बोल मेरी मछली कितना पानी

9 Jun 2018
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बढ़ते प्रदूषण के कारण गंगा नदी का जल ही प्रदूषित नहीं हुआ, बल्कि उसमें रहने वाले कई जीव-जन्तुओं का अस्तित्व ही संकट में आ गया है। मछलियों की कई प्रजातियाँ तो खत्म ही हो गई हैं। इससे जैव विविधता भी बुरी तरह प्रभावित हुई है।

“मछली जल की रानी है/जीवन उसका पानी है/हाथ लगाओ डर जाएगी/बाहर निकालो मर जाएगी।” -बचपन से सुनते आ रहे; इन पंक्तियों से यह बात सहज ही समझ आ जाती है कि मछली और उसके जैसे बहुत सारे जीव-जन्तुओं का जीवन सिर्फ और सिर्फ पानी पर ही निर्भर है।

एक समय था, जब यह पानी से बाहर निकालने पर मरती थीं, लेकिन आज यह पानी के भीतर ही मर रही हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है जहरीला होता पानी। इनके आश्रय स्थल पानी में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम होती जा रही है, लगभग खत्म होने के स्तर तक। इसका परिणाम यह हुआ कि पानी के भीतर जीने और पलने वाले जीव-जन्तु अब इसके भीतर सुरक्षित नहीं हैं। वे जाएँ तो कहाँ जाएँ? इंसान को यह सब सोचने की फुरसत कहाँ? वह तो विकास की अन्धी दौड़ में इतना अन्धा हो चुका है कि प्रकृति को ही नष्ट करने पर तुला है।

जल का सबसे बड़ा स्रोत हमारी नदियाँ हैं। उसमें भी गंगा नदी का नाम सबसे ऊपर आता है। यह भारत की न केवल जीवन रेखा है, बल्कि भारतीय सभ्यता की पालना रही है। साथ ही सैकड़ों तरह की मछलियों एवं जीव-जन्तुओं की यह शरण-स्थली भी है। इनमें से कई जन्तु दुर्लभ, संकटापन्न एवं स्थानिक हैं। जैसे गांगेय डॉल्फिन, घड़ियाल, मुलायम कवच वाले कछुए, संकुची मछली इत्यादि।

गंगा बेसिन का कुल क्षेत्रफल लगभग 1.1 मिलियन वर्ग किलोमीटर है, जिसमें 8.6 लाख वर्ग किमी भारतवर्ष में है।

गंगा गढ़वाल हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर के चार हजार एक सौ मीटर ऊँचाई पर अवस्थित गोमुख गुफा से भागीरथी नदी के नाम से निकलती है और 200 किलोमीटर तक प्रवाहित होने के बाद देव प्रयाग में अलकनन्दा नदी से मिलती है। अलकनन्दा नदी बद्रीनाथ के पास तपोवन ग्लेशियर से निकलती है और लगभग 200 किलोमीटर तक प्रवाहित होने के बाद देवप्रयाग पहुँचती है।

भागीरथी और अलकनन्दा के संगम से नदी का नाम गंगा नदी हो जाता है। देवप्रयाग से लगभग पचास किलोमीटर तक प्रवाहित होने के बाद गंगा नदी हिमालय से निकलकर ऋषिकेश के पास तराई क्षेत्र में उतरती है और वहाँ से लगभग 30 किलोमीटर तक प्रवाहित होने के बाद हरिद्वार पहुँचती है। गोमुख से निकलने के बाद गंगा उत्तर भारत के मैदानी भाग से प्रवाहित होते हुए 2700 किलोमीटर से अधिक दूरी तक बहने के बाद गंगा सागर टापू के पास बंगाल की खाड़ी में मिलती है।

पटना विश्वविद्यालय में मैं अपने सहकर्मियों के साथ पिछले 35-36 वर्षों से लगातार गंगा की जैव विविधता का अध्ययन करता आ रहा हूँ। अध्ययन के क्रम में 1980 के दशक में ही कवक की 51 प्रजातियाँ गंगा के जल में तथा 54 प्रजातियाँ गंगा के कीचड़ में पाई थी। इसी तरह फाइटोप्लेंकटन की लगभग छह सौ प्रजातियाँ दूसरे वैज्ञानिक द्वारा लिपिबद्ध की गई हैं।

मैं और मेरे सहयोगी ने प्रोटोजोआ की 28, रोटीफेरा की 104, कृमि की 37, पोलिकिट्स की 11, जोंक की 14, क्लैडोसेरा की 36, सीप की 36 एवं घोंघे की 40 प्रजातियों को लिपिबद्ध किया है। इसमें कृमि के 27, जोंक के 10 एवं पौलिकिट्स की 2 प्रजातियाँ बिल्कुल नई खोज है, जिसकी जानकारी पहले नहीं थी। भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के वैज्ञानिकों ने पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 375 प्रजाति की मछलियाँ, 11 प्रजाति के उभयचर, 27 प्रजातियाँ सरीसृप, चिड़ियों की 177 प्रजातियाँ तथा स्तनधारी जीवों की 11 प्रजातियों को लिपिबद्ध किया है।

