भारत की मानसून अर्थव्यवस्था

भारत पूर्व में ‘मानसून अर्थव्यवस्था’ के नाम से जाना जाता था। परंतु अब ऐसा नहीं है। 1970 के दशक के मध्य तक वर्ष के पूर्वाद्ध में विकासदर ऋणात्मक (नकारात्मक) हुआ करती थी और उत्तरार्द्ध में 3 से 4 प्रतिशत की दर से अर्थव्यवस्था में वृद्धि होती थी। यही औसत हिंदू विकास दर कहलाता था। परंतु उसके बाद से केवल दो वर्षों में ही हमारी विकास दर 3 प्रतिशत से कम रही। अरविंद पाणिग्रही का कहना है कि अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव की दर अब अधिक रहती है। इससे भी सही तस्वीर नहीं उभरती। यदि आप पिछली शताब्दी के साठ के दशक की तुलना सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध से करेंगे तो पाएंगे कि उतार-चढ़ाव अब ज्यादा हो रहा है।

एक सीमा तक मौसम के कारण आने वाला सूखा और कृषि सूखा दो भिन्न मुद्दे हैं। कृषि सूखे का जहां फसलों और क्षेत्रों पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है वहीं वर्षा पद्धति का प्रभाव पेयजल और रोजगार पर पड़ता है। यह एक महत्वपूर्ण समस्या है। मानव कल्याण बहुत महत्वपूर्ण है अतः घटनाओं की खोजखबर रखना तथा समयबद्ध ढंग से नीतियों में सुधार लाना बहुत जरूरी है।

मौसम संबंधी जोखिम प्रबंधन की अनेक रणनीतियां संपोषणीय कृषि प्रणालियों के अनुकूल बैठती हैं और इसलिए उन्हें पर्यावरण के अनुकूल उत्पादन को लक्ष्य कर बनाई गई नीतियों और कार्यक्रमों के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है। जिन रणनीतियों को अपनाने से सुखद परिणाम प्राप्त हुए हैं, वे हैः

1. अधिक पानी मांगने वाली फसलों के उत्पादन को वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों से हटाकर पूर्वोत्तर भारत के उन प्रचुर जल वाले क्षेत्रों में ले जाना, जो देश का खाद्य (भोजन) कटोरा बनने की क्षमता रखते हैं। कृषि मंत्रालय की सफल पूर्वी क्षेत्र योजना, इसका एक उदाहरण है।
2. स्थानीय संसाधनों और मौसम की स्थितियों के अनुसार कृषि पद्धतियों और प्रणालियों में परिव्रतन। यथा-बहु/मिश्रित फसलों और दलहनों के साथ अन्य फसलों की पैदावार लेना।
3. ऐसी पर्वायरण अनुकूल कृषि पद्धतियां अपनाना जिनसे स्थानीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग हो सके। हमें कृषि संबंधी सामग्रियों के बेहतर और किफायती उपयोग से अधिक उत्पादन सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, साथ ही पर्यावरणीय संसाधनों की बर्बादी यथासंभव न्यूनतम करनी होगी। इनमें से अनेक तरीके पारंपरिक ज्ञान पर आधारित होते हैं और वे मिट्टी की जैविक उत्पादकता को पुष्ट करने पर जोर देते हैं।
4. बाढ़ संभावित, सूखा संभावित और लवणीय क्षेत्रों में विशेष रूप से सहभागी पौध प्रजनन और सहभागी विविधतापूर्ण चयन पद्धति अपनाकर स्थानीय फसलों की किस्मों को अपनाना। जलवायु के अनुकूल खेती के तौर-तरीके अपनाने से पर्यावरण में होने वाले बदलावों से निपटने में मदद मिलेगी। चुनिंदा प्रजनन हेतु निजी क्षेत्र की भागीदारी (पीपीपी) में जैव प्रौद्योगिकियों की भी आवश्यकता है। इससे सूखारोधी कृषि के विकास में लगने वाले समय में कमी आएगी।
5. चूंकि पानी और भूमि के संसाधन सिकुड़ते जा रहे हैं और जलवायु परिवर्तन एक वास्तविक खतरा बनता जा रहा है, हमें ऐसी कृषि पद्धति अपनानी होगी जो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से सुरक्षित रहे। प्रत्येक प्रखंड में संरक्षण पैदावार उपभोग व्यापार श्रृंखला को बढ़ावा देना होगा।
6. 12वीं योजना के दृष्टिकोण-पत्र के अनुसार राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) का अधिकतम लाभ उठाने के लिए हमें इसे अधिक से अधिक प्रोत्साहन देना होगा।

