'भावना के साथ पर्यावरण का काम' का नाम है मैती आंदोलन - कल्याण सिंह रावत

8 Nov 2019
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मैती आन्दोलन चमोली ज़िले के छोटे से कस्बे ग्वालदम में शुरू हुआ गोपेश्वर में अपने छात्र जीवन में चिपको की प्रारम्भिक गतिविधियों का स्पर्श पाने वाले कल्याण सिंह रावत अब जीवविज्ञान के प्रवक्ता बन चुके थे। चिपको आन्दोलन तथा गौरा देवी के व्यक्तित्व ने उनके मन में जो प्रभाव डाला था, वह उन्हें बेचेन किये था। उनके पिता तथा दादा दोनों जंगलात विभाग में कर्मचारी रहे थे। लगातार वनों के बीच ही उनका बचपन बीता। एक शिक्षक के रूप में बच्चों के बीच रचनात्मक कार्य के साथ कुछ नया और विशिष्ट करने की चाह उनके मन में थी। 99 में कल्याण ने विवाह समारोह के साथ पेड़ रोपने का अभियान चलाया । उत्तराखण्ड में अनेक स्थानों पर विवाह के समय पइयां के पेड़ लगाने का रिवाज था। इसी सूत्र को पकड़कर यह प्रयोग शुरू किया। ग्वालदम में एक मित्र और जलपान ग्रृह के मालिक ख़िलाफ़ शाह के साथ उन्होंने मिठाई के डिब्बों के बाहर मैती आन्दोलन का सन्देश प्रकाशित करना शुरू किया। बारातों की सूचना मिलते ही कार्यकर्ता वहाँ जाते और धीरे-धीरे बात फैलने लगी। फिर सुझाव आया कि इसे विवाह ही नहीं विविध शुभकार्यों पर भी वृक्षारोपण का अभियान बनाना चाहिए। मैती आन्दोलन इससे आगे निकल गया जब इसने “वेलेनटाइन डे! के मौक़े पर "एक युगल एक पेड़' का नारा देकर पेड़ लगाने का आहवान किया और प्रेमी जोड़े ख़ुशी से पेड़ लगाने लगे। कारगिल शहीदों की याद में बधाणगढ़ी (ग्वालदम) में मैती की प्रेरणा से शहीद वन लगाया गया। सन्‌ 2000 की नन्‍दादेवी राजजात शुरू होने से पहले राज्य के कई ज़िलों से लाये गये पेड़ों को नन्‍दा के मायके नौटी में रोप कर इसे “नन्दा मैती वन” नाम दिया गया। इसी तरह “चीड़ के समन्दर” कहे जाने वाले रवांई के सर्वोच्च और वयोवृद्ध चीड़ के पेड़ के गिरने पर एक प्रेरक और रचनात्मक कार्यक्रम में चीड़ के पेड़ों को लगाया गया।1

टिहरी के जलमग्न होने से पहले मैती द्वारा इस शहर के 33 ऐतिहासिक स्थानों से मिट्टी लाकर नयी टिहरी के रामतीर्थ कॉलेज में बनाये गये गढ़्डों में यह मिट्टी डालकर वृक्षारोपण कराया गया। दिसम्बर 2006 में भारतीय वन अनुसन्धान संस्थान की शताब्दी के मौक़े पर लाखों बच्चों के हस्ताक्षर से युक्त कपड़ा मुख्य भवन पर पर्यावरण चेतना के संदेश के साथ लपेटने में मैती टीम हिस्सेदार थी। इसी तरह राजगढ़ी (उत्तरकाशी) में 930 के तिलाड़ी काण्ड के शहीदों की याद में और नारायणबगड़ में पर्यावरण सांस्कृतिक मेले में वृक्षारोपण किया गया। मैती को विधिवत कोई संस्थानिक रूप नहीं दिया गया। यह इसकी ताकत मानी जाती है और अनेक सन्दर्भों में कमज़ोरी भी। 'मैती की दीदी' और “मैती कोष” का विचार विकसित किया गया है। लेकिन गैर-सरकारी संगठनों का हाल देखकर कल्याण और उनके साथी इसका यही रूप बनाये रहे । यदि इसमें पैसा और संगठन का सिलसिला जुड़ जायेगा तो इसकी आत्मा मर जायेगी। फिर यह नकली वृक्षारोपण करने वाली संस्थाओं और जंगलात विभाग से अलग कैसे रह पायेगा। अतः वृक्ष चेतना के विस्तार के लिए यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त रूप से काम करता रहेगा।” पर यह भी सच है कि वर्तमान रूप में यह एक औपचारिक कार्यक्रम ही रह जायेगा। अवश्य ही मैती के साथियों के मन में नये रास्ते विकसित हो रहे होंगे।2