पटना के पास 30 किलोमीटर गंगा में 1993-95 में हम लोगों ने 106 मछलियों की प्रजातियों को लिपिबद्ध किया है। इस तरह से हम पाते हैं कि गंगा जैविक विविधता की दृष्टि से काफी सम्पन्न नदी है और साथ ही लाखों मछुआरों के लिये जीविकोपार्जन का साधन भी है, परन्तु हाल के वर्षों में गंगा की जैव विविधताओं में काफी कमी आई है, क्योंकि गंगा नदी पर कई प्रकार के संकट मंडरा रहे हैं।

गंगा नदी एक साथ कई संकटों का सामना कर रही है। जैसे- नदी के प्रवाह में कमी, तेजी से बढ़ते प्रदूषण की समस्या, बढ़ते हुए तलछट एवं गाद की समस्या, गंगा एवं सहायक नदियों पर बाँध के निर्माण के कारण उत्पन्न समस्याएँ, नदियों के दोनों किनारों पर तटबंध निर्माण के कारण उपजी समस्याएँ, भूमण्डलीकरण के कारण दूसरे देशों की मछलियाँ एवं अन्य जन्तु के गंगा में आ जाने के कारण उत्पन्न समस्या, गंगा में अतिक्रमण की समस्या, जीव-जन्तुओं के अति दोहन की समस्या इत्यादि।

गंगा के प्रवाह में दिनों-दिन काफी तेजी से कमी होती जा रही है, क्योंकि हिमालय से लेकर पश्चिम बंगाल तक गंगा में कई बाँधों का निर्माण किया गया है और नदी के जल को नहर में प्रवाहित कर सिंचाई के लिये किसानों को दिया जा रहा है। साथ ही गंगा बेसिन में हजारों झील, ताल-तलैया थे, जो धीरे-धीरे अतिक्रमण या अन्य कारणों से विलुप्त होते जा रहे हैं। ये झील और ताल-तलैया बरसात के समय पानी को भूतल जल के रूप में जमा करते हैं और यही भूतल जल फरवरी-मार्च के महीने में, जब न तो बरसात होती है और न ही हिमालय की बर्फ पिघलती है, गंगा के प्रवाह को बनाये रखने में मदद करते हैं। शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण भी गंगा के पानी का उपयोग ज्यादा होने लगा जिसके कारण भी गंगा के प्रवाह में कमी आई है।

गंगा नदी में प्रदूषण की समस्या सुरसा के मुख के समान बढ़ती जा रही है। गंगा नदी में प्रतिदिन 13000 मिलियन लीटर मल-जल एवं 2600 मिलियन लीटर औद्योगिक अपशिष्ट बहाया जाता है। इसके अलावा लगभग 10 मिलियन टन रासायनिक खाद एवं 50,000 टन से अधिक कीटनाशक दवाइयाँ गंगा बेसिन में प्रयोग में लाई जाती हैं जो बरसात के समय बहकर नदी में आता है।

गंगा के किनारे स्थित जितने भी शहर हैं वहाँ से अधिकांश मल-जल बिना शोधन के गंगा में प्रवाहित किया जाता है जिसके कारण गंगा में जैविक पदार्थों, बैक्टीरिया, प्लास्टिक, मेडिकल अपशिष्ट की मात्रा क्षमता से हजारों गुणा अधिक हो गया है। इसके अलावा उद्योग से निकलने वाला कचरा और गन्दा जल सीधे गंगा में बहा दिया जाता है। नतीजतन गंगा में भारी धातु, तेल, ग्रीस आदि के साथ-साथ कई प्रकार के अन्य रसायनों इत्यादि की मात्रा काफी बढ़ गई है। इसी तरह से स्वास्थ्य एवं कृषि क्षेत्र से कई तरह के कीटनाशक रसायन गंगा में प्रवाहित होकर आ रहा है।

फलस्वरूप गंगा के जल एवं जैव विविधता, मछलियाँ, डॉलफिन इत्यादि के शरीर में काफी मात्रा में डी.डी.टी. एवं अन्य रसायन जमा हो गये हैं। कीटनाशक रसायन अधिकतर कैंसर जैसे रोगों को जन्म देते हैं। मछलियों के शरीर में इस तरह के रसायन की अधिकता के कारण मछलियाँ जहरीली होती जा रही हैं और मनुष्य के खाने लायक नहीं रहीं।

गंगा नदी के जल-ग्रहण क्षेत्र में अन्धाधुन्ध जंगलों की कटाई और गंगा के दोनों किनारों पर जंगली घासों एवं अन्य वनस्पतियों की कटाई व किनारे तक खेती के कारण गंगा में तलछट एवं गाद की मात्रा बहुत तेजी से बढ़ रही है। गंगा की सहायक नदी-कोसी, दुनिया में सबसे अधिक तलछट एवं गाद ढोने वाली चीन की ह्वांगहो नदी के बाद दूसरी नदी है, जिसके कारण भी गंगा में; खासकर बिहार में, गाद की बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई है। नतीजन बरसात में थोड़ी भी अधिक वर्षा होने पर गंगा उफन जाती है और लोगों को बाढ़ की विभीषिका का सामना करना पड़ता है।

बाढ़ नियंत्रण के नाम पर गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारों पर लम्बे एवं ऊँचे तटबन्धों के निर्माण कराये गये हैं, जिसके कारण बरसात के महीनों में गंगा के पानी का फैलाव नहीं हो पाता है और जब कभी तटबन्ध टूटता है तब बाढ़ का विकराल रूप देखने को मिलता है। सन 2008 में कुसहा तटबन्ध टूटने से बिहार में बाढ़ से भारी नुकसान हुआ था। इसके साथ ही गंगा बेसिन में अवस्थित सैकड़ों झीलें एवं आर्द्र भूमि, ताल-तलैया इत्यादि बरसात के महीनों में गंगा से जुड़ नहीं पाते हैं, क्योंकि तटबन्ध अवरोध पैदा करता है।

तटबन्ध निर्माण के कारण ऐसा देखा गया है कि बाढ़ का नियंत्रण नहीं हो पा रहा है, बल्कि उल्टे बाढ़ की विभीषिका में और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में काफी बढ़ोत्तरी हो गई है। इसे एक उदाहरण से इस तरह से समझा जा सकता है- 1950 के दशक में बिहार में केवल लगभग 150 किमी लम्बा तटबन्ध था और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था, जबकि 1980 का दशक आते-आते तटबन्ध की लम्बाई लगभग 3000 किमी से अधिक हो गई और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 68 लाख हेक्टेयर हो गया है। इससे यही प्रतीत होता है कि जैसे-जैसे दवा दी गई वैसे-वैसे मर्ज बढ़ता गया।

अतः इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। झील और ताल-तलैया के कारण गंगा से कट जाने के कारण जैव विविधता में काफी कमी देखी जा रही है, क्योंकि बरसात के महीनों में गंगा का ताल-तलैया से मिलन होता था तो गंगा और ताल-तलैया के बीच जैव विविधता का आदान-प्रदान भी होता था, लेकिन तटबन्ध के कारण आदान-प्रदान रुक जाने के कारण ह्रास देखा जा रहा है और हाल के वर्षों में, गंगा में मछलियों की प्रजातियाँ 200 से भी कम रह गई हैं।

पिछले दो-तीन दशक में जब से भूमण्डलीकरण हुआ है दुनिया के अन्य देशों के साथ भारत का व्यापार बढ़ा है और लोगों के आवागमन में बढ़ोत्तरी हुई है। जिसका नतीजा यह है कि दूसरे देश के भी जीव-जन्तु हमारे देश में आ गये हैं। जिसका बुरा प्रभाव गंगा की जैव विविधता पर पड़ा है। एक अध्ययन में हम लोगों ने पाया कि पटना के पास तीस किमी गंगा की लम्बाई में वर्ष 1993-95 में कुल 106 प्रजातियों की मछलियाँ हैं। उसमें एक भी विदेशी मछली नहीं थी, लेकिन गंगा के उसी क्षेत्र में 2007 से 2009 के बीच अध्ययन के क्रम में पाया गया कि पटना के पास कुल प्रजातियाँ तो 106 थीं, लेकिन उनमें लगभग 10 विदेशी प्रजातियाँ आ गई थीं। साथ ही एक घोंघे-जैसी प्रजाति, फाईसा (हाईतिया) मेक्सिकाना भी मिली जो उत्तरी अमेरिका में पाई जाती है।

विदेशी जीव-जन्तु गंगा की जैव विविधता के लिये बड़ा खतरा है, जिसे क्वारंटाईन कानून का सही पालन करके और लोगों को जागरूक कर रोका जा सकता है। हाल ही में भारत सरकार ने गंगा में सामान ढोने के लिये बड़े-बड़े जहाज चलाने का निर्णय लिया है। इसका भी सीधा असर जैव विविधता पर पड़ेगा। खतरा तो यह भी है कि चीन की यांगत्जी (Yangtze) नदी की डॉल्फिन की तरह कहीं गंगा की भी डॉल्फिन विलुप्त न हो जाए। नदियों में अन्धाधुन्ध बालू निकासी और गंगा के पेट में बड़े-बड़े अपार्टमेंट का निर्माण, खासकर पटना में, ये सब भी गंगा के अस्तित्व के लिये खतरा उत्पन्न कर रहे हैं।

(गंगा नदी पर शोधरत लेखक ‘डॉलफिन मैन’ के रूप में भी प्रसिद्ध हैं)

 

 

 

 

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