बोलती-चालती हिंसा

11 Jan 2014
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कई पहाड़ों, जंगलों और खेतों पर गिरी बारिश के पानी के संगम से नदियां बनती हैं। एक दूसरे से मिलकर ये नदियां बड़ी हो जाती हैं। सबसे बड़ी नदी वह होती है जिसका दूसरी नदियों से सबसे ज्यादा संयोग होता है। अगर सागर से उलटी गंगा बहाएं तो गंगा का स्रोत गंगोत्री भर नहीं होगा। यमनोत्री भी होगा, तिब्बत में ब्रह्मपुत्र का स्रोत भी होगा। दिल्ली और बनारस और पटना जैसे शहरों के सीवर से निकलने वाला पानी भी होगा। कहने को बनारस या पटना में गंगा विशाल नदी है, लेकिन वहां उसका पानी शिवजी की जटा से निकल कर नहीं आता है। वह बनारस के ही गटर की पैदावार होता है।

क्या आप अपनी बोली में बोलते हैं या अपनी भाषा में? दोनों अपनी होंगी पर ऐसा माना जाता है कि बोली जरा छोटी होती है। उसका दायरा सीमित होता है। ऐसी कोई जुबान जब एक छोटे से इलाके में, एक खास समाज या वर्ग तक रुकी रहती है, तो उसे बोली कह दिया जाता है। भाषा उससे बड़ी मानी जाती है। उसका विस्तार विराट होता है। उसे बोलने वालों में कई तरह के लोग होते हैं, कई तरह के समाज, कई तरह के वर्ग।

बोली और भाषा के बीच की यह ऊँच-नीच कई लोग शाश्वत सत्य मानते हैं। भाषा और समाज का शास्त्र समझने वाले एक अमेरिकी वैज्ञानिक इस विषय पर एक व्याख्यान दे रहे थे। तब उनसे एक श्रोता ने कहा था: ”भाषा वह बोली है, जिसके पास थलसेना और नौसेना हो!“ यानी जिसके पास सत्ता हो, हिंसक शक्ति हो, उसकी बोली भाषा कही जाने लगती है। और जो ताकतवर न हो, उसकी भाषा बोली मान ली जाती है। भाषा विज्ञान में इस कहावत का आज भी बोलबाला है। उस श्रोता का नाम तो ठीक पता नहीं, पर बाद में यहूदी भाषाशास्त्री मैक्स वाएनराइख के नाम से यह कथन चल निकला था।

बोलचाल के इस वर्ग विभाजन में भाषा वह भैंस है, जो लाठी वाले की होती है। इस उपमा को थोड़ा और खींचें तो बोली को किसी गरीब की बकरी भी कहा जा सकता है। पर हमें यह भी याद रहना चाहिए कि सत्ता, लाठी या शब्दों के अर्थ तय करने की ताकत भी किसी एक व्यक्ति या समाज के पास बहुत समय तक बनी नहीं रहती। इसलिए भाषा-बोली के इस वर्गभेद को भुलावा बनने में देर नहीं लगती। एक समय हमारे यहां संस्कृत जानना ही कुलीनता का लक्षण माना जाता था। फिर ऐसे दिन भी आए कि फारसी राज-काज की भाषा बन गई। फारसी जानने वालों के लिए तेल बेचना निकृष्ट मान लिया गया। यह कहने वालों ने अपने खाने के तेल का भी मोल नहीं किया। हाथ का कंगन, आरसी-फारसी तक की कहावतें दो-चार पीढ़ी तक चलती रहीं। फिर फारसी का जमाना लद गया। फिर राज-काज की भाषा उर्दू हुई। उस दौर में मीर और मोमिन की शायरी की समझ सभ्यता का सर्टिफिकेट बन गया। इसका असर आज की मुंबईया फिल्मों तक में मिल जाता है, जब खुशबू की उपमा उर्दू से दी जाती है। इसके बाद जमाना आया अंग्रेजी का। साहब बन कर अंग्रेजी बोलना ही उच्चता का मानदंड हो गया। आज भी हर कहीं अंग्रेजी बोलने की कोचिंग क्लास के विज्ञापनों में बताया जाता है कि आत्मविश्वास तो तभी मिलता है जब फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनी आ जाए। अंग्रेजी न जानने वालों को हीनता से ग्रस्त माना जाता है।

अंग्रेजी की तुलना में आई इस हीनता को स्वतंत्रता सेनानियों ने आजादी के बाद दूर करना जरूरी समझा। सन् 1949 में संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया। इस विषय पर बहस बहुत कड़वी हुई। जिन प्रदेशों में हिंदी नहीं बोली जाती, वहां डर था कि हिंदी वाले उन पर हावी हो जाएंगे। हिंदी को राष्ट्रीयता की पहचान बनाना उन्हें अपने और अपनी भाषाओं के प्रति अविश्वास लगा। ऐसे राज्यों के कुछ लोगों को हिंदी की तुलना में अंग्रेजी ज्यादा स्वीकार्य लगी।

