भारत का जल संकट

16 Sep 2008
0 mins read
जल योद्धा नित्या जैकब
जल योद्धा नित्या जैकब

नित्या जैकब के साथ फ्रेडरिक नोरोंहा की बातचीत

पूर्व बिजनेस और पर्यावरणीय पत्रकार नित्या जैकब ने भारतीय उपमहाद्वीप में पानी पर आधारित एक पर्यावरणीय यात्रा वृतांत लिखने जैसा अद्भुत काम किया है।

दिल्ली के रहने वाले इस लेखक ने अपने अनुभव से यह देखा कि अधिक पानी और जल प्रबंधन की विश्व में सबसे अधिक परंपराओं में से एक होने के बावजूद भी भारत में जल संकट बहुत गंभीर है।

जैकब की नई पुस्तक का नाम जलयात्रा : एक्सप्लोरिंग इण्डियाज ट्रेडिशनल वाटर मैनेजमैंट सिस्टमस्'' है। इस पुस्तक मे उन्होंने लिखा है कि भारत के पांच हजार वर्षों के ज्ञान ने भारत को विश्व के धनी देशों में से एक बनाया और अब उसे नजरअंदाज कर दिया गया है और यही संकट के मुख्य कारणों में से एक है।

इसी संदर्भ में नित्या जैकब के साथ बातचीत कर रहे हैं फ्रेडरिक नोरोंहा

पुस्तक को आप किस रूप में देखते हैं?

यह पुस्तक एक यात्रा वृतांत है जो विभिन्न स्थानों, पानी और समाज के बीच संबंधों को दर्शाती है। पुस्तक में स्थानीय पर्यावरण और समाज की जरूरतों को दिखाया गया है। ऐसा इसलिए है कि स्थानीय जनसंख्या की स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जल प्रबंधन किया जा सके। कभी-कभी पानी संबंधी कार्य लोगों को रोजगार देने के लिए भी किए जाते थे लेकिन ऐसा तब किया जाता था जब खेती और मानवीय उपभोग के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध हो। यह पुस्तक भारत में धर्म और संस्कृति के साथ पानी के संबंध को दर्शाती है।

आपने पानी को ही क्यों चुना?

जीवन पानी से ही शुरू होता है और हमें इसकी हर काम में जरूरत पड़ती है- पीना, खाना, सांस लेना, नहाना, खेती, निर्माण, सभी इसमें शामिल हैं। यह जीवन के चार बलों के समान है लेकिन हम इसका सम्मान नहीं करते और मैं इसे बदलना चाहता था।

किस चीज ने आपको यह कार्य करने के लिए प्रेरित किया?

वाराणसी में गंगा नदी से पानी लेते हुएवाराणसी में गंगा नदी से पानी लेते हुए मैं पिछले कई सालों से पर्यावरण पर लिख रहा हूं और ''डाउन टू अर्थ'' (भारत की प्रमुख पर्यावरणीय पत्रिका) में काम के दौरान मैंने भारत में पानी के स्रोतों की विविधता की झलक देखी। इस दौरान मैं अनेक लोगों के संपर्क में रहा जो पानी पर काम कर रहे थे, जिसमें राजेंद्र सिंह और रमेश पहाड़ी शामिल हैं जिनका उल्लेख पुस्तक में भी किया गया है। उनसे मैंने जल की सदियों पुरानी संरचनाओं और लोगों द्वारा पानी का आदर किया जाना और सावधानी से इसके प्रयोग के बारे में सुना। इस विविधता से मै इतना प्रेरित हुआ कि मैंने पेंग्विन में काम करने वाले अपने एक मित्र कार्तिक को इस बारे में बताया। जिसने मुझे यह पुस्तक लिखने के लिए कहा था। जब मैंने शुरू किया तो यह पानी से पानी तक की एक आकर्षक यात्रा थी। यह तय करना बड़ा कठिन था कि किन राज्यों को चुना जाए क्योंकि प्रत्येक की अपनी अलग परंपराएं हैं।

पुस्तक की तीन सबसे आश्चर्यजनक खोजें क्या रहीं?

पहला तो जल प्रबन्धन संरचनाओं के प्रकार में वैचारिक स्तर पर काफी भिन्नता दिखी। दूसरा, जलीय संरचनाओं के निर्माण पर पूर्वजों के ज्ञान की गहराई, तीसरा, किस हद तक लोग पानी को जीवन दाता और जीवन नाशक मानकर सम्मान करते हैं, ये तीन चीजें इस पुस्तक में सर्वाधिक आश्चर्यजनक हैं।

कुल मिलाकर आपको सबसे बड़ा सबक क्या मिला?