मैती आन्दोलन के प्रवर्तक कल्याण सिंह रावत द्वारा पर्यावरणीय संरक्षण हेतु भावनात्मक आन्दोलन चलाया गया। ये पूर्व में चिपको आन्दोलन से भी जुड़े रहे। पेशे से अध्यापक रहे एवं वर्तमान में सेवानिवृत्त हो चुके हैं एवं विभिन्‍न रचनात्मक कार्यो को मैती आन्दोलन से जोड़कर व्यापक स्वरूप प्रदान कर रहे हैं। शोधार्थी नवीन चंद रजवार ने अपने शोध प्रबंध 'वन नीति एवं वन आन्दोलन: एक अध्ययन; उत्तराखंड के विशेष संदर्भ में 1815 ई से 2000 ई तक' में मैती अन्दोलन के कल्याण सिंह रावत का साक्षात्कार लिया है। 22 जून 2016 को लिए गए साक्षात्कार के प्रमुख अंश अधोलिखित हैं :

शोधार्थी : मैती आन्दोलन की शुरूआत कब से हुई ?

रावत : इसकी शुरूआत हमने 4995 ई. से की थी उस वक्‍त मैं ग्वालदम इण्टर कॉलेज में शिक्षक था।

शोधार्थी : मैती आन्दोलन शुरू करने की प्रेरणा आपको कैसे मिली ?

रावत : कोई निश्चित योजना तो नहीं थी, परन्तु मैं पर्यावरण के प्रति सचेत था कि पर्यावरण के सन्दर्भ में कोई गम्भीर कार्य किया जाना चाहिए। विभिन्‍न योजनाओं के बावजूद वनीकरण की स्थिति समृद्ध रूप से स्थापित नहीं हो पा रही थी एवं मुझे लगा कि इस प्रकार से हम हिमालय को हरा भरा नहीं रख सकते हैं। ग्वालदम से पूर्व मैं पौढ़ी के एक स्कूल में था वहाँ पर चार एनजीओज. ने काम किया परन्तु एक भी पेड़ खड़ा नहीं हो पाया। यह वनीकरण के प्रति हमारी उदासीनता थी। मेरे मन में विचार आया कि एक पेड़ लगे मगर वो सुरक्षित रहे और इसके लिए मैंने भावनात्मक रूप से तैयार होना आवश्यक समझा।

शोधार्थी : वनीकरण को भावनात्मक रूप से जोड़ने का विचार किस प्रकार आया ? 

रावत : बहुत विचार किया गया। हम वृक्षों की रक्षा तार-बाढ़ करके भी नहीं कर सकते हैं क्‍योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार लोग इस तार-बाढ़ को तोड़ देते हैं व अपने घरों में ले जाते हैं। सरकारी व स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा किया जाने वाला वनीकरण नेक नियत के अभाव में सफल नहीं हो पा रहा था। परन्तु मैंने देखा कि एक आम व्यक्ति के घर या आंगन के पास का वृक्ष सुरक्षित रहता है क्योंकि उस पेड़ के साथ उसकी भावनाऐं जुड़ी रहती हैं। फिर यह तय किया गया कि लोगों को भावनात्मक रूप से इस मुहिम में जोड़ना होगा।

शोधार्थी : ऐसी कोई घटना जिसने आपकी इस मुहिम को भावनात्मक रूप देने के लिए प्रेरित किया?

रावत : हमारी शादी सन्‌ 4984 में हुई। जब हम 4 दिन बाद ससुराल गए तो रास्ते में मेशी मौसी का घर था उन्होंने पपीता खिलाया तो मेरी पत्नी ने उसके कुछ बीज कपड़े में बॉँध कर रख दिए जिसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। कई वर्षों बाद 995 में जब मैं ग्वालदम में था तो मेरा लड़का अपनी नानी के घर से कुछ पपीता लेकर आया।मेरे पूछने पर मुझे पता लगा कि ये वही पपीते हैं जिसके बीज मेरी पत्नी ने अपनी माँ को दिए थे। माँ ने इन पपीतों को सौगात के रूप में बेटी को भेजा है। इस घटना से मुझे अहसास हुआ कि पहाड़ में मॉ-बेटी के बीच कितना गहरा भावनात्मक सम्बन्ध है। तो मैंने विचार किया कि यदि पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भावनात्मक रूप से लोगों को जोड़ा जाए तो हमें इस दिशा में सफलता मिल सकती है और हम पेड़ बचाने में सफल हो सकते हैं। 

शोधार्थी : इसी तरह की अन्य घटनाएं जिससे आप प्रभावित हुए?

