भागलपुर : गंगा आस्था के साथ आजीविका का सवाल

13 Mar 2015
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Ganga
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भागलपुर में गंगा का पाट जितना ज्यादा चौड़ा है, उसके हिसाब से न यहाँ कोई पर्यटन स्थल विकसित किया गया और न ही शोध तथा अध्ययन के केन्द्र विकसित किए गए। राजीव गाँधी के कार्यकाल में भीमकाय गंगा एक्शन प्लान का कुछ भी लाभ यहाँ नहीं दिखता है। अपनी पूर्व जगह और घनी आबादी को छोड़कर दूर जाकर बहने के कारण गंगा स्थानीय लोगों के आँखों से ओझल होते गई। इस कारण गंगा और उसके किनारों को सुन्दर बनाना तो दूर इसकी सफाई के लिए स्थानीय लोग सचेत नहीं रह सके। गंगोत्री से बहने वाली गंगा भागलपुर में कई दृष्टि से महत्वपूर्ण हो जाती है। इसी भागलपुर के सुल्तानगंज में गंगा जाह्नवी ऋषि के आचमन कर लेने के कारण लुप्त हो गई, वहीं फिर भगीरथ प्रयास से उत्तरवाहिनी गंगा के रूप में विख्यात हुई दक्षिण की ओर बहकर त्रिशुल का आकार बनाती है। कहा जाता है कि स्वर्ग त्रिशुल पर टिका है। इस त्रिशुल को शिव के प्रति समपर्ण के भाव के रूप में लिया जाता है। तभी तो सुल्तानगंज अजगैवीनाथ के रूप में विख्यात है, यहाँ से गंगा का जल भरकर काँवर लिये हर साल लाखों की संख्या में शिवभक्त देवघर स्थित बाबा वैद्यनाथ पर जलाभिषेक करते हैं।

गंगा के कारण ही नाविकों, पण्डों और अनेक समुदायों का रोजगार है। भागलपुर में गंगा की मौजूदगी की वजह से यहाँ की संस्कृति विकसित हुई। धर्म के केन्द्र भी विकसित हुए और साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी संचालित हुईं, लेकिन फरक्का में बराज और कहलगाँव में एन.टी.पी.सी के कारण न केवल सदियों से कायम गंगा का भूगोल छिन्न-भिन्न हो गया, बल्कि साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक गतिविधियाँ लुप्त हो गई। इसके अलावा मछुआरे,गंगोते, मल्लाह और किसान भी संकट के ग्रास बन गए।

भागलपुर में गंगा का पाट जितना ज्यादा चौड़ा है, उसके हिसाब से न यहाँ कोई पर्यटन स्थल विकसित किया गया और न ही शोध तथा अध्ययन के केन्द्र विकसित किए गए। राजीव गाँधी के कार्यकाल में भीमकाय गंगा एक्शन प्लान का कुछ भी लाभ यहाँ नहीं दिखता है। अपनी पूर्व जगह और घनी आबादी को छोड़कर दूर जाकर बहने के कारण गंगा स्थानीय लोगों के आँखों से ओझल होते गई। इस कारण गंगा और उसके किनारों को सुन्दर बनाना तो दूर इसकी सफाई के लिए स्थानीय लोग सचेत नहीं रह सके। अलबत्ता वर्षों से दो जमींदार महाशय महेश घोष और मशर्रफ हुसैन प्रमाणिक की गुलाम बनी 80 किलोमीटर की गंगा मुक्ति के लिए एक अनूठा आन्दोलन खड़ा हो गया।

सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जलकर जमींदारी थी। यह जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी। सुल्तानगंज से बरारी के बीच जलकर गंगा पथ की जमींदारी महाशय घोष की थी। बरारी से लेकर पीरपैंती तक मकससपुर की आधी-आधी जमींदारी क्रमशः मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल के मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक और महाराज घोष की थी।