हमें पानी का सम्मान करना होगा ना कि इसे एक साधारण उपयोग की वस्तु समझें। हम लम्बे समय से सम्मान करते आ रहे हैं और अब हमारी सोच पश्चिमी शिक्षा प्रणाली का रूप ले चुकी है। हमारे अशिक्षित किसान आज के इंजीनियरों से ज्यादा पानी की जानकारी रखते हैं।चाँद की बाउलीचाँद की बाउली पानी के स्रोतों का संरक्षण और इसका समझदारी से उपयोग ही इसका सम्मान है। पानी और धर्म का आपसी रिश्ता दिखाने वाले पर्याप्त प्रमाण हें प्रत्येक मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, और चर्च में जलस्रोत देखने को मिलता है। कोई भी धार्मिक स्थल ऐसा नहीं है जहां जल-स्रोत न हो।

भारत के विभिन्न आर्थिक-कृषि-पर्यावरणीय-सामाजिक क्षेत्रों ने अपनी-अपनी व्यवस्था विकसित की है और अगर इन्हे संरक्षित कर लिया जाए तो लोगों की कृषि और पीने योग्य पानी की जरूरतें पूरी हो सकती हैं। हमें अतीत को बांधों और नहरों तक न छोड़कर आगे लेकर चलना है। इस विषय पर बातचीत के द्वारा समझ बनाई जानी चाहिए। इसी तरह जल संसाधनों के प्रबन्धन को स्थानीय लोगों द्वारा संचालित होना चाहिए। बड़े केंद्रीयकृत निर्माण और प्रबंधन व्यवस्था लंबे समय तक इसलिए कारगर नहीं हो पातीं क्योंकि वे बहुत महंगी और असमान हैं और स्थानीय लोगों को शामिल नहीं करती और उसे हमेशा शोषणकारी के रूप में देखा जाता है।

जल प्रबंधन एक पर्यावरणीय और तकनीकी मुद्दा होने के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दा भी है। लेकिन आधुनिक समाधानों में इसे नजरअंदाज कर दिया गया है। जहां तक संभव हो सके जल स्रोतों के प्रयोग का प्रबंधन करने वाली सामाजिक संरचनाओं और तंत्रों को आधुनिक तकनीकी समाधानों के साथ जोड़ा जाना चाहिए और जो तकनीकी सामाजिक जरूरतों के साथ उचित तालमेल नहीं बैठा पाती उसे छोड़ दिया जाना चाहिए।

क्योंकि लंबे समय से हम इसके विपरीत दृष्टिकोण अपना रहे हैं, अब समय है इसको बदलने का। समाज आलसी हो गया है और सरकार का आदी हो गया है कि सरकार सहायता देगी। यदि जल आपूर्ति बाधित है या विशेष समय पर नहरों में पानी नहीं है तो इसके लिए लोग सरकार को ही दोषी ठहराते हैं। मैंने देखा है कि कानून के दायरे में रहकर निर्णय लेने और अपनी सहायता करने की इच्छाशक्ति कम हो रही है। जन समाज, सरकार से कुछ भी उपलब्ध कराने की उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि वह जो भी उपलब्ध कराती है वह बेकार है और उसका दुरूपयोग किया जाता है। सरकार ने सभी स्तरों पर एक नई इच्छा शक्ति खोजी है जनता और सरकार के बीच संबंध के द्वारा ही काम को बढाया जा सकता है।

आप भारत की वर्तमान जल स्थिति को किस प्रकार देखते हैं।

हम अपने कारण मुसीबत में हैं लेकिन स्थिति अभी भी नियंत्रण में है। हमारे पास काफी पानी है लेकिन लोगों ने अपने संसाधनों का काम सरकार के भरोसे छोड़ दिया है।एक समस्या पानी आपूर्ति को लेकर है इसके समाधान के रूप में सरकार के पास एक बड़ा प्रोजेक्ट है।

दूसरी समस्या है मांग, हम उम्मीद करते हैं कि बिना कुछ प्रयास किए हमें निरंतर पानी मिलता रहे। और जब हमें यह मिलता है तो हम इसे बर्बाद करते हैं। किसान सिंचाई के काम में आवश्यकता से अधिक पानी इस्तेमाल करते हैं क्योंकि उन्हें सही जानकारी ही नहीं है। मैंने किसानों से पूछा तो किसी को भी यह जानकारी नहीं थी कि इसके लिए कितने पानी की आवश्यकता है क्योंकि कृषि कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें यह तो बताया गया कि कितने खाद, कीटनाशकों या बीजों की जरूरत होती है लेकिन पानी के बारे में नहीं।

शहरों में दूर तक पानी के स्रोत सूख रहे हैं क्योंकि उनमें रिसाव हो रहा है या गरीबों द्वारा उनका उपयोग किया जा रहा है। जबकि अमीरों के पास वाटर लॉन है और गहरे टयूबवेल भी बना लेते हैं। वे पानी बाहर निकालने के लिए मुहाने पर पम्प लगा देते हैं।

हम लालची हैं और हमारी मानसिकता छोटी है। दरअसल हमें यह देखने की आवश्यकता है कि हम क्या प्रयोग कर रहे हैं। औद्योगिक उपयोग छिपा रहता है क्योंकि उन्हे बड़े टैंकर और भूमिगत जल की आवश्यकता होती है, इन दोनों की निगरानी कठिन है। लेकिन उद्योग समझते हैं कि काम चलना चाहिए चाहे जल स्रोतों की गुणवत्ता और इसके मूल्य पर ही फर्क क्यों न पड़े। हमारे पास पानी और शीतल पेय के बढ़ते उद्योग हैं। मैंने 10,000 किमी. (6,000 मील) की यात्रा की है और सैंकड़ों गांवों का दौरा किया है, मैंने वहां कुओं, नलकूपों, धाराओं, टैंकों और टयूबवैल जैसे पानी के विभिन्न स्रोतों से हर तरह का जल पिया। मैं बीमार नहीं हुआ। शीतल पेय /बोतल बंद पानी वाली कंपनियां सोचती हैं कि जो पानी हमारे नलों से आ रहा है उसमें जहर मिला है और उसका स्वाद खराब है तो यह कोरी बकवास है। कम लागत वाले शोधक जैसे फिल्टर करके या उबालकर घर पर या बाहर हमारे स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है। लगभग सभी शहरों में केंडिल वॉटर फिल्टर उपलब्ध हैं। बहुत सारे परीक्षण किए गए जिसमें मालूम पड़ा है कि बोतलबंद पानी भी उतना ही दूषित और बैक्टीरिया युक्त है जितना कि फिल्टर किया हुआ टैप वाटर। इसलिए संकट-दृष्टिकोण, आपूर्ति और मांग का है। लेकिन हम अभी तक सही जगह नहीं पहुंचे हैं।

आप पानी से पुराने लगाव के बारे में कुछ बताइये।

जब मैं बच्चा था तब मैंने टब में नहाने का बहुत मजा किया लेकिन अब खुद को दोषी महसूस करता हूं कि मैंने हजारों लीटर पानी बर्बाद किया। जब कभी मैं खाली होता और घूमने को मौका मिलता तो मैं समुद्र के किनारों का आनंद लेता था।

बचपन में मैं अपने हाथों से अपने कानों को बंद कर लेता और समुद्र की आवाज को ऐसे सुनने का नाटक करता, जैसे कोई आवाज आकाश में गूंज रही हो। जब एक बिजनेस पेपर में मैंने सम्पादक/रिपोर्टर के रूप में काम शुरू किया तो मैं पानी पर खास ध्यान दिया करता था। 1990 में इन्टैक ने टिहरी डैम के खिलाफ एक अभियान किया, मैं वहां गया, वहां सब कुछ विनाश की भेंट चढ़ चुका था।

पहली बार मैं यहीं से प्रभावित होकर व्यवहारिक हुआ और फिर ''डाउन टू अर्थ'' में और तब से ही पानी संबंधी विषयों को खास रूचि के साथ लिख रहा हूं। मैं राजेन्द्र सिंह को 1992 से जानता हूं और उनके काम में सहयोग भी किया है।

1992 में, मैं नर्मदा घाटी भी गया, जो अब डूब रही है। मैंने नर्मदा पर ''डाउन टू अर्थ'' के लिए लिखा। तब से मैं पानी पर लिख रहा हूं और पिछले तीन सालों से इसमें गहराई से लगा हुआ हूं। मैं अब 'वाटर कम्युनिटि सोल्यूशन एक्सचेंज' का 'रिसोर्स पर्सन' भी हूं। यह वाटर-गवर्नेंस, रिसोर्स मैनेजमेंट, पेय जल, स्वच्छता और खेती में पानी के इस्तेमाल से संबन्धित मुद्दों पर चर्चा करता है।

धनबाद के स्टेशन पर एकसाथ प्यास बुझाते पशु और आदमीधनबाद के स्टेशन पर एकसाथ प्यास बुझाते पशु और आदमी आपके विचार में भारत में कौन से राज्य पानी के क्षेत्र में सबसे अच्छा काम कर रहे हैं?

अगर सरकारी संदर्भ में देखे तो तमिलनाडु ने वर्षाजलसंचयन और टैंक रिजेनेरेशन पर बहुत काम किया है। अगर आप इसे जनता के निर्णय की दृष्टि से देखें तो गुजरात और राजस्थान में जलसंचयन के संसाधनों को पुनर्जीवित करने के काफी सफल प्रयास किए गए हैं क्योंकि वहां पानी की बहुत कमी है और भूजल में फलोराइड और लवणता है। खास बात यह है कि इसमें समुदाय शामिल हैं। जहां कहीं भी संसाधनों के पुनर्जीवन कार्यक्रम सफल हुए हैं वह सामुदायिक भागीदारी से हुए हैं।

पानी के मोर्चे पर अभी भारत के सामने क्या बड़ी चुनौतियां है?

जल संसाधनों का खराब प्रबन्धन, प्राकृतिक और मानवीय कारणों से प्रदूषण और नदियों का भिन्न-भिन्न स्थानों पर दोहन किया जाना।

नित्या जैकब की पुस्तक ''जलयात्रा : एक्सप्लोरिंग इण्डियाज ट्रेडिशनल वाटर मैनेजमैंट सिस्टमस्''

पेंग्विन बुक्स, भारत, 2008 रू. 295, पर उपलब्ध है।
 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading