भीषण समस्या

2 Jul 2009
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अगली बार जब रेल या सड़क मार्ग से बाहर जाएं तो खिड़की के बाहर देखें। जब आप किसी बस्ती के पास से गुजरेंगे तो आपको लाल-हरी प्लास्टिक के रंग के कूड़े के ढेर दिखाई देंगे। वहां की नालियों या पोखर को देखिये तो आपको काले रंग का गंदा पानी बहता दिखाई देगा। यह सब कुछ लगातार बढ़ता जा रहा है, क्योंकि हम एक मूल बात भूल गए हैं कि जहां कहीं भी मानव होगा वहां कूड़ा भी होगा ही। इसी के साथ आधुनिक युग की एक और बात हम भूल गए हैं कि पानी अगर इस्तेमाल होगा तो बर्बाद भी होगा ही। आजकल हमारे घरों में जितना पानी आता है उसका 80 फीसदी बर्बाद होकर बह जाता है। मैँ यहां पर दो बातें रखना चाहती हूं। एक तो यह कि हमारी सारी चिंता पानी के बारें में रहती है, उस पानी के बारे में नहीं जो बर्बाद होकर बह जाता है। दूसरी यह कि हम यह मानते हैं कि हमारे पास सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट जैसा समाधान है तो क्या समस्या। मुझे लगता है कि हमारे योजनाकार इस बात को लेकर काफी चिंतित रहते हैं कि लोगों को पानी कैसे उपलब्ध कराया जाए। उन्हें इस पानी के दूसरे हिस्से यानी गंदे पानी की चिंता नहीं रहती। एक बार यह सीवेज में बदल गया तो कहीं तो जाएगा ही। यह जमीन के भीतर चला जाता है और उस पानी को दूषित करता है जिसे लोग पीते और इस्तेमाल करते हैं। इसलिए कोई हैरत नहीं है कि भूमिगत जल के हर सर्वेक्षण में नाइट्राइट की मात्रा बढ़ी हुई मिलती है। सीवेज से भूमिगत जल के प्रदूषित होने का यह सबसे पुख्ता प्रमाण है।

दिल्ली और आगरा का उदाहरण लीजिए। ये दोनों शहर यमुना नदी के किनारे बसे हुए हैं। इन शहरों से नदी गुजरती है फिर भी वो पानी के लिए तरसते हैं। दिल्ली को तो 500 किलोमीटर दूर टिहरी बांध से पानी मिलने भी लगा है। आगरा भी पानी की अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए टिहरी की ओर देख रहा है। दिल्ली यमुना के पानी को इस कदर प्रदूषित कर देती है कि फिर वहां आगरा के पीने लायक ही नहीं रह जाता। आगरा को इसे साफ करने के लिए ढेर सारी क्लोरीन इस्तेमाल करनी पड़ती है। यहां के अधिकारियों का कहना है कि अगर पानी गंगा से आए तो वो काफी बचत कर लेंगे।

यही त्रासदी है- हम परशानियों के महंगे दुष्चक्र में फंसे हुए हैं। जैसे-जैसे भूजल और भूमिगत जल दूषित होता जा रहा है शहरों के पास पानी के नए संसाधन खोजना का कोई विकल्प नहीं है। यह खोज जैसे-जैसे बढ़ेगी पानी को निकालने और उसकी आपूर्ति की लागत भी बढ़ेगी। आज के ज्यादातर शहर अपने जल आपूर्ति बजट का 50 से 70 फीसदी तक हिस्सा पानी को पंप करने के लिए बिजली पर खर्च कर रहे हैं। दूरी जैसे-जैसे बढ़ती है पाइपलाइन को लगाने, उसका नेटवर्क बनाने और देखरख करने की लागत बढ़ने लगती है। और अगर नेटवर्क की देखरख न की गई तो पानी की बर्बादी बढ़ जाती है। आज ज्यादातर नगरपालिकाओं की आधिकारिक रपटें यही कहती हैं कि उनका 30-50 फीसदी पानी लीकेज की वजह से बर्बाद हो जाता है। इस सबका अर्थ हुआ कम आूपर्ति और ज्यादा खर्च।

