्तुत लेख 03 फरवरी 1995 में छपी स्व. ओमप्रकाश रावल स्मृति निधि पुस्तक से

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