रावत : नंदादेवी राजजात यात्रा ने इस प्रक्रिया को आगे बढाया। यह यात्रा 42 वर्षों में एक बार होती है व एक अन्य राजजात प्रतिवर्ष भादो के महीने में भी होती है। 1995 ई. में इसी राजजात के दौरान मैंने देखा कि महिलाएं, देवी को भावनात्मक रूप से विभिन्‍न चीजें उपहार में दे रहीं हैं। फिर वही माँ-बेटी का सम्बन्ध मेरे मस्तिष्क में आया और मेरा विचार अधिक मजबूत होने लगा।

शोधार्थी : आपके द्वारा प्रारम्भिक प्रयास इस दिशा में किस प्रकार किए गए?

रावत : मैंने ग्वालदम इण्टरमीडिएट कॉलेज में इस सम्बन्ध में बच्चों से बात की, वे काफी प्रसन्न हुए। प्रत्येक गाँव में एक संगठन बनाने की मुहिम चलाई गई। 'मैती' एक भावनात्मक नाम है अतः इस संगठन का नाम '"मैती' रखा गया। सभी लड़कियों से एक-एक पेड़ तैयार करने को कहा गया व लड़की को अपने पति या प्रियतम का विचार मन में रखते हुए उस पेड़ से अपनी भविष्य की भावनाओं के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया, जिससे वह इस पेड़ की रक्षा करेगी व शादी के समय इसे रौपेगी। इसके लिए हमने मैती संगठन बनाये, यदि कोई लड़की पौधा नहीं रोप सकती तो विवाह के समय स्थानीय पौधशाला से एक पेड़ लेकर विवाह के समय उसे रौपा जाएगा। चूंकि पहाड़ में मॉ-बेटी का गहरा भावनात्मक रिश्ता है तो कम से कम बेटी के विदा होने के पश्चात्‌ माँ उसकी रक्षा जरूर करेगी, साथ में पिता, भाई, बहिन व मैती संगठन के सदस्य इसकी देखभाल करेगें व एक पौधा वृक्ष बन जाएगा।

शोधार्थी : इस मुहिम को चलाने में आपको किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?

रावत : हमने इस आन्दोलन के तहत्‌ सर्वप्रथम ग्वालदम गाँव में वर्ष 1995 में सुशीला नामक लड़की की शादी करवाई। लड़की के पिता से बात की व वन विभाग से एक पेड़ मंगवाया गया। कुछ लोग बाँज का पेड़ लेकर आये परन्तु इस पर कुछ महिलाओं द्वारा विरोध किया गया कि बाँज का पेड़ क्यूँ लगाया जा रहा है परन्तु एक वर्ष बाद उस लड़की को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिससे विरोध करने वाली महिलाओं को अपनी भूल का एहसास हुआ व अन्धविश्वास दूर हुआ। एक अन्य घटना दूसरी शादी के समय हुई जब पौधा रोपने के समय गड्ढा खोदा जा रहा था तो कुछ स्थानीय लोगों ने विरोध किया कि शुभ अवसर पर गड्ढा खोदना गलत है परन्तु भविष्य में दोनों परिवारों में कुशलता बनी रही। इस प्रकार समाज में जड़ जमा चुका अन्धविश्वास भी दूर हुआ। इसके पश्चात्‌ यह आन्दोलन तेजी के साथ बढ़ता चला गया।

शोधार्थी : आन्दोलन के विस्तार हेतु आपके द्वारा किस तरह के प्रयास किए गए?

रावत : इस तरह क॑ आन्दोलनों को जन-जन तक पहुँचाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम यात्राएँ हैं। 1995-96 ई. में जाड़ों की छुट्टियों में मैनें कुमायूँ में धारचूला, बागेश्वर, गरूड़, बेरीनाग, पिथौरागढ़ व डीडीहाट के कई विद्यालयों में मैती आन्दोलन के विषय में बातों को सामने रखा। चूंकि भावनात्मक रूप से कही गई बातों का असर पड़ा तो सभी लोगों ने इस मुहिम की प्रशंसा की व सहयोग किया। मेरे कुछ पत्रकार मित्रों ने भी इसमें सहयोग दिया।

शोधार्थी : प्रबुद्ध वर्ग का कितना सहयोग इस आन्दोलन में रहा?