इसी के साथ मल और कचरे की समस्या भी है। हमारे पास इसके राष्ट्रीय आंकड़े नहीं हैं। हमें नहीं पता कि देश में कितना मल और कचरा पैदा होता है, कितने का ट्रीटमेंट होता है और कितने का नहीं। सच तो यह है कि शहरों के सीवेज का अनुमान लगाने का हमारे पास कोई तरीका नहीं है। क्योंकि देश में लोग अलग-अलग तरह से पानी हासिल करते हैं और अलग-अलग तरह से ही कचरे का निस्तारण करते हैं।

फिलहाल हम सीवेज का आकलन बहुत ही पुराने ढंग से करते हैं। हम मानकर चलते हें कि नगरपालिका जितना पानी की आपूर्ति करती है उसका 70-80 फीसदी सीवेज के रूप में लौट आता है। समस्या यह है कि पानी का यह गणित सही नहीं है। जब या जहां पानी की आपूर्ति नहीं होती लोग या तो भूमिगत पानी का इस्तेमाल करते हैं या फिर प्राइवेट टैंकर से पानी खरीदते हैं। यह सारा पानी सीवेज में जाता है। वहां चाहे जिस रास्ते से आता हो।

लेकिन यह समस्या का सिर्फ एक पहलू है। फिलहाल देश में कचरे का अधिकतम 18 फीसदी ट्रीटमेंट ही हो सकता है। लेकिन यह हर कोई मानता है कि इनमें से कुछ संयंत्र भारी लागत और बिजली व रसायन की कमी की वजह से काम नहीं करते। क्योंकि पानी की पाइपलाइन की तरह ही सीवेज की पाइपलाइन की भी देख-रेख करनी होती है। हमारे नए और पुराने दोनों ही तरह के कई शहरों में भूमिगत सीवेज व्यव्स्था नहीं है और जहां हैं वहां पाइप पुराने पड़ चुके हैं काम नहीं करते। अगर इन सार तथ्यों को जोड़ दिया जाए तो देश अपने 13 फीसदी कचरे का ही निस्तारण कर पाता है। और इसमें यह होता है कि हम जिसे काफी महंगे तरीके से ट्रीट करते हैँ उसे फिर से बिना ट्रीट किए हुए सीवेज में मिला दिया जाता है। यह हाल भी तब है जब नगरपालिकाएं अपनी पानी सप्लाई की ही लागत नहीं निकाल पा रही, सीवेज ट्रीटमेंट को तो खैर भूल ही जाएं।
नतीजा है प्रदूषण। अतुल्य भारत कचर के ढेर में पड़ा है।

सच तो यह है कि हम जो पानी इस्तेमाल करते हैं, हम जो सीवेज पैदा करते हैं, हम जिस सीवेज को ट्रीट करते हैं, और जिसे बिना ट्रीट किए ही पानी में बहा देते हैं उन सबके लिए हमारी व्यवस्थाएं पर्याप्त नहीं हैं। हमारी नदियों में इस कचर को समायोजित करने लायक पानी लगातार कम हो रहा है। इसके लिए हमें अलग ढंग से सोचना होगा। पहले तो हमें घरों तक पानी पहुंचाने के खर्च को कम करना होगा। इसका तरीका है कि पाइपलाइन की लंबाई कम की जाए। इससे लीकेज भी कम होगी। साथ ही इस काम में बिजली और पंपिंग का इस्तेमाल कम हो। इसका मतलब हुआ कि हमें स्थानीय जल संसाधनों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना होगा, भूमिगत जल को रिचार्ज करना होगा।

यह जरूरी है कि हमारे जल संसाधन हमारे करीब ही हों। फिर हमें घरों में भी पानी का इस्तेमाल कम करना होगा। कम इस्तेमाल का मतलब है कम पानी का ट्रीटमेंट। फिर हमें सीवेज निस्तारण की लागत को भी कम करना होगा। और अंत में हमें यह इंतजाम भी बनाना होगा कि पानी की हर बूंद को इस्तेमाल करने के बाद इसे रिसाइकिल कर सकें।

लेखिका सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की निदेशिका हैं
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