बांधों के बढ़ते कुनबे से पड़ा नदियों के आंतरिक प्रवाह पर दुष्प्रभाव

25 Jan 2022
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पानी को तरस रहे अलवर के एतिहासिक विरासत जयसमंद बांध
पानी को तरस रहे अलवर के एतिहासिक विरासत जयसमंद बांध

पानी को तरस रहे अलवर के एतिहासिक विरासत जयसमंद बांध,फोटो साभार:राम भरोस मीणा

 

सम्पूर्ण भारतवर्ष या कहें विश्व में जल संग्रहण प्रबंधन व्यवस्था एक हजार से पन्द्रह सो वर्ष पुरानी सामाजिक विज्ञान से उत्पन्न एक ऐसी व्यवस्था है  जो पानी को लेकर पनपी समस्याओं को दूर करने के लिए जोहड़, नाड़ी, एनिकट, चैकडेम और छोटे बड़े बांधों का निर्माण करती है।   इस जल व्यवस्था को वर्ष भर बनाएं रखने और अकाल-दुकाल से निपटने के लिए सामजिक व्यवस्थाएं महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । मानव समाज की  आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समाज के ही प्रतिष्ठित लोगों के द्वारा ग्राम, नगर, शहर, रजवाड़ों की आवश्यकताओं,भौगोलिक स्थिति,पारिस्थितिकी तंत्र भू गर्भ की संरचनाओं और  मौसमी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर नदियों पर अवरोध स्वरूप मिट्टी की कच्ची दीवार तैयार की जाती है, पानी के बहाव और भराव क्षेत्र के साथ निचले हिस्से में जलीय समस्या ना बिगड़ उसके लिए सामाजिक अनुभवों से तैयार बांधों का निर्माण भी  किया जाता है, लेकिन इस बदलते दौर में आधुनिक विज्ञान से निर्मित बांधो ने एक सामाजिक समस्या को जन्म दिया है जो भू गर्भ में जलीय संरचनाओं पर विपरीत प्रभाव डालते है साथ ही नदियों के आंतरिक प्रवाह को भी प्रभावित  करते है।  


देश में सो वर्ष से अधिक पुराने  बड़े बांधों की संख्या 227 के आसपास अनुमानित है और आजादी के बाद या कहे पिछले पांच दशक में यह बढ़कर हजारों में पहुंच गई है, लेकिन बड़ी बात यह है कि यह सामाजिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए निर्मित नहीं हुए है, इसीलिए ये आधुनिक विज्ञान, वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित,सामाजिक, पारिस्थितिकी,भू गर्भिक, जल भण्डारण, पर्यावरणीय परिस्थितियों में कही भी खरे नहीं उतर पा रहे  है। 

 

अकेले राजस्थान में ही 22 बड़े बांधो के साथ 256 छोटे बांध निर्मित हुए है जो विद्युत आपूर्ति, सिंचाई व्यवस्था, औधोगिक ईकाईयों के अलावा पेयजल योजनाएं के माध्यम से सामाजिक व्यवस्थाओं को बनानें में रहें।  लेकिन पिछले तीन दशक से सामाजिक विज्ञान की लुप्त होती उपयोगिता, नई तकनीक से जल व्यवस्था में आये बदलाव 'कुढ़ का पानी कुढ़ में; 'हमारे पानी पर हमारा अधिकार" जैसे अभियानों और  ग्राम पंचायतो द्वारा बांध बनाने की होड़ आदि ऐसे अनेकों व्यवस्थाओं से बांधो को लेकर जो समाधान होना था वह आज सामाजिक समस्या में तब्दील हो रहा है। जिसका कहीं  न कहीं   असर मानव समाज, जीव जंतु, वनस्पतियों पर भी पड़ रहा है ।  


जल-जंगल के साथ सामाजिक व्यवस्थाओं में सहभागी बन कर कार्य कर रही राजस्थान के अलवर की एल पी एस विकास संस्थान के एक  शोध से यह बात समाने आई है कि अलवर में जो 22 बड़े बांध 107 ग्राम पंचायतों के अधिनस्थ है  उन पर  हजारों की संख्या में  जोहड़, एनिकट और चेकडैम का निर्माण हुआ है।  जिसके कारण ज़्यादातर बांधों में जल का स्तर घट गया है और वहा सूखने के कगार पर पहुंच गए है।  जिनमें, मंगलसर, बघेरी खुर्द, मानसरोवर, जयसमंद, देवती, समर सरोवर, रामपुर बांध प्रमुख है।  


बांधों के रास्ते में बने छोटे छोटे अवरोधों से बड़े बांध खत्म हो रहें है  नदियां वेंटिलेटर पर सांसें गिनने लगी है , छोटे बांध पानी के साथ आए विधि प्रकार के अपशिष्टों से भरने लगे है , पानी अपना रास्ता बदल रह है , नदियों की आंतरिक संरचनाओं में परिवर्तन होने से बहाव क्षेत्र भी बदलवा हो रहा  है,  जो सामाजिक समस्याओं के साथ जलीय, पर्यावरणीय, पारिस्थितिकी समस्या पैदा होने के साफ संकेत दे रहे हैं। जो वाकई में चिंतनीय है। स्थितियां और ख़राब ना हो उसके लिए हमें  बांधों के बढ़ते कुनबे को रोकने के साथ नदियों पर बने छोटे अनुपयोगी अवरोधों को हटाना होगा जिससे जलीय आंतरिक प्रवाह, संरचनाओं, बहाव क्षेत्र के साथ सामाजिक विज्ञान व समाज द्वारा निर्मित बांधों को बचाया जा सकें।। 

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