रावत : नैनीताल से बीबीसी के संवाददाता पाण्डे जी ने सर्वप्रथम हिन्दुस्तान टाइम्स में मैती आन्दोलन पर एक लेख छापा। 1996-97 में बी.बी.सी. लन्‍दन से एक डाक्यूमेंटरी प्रसारित की गई। टाइम्स ऑफ इण्डिया, जी इंडिया और इंडिया टुडे में भी लेख प्रसारित किये गए। जी इण्डिया ने मैती आन्दोलन पर एक लघु फिल्‍म बनाई | इस प्रकार यह आन्दोलन राज्य की सीमाओं के बाहर अपनी पहुँच बनाने से सफल हुआ। नैनीताल में जहूर आलम द्वारा इस पर एक नाटिका का भी मंचन किया गया, सॉन्ग एण्ड ड्रामा डिवीजन भारत सरकार द्वारा भी इस पर नृत्य नाटिका आयोजित की गई।

शोधार्थी : अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किस प्रकार इसका विस्तार हुआ?

रावत : कौसानी में पुष्पेश पंत द्वारा आयोजित एक सेमिनार में कनाडा की पूर्व प्रधानमंत्री फ्लोरा डोनाल्ड आयी हुई थी तो वहीं पर मेरी मुलाकात उनसे हुई। मैती आन्दोलन के विषय में जानकर वह अत्यधिक प्रभावित हुई व उन्होंने कनाडा में इस आन्दोलन को पहुँचाया, उसके पश्चात्‌ कनाडा से बहुत से शोधार्थी मुझसे मिलने देहरादून आये। इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता आशा सेठ व हमीदा बेगम मुझसे मिलने ग्वालदम आयी व अपने-अपने स्तर से अपने-अपने क्षेत्रों में उन्होंने इस आन्दोलन को आगे बढ़ाया। महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी ने भी इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। वर्तमान समय में यह आन्दोलन नेपाल, कनाडा के अतिरिक्त यूरोप के बहुत सारे देशों में फैल चुका है।

शोधार्थी : इस आन्दोलन को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए आपने किस तरह की मुहिमें चलाईं?

रावत : बहुत सारी छोटी-छोटी योजनाओं के तहत इस आन्दोलन को प्रभावशाली बनाने का प्रयास किया गया। शादी के समय वैवाहिक कार्डों पर मैती कार्यक्रम का जिक्र किया जाने लगा, बाराती भी इस कार्यक्रम में शामिल होते व अपने यहाँ जाकर इस भावनात्मक पहल की चर्चा करते जिससे यह आन्दोलन लगातार विस्तार रूप धारण करता चला गया। इसके अतिरिक्त वन विस्तार हेतु बधांण गढ़ी शौर्य वन, कुमाऊँ-गढ़वाल विश्वविद्यालय के रजत जयंती के अवसर पर नैना एवं नन्‍दा रथ कार्यक्रम, टिहरी की स्मृति को संजोने हेतु 'लोकमाटी वृक्ष अभिषेक समारोह' वैलेण्टाइन डे पर आयोजित वृक्षारोपण कार्यक्रम, वन्य जीव ज्योति यात्रा, तरूश्री सम्मान, नन्दादेवी राजजात वन की स्थापना, मैती गंगा ग्राम योजना , इको विलेज क्लबों की स्थापना आदि दर्जनों ऐसे कार्यक्रम समय-समय पर हमारे द्वारा आयोजित किये जाते रहे हैं।

शोधार्थी : वन एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए सरकार द्वारा भी विभिन्‍न योजनाएं बनाई गयी हैं आपको क्‍या लगता है कि इस हेतु सर्वाधिक कारगर उपाय क्‍या हो सकते है?

रावत : सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर अपने स्तर से प्रयास किये गए हैं। बावजूद इसके हम इस दिशा में बहुत आगे नहीं बढ़ पाये हैं। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि जब तक हम इसे भावनात्मक आन्दोलन के तौर में आगे नहीं ले जाएंगें तब तक इस दिशा में हम तेजी से आगे नहीं बढ़ पाएंगें इसीलिए मैती आन्दोलन पर्यावरण संरक्षण हेतु एक भावनात्मक अपील करता है। अगर हम किसी चीज को अपनी भावनाओं के साथ जोड़ें तो उसका प्रतिफल अधिक बेहतर और तेजी के साथ होता है। और मैती आन्दोलन इसका एक सबल प्रमाण है।

 

संदर्भ सामग्री : 

1 : 'हरी भरी उम्मीद', लेखक शेखर पाठक, प्रकाशन- वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 507-508

2 : 'हरी भरी उम्मीद', लेखक शेखर पाठक, प्रकाशन- वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 507-508

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