हैरत की बात तो यह थी कि जमींदारी किसी आदमी के नाम पर नहीं बल्कि देवी-देवताओं के नाम पर थी। ये देवता थे श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी एवं अन्य। कागजी तौर जमींदार की हैसियत केवल सेवायत की रही है। सन् 1908 के आसपास दियारे के जमीन का काफी उलट-फेर हुआ। जमींदारों के जमीन पर आए लोगों द्वारा कब्जा किया गया। किसानों में संघर्ष का आक्रोश पूरे इलाके में फैला। जलकर जमींदार इस जागृति से भयभीत हो गए और 1930 के आसपास ट्रस्ट बनाकर देवी-देवताओं के नाम कर दिया।

जलकर जमींदारी खत्म करने के लिए 1961 में एक कोशिश की गई भागलपुर के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने इस जमींदारी को खत्म कर मछली बन्दोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाल दी।

मई 1961 में जमींदारों ने उच्च न्यायालय में इस कार्रवाई के खिलाफ अपील की और अगस्त 1961 में जमींदारों को स्टे ऑडर मिल गया। 1964 में उच्च न्यायालय ने जमींदारों के पक्ष में फैसला सुनाया तथा तर्क दिया कि जलकर की जमींदारी यानी फिशरिज राइट मुगल बादशाह ने दी थी और जलकर के अधिकार का प्रश्न जमीन के प्रश्न से अलग है। क्योंकि जमीन की तरह यह अचल सम्पत्ति नहीं है। इस कारण यह बिहार भूमि सुधार कानून के अन्तर्गत नहीं आता है।

बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और सिर्फ एक व्यक्ति मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को पार्टी बनाया गया। जबकि बड़े जमींदार मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को छोड़ दिया गया। 4 अप्रैल 1982 को अनिल प्रकाश के नेतृत्व में कहलगाँव के कागजी टोला में जल श्रमिक सम्मेलन हुआ और उसी दिन जलकर जमींदारों के खिलाफ संगठित आवाज उठी।

ग्यारह वर्षों के अहिंसक आन्दोलन के फलस्वरुप जनवरी 1991 में बिहार सरकार ने घोषणा की कि तत्काल प्रभाव से गंगा समेत बिहार की नदियों की मुख्यधारा तथा इससे जुड़े कोल ढाव में परम्परागत मछुआरे नि:शुल्क शिकारमाही कर सकेंगे। इन जलकरों की कोई-कोई बन्दोबस्ती नहीं होगी।

सभी मछुआरों को पहचानपत्र बनाकर सरकार देगी। नायलोन के बड़े जाल से मछली पकड़ने तथा विस्फोटकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल को प्रतिबन्धित किया गया। 39 पुराना आन्दोलन जमीन पानी के सामन्ती रिश्ते के साथ- साथ प्रदूषण, विकास के विनाशकारी मॉडल और गंगा पर आश्रित समुदाय के अस्तित्व की लड़ाई है। फरक्का का सवाल आज भी चीख रहा है। गडकरी ने बैराज बनाकर तटों के निर्माण और पर्यटन के लिए विकास की योजना भले ही बनाई हो, लेकिन इस पर सवाल उठने लगे हैं।

1975 में फरक्का बैराज बना। यह गंगा पर आश्रित समुदाय के लिए तबाही वाला सिद्ध हुआ। सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन से जुड़े शहर के प्रसिद्ध समाजसेवी रामशरण बताते हैं कि जबसे यह बैराज बना है, गंगा से सिल्ट निकलने की प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। इससे सहायक नदियाँ भी प्रभावित हुईं। नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव एवं बाढ़ की तीव्रता बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, फरक्का के कारण मछलियों का प्रजनन भी कम हो गया है।

हिल्सा और झींगा सहित मछलियों की दर्जनों प्रजातियाँ लुप्त हो गईं। गंगा तथा सहायक नदियों में अस्सी फीसद मछलियाँ समाप्त हो गई हैं जिससे मछुआरों का जीवन भी प्रभावित हुआ है। फरक्का बनने से पहले गंगा में पर्याप्त अण्डा- जीरा उपलब्ध था। लोग बड़े बर्तन में पानी रखकर दूसरी जगह ले जाते थे। आज स्थिति विपरित है। यहाँ वर्तमान सरकार द्वारा बनने वाले प्रस्तावित बैराज को लेकर विरोध है।

एक ओर तो सरकार ने गंगा समेत सभी नदियों में परम्परागत मछुआरों की शिकारमाही के लिए करमुक्त कर दिया और दूसरी ओर बिहार सरकार ने इस क्षेत्र को 60 किलोमीटर को डॉल्फिन अभ्यारण घोषित किया है। इसके तहत जो राष्ट्रीय कानून बने हुए हैं उसमें मानव की गतिविधि प्रतिबन्धित है।

गंगा के किनारे भागलपुर में बसे तकरीबन एक हजार से ज्यादा परिवारों के जीवनयापन का आधार नि:शुल्क शिकारमाही है। गंगा मुक्ति आन्दोलन से जुड़े उदय का कहना है कि एक गंगा में नि:शुल्क शिकारमाही और दूसरी ओर डॉल्फिन अभ्यारण दोनों में विरोधाभास है। सरकार की नीति पारम्परिक मछुआरों के पक्ष में नहीं है। चाहे परिचय पत्र देने का मामला हो या अन्य वह कॉपरेटिव लॉबी के पक्ष में है।

वहीं सुल्तानगंज से कहलगाँव के बीच 60 किलोमीटर तक फैले गंगेय क्षेत्र को 1990-91 में विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन अभयारण्य घोषित किया गया, लेकिन इसके संरक्षण के प्रति आरम्भ में सरकार की दिलचस्पी नहीं थी। विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन अभयारण्य में गंगा नदी की पारिस्थितिकी एवं नदी की जैव विविधता संरक्षण के लिए कार्यरत प्रो. सुनील कुमार चौधरी का कहना है कि इस सेंचुरी में डॉल्फिन की संख्या लगातार कम हो रही थी। उसके शिकार हो रहे थे। पटना हाईकोर्ट द्वारा मरे हुए डॉल्फिन की तस्वीर को देखकर मामले को स्वत: संज्ञान में लिया। उसके बाद डॉल्फिन मैनेजमेंट प्रोग्राम बना। स्थानीय लोग वन्यजीव अधिनियम से वाक़िफ़ नहीं थे। जागरुकता अभियान के फलस्वरूप गंगा में डॉल्फिन की संख्या बढ़ी हैं। वर्तमान में 207 के करीब डॉल्फिन हैं।

दरअसल में डॉल्फिन के शिकार करने के पीछे उसका तेल निकाल कर कमाई करने का स्वार्थ है। इसके तेल का इस्तेमाल मछली मारने के लिए विशेष प्रकार के चारा तैयार करने में होता है। एक डॉल्फिन में 15 से 20 लीटर तेल निकलता है और बाजार में महंगी है। इसकी चरबी से कामोत्तेजक दवाई बन रही है।

औद्योगिकरण की भूख तथा सुख-समृद्धि की तृष्णा न केवल गंगा की सांस्कृतिक विरासत को ठेस पहुँचा रही है, अपितु उसके अमृत जल को भी दूषित कर रही है। कहलगाँव के एनटीपीसी का गर्म पानी नदी में गिरना और मछलियों का मरना यहाँ लोगों के बीच आम चर्चा है। रामपूजन कहते हैं कि उड़ने वाली राख ने फसल को चौपट कर दिया। चने की फसल के लिये प्रसिद्ध क्षेत्र का फसल चौपट हो गया। भागलपुर में बरारी से लेकर बूढ़ानाथ मन्दिर तक के घाटों पर नाले का गन्दा पानी गंगा में गिर रहा है।राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने हाल में एक शीर्ष स्तरीय बैठक में गंगा में डॉल्फिन के संरक्षण कार्यक्रम को मंजूरी दे दी है। यह कार्यक्रम दो चरणों में पूरा होगा। पहले चरण में गंगा और सहायक नदियों में डॉल्फिनों की गिनती की जाएगी। दूसरे चरण में सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से डॉल्फिनों को बचाने का काम किया जाएगा। बिहार में भी 75.60 लाख रुपए की लागत से डॉल्फिन की गिनती की जाएगी।

बिहार के विक्रमशिला में गंगा डॉल्फिन अभयारण्य में भी सरकार ने इनके संरक्षण के लिए एक करोड़ से अधिक की योजना को मंजूरी दी है। विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन अभयारण्य में गंगा नदी की पारिस्थितिकी एवं नदी की जैव विविधता संरक्षण के लिए कार्यरत प्रो. सुनील कुमार चौधरी का कहना है कि राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय आयामों को नदी मत्स्य की प्रबन्धन सेे जोड़े बिना नदी का या नदी की जैव विविधता का संरक्षण मुमकिन नहीं है।

गंगा क्षेत्र की अहम समस्या अपराधियों का आतंक है। गंगा मुक्ति आन्दोलन की लम्बी लड़ाई के बाद मछुआरों को गंगा में मुक्त शिकारमाही (फ्री फिसिंग) का अधिकार मिला। डॉ योगेन्द्र बताते हैं कि मुक्त शिकारमाही का सहारा लेकर गंगा में अपराधियों का प्रवेश हुआ। वे कोल-ढाव पर कब्ज़ा करने लगे। जहाँ-तहाँ उन्होंने घेराबाड़ी लगाया।

पुलिस अक्सर उन पर कार्रवाई नहीं करती, क्योंकि उनसे उनका गँठजोड़ हो जाता है। गंगा मुक्ति आन्दोलन ने गंगा में पुलिस-पेट्रोलिंग की माँग की, लेकिन उसे अनसुना किया गया। भागलपुर के गंगा दियारे में वैसे भी अपराधी बेखौफ रहते हैं और उन्हें राजनैतिक संरक्षण भी प्राप्त है। अपराधियों ने प्रति नाव पर एक खास राशि भी निर्धारित कर दिया।


भागलपुर में गंगा क्षेत्र में एक दर्जन से ज्यादा सक्रिय अपराधी गिरोह हैं। गंगा की डूब से निकली जमीन के कब्जे से लेकर फसल कटाई में वर्चस्व को लेकर इनकी बन्दूकें गरजती हैं। अपराध नियन्त्रण में जब पुलिस नाकामयाब रही तो वर्षों पहले यहाँ आॅपरेशन गंगा जल चला। इस काण्ड को फिल्म निदेशक प्रकाश झा ने 'गंगाजल' फिल्म में दिखाया है।

औद्योगिकरण की भूख तथा सुख-समृद्धि की तृष्णा न केवल गंगा की सांस्कृतिक विरासत को ठेस पहुँचा रही है, अपितु उसके अमृत जल को भी दूषित कर रही है। कहलगाँव के एनटीपीसी का गर्म पानी नदी में गिरना और मछलियों का मरना यहाँ लोगों के बीच आम चर्चा है। रामपूजन कहते हैं कि उड़ने वाली राख ने फसल को चौपट कर दिया। चने की फसल के लिये प्रसिद्ध क्षेत्र का फसल चौपट हो गया। भागलपुर में बरारी से लेकर बूढ़ानाथ मन्दिर तक के घाटों पर नाले का गन्दा पानी गंगा में गिर रहा है।

सबसे खराब स्थिति बरारी के पिपलीधाम, खिरनीघाट, आदमपुर में हथिया नाला का सड़ा हुआ बजबजाता पानी गिरता है। शहर के गन्दे पानी का उपचार कर गंगा में बहाने के मकसद से दो दशक पहले साहेबगंज के पास सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण हुआ। इससे प्रतिदिन 11 मिलियन लीटर गन्दे पानी काउपचार होना था। लेकिन हकीकत यह है कि प्लांट केवल नाम का रह गया है।

खुलेआम शहर के नाले का गन्दा पानी बिना उपचार किए ही गंगा में गिर रहा है। चार करोड़ की लागत से बने इस प्लांट की हालत खराब हो गई है। पाँच पम्प में से दो खराब हैं तो छह एरिएटर में केवल चार ही काम के लायक है। राजीव गाँधी ने गंगा एक्शन प्लान के तहत गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाने की योजना 1985 में बनाई थी। भागलपुर में दूसरे चरण में 1993 में इस दिशा में पहल हुई।

सालभर के अन्दर प्लांट बनकर तैयार हो गया। गंगा की धारा की विपरीत दिशा में तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के बगल में साहेबगंज में प्लांट का निर्माण हुआ, जबकि बरारी के आसपास उसे बनाया जाना चाहिए था। साहेबगंज में प्लांट बनाए जाने की वजह से शहर के नाले का गन्दा पानी वहाँ नहीं पहुँच पाता है। गंगा व डॉल्फिन पर काम कर रहे डॉ. सुनील चौधरी ने बताया कि गंगा एक्शन प्लान के तहत बने सीवेज प्लांट बेकार पड़े हैं और दूसरी तरफ गंगा प्रदूषित हो रही है।

गंगा के किनारे प्रतिदिन सैकड़ों शवों को जलाने के साथ शवों को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। भागलपुर में भी एक दशक पहले विद्युत शवदाह गृह का निर्माण किया गया था।

गंगा सफाई अभियान के तहत मोक्षदायिनी के किनारे स्थापित एक दशक पहले बने विद्युत शवदाह गृह बन्द पड़ा है। दो माह पूर्व एक समारोह में भाग लेने आए बिहार सरकार के नगर विकास मन्त्री सम्राट चौधरी ने विद्युत शवदाह गृह की मरम्मत करने का आश्वासन खुले मंच से दिया था।

मन्त्री जी के आश्वासन देने के बावजूद इसमें अब तक किसी तरह की न तो सरकार के तरफ से और न ही जिला प्रशासन और न ही नगर निगम की और से कोई पहल की गई है। क्षेत्र में पड़ने के बावजूद नगर निगम प्रशासन ने अपनी कार्य योजना में इसे शामिल नहीं किया है।

विद्युत शवदाह गृह का निर्माण नब्बे के दशक में किया गया था और 1 सितम्बर 1998 से इसे चालू किया गया था, लेकिन कुछ साल के बाद यह बन्द हो गया। 2003 में गंगा में बाढ़ आने के बाद कुछ हिस्सा ढह भी गया, लेकिन न ही इसकी मरम्मत हुई और न ही जीर्णोंद्धार। मामले में मेयर दीपक भुवनिया ने नई जमीन तलाश कर फिर से इस विद्युत शवदाह गृह के निर्माण की आवश्यकता जताई तो डिप्टी मेयर डॉ. प्रीति शेखर ने राज्य सरकार और जिला प्रशासन के उदासीन रवैये को बदहाली का कारण करार दिया।

भागलपुर में गंगा अनेक सभ्यताओं तथा संस्कृतियों के विकास का साक्षी रही हैं। सुल्तानगंज के पास खुदाई के क्रम में भगवान बुद्ध की प्रतिमा मिली, जो बर्विगधम के म्यूजियम में शोभायमान है। इसके आगे चम्पानगर में जैनधर्म के बारहवें तीर्थंकर भगवान बासुपूज्य की पंचकल्याण्क भूमि है।

शहर गंगा तट पर ही हजरत पीर मकदूम साहब का मकबरा, बाबा बूढ़ानाथ का मन्दिर, कुप्पा घाट में महर्षि मेहि का आश्रम है। पालवंशीय राजा कहलगांव के निकट अन्तीचक में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। गंगा को ही केन्द्र में रखकर सुल्तानगंज के बनैली स्टेट द्वारा 'गंगा' पत्रिका शुरू की गई, जिसके सम्पादक आचार्य शिवपूजन सहाय बनाए गए। शरतचन्द का श्रीकान्त में गंगा के तट और उसकी लहरों की चर्चा है। आवारा मसीहा के सर्जक विष्णु प्रभाकर ने भी गंगा के सौदर्यबोध को उकेरा है। सत्यजीत रॉय की चर्चित फिल्म ' पाथेर पंचाली' के लेखक विभूतिभूषण गंगोपाध्याय के आर्कषण का केन्द्र भी गंगा रही है।

अनेक गौरवगाथाएँ इसके तट पर लिखी गई। रामपूजन कहते हैं कि लौटा दो नदियाँ हमार।

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