भोपालः मृत्यु की नदी की कुछ बूंदें

14 Oct 2010
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फैसला और न्याय में सचमुच कितना फासला होता है, इसे बताया है 25 बरस बाद भोपाल गैस कांड के ताजे फैसले ने। दुनिया के सबसे बड़े, सबसे भयानक औद्योगिक कांड के ठीक एक महीने बाद लखनऊ में हुई राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में एक वैज्ञानिक ने इस विषय पर अपना पर्चा पढ़ते हुए बहुत ही उत्साह से कहा थाः ”गुलाब प्रेमियों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी कि भोपाल में गुलाब के पौधों पर जहरीली गैस मिक का कोई असर नहीं पड़ा है। “ भर आता है मन ऐसे ‘शोध’ देखकर, पर यह एक कड़वी सचाई है। भोपाल कांड के बाद हमारे समाज में, नेतृत्व में, वैज्ञानिकों में, अधिकारियों में ऐसे सैकड़ों गुलाब हैं, जिन पर न तो जहरीली मिक गैस का और न उससे मारे गए हजारों लोगों का कोई असर हुआ है। वे तब भी खिले थे और आज 25 बरस बाद भी खिले हुए हैं।
भोपाल के भव्य भारत भवन में ठहरे फिल्म निर्माता श्री चित्रे की नींद उचटी थी बाहर के कुछ शोरगुल से। पूस की रात करीब तीन बजे थे। कड़कड़ाती सर्दी। कमरे की खिड़कियां बंद थीं। चित्रे और उनकी पत्नी रोहिणी ने खिड़की खोलकर इस शोरगुल का कारण जानना चाहा। खिड़की खोलते ही तीखी गैस का झोंका आया। उन्होंने आंखों में जलन महसूस की और उनका दम घुटने लगा। तुरंत खिड़की बंद कर दी। आंखों व नाक से पीले रंग का पानी झरने लगा था।

खतरे का आभास हो चुका था। दोनों ने पलंग पर बिछा चादर उठाया और दौड़ते हुए कमरे से बाहर आ गए। उन्हें आश्चर्य हुआ कि आसपास के सभी कमरे पहले ही खाली हो चुके थे। भारत भवन के अहाते के पास राज्य सरकार के श्रममंत्री का बंगला था। वहां भी कोई नहीं। पास ही तो मुख्यमंत्री का बंगला था। शायद उन्हें भी खबर लग गई थी।

सड़क पर पहुंचकर चित्रे दंपति ने अजब नजारा देखा। भगदड़ मची हुई थी। जिसे जिधर जगह दिखाई दे रही थी, उधर ही भाग रहा था। भागते-भागते लोग गिर पड़ते थे। कुछ गिर कर उल्टियां कर रहे थे। कुछ वहीं तड़प कर मर रहे थे। वे भी भागने लगे। कुछ दूर जाकर उन्होंने देखा कि एक परिवार के लोग भागते-भागते थक कर बैठ गए थे। परिवार के एक पुरुष ने कहा, ‘हम सभी साथ-साथ मरेंगे। पास से गुजरी पुलिस की एक गाड़ी में बैठे सिपाहियों को भी नहीं मालूम था कि किस दिशा में भागना है। लाशों पर कूदते-फांदते चित्रे दंपति एक कॉलेज के पास जाकर रुके। उन्होंने तय किया कि वे वहीं रुकेंगे, जो होगा देखा जाएगा। दो घंटे बाद करीब पांच बजे सुबह एक पुलिस वैन वहां पहुंची। उस पर लाउडस्पीकर लगा था, जिससे कहा जा रहा था कि अब घर लौट सकते हैं। लेकिन लोग तब भी भागे जा रहे थे। किसी ने पुलिस की बात नहीं मानी।

हजारों लोग भागते-भागते अपने घरों से मीलों दूर निकल आए थे। कुछ भागकर दूसरे शहरों, कस्बों तक में पहुंच गए थे। सिहोर, विदिशा, होशंगाबाद, रायसेन, ओबेदुल्लागंज, आष्टा, उज्जैन, देवास, इंदौर, रतलाम और यहां तक कि 400 किलोमीटर दूर नागपुर पहुंच गए थे। करीब दस हजार औरतें, बच्चे और मर्द रात दो से चार बजे के बीच तक सिहोर पहुंच चुके थे और इतने ही लोग रायसेन। ये सभी लोग अस्पतालों की तरफ टूट पड़े। सैकड़ों लोग उज्जैन और इंदौर पहुंचे। सैकड़ों ट्रक, टैक्सी और टैंपो वालों ने जान जोखिम में डालकर हजारों लोगों को भोपाल से बाहर लाकर उन्हें उनकी दूसरी जिंदगी में उतारा था।

रिसी गैस 40 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल गई थी। हवा के बहाव की दिशा में 8 किलोमीटर दूर तक उसका करीब दो लाख लोगों पर असर पड़ा था। भोपाल उस रात मानों गैस-कोठरी बन गया था, जिसमें शहर की चैथाई आबादी का दम घुट रहा था। भोपाल अगर ताल तलैयों का शहर न रहा होता तो और ज्यादा संख्या में लोग मरते। पानी ने गैस के बादलों का काफी जहर सोख लिया और इस तरह अन्य लोगों को मरने से बचा लिया।

भोपाल रेलवे स्टेशन यूनियन कारबाइड कारखाने से ज्यादा दूर नहीं है। गैस के गुबार ने उधर का भी रुख किया था। स्टेशन उस समय यात्रिायों से भरा हुआ था। खतरे का आभास रेलवे कर्मचारियों को भी हो चुका था। लेकिन मौत की परवाह न करते हुए भी उनमें से कुछ ड्यूटी पर मुस्तैद रहे। डिप्टी चीफ पावर कंट्रोलर रहमान पटेल ऐसे ही एक कर्मठ कर्मचारी थे। पटेल के अफसर ने पाया कि पड़ोस के क्वार्टर में पटेल की पत्नी और 14 साल का बच्चा मौत की नींद सो चुके थे, लेकिन पटेल यह जानने के बावजूद अपनी ड्यूटी पर डटे रहे।

आधी रात के बाद 116 अप गोरखपुर-बंबई एक्सप्रेस भोपाल से सुरक्षित निकल गई। उसके तमाम यात्री मौत से बाल-बाल बचे शायद उस वजह से क्योंकि कड़ाके की ठंड के कारण डिब्बों के खिड़की दरवाजे बंद थे और भोपाल की जहरीली हवा डिब्बों में घुस नहीं पाई। एक वजह शायद यह भी थी कि स्टेशन अधीक्षक एच.एस. धुर्वे ने जान जोखिम में डालकर ट्रेन को फौरन आगे भगाने का सिग्नल दे दिया था। धुर्वे की जान नहीं बचाई जा सकी लेकिन रेल के सैकड़ों यात्रिायों की जान बचाकर वे अमर हो गए। मरने से पहले उन्होंने आसपास के सभी स्टेशनों को संदेश भेजकर खबर कर दी कि भोपाल में मौत का तांडव चल रहा है, कोई गाड़ी इधर न भेजी जाए। सात घंटे तक भोपाल का देश के अन्य हिस्सों से संपर्क टूटा रहा। अगली सुबह बच गए भाग्यशाली लोगों ने देखा कि स्टेशन लाशों से पटा हुआ है। दफ्तरों के भीतर बाबू लोग कुर्सियों पर मरे पड़े थे। कंट्रोल रूम में भी मौत का सन्नाटा छाया हुआ था।

जो मौत से किसी तरह बच निकले, उन्हें सुबह अस्पतालों में भर्ती कराया गया। भोपाल का 1,200 बिस्तरों वाला हमीदिया अस्पताल सुबह तक मरीजों से पटा हुआ था। पहला मरीज रात करीब सवा बजे अस्पताल पहुंचा था। उसने आंख में बेतहाशा जलन की शिकायत की। पांच मिनट बाद ऐसे मरीजों की संख्या हजार तक पहुंच गई और ढाई बजे रात तक अस्पताल पहुंचे मरीजों की संख्या 4,000 थी। मरीज सिर्फ आंखों की तकलीफ नहीं बता रहे थे। उनकी सांस भी अटक रही थी। अस्पताल के कर्मचारी मरीजों का यह रेला देखकर सकते में आ गए थे। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर यह हो क्या गया है, हजारों लोग कैसे एक साथ बीमार पड़ गए?

