बूँदों से जुड़ा शिक्षण

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विश्व साक्षरता दिवस 08 सितम्बर 2015 पर विशेष


पानी संचय प्रणाली और तकनीकें अब सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए- इस भाव को गाँव-गाँव और जन-जन तक फैलाने के लिये जरूरी है कि समाज में इस तरह का वातावरण निर्मित किया जाये। इस वातावरण निर्माण के लिये यह आवश्यक है कि पानी संचय के प्रति जागरुकता को और विस्तारित किया जाये।

इसके लिये ‘पानी-शिक्षण’ (वाटर एजुकेशन) को एक आन्दोलन के रूप में समाज के बीच ले जाना पड़ेगा। एक ऐसा आन्दोलन जिसमें हर वर्ग, हर भूगोल, हर जन, हर उम्र की भागीदारी हो। हम यदि पानी संचय के क्षेत्र में आत्मनिर्भर और सम्मान की जिन्दगी के सपने देखते हैं तो इसकी बुनियाद में इस तरह के पानी शिक्षण की नितान्त आवश्यकता है।

पानी शिक्षण केवल पानी संचय के प्रति जिज्ञासा और लगाव पैदा करना और इनसे जुड़े सवालों के समाधान खोजना भर नहीं है वरन् यह समग्र तौर पर प्राकृतिक संसाधनों के प्रति समाज के हर वर्ग और श्रेणी में अनुराग भाव पैदा करना है। पानी परिवार के हँसते-खेलते परिजन यानी नदियाँ, तालाब, कुण्ड, कुएँ, बावड़ियाँ, चौपड़े, समुद्र, पर्वत, जंगल, गुफाएँ, झीलें आदि सभी संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन की बातें भी इसमें शामिल होनी चाहिए।

पानी का अपना एक चक्र होता है। उसकी अपनी एक यात्रा होती है। बादलों से बरसी बूँदें खेत, छापरे, नाले, नदियाँ, झरने, तालाब, कुंड, कुएँ आदि से होते हुए वह समुद्र में मिलती है। कभी पर्वत इसे अपनी कोख में रोके रहते हैं, कभी घास के तिनके से लेकर विशाल वट वृक्ष तक इन नन्हीं और शोख-चंचल बूँदों को रुकने की मनुहार करते हैं।

कभी वह धरती के गर्भ में पहुँचकर ‘भूजल’ के रूप में पहचानी जाती है। दरअसल बूँदों के इसी सफर और अन्य सभी प्राकृतिक संसाधनों के साथ इनके आत्मीय रिश्तों के शास्त्र को जानना-समझना और समग्र समाज के लिये इनका उपयोग, इन्हीं सब के इर्द-गिर्द रहना चाहिए- पानी शिक्षण।

पानी- धर्म और दर्शन का भी बिन्दु है। महाकवि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के अरण्य काण्ड और वेदव्यास जी ने श्रीमद् भागवत महापुराण के एकादश स्कन्ध में पानी के व्यवहार और मानव जिन्दगी के बीच तुलनात्मक अध्ययन कर एक रोचक फिलॉसफी समाज के सामने प्रस्तुत की है।

बादलों के बीच बिजली का चमकना, बूँदों का पर्वतों पर गिरना, तालाबों का धीरे-धीरे भरना, थोड़ी बरसात में पहाड़ी नदियों का तेज वेग से बहना, खेतों की मेड़ों का बरसात के पानी से टूट जाना और वर्षा ऋतु में मेंढकों की टर्र-टर्र जैसी अनेक बातें हमारी जिन्दगी से साम्य रखती है। इन रचनाकारों ने सदियों पहले हमें प्रकृति से शिक्षण पर विषय देना प्रारम्भ कर दिये थे। उनका सोच विशाल था।

सम्भवत: यही कारण रहा है कि भगवान श्री कृष्ण ने जो 24 गुरू बनाए हैं उसमें भी उन्होंने समस्त प्राकृतिक संसाधनों को शामिल किया है।

भारत की इस प्राचीन परम्परा को और आगे बढ़ाना है। हमारा बचपन प्रकृति से कट रहा है। पानी व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के प्रति बच्चों को प्रकृति के निकट ले जाकर हमें उन्हें यह बताना पड़ेगा कि जीवन के लिये प्रकृति कितनी जरूरी है और जब हम इसकी उपेक्षा करते हैं तो हमारा जीवन कितना संकटमय होता जाता है।