सन् 1956 में नए राज्य बनाने का आधार था भाषा। तेलुगू बोलने वाले इलाकों को आंध्र प्रदेश में जोड़ दिया गया। कई प्रांतों में भाषा को लेकर दंगे तक हुए। मुंबई के महाराष्ट्र या गुजरात में जाने को लेकर जानें तक ली गईं। आज तेलंगाना आंध्र प्रदेश से मुक्ति चाहता है, और इसलिए फिर से जानें जा रही हैं।

हिंदी के राष्ट्र-गौरव की गाथा भी कुछ ऐसे ही फीकी पड़ रही है। ऐसा मान लिया गया कि हिंदी को सेवकों और सेवक संस्थाओं की बैसाखी चाहिए। कुछ लोग अपने परिचय में ‘हिंदी सेवी’ ऐसे लगाने लगे कि जैसे यह कोई बी.ए., एल.एल.बी. जैसा तमगा हो। सरकारी विभागों में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाने लगा। हिंदी दिवस भी मुकर्रर हुआ और हिंदी अफसरों के पद भी बने। इसी तर्ज पर उर्दू की तरक्की के लिए भी संस्थाएं बन गईं। हिंदी बढ़ाओ के साथ ही अंग्रेजी हटाओ के नारे लगने लगे।

इन नारों के शोर में सच की आवाज कहीं दब गई। लेकिन वह फिर भी अजीब से जामे में सामने आ खड़ा होता है। ऐसे कई हिंदी और उर्दू सेवी मिल जाएंगे जिनकी संतानें अंग्रेजी में ही बात करती हैं, लेकिन ऐसा कोई नहीं मिलता जो अंग्रेजी न जानता हो। केंद्र सरकार तो अंग्रेजी में ही काम करती है, चाहे वह संसद हो, न्यायपालिका हो या कार्यपालिका। जरूरत पड़ने पर उसका बेहद घटिया हिंदी अनुवाद किया जाता है। ऐसा कैसे हुआ कि सरकार के संरक्षण, प्रचार और बढ़ावे के बावजूद सरकार के ही बड़े हिस्से में हिंदी और उर्दू की जगह नहीं बची?

भाषा और राष्ट्रभक्ति की इस होड़ में भाषा के स्वभाव की अनदेखी होती है। कोई भी भाषा किसी पेड़ की तरह होती है। जमीन के ऊपर जो तना और शाखाएं दिखती हैं, कम से कम उतनी ही गहरी जड़ें जमीन के नीचे जाती हैं। किसी पेड़ की ही तरह जो दिखता है, उसका पोषण भी अदृश्य स्रोत से ही होता है। या शायद और ठीक उपमा है नदी की। किसी भी जगह पर नदी का पानी किसी ऊपरी इलाके से आता है, क्योंकि पानी सदैव नीचे ही बहता है। ऊपर जाने के लिए उसे भाप बनना पड़ता है, जिसके लिए सूरज जैसे विशाल हीटर की जरूरत होती है।

पानी इस्तेमाल करने वाले को पता नहीं होता कि उसका पानी हिमालय के किसी हिमनद के पिघलने से आया है या वह किसी के खेत में गिरी बारिश के पानी का रिसाव है। वह उस पानी को अपना संवैधानिक अधिकार भी मान सकता है, या देवताओं का प्रसाद भी। लेकिन नदियों की धारा किसी संविधान की धारा से नहीं बहती और न बादल मौसम विभाग के नीति निर्धारण या श्वेत पत्र की बाट जोहते हैं, बरसने के लिए। उनका धर्म तापमान, दबाव, हवाओं जैसे कारणों से तय होता है। बाजारवाद या साम्यवाद या समाजवाद या राष्ट्रवाद या किसी भी और वाद-विवाद से इन ताकतों पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता।

कई पहाड़ों, जंगलों और खेतों पर गिरी बारिश के पानी के संगम से नदियां बनती हैं। एक दूसरे से मिलकर ये नदियां बड़ी हो जाती हैं। सबसे बड़ी नदी वह होती है जिसका दूसरी नदियों से सबसे ज्यादा संयोग होता है। अगर सागर से उलटी गंगा बहाएं तो गंगा का स्रोत गंगोत्री भर नहीं होगा। यमनोत्री भी होगा, तिब्बत में ब्रह्मपुत्र का स्रोत भी होगा। दिल्ली और बनारस और पटना जैसे शहरों के सीवर से निकलने वाला पानी भी होगा। कहने को बनारस या पटना में गंगा विशाल नदी है, लेकिन वहां उसका पानी शिवजी की जटा से निकल कर नहीं आता है। वह बनारस के ही गटर की पैदावार होता है।

अगर हिन्दी और उर्दू और संस्कृत और फारसी को बड़ी भाषाएं माना जाए, तो यह तय है कि इनका संगम कई दूसरी भाषाओं से हुआ होगा। बल्कि जो लोग इन भाषाओं को करीब से जानते हैं, वे बताते हैं कि एक काल की संस्कृत या फारसी दूसरे काल की संस्कृत या फारसी से बहुत अलग थी। इन भाषाओं को लिखने के लिए अलग-अलग काल में अलग-अलग लिपियों का उपयोग हुआ।

अरबी बोलने वालों के राज में ईरान की भाषा अवेस्तन लिपि की बजाए अरबी लिपि में लिखी जाने लगी। अरबी में ‘प’ व्यंजन नहीं होता है और वे इसकी जगह ‘फ’ व्यंजन का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए ईरान के पार्स नामक इलाके में बोली जाने वाली पारसी भाषा को वे फारसी कहने लगे। अरबी के संयोग से फारसी अगर एक सिरे से टूटी तो समय के साथ एक नए सिरे से बनी भी। अगर किसी जुबान का दूसरी जुबानों से टकराना बंद हो जाता है तो उसका बढ़ना रुक जाता है। ठीक उस नदी के जैसे, जिसमें दूसरी नदियों का पानी मिलना बंद हो जाता है। उर्दू यह बात बखूबी बतलाती है। ‘उर्दू’ तुर्क भाषा का शब्द है और मतलब है इसका ‘तंबू’। मध्यकाल में सैनिक छावनियां तंबुओं में लगती थीं और उनमें कई इलाकों के सैनिक साथ रहते थे। तुर्क जुबान बोलने वालों का वास्ता होता बृज या अवधी या फारसी या अरबी या दूसरी कई भाषा बोलने वालों से। इस मुठभेड़ से एक नई भाषा तैयार हो गई, जिसमें व्याकरण तो था संस्कृत से जुड़ी भाषाओं का, पर जिसमें क्रियारूप संयोजन आया फारसी से और जिसमें शब्द भोजपुरी और अरबी से लेकर तुर्क और अवधी और न जाने कितनी भाषाओं के थे।

फिर उर्दू राज की भाषा बन गई। न जाने क्या कारण रहा होगा। शायद इसका संबंध इससे था की राज करने वालों का उन दिनों सेना और सैनिकों से गहरा लेन-देन था। इसके बाद उर्दू दरबार की भाषा बनी, और इसे सीखना सत्ता के खेल का हिस्सा बन गया। कई गजब के कवियों ने उर्दू में लिखा, पर धीरे-धीरे इसे पढ़े-लिखे, सुसंस्कृत लोगों की जुबान मान लिया गया। साधारण लोगों के काम आने वाली एक जीवंत बोली सत्ता की सीढ़ी चढ़कर किताबी भाषा बन गई।

आज कई लोगों को चिंता होती है कि उर्दू का चलन कम होने से वह गंगा-जमुनी तहजीब ही मिट जाएगी, जिसने हिंदू और मुसलमान समाजों को सौहार्द्र से रहना सिखाया। उन्हें यह भी लगता है कि इस भाषा के मिटने से वह सौहार्द्र भी मिट जाएगा। हो सकता है कि उनका डर सही हो। लेकिन यह भी हो सकता है कि जैसे उर्दू की पैदाइश ही साधारण लोगों के मेल-जोल से हुई वैसे ही कुछ दूसरी जुबानें भी खिल उठेंगी। उर्दू कोई अकेली तो नहीं है। उसकी कई बहनें हैं, कई रिश्तेदार भी।

भाषा की बातचीत में हिंसा का एक कारण यह भी है- अपनी भाषा के सम्मान के लिए दूसरों की भाषा को नीचा दिखाना। कुछ लोग ऐसा कहते मिल जाते हैं कि अमुक भाषा ही दूसरी सब भाषाओं की जननी है। इसके पीछे एक भाव असुरक्षा का भी होता है। जिसे अपनी संस्कृति के दबने का डर हो, वह उसे बढ़ाने के लिए आक्रामक भी हो सकता है। और ऐसे में झूठ-सच का भेद करने का विवेक जाता रहता है।

भाषा कोई पत्थर में जमा जीवाष्म नहीं है जिसका जन्म रेडियो-कार्बन पद्धति से तय करना पड़े, केवल यह सिद्ध करने के लिए कि पहले कौन आया। नदी की ही उपमा पर वापस लौटें। हमारे यहां कहा जाता है कि नदी का स्रोत और साधु की जात नहीं पूछी जाती। बोलियों का आपस में संबंध जननी और संतान का नहीं होता। बहनों का होता है। कोई बहन उमर में बड़ी होती है, कोई थोड़ी छोटी।

हिंदी की आज की दुर्गति का कारण ऐसे में दिखने लगता है। पहले से कहीं ज्यादा लोग आज हिंदी को अपनी मातृभाषा कहते हैं क्योंकि हिंदी राजभाषा है। वर्ना ऐसे कई परिवार आज छत्तीसगढ़ी या बुंदेलखंडी या अंगी को अपनी मातृभाषा बताते। अगर ऐसा होता तो हिंदी की नदी में मिलती कई नदियों का पानी दिखता। हिंदी का विराट रूप सब लोगों को एक सांचे में ढालने में नहीं है। यह भाषाई हिंसा होगी। हिंदी की भव्यता कई रूपों, कई ध्वनियों, कई तरह के लोगों को अपनाने में है। कई नदियों का पानी अपने में समाने देने में है।

सरकारी हिंदी का राजभाषाई रूप इसका ठीक उलटा करता है। वह लोगों पर यह दबाव बनाता है कि वे अपनीमातृभाषा छोड़ एक आई.एस.आई. मार्का हिंदी का ही उपयोग करें। यह कई तरह के लोगों पर अन्याय है। जिसे आज हिंदी का रूप माना जाता है, उसकी पहलीकिताब सन् 1803 में छपी थी। आज इस हिंदी का स्वरूप अनुवाद का हो चुकाहै। राज की असल भाषा तो अंग्रेजी है, पर उसकी जूठन का अनुवाद हिंदी में चलता है। आप पाएंगे कि कई ऐसे अखबारों में इस जूठी-झूठी हिंदी का धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है। ऐसे कुछ अखबार तो अपने आपको राष्ट्रीय दैनिक कहते हैं।

अंग्रेजी से हिंदी का लेन-देन तो होगा ही, जैसा कि सभी भाषाओं का होता रहता है। आज अंग्रेजी का चलन बढ़ रहा है तो इसलिए कि उसका सामना कई और भाषाओं से हुआ है। अंग्रेजी व्यापकता की भाषा बनती जा रही है। लेकिन अंग्रेजी की गांठ में दोयम दर्जे की अनुवादी हिंदी खड़ी करना समझदारी नहीं है। उस हिंदी में वह आत्मविश्वास नहीं हो सकता, जो सहज व्यवहार से आता है। यह सहजता ही मातृभाषा में अभिव्यक्ति का सार है। उसमें घरेलूपन, अपनापन होता है। वह असुरक्षा नहीं होती जो किसी और की भाषा से होड़ करने में आती है। हिंसा असुरक्षित लोगों का सहारा है। इसका मायने यह नहीं है कि दूसरी भाषाएं न सीखी जाएं। कई भाषाएं जानना सदा से विद्वता का लक्षण माना गया है। लेकिन बुनियादी शिक्षा तो मातृभाषा में ही हो सकती है। उस जुबान में जिसमें कोई मां अपनी संतान से बात करती है। चाहे वह भाषा हो या बोली।

हिंदी का इस्तेमाल करने का सबसे पुराना लिखित वाकया अमीर खुसरो का मिलता है, जो कहते थे कि वे हिंदवी में लिखते थे। उसके पहले भी अपभ्रंश के रूप में हिंदी के स्रोत के कुछ चिन्ह मिलते हैं। इस स्वरूप में देखें तो हिंदी भारत भर की भाषा हो सकती है। इसी रूप में हिंदी का इस्तेमाल मुंबई की फिल्मों में होता है। इसीलिए तो इतने लोग इन फिल्मों को देखते हैं। मोल चुका कर। इन फिल्मों को देखने के लिए सरकार से अनुदान कोई नहीं मांगता।

हिंदी की सेवा इसी में है कि उसकी बहनों का मान किया जाए। इस अहिंसक संस्कार के लिए किसी सरकारी विभाग या विश्वविद्यालय के भाषा अनुसंधान विभाग की जरूरत नहीं है। केवल अपनी भाषा में बोलने और लिखने का आत्म विश्वास फिर से वापस लाना होगा। अपनी दुनिया की बात अपने संदर्भ में करने का भी।

अगर हमने यह सब करने लायक काम नहीं किए तो बोलचाल की हिंसा, यह बोलती-चालती हिंसा थमेगी नहीं।

गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़कर जल-थल-मल विषय पर काम कर रहे श्री सोपान जोशी पर्यावरण और विज्ञान पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ के संपादक रह चुके हैं और वाशिंगटन पोस्ट जैसे कई जाने-माने पत्र, पत्रिकाओं, अखबारों में लिखते रहे हैं। अंग्रेजी में और हिंदी में भी उनके ताजे लेख इंटरनेट पोर्टल ‘याहू ओरिजिनल्स’ पर पढ़े जा सकते हैं। वे ‘मनसंपर्क’ शीर्षक की एक वेबसाइट भी चलाते हैं।

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