सुबह होने तक 25 हजार से ज्यादा लोग हमीदिया अस्पताल में थे। गलियारे उल्टियों और खून से सने पड़े थे। एक डाक्टर ने कहा, ”मैं आपको बता नहीं सकता कि वहां क्या हो रहा था। तिल धरने की जगह नहीं थी। जैसे ही कोई मरीज मरता था, उसके परिवार वाले लाश के पास से हट जाते थे। कुछ लाशें लेकर नाते-रिश्तेदार बाहर भी चले जाते थे। करीब 1,000 लाशें मेरे सामने से गुजरीं।सुबह होने तक 25 हजार से ज्यादा लोग हमीदिया अस्पताल में थे। गलियारे उल्टियों और खून से सने पड़े थे। एक डाक्टर ने कहा, ”मैं आपको बता नहीं सकता कि वहां क्या हो रहा था। तिल धरने की जगह नहीं थी। जैसे ही कोई मरीज मरता था, उसके परिवार वाले लाश के पास से हट जाते थे। कुछ लाशें लेकर नाते-रिश्तेदार बाहर भी चले जाते थे। करीब 1,000 लाशें मेरे सामने से गुजरीं। “ कौन मर चुका है और कौन मर रहा है, उन्हें अलग करना कठिन हो गया था। मुर्दाघर में जो लोग ड्यूटी पर थे, उन्हें भी लाशें अटाना कठिन पड़ गया था।

जब पूरा शहर मुर्दाघर बन गया हो तो अस्पताल के मुर्दाघर के बारे में क्या कहा जाए।

श्मशान पर शवों का पहुंचना सुबह नौ बजे शुरू हुआ। पहली बार में 15 चिताएं एक साथ जलीं। लेकिन जब शवों का सिलसिला रुका नहीं तब और चिताएं बनानी पड़ीं। देखते-देखते श्मशान की तमाम लकड़ियां समाप्त हो गईं, नई खेप आई। फिर तो हर चिता पर 15-15 लाशें रखी जाने लगीं। हिंदू मान्यताओं के अनुसार बच्चों व शिशुओं का दाह-संस्कार नहीं किया जाता, इसलिए उन्हें दफनाया जाने लगा। अपनी संतानों के अंतिम संस्कार पर उपस्थित रहने वाले माता-पिता भी कितने बच पाए थे?

जो हाल श्मशान का था, वैसा ही हाल कब्रिस्तानों का था। एक के बाद एक शव लाया जा रहा था। दफनाने की जगह भर चुकी थी। फिर एक ही कब्र में कई शव दफनाने लगे। इसके बाद भी जब मैयत का तांता बंद नहीं हुआ तब पुरानी कब्रें खोद कर उनमें लाशें दफनाई गईं। इसके लिए भोपाल के मुफ्ती को खास फतवा जारी करना पड़ा, जिसमें पुरानी कब्रें खोदकर नई लाशें दफनाने का हुकुम दिया गया था।

यूनियन कारबाइड उस काली रात को भी झूठ बोल रही थी। इधर, हमीदिया अस्पताल में बेहाल मरीजों की भीड़ उमड़ पड़ी थी और उधर कंपनी के डाक्टर एल.डी. लोया हमीदिया अस्पताल के स्तब्ध और हतप्रभ डाक्टरों को जता रहे थे कि गैस जहरीली नहीं है। मरीजों से केवल इतना भर कहें कि वे आंखों पर गीला तौलिया ढांप लें।