आज शहरों और महानगरों के बच्चों का जब पानी से वास्ता होता है तब परिचय के रूप में घर में लगा नल ही सामने आता है। लेकिन इस नल में हमें पानी कहाँ से मिलता है? कैसे मिलता है? इस दृष्टिकोण के साथ यदि बच्चों को शहर के मूल जलस्रोत, तालाब, नदी, झील आदि से परिचय कराया जाये तो वे बहुत लड़कपन से प्राकृतिक संसाधनों की महत्ता जान सकेंगे। इसमें उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इनका संरक्षण और संवर्धन क्यों जरूरी है। यदि ये संसाधन नहीं होंगे तो हम भी नहीं होंगे।

पानी का अपना एक चक्र होता है। उसकी अपनी एक यात्रा होती है। बादलों से बरसी बूँदें खेत, छापरे, नाले, नदियाँ, झरने, तालाब, कुंड, कुएँ आदि से होते हुए वह समुद्र में मिलती है। कभी पर्वत इसे अपनी कोख में रोके रहते हैं, कभी घास के तिनके से लेकर विशाल वट वृक्ष तक इन नन्हीं और शोख-चंचल बूँदों को रुकने की मनुहार करते हैं। कभी वह धरती के गर्भ में पहुँचकर ‘भूजल’ के रूप में पहचानी जाती है।

पर्वत, जंगल, नदियाँ आदि सभी संसाधनों को शैक्षणिक भाव के साथ देखने की जरूरत है। यह हर वर्ग के लिये होना चाहिए। प्राथमिक, माध्यमिक से लेकर पोस्ट ग्रेजुएट और शोध स्तर तक विद्यार्थियों को प्राकृतिक संसाधनों को देखने, जानने और समझने के प्रयोग करवाते रहना चाहिए। इसे अनिवार्य भी किया जाये तो यह भारत के भविष्य के लिये अच्छी पहल होगी।

इसमें कृषि और खासतौर पर जैविक खेती को भी शामिल किया जाना चाहिए। वन विभाग की नर्सरियों से भी विद्यार्थियों को रूबरू कराना चाहिए। उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि कैसे एक नन्हा सा बीज पाँच इंच ज़मीन के भीतर रहकर ओलावृष्टि, अवर्षा, अतिवृष्टि, तेज गर्मी, धूप, कड़ाके की ठंड सहन करते हुए एक घने जंगल में तब्दील हो जाता है।

हमारे देश की परम्परागत जल प्रणालियों को भी प्रयोगशाला के तौर पर लेना चाहिए। उदाहरण के तौर पर म.प्र. के मांडव और राजस्थान के चित्तौड़गढ़ किलों का जल प्रबन्धन, शैक्षणिक कोर्स में शामिल होना चाहिए। पर्यावरण- अनेक कोर्स में फिलहाल शामिल है, लेकिन इसका व्यवहारिक पक्ष अभी अध्ययन से दूर है-इसे भी शामिल करना चाहिए।

पर्यावरण शिक्षण पर एक संस्मरण ताजा हो रहा है। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर के विद्यार्थियों के एक समूह को मुझे प्राकृतिक संसाधनों की ‘गंगोत्री’ माने जाने वाले वन विभाग के एक केन्द्र पर ले जाने का अवसर आया। यह इन्दौर जिले का बड़गोंदा था।

यहाँ विद्यार्थियों को विषय विशेषज्ञों ने जल, जंगल, मिट्टी, कृषि प्रबन्धन के गुर बताए, व्यवहारिक प्रयोगों के साथ। विद्यार्थीगणों ने बहुत रुचि के साथ इसे देखा, जाना और समझा। यहाँ एक गीत बज रहा था जिसे मुख्य वन संरक्षक डॉ. पंकज श्रीवास्तव ने लिखा था। विद्यार्थी इसे आज भी विश्वविद्यालय के कैम्पस में गुनगुनाते रहते हैं-

छोड़ो किताबों को जंगल में आओ!
किताबों के पन्नों से बाहर निकल कर
जरा जिन्दगी का मधुर गीत गाओ
कभी बारिशों में बिना छतरियों के
बाहर निकलकर यूँ छीटें उड़ाओ
बिना बन्धनों की पहाड़ी नदी सा
कभी फैल जाओ, कभी छलछलाओ
झरनों में भीगो, नदीं में नहाओ
छोड़ो किताबों को जंगल में आओ!


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