बंधु हैं नदियाँ

26 Aug 2013
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इसी जमुना के किनारे एक दिन
मैंने सुनी थी दुःख की गाथा तुम्हारी
और सहसा कहा ता बेबस : ‘तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।’
गहे थे दो हाथ मौन समाधि में स्वीकाकर की।

इसी जमुना के किनारे आज
मैंने फिर कहा है वह : ‘तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।’
और उत्तर में सुनी है दु:ख की गाथा तुम्हारी,
गहे हैं दो हाथ मौन समाधि में उत्सर्ग की।

न जाने फिर
इसी जमुना के किनारे एक दिन कर सकूँगा नहीं बातें प्यार की
सुननी न होगी दु:ख की गाथा-
एक दिन जब बनेगा उत्सर्ग स्वीकृति उच्चतर आदेश की।
बंधु हैं नदियाँ : प्रकृति भी बंधु है
और क्या जाने, कदाचित्
बंधु
मानव भी!

दिल्ली-इलाहाबाद (मोटर से), 8 अक्टूबर, 1949

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