यह कोई अकेला झूठ नहीं था। यूनियन कारबाइड के बड़े लोग बड़ी बेशर्मी से लगातार झूठ बोलते रहे। रात करीब एक बजे भोपाल के पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी को जगाकर बताया गया कि कारबाइड कारखाने से दो किलोमीटर दूर छोला इलाके में भगदड़ मची है, क्योंकि कारखाने से कोई गैस रिसी है। श्री पुरी लपक कर उठे और 1.25 बजे तक कंट्रोल रूम पहुंच गए। उनके होश उड़ गए जब उन्होंने डयूटी पर तैनात सिपाहियों को बुरी हालत में पाया। वे आंखें मल रहे थे और उल्टियां कर रहे थे। 1.25 से 2.10 के बीच उन्होंने यूनियन कारबाइड को तीन बार फोन किया, जिसमें दो बार बताया गया कि यहां तो सब कुछ ठीक-ठीक है और चिंता की बात नहीं है। तीसरी बार कहा गया ”सर हम नहीं जानते कि क्या हो गया है।“

गैस रिसने के करीब 45 मिनट बाद यानी पौने दो बजे अतिरिक्त जिलाधिकारी खुद कंपनी के वक्र्स मैनेजर के. मुकुंद के घर गए। मुकुंद को तब तक नहीं पता था कि कोई गैस रिसी भी है। उन्होंने टका-सा जवाब दियाः

यूनियन कारबाइड ने अपनी ओर से इस हादसे की जानकारी देने की कोई कोशिश नहीं की। तीन बजे सुबह यूनियन कारबाइड ने एक आदमी भेज कर कहलवाया कि गैस रिसाव रोक दिया है। यह भी सफेद झूठ था। कंपनी ने रिसाव रोकने की कोई कोशिश नहीं की थी। गैस बनना और रिसना अपने आप रुक गया था। लेकिन तब तक जो होना था, वह हो चुका था।”हमारे प्लांट से गैस रिस ही नहीं सकती। प्लांट बंद है। हमारे काम में गलती नहीं हो सकती। हमारे यहां गैस रिसाव की गुंजाईश नहीं है।“

उस पूरी रात यूनियन कारबाइड ने अपनी ओर से इस हादसे की जानकारी देने की कोई कोशिश नहीं की। तीन बजे सुबह यूनियन कारबाइड ने एक आदमी भेज कर कहलवाया कि गैस रिसाव रोक दिया है। यह भी सफेद झूठ था। कंपनी ने रिसाव रोकने की कोई कोशिश नहीं की थी। गैस बनना और रिसना अपने आप रुक गया था। लेकिन तब तक जो होना था, वह हो चुका था।

भोपाल में मरने वालों की संख्या रहस्य ही बनी रहेगी। पहले दिन सरकार ने संख्या 400 बताई, लेकिन गैर सरकारी सूत्रों ने 500। दूसरे दिन सरकारी और गैर सरकारी संख्या में अंतर और बढ़ गया। सरकारी गिनती 550 पर पहुंची, जबकि गैर-सरकारी गिनती 1200 पर। तीसरे दिन गैर सरकारी संख्या 16 सौ हो गई, लेकिन सरकार की संख्या केवल 620 रही। इसमें भी भोपाल में केवल 583 और बाकी 37 अन्य शहरों में। चौथे दिन गैर सरकारी संख्या 1700 बताई गई, उधर सरकार ने भी अपनी गिनती बढ़ा कर दुगनी कर दी 1327। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने सफाई दी कि मरने वालों की संख्या कम बताने का कोई सवाल ही नहीं है। ”लीपापोती नहीं की जा रही है,“ उन्होंने कहा। तब तक भोपाल के आसपास के गांवों और शहरों से रिपोर्ट नहीं मिल पाई थी।

पांचवें दिन से गैर-सरकारी और सरकारी गिनती का अंतर फिर बढ़ने लगा। जनवरी 85 तक राज्य सरकार केवल 1430 मृतकों की रट लगा रही थी, लेकिन हमारे और दुनिया भर के अखबार ढाई हजार लोगों के मरने की खबर दे रहे थे। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने जनवरी में जाकर बताया कि ज्यादातर लोग गैस रिसाव के पहले 48 से 72 घंटों में मरे। परिषद ने कहा कि 1200 लोग अस्पतालों में मरे। और इस तरह मृतकों की कुल संख्या 2000 के लगभग है। अमेरिकी अदालत में दायर यूनियन कारबाइड के विरुद्ध हर्जाने और मुआवजे के दावे में केंद्र सरकार ने मृतकों की संख्या 17 सौ बताई है।

