बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति : जल संरक्षण के लिये ‘कुआँ पूजन’

30 Oct 2015
0 mins read
well worship
well worship

लोक संस्कृति मनुष्य को बेहतर बनाने का काम करती है यही वजह है कि सैकड़ों वर्षों से बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति में गर्भवती महिलाएँ बच्चा पैदा होने के सवा माह बाद जब घर से पहली बार निकलती हैं तो वह हिन्दूओं के देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा को नहीं जाती बल्कि ‘कुआँ पूजन’ को जाती है जिससे आने वाली पीढ़ी जल के महत्त्व को समझे। यह बात जालौन जिले के मुख्यालय उरई में आयोजित राष्ट्रीय लोक कला महोत्सव में आये माधवराव सप्रे संग्रहालय भोपाल के संस्थापक पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर ने साक्षात्कार के दौरान कही।

उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि लोक संस्कृति ने नदियों के संरक्षण को तय किया था कि नदी के दोनों ओर 150-150 हाथ तीर तथा 1000 धनुष दायरे में कोई भी मानवीय कृत्य नहीं किया जाय। लोक संस्कृति के बनाएनियमों पर यदि मनुष्य चला होता तो उच्चतम न्यायालय को आदेश न देना पड़ता कि नदी के दोनों ओर 500-500 मीटर के दायरे में कोई निर्माण कार्य करना अपराध होगा।

लोक संस्कृति ही ने हमें सिखाया था कि किसी भी नदी नाले सर गुजरें उसमें कुछ सिक्के अवश्य डालें क्योंकि उस दौरान तांबे के सिक्के हुआ करते थे जो पानी को शुद्ध करते थे। हमने नदियों को पूजना छोड़ दिया है।उन्होंने बताया कि जब हम अपने बेटे की शादी करते हैं और बहू को घर लाते हैं उस दौरान जो भी नदी मिलती है नदी को पूजते हैं और वहाँ नारियल तोड़कर चढाते हैं। लोक संस्कृति ने नदियों के प्रति सम्मान करना सिखाया जिससे धरोहर को सहजता के साथ संजोया जा सके। उन्होंने कहा कि जंगल और पहाड़ का वर्षा से गहरा रिश्ता है। यदि जंगल काटे जाएँगे और पहाड़ों का खनन होगा तो इसके प्रभाव से वर्षा चक्र अनियंत्रित हो जाएगा। नदियों से बालू का खनन भी नदियों के लिये घातक है। जिस तरह से मनुष्य के शरीर में फेफड़ा कार्य करता है उसी तरह बालू नदियों के फेफड़ों का काम करती है। नदियों का पानी शुद्ध रखने को खनन पर सख्ती से रोक लगना चाहिए।

एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि सब कुछ सरकारें ही करें ये सम्भव नहीं है हम अधिकार के प्रति तो चैतन्य हैं कर्तव्यों की ओर ध्यान नहीं देते। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र यथा प्रजा तथा राजा होता है। जनता को स्वयं तय करना है कि हम भविष्य के लिये कैसा भारत छोड़ें। सरकार मुफ्तखोर बना रही है जनता का खजाना चैरिटी के लिये नहीं होता है। सरकारों ने जनता को सुविधा भोगी बनाकर संघर्ष की रीढ़ तोड़ दी है। बार-बार धोखे होने के कारण भी जनआन्दोलन धराशाई हो गए हैं।

उन्होंने कहा कि नगरीय संस्कृति मनुष्यता को बचाने में कारगर नहीं है हमें लोक संस्कृति पर ही काम करना होगा। ग्रामीण क्षेत्रो में काम कर रहे पत्रकारों को जल संरक्षण जैसे मुद्दों पर विशेष ध्यान देना होगा। लोक संस्कृति यदि बची रही तो मनुष्यता बची रहेगी।
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading