बस 1 रुपये में पियो महीने भर साफ पानी

यह मॉडल स्थानीय जल सुरक्षा समितियों पर आधारित है, जिसमें दो नए स्तर जोड़े गए हैं- एक ग्राम पंचायत के स्तर पर और दूसरा ब्लॉक स्तर पर। इसमे धन की भी जरूरत होगी क्योंकि पानी की गुणवत्ता की जांच खर्चीली प्रक्रिया है।

वनश्री बेरा और अलका जना सामान्य महिलाएं नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में पूर्व मेदिनीपुर जिले के चकरीमुलिया गांव की ये दोनों महिलाएं कुछ ही मिनटों में खराब ट्यूबवेल को ठीक कर सकती हैं। यह गुर उन्होंने पिछले लगभग दो दशकों के दौरान अपने अनुभव से सीखा है। उनके और इलाके के 57 परिवारों के लिए पेयजल का मुख्य स्रोत कम खर्च वाला एक हैंड पंप है जिसका रखरखाव करते-करते उन्होंने इसकी तकनीकी बारीकियां सीखी हैं। 90 के दशक के शुरुआती दौर में रामकृष्ण मिशन की ओर से संचालित गहन स्वच्छता कार्यक्रम के तहत बेरा और जना को ट्यूबवेल का 'केयरटेकर' बनाने के लिए प्रशिक्षित किया गया था।

तब मेदिनीपुर जिले का विभाजन नहीं हुआ था और रामकृष्ण मिशन संयुक्त राष्ट्र के बाल कोष की सहायता से 'डिमांड-ड्रिवन' मॉडल पर इस इलाके में पेय जल की आपूर्ति की व्यवस्था करने की कोशिश की गई। लेकिन वित्तीय संसाधनों की कमी के साथ-साथ अन्य मसलों की वजह से इस मॉडल में कई परेशानियां आईं और व्यापक तौर पर इसे लागू नहीं किया जा सका, हालांकि उस दौरान स्वच्छ पेय जल उपलब्ध कराने के लिए राज्य में 'यूजर पे' मॉडल अपनाया जा रहा था। बहरहाल चकरीमुलिया की जल सुरक्षा समिति और बेरा जैसी केयरटेकर ऐसा खाका तैयार करने की कोशिश में हैं जिसकी मदद से जल आपूर्ति का पुख्ता इंतजाम किया जा सके। रामकृष्ण मिशन लोकशिक्षा परिषद के निर्मल कुमार पटनायक समझाते हैं, 'हमने यह पाया कि गांवों में केवल पानी मुहैया कराना पर्याप्त नहीं है। बल्कि पानी की शुद्घता की जांच भी की जानी चाहिए और यदि जरूरी हो तो उपचार भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

लेकिन हमारे समक्ष सबसे बड़ी चुनौती स्थाई मॉडल विकसित करने की है, जो स्वतंत्र रूप से चलता रहे। इसके लिए हमें प्रणाली और धन की जरूरत है। इसलिए मिशन ने अपने पुराने प्रशासनिक मॉडल में सुधार लाकर इसे फिर से लागू करने का फैसला किया। यह मॉडल स्थानीय जल सुरक्षा समितियों पर आधारित है, जिसमें दो नए स्तर जोड़े गए हैं- एक ग्राम पंचायत के स्तर पर और दूसरा ब्लॉक स्तर पर। इसमे धन की भी जरूरत होगी क्योंकि पानी की गुणवत्ता की जांच खर्चीली प्रक्रिया है। एक नई प्रयोगशाला की स्थापना में 15-20 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं, जिसमें जमीन और भवन की लागत शामिल नहीं है। इसे संचालित करने की मासिक लागत तकरीबन 30,000 रुपये बैठती है। पटनायक कहते हैं, 'हमें एक ऐसे मॉडल की तलाश थी, जिसके तहत स्थानीय लोग बगैर बाहरी आर्थिक सहायता के स्वतंत्र रूप से और लंबे समय तक व्यवस्था को चलायमान रख सकें।'

इन चीजों को ध्यान में रखते हुए जो नया मॉडल बनाया गया उसके तहत पानी के कुछ खास स्रोतों का इस्तेमाल करने वाले प्रत्येक परिवार को हर महीने 1 रुपया खर्च करना होगा, ताकि पानी की गुणवत्ता पर नजर रखी जा सके। इस योजना का गणित बिल्कुल सीधा है। प्रति स्रोत जल गुणवत्ता की जांच पर सालाना तकरीबन 600 रुपये का खर्च आएगा, जिसमें रखरखाव और जीवाणु उपचार का खर्च शामिल है। यदि औसतन 50 परिवार हर महीने 1 रुपये चुकाएंगे, तो सालाना 600 रुपये इकट्ठे हो जाएंगे। पांच वर्षों के बाद यह राशि 3,000 रुपये हो जाएगी। इस राशि का निवेश किया जाएगा, जिससे सालाना 240 रुपये की अतिरिक्त आमदनी होगी।
 

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