जल प्रबंधन और मूल्य निर्धारण


यह सर्वविदित तथ्य है कि देश का भौगोलिक क्षेत्र अथवा विशाल भूमिक्षेत्र का दोहन अपनी सीमा पर पहुंच चुका है। पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे प्रचुर जल संपदा क्षेत्रों में भी भूजल का स्तर नीचे गिरता जा रहा है। अतः उपलब्ध जल का खेती के लिए सावधानीपूर्वक उपयोग हो इसके लिए विशेष प्रयास करने होंगे ताकि मानसून पर निर्भरता कम की जा सके। इसके लिए हमें निम्नलिखित बातों पर गौर करना होगाः

1. सिंचाई के लिए कंप्यूटर नियंत्रित परिचालन प्रणालियों सहित उन्नत प्रौद्योगिकियों का उपयोग करना होगा।
2. देश में विद्यमान बृहद नहर प्रणाली को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखना होगा। 3. सूक्ष्म/ड्रीप (टपक) और अन्य सिंचाई उपकरणों का मानकीकरण करना होगा।
4. सीधे बोए गए चावल (डीएसआर), चावल सघनीकरण प्रणाली (एसआरआई), लेसर समतलीकरण आदि जैसी पानी के अल्प उपयोग वली शस्यविज्ञानी (मिट्टी के अनुसार कृषि पैदावार लेना) कृषि का विस्तार करना होगा।
5. सतत् आधार पर जलसंचय और भूगर्भीय जलस्रोतों की पुनरावेशन रिचार्जिंग करना होगा।
6. विद्युत और जल के मूल्य का निर्धारण पारदर्शी ढंग से करना होगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तथा शुल्क निर्धारण में उसे उचित महत्व देना होगा। लघु और सीमांत किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी में इसका समुचित प्रावधान करना होगा। किसानों के लिए जिस प्रकार डीजल का मूल्य तय किया जाता है उसी प्रकार की व्यवस्था की जाना चाहिए।
7. सिंचाई के बुनियादी ढांचे के साथ-साथ फव्वारा सिंचाई और सूक्ष्म सिंचाई पर राष्ट्रीय मिशन के तौर पर काम करना होगा।

मौसम पूर्वानुमान और आंकड़ा संग्रहण हेतु आधुनि प्रौद्योगिकी


हमें न केवल जून से सितंबर तक के चार महीनों की वर्षा ऋतु (मानसून) में देसभर में होने वाली कुल वृष्टि का पूर्वानुमान की आवश्यकता है, बल्कि इस बात की भी जानकारी चाहिए कि यह किस स्थान पर किस समय होगी और कितनी वर्षा होगी।

इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए मैंने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का एक संगोष्ठी आईएसएई में कृषि और ग्रामीण सांख्यिकी के पारंपरिक स्रोतों के पूरक के तौर पर उपग्रहीय आंकड़ों के उपयोग का छह सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया था जो इस प्रकार हैः

1. भूमि उपयोग सांख्यिकी (एलयूएस) पर सामयिक जानकारी क्योंकि पारंपरिक फसल और मौसम की रिपोर्ट आमतौर पर तीन से पांच वर्ष के बाद प्राप्त होती है।
2. अंतरिक्ष आंकड़ों का उपयोग फसल क्षेत्र (रकबा) और उपज के आंकड़ों के आकलन में त्रुटियों को रोकने के लिए किया जाना चाहिए। राषट्रीय स्तर पर जहां सामयिक रिपोर्टिंग प्रणाली (टीआरएस) और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के उत्पादन संबंधी आंकड़ों में त्रुटियां काफी कम होती हैं, वहीं राज्य स्तर पर क्षेत्र (रकबे) और पैदावार संबंधी आंकड़ों में 5 से 12 प्रतिशत के बीच त्रुटियां रहती हैं। अंतरिक्ष आंकड़ों से इन पर नजर रखी जा सकती है एवं इसके नतीजे समय पर मिल सकेंगे।
3. भौगोलिक रूप से मानचित्र तैयार करने वाली प्रणाली का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। इसे केवल जल ग्रहण क्षेत्रों जैसी पहले की सरकारी परियोजनाओं के लिए ही नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए, बल्कि सहकारी, गैर –सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए भी उपयोग किया जाना चाहिए।
4. अंतरिक्ष संबंधी सुविधाओं की मदद से दोतरफा सूचना प्रणालियों का विकास किया जाना चाहिए। किसानों को केवल सूचना (आंकड़ों) का स्रोत ही नहीं बनाया जाना चाहिए, बल्कि उदार अर्थव्यवस्था में कृषि के लिए कृषि अर्थव्यवस्था की जो जानकारी और प्रौद्योगिकी उन्हें चाहिए वह उन्हें दी जानी चाहिए। यह बाजार, प्रौद्योगिकी की सुलभता और मझोली अवधि के मौसम पूर्वानुमान के लिए महत्वपूर्ण है।
5. जल-संसाधन प्रबंधन अति आवश्यक है, क्योंकि जल एक दुर्लभ स्रोत है और आगे और भी दुर्लभ हो सकता है। इसलिए जल निकायों का पुनरावेशन और आपदा प्रबंधन पर ध्यान देना होगा।
6. एक लघु नाभिक संस्थान (न्यूक्लियस इंस्टीट्यूट) की स्थापना इसरो, केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ), एनएसएसओ, कृषि मंत्रालय (एमओए), भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी), नाबार्ड परामर्शदात्री संगठनों और सहकारिताओं के विशेषज्ञों को प्रतिनियुक्ति पर लेकर एक केंद्र का गठन किया जाना चाहिए ताकि पुनर्गठित कृषि सूचना प्रणाली के लिए काम करने वाली मशीनों और व्यक्तियों की एक नई प्रणाली तैयार की जा सके।

खाद्य की आवाजाही


बुरे समय में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अंतर्गत 4 लाख से भी अधिक उचित मूल्य की दुकानों (एफपीएस) वाली व्यवस्था संभवतः विश्व में अपनी तरह की सबसे बड़ी वितरण प्रणाली है। यह विशाल नेटवर्क विपत्ति के समय और भी सार्थक भूमिका निभा सकता है।

1. मांग और आवश्यकता के अनुसार हमें सरकारी खरीद, वितरण और भंडारण कार्यक्रमों में बेहतर समंवय स्थापित करना होगा।
2. खाद्यान्न की खरीदी इस प्रकार की होनी चाहिए कि वह एक ही क्षेत्र में जमा होकर न रह जाए। सरकारी एजेंसियां जो अनाज खरीदती हैं, बाजार में बेचे जाने के बावजूद उनमें से काफी बड़ी मात्रा संबंधित क्षेत्र में ही बची रहती है। यह मात्रा 2 प्रतिशत से लेकर 85 प्रतिशत तक होती है। ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश और पूर्वोत्तर जैसे अनेक राज्य हैं जो समग्र नजरिए से देखा जाए तो खाद्यान्न के अभाव वाले राज्य हैं। परंतु इन्हीं राज्यों में कुछ ऐसे विकसित पॉकेट्स (छोटे क्षेत्र) उभरकर सामने आए हैं जहां खरीदी के लिए अतिरिक्त अनाज उपलब्ध है। यह क्षेत्र हरित क्रांति और कृषि विकास के पहले चरण में हैं और इन्हें बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
3. मूल्य निर्धारण में हस्तक्षेप इस प्रकार का होना चाहिए कि विविध प्रकार की फसलों की खेती को प्रोत्साहन मिले ताकि भारतीय कृषि में असंतुलन को दूर किया जा सकते, अर्थात सभी प्रकार की फसलों की खेती हो सके।
4. दीर्घावधि में देश में एक ऐसी व्यवस्था कायम करने की आवश्यकता है जो किसानों की आय को संरक्षण प्रदान कर सके। सरकार को फसलों से होने वाली आय को संरक्षण प्रदान करने के लिए फसलों की व्यावहारिक बीमा योजनाएं लागू करने में सहायता करनी चाहिए।

व्यापार और कर नीतियों में सामंजस्यता


कृषि मूल्य निर्धारण नीति खाद्य सुरक्षा और समानता के बहुल उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास है। आवश्यकता इस बात की है कि व्यापार नीति में सुधार किए जाएं ताकि किसानों को उचित मूल्य मिल सके। इसके लिए सुझाए गए उपाय इस प्रकार हैं :

1. विभिन्न कृषि सामग्रियों के संदर्भ में समय-समय पर आवश्यक उपाय सुझाना ताकि मूल्य निर्धारण और कर शुल्क नीति प्रभावी ढंग से काम कर सके।
2. व्यापार नीति के उद्देश्यों और न्यूनतम समर्थन मूल्यों के स्तर का एकीकरण किया जाना चाहिए। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) को नई दिशा दी जानी चाहिए। इसमें केवल लागत पर ही जोर नहीं देना चाहिए बल्कि कर, ऋण नीतियों, बाजार की प्रवृत्तियां, बाजार की संरचना और बृहद आर्थिक नीति जैसे मुद्दों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। ताक नई चुनौतियों का सामना किया जा सके।
3. सीएसीपी को व्यापार, कर, ग्रामीण ऋण, विपणन और संबंधित नीतिगत वातावरण की पूरक प्रणाली पर नजर रखना चाहिए और इन्हें समय-समय पर सरकार को दी जाने वाली मूल्य निर्धारण नीति संबंधी रिपोर्टों में शामिल किया जाना चाहिए।
4. निर्यात के मामले में भारत की स्थिति काफी अस्थिर और महत्वपूर्ण है, जिससे इस व्यापार में शामिल लोगों को निर्णय करना कठिन हो जाता है। इसे समाप्त किया जाना चाहिए और पूरी व्यवस्था में स्थिरता लाना आवश्यक है।
5. हमारे पास जो भूमि है वह सीमित है फिर भी कुछ फसलों के मामले में तो हम प्रतिस्पर्धी हैं, जबकि अन्यों के मामले में नहीं।
6. हमें अपनी नीतियों और कार्यकलापों को उचित स्वरूप देना होगा ताकि हम अपनी खाद्यान्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विदेशों में जमीन खरीद सकें।

निष्कर्ष


सुधार जब भी हो, अच्छे होते हैं, परंतु जब परिस्थितियां विपरीत हों तो ये आवश्यक हो जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे नीतिकार कृषि संबंधी बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने से चूक गए हैं। इन जनगणना शहरों के बारे में मैं तब से जोर देता आ रहा हूं जब जनगणना के नतीजे सामने भी नहीं आए थे। यह कहना अब मूर्खता होगी कि रंगराजन समिति की असमय रिपोर्ट के कारण योजना कार्यक्रमों की संपूर्ण धारणा पर ही सवाल उठाए जा रहे हैं। यह रिपोर्ट दृष्टिकोण पत्र के जारी होने के समय आई थी और इसमें अनेक योजनाओं और उनके संसाधनों को समाप्त करने की बात कही गई थी। हमें कृषि विकास पर केंद्रित योजनागत कार्यक्रमों की आवश्यकता है।

(लेखक नागालैंड विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। वे भारत सरकार के ऊर्जा, नियोजन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री भी रह चुके हैं।

ई-मेल : yalagh@gmail.com

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