भोपाल में अनेक लोग मानते हैं कि गैर सरकारी गिनती भी गलत है और मृतकों की संख्या ढाई हजार से कहीं ज्यादा है। जहरीली गैस कांड मोर्चा के लोग कहते हैं कि सेना के ट्रकों में भर कर लाशें ले जाई गईं और उन्हें दफना दिया गया। गैस रिसाव के पहले दो दिनों में तो शायद ही किसी को होश रहा होगा लाशें गिनने का। मोर्चे का कहना है कि मृतकों की संख्या 5000 से भी ज्यादा है।

यूनीसेफ के एक अधिकारी ने भोपाल में एक हफ्ता रहने के बाद दिल्ली लौटने पर एक गोपनीय रिपोर्ट में मरने वालों की संख्या 10 हजार तक बताई थी। रिपोर्ट में कहा गया कि कई सरकारी लोग और डाक्टर भी निजी तौर पर यही मानते हैं। शहर में कपड़ा बेचने वालों का कहना है कि कोई दस हजार कफन तो बिके थे।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ सेंटर ने सबसे ज्यादा पीड़ित 29 इलाकों में हर 15 वें परिवार से पूछताछ की थी। बस्तियों की आबादी 68 हजार थी। कुल मिलाकर इस सर्वे में मरने वालों की तादाद 1305 बताई गई।

तालाबों के शहर भोपाल में उस समय मृत्यु की नदी बही थी। पर सरकार, वैज्ञानिक, डाक्टर, सर्वे वाले लोग बस कुछ बूंदें गिन रहे थे।

मरने वालों की संख्या अभी थम ही रही थी और अस्पताल आने वालों की कतार कुछ छोटी हो रही थी कि सातवें दिन भोपाल अचानक फिर कांप उठा। पता चला कि यूनियन कारबाइड कारखाने में 15 टन जहरीली गैस अभी भी बच रही है और अब उसे बेअसर किया जाएगा। बच रही गैस को बेअसर कर दिए जाने के बाद ही सरकार की नजर में भोपाल पूरी तरह बेखौफ हो सकता था। वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष डाक्टर वरदराजन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक टीम को बेअसरी का तरीका तय करने का जिम्मा सौंपा गया। डाक्टर वरदराजन ने भोपाल में केंद्र सरकार की क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला में अपना अस्थायी कार्यालय कायम किया और दम साध कर बैठ गए। बच रही गैस को बेअसर करने के कुछ तरीके ढूंढ़े गए। गैस को कास्टिक सोडा के जरिए बेअसर किया जाए, इसे ड्रामों में भर का जहाजों से अमेरिका में संरक्षक कंपनी को भेज दिया जाए, या कारखाना पुनः चलाकर बच रही मिक भी खपा ली जाए, ताकि मिक अंतिम उत्पाद कारबेरिल कीटनाशक में बदल जाए।

हर कोई जानता था कि यूनियन कारबाइड कंपनी इस अंतिम विकल्प के पक्ष में ही थी। कंपनी के अमेरिकी मुख्यालय ने दुनिया में अपनी सभी फैक्टरियों को हिदायत दे दी थी कि जितनी जल्दी हो सके, मिक का इस्तेमाल कर उसे कारबेरिल बना डाला जाए। भोपाल कारखाने के प्रबंधकों ने भी सात दिसंबर को अपनी ओर से कोशिश की थी कि कारखाना चलाकर मिक को खपा लिया जाए। लेकिन इस काम के लिए जो कर्मचारी कारखाने पहुंचे, उन्हें जिला प्रशासन ने, जिसने कारखाने को अपने नियंत्राण में ले लिया था, वापस भेज दिया।

कारखाना दुबारा चलाने का मतलब होता कि मुख्यमंत्री की बात खाली चली जाती। उन्होंने हादसे के चौथे दिन बहुत जोर से कहा था कि कारखाना दुबारा खुलने नहीं दिया जाएगा। अखबारों व लोगों ने भी इस विकल्प का कड़ा विरोध किया।

दस दिसंबर को यह बात फिर फैली कि कारखाने में काम दोबारा शुरू हो गया है। जिला प्रशासन के एक अधिकारी ने कहा कि मिक को कीटनाशक में बदला जाना तय कर लिया गया है और इसके लिए कारखाना शुरू किया जा चुका है। लेकिन वरदराजन ने बड़ी फुर्ती से इसका खंडन किया। इस बीच भोपाल सांस रोक कर इंतजार करता रहा। अगले दिन इन अफवाहों के बीच कि वरदराजन की निगरानी में कारखाना फिर चलाया जाएगा, मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने जनता से अपील की, ”अब डरने की कोई बात नहीं है और मैं अपील करता हूं कि डर कर शहर मत छोड़िए।“ लेकिन मुख्यमंत्री एक ओर यह अपील कर रहे थे, उनकी सरकार कुछ और ही कर रही थी। लगभग उसी समय सरकारी वाहन शहर में दौड़ने लगे, जिन पर लगे माइक सहमे हुए भोपाल को यह सूचना दे रहे थे कि शहर के सभी स्कूल-कॉलेज कल से अगले 12 दिनों के लिए बंद रहेंगे। मध्य प्रदेश सड़क परिवहन निगम से पूछताछ में मालूम पड़ा कि राज्य केदूसरे भागों से बड़ी संख्या में बसें भोपाल मंगाई गई हैं। लेकिन परिवहन निगम यह सफाई देने से नहीं चूका कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि भोपाल से भाग गए लोग वापस भोपाल पहुंच सकें।

इन सारी बातों से लोगों का संदेह पक्का हुआ कि सरकार ने शहर खाली कराने की योजना बनाई है। सरकार ने पुलिस वाहनों के जरिए शहर के कोने-कोने में सूचना पहुंचाई कि भय की कोई बात नहीं रह गई है। ऐसी घोषणा आकाशवाणी भोपाल से भी बार-बार प्रसारित की गई। लेकिन मिक से डरे भोपाल पर संदेह का, अविश्वास का कुहरा घना होता गया।

अगले दिन उहापोह की स्थिति खत्म हो गई। सरकार ने अंततः वही फैसला किया जो यूनियन कारबाइड चाह रही थी। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उसी शाम घोषणा की कि विशेषज्ञों की राय में फैक्टरी को दोबारा चालू कर मिक को खपा लेना ही सर्वोत्तम और सबसे सुरक्षित उपाय होगा। उन्होंने कहा कि 16 दिसंबर से कारखाना चार या पांच दिन के लिए फिर चला जाएगा। लेकिन वे यह कहने से नहीं चूके कि इस दौरान सुरक्षा के सभी उपाय किए जाएंगे और किसी किस्म के खतरे की गुंजाइश नहीं छोड़ी जाएगी। उन्होंने कहा, ”उस पूरे समय मैं खुद कारखाने में मौजूद रहूंगा।

लेकिन मृत्यु इतनी हल्की होकर जिस शहर में घर-घर उतरी हो, वहां ऐसे शब्दों का वजन खो गया था। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि कारखाने को दोबारा चलाए जाने के दौरान आसपास की तेरह बस्तियों के सवा लाख लोगों के लिए सरकार ने सुरक्षित स्थान पर शिविर कायम किए हैं। ऐसा सिर्फ लोगों की सहूलियत के लिए किया गया है। जो लोग भोपाल के बाहर जाना चाहते हों, उनके लिए सरकार ने विशेष बसों का भी इंतजाम किया है। इसी तरह मवेशियों के लिए भी अलग शिविर लगाने की बात कही गई।

भोपाल के लोगों का विश्वास उठ चुका था। ज्यादातर ने अपनी मदद आप करने की ठानी। तेरह दिसंबर की शाम तक करीब एक लाख लोग भोपाल छोड़कर आसपास के शहरों, कस्बों व गांवों में जा चुके थे। शांतिकाल में लोगों का इस बड़े पैमाने पर पलायन शायद ही कभी हुआ होगा। बस अड्डा यात्रिायों से खचाखच भरा था और सैंकड़ों बसें लोगों को भोपाल से

बाहर पहुंचाने में लगी थीं। रेलगाड़ियों में तिल धरने की जगह भी नहीं थी। हजारों लोगों ने अपने मवेशी पड़ोस के गांवों में पहुंचा दिए थे। अगले दिन भी पलायन जारी था। दहशत इतनी थी कि अस्पतालों में भर्ती सैकड़ों मरीज भी रही-सही ताकत बटोर भोपाल से बाहर चले गए थे। 14 दिसंबर की शाम तक भोपाल की करीब चैथाई आबादी शहर छोड़ चुकी थी।

सरकार ने जो शिविर कायम किए थे, उन पर किसी को यकीन नहीं था। बस 4,800 लोग इन शिविरों में पहुंचे। ये वो लोग थे, जिनके पास न पैसा था, न बाहर नाते रिश्तेदार। लोगों के न आने के कारण अधिकारियों को दो शिविर बंद कर देने पड़े।

सारा भोपाल भोपाल से कहीं दूर चला गया था।

भोपाल के लोगों का विश्वास उठ चुका था। ज्यादातर ने अपनी मदद आप करने की ठानी। तेरह दिसंबर की शाम तक करीब एक लाख लोग भोपाल छोड़कर आसपास के शहरों, कस्बों व गांवों में जा चुके थे। शांतिकाल में लोगों का इस बड़े पैमाने पर पलायन शायद ही कभी हुआ होगा। बस अड्डा यात्रिायों से खचाखच भरा था और सैकड़ों बसें लोगों को भोपाल से बाहर पहुंचाने में लगी थीं। रेलगाड़ियों में तिल धरने की जगह भी नहीं थी।लोग क्या सोच रहे थे, इसकी तरफ से आंख मूंदे सरकारी विशेषज्ञ अपने तरीके से कारखाना दुबारा चलाने की तैयारियों में जुटे थे। विशेषज्ञों ने सुरक्षा बंदोबस्त के छह कदम बताए। लेकिन पहले कदम का सुरक्षा उपाय से कोई ताल्लुक नहीं था। मालूम पड़ता है कि विशेषज्ञों ने इसे बस यों ही गिना दिया था। पहला कदम वह प्रक्रिया थी जिससे मिक गैस की अल्फानैफ्थाल के साथ रासायनिक क्रिया करवाने के बाद कीटनाशक कारबेरिल बनाया जाना था। दूसरा उपाय था अतिरिक्त सुरक्षा वाल्व लगाना। यह उस रात काम नहीं कर पाया था जिससे मिक गैस वायुमंडल से मिल गई थी। इसमें दो नए हौजपाइप जरूर लगाए गए थे, ताकि स्क्रबर गर्म न हो जाए।

मिक गैस पानी के साथ क्रिया कर सकती है। इस बात को ध्यान में रखकर तीन नए उपाय और किए गए थे। हालांकि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार ये उपाय इतने साधारण थे कि इनसे फिर मिक गैस रिसने की आशंका कतई कम नहीं होती थी। मसलन जिस चिमनी से मिक गैस निकलती थी, उसे शामियाने से ढंक दिया गया! यह शामियाना पानी से तर रखा जाना था ताकि मिक यदि रिस भी जाए तो पानी से तत्काल रासायनिक क्रिया करके उसे डाइ-मैथिल्स यूरिया में बदला जाए। इसके अलावा फैक्टरी के जिस ओर जयप्रकाशनगर था, उस ओर दीवार पर टाट के बड़े-बड़े परदे लगा दिए गए थे, जिन्हें हमेशा गीला रखा जाना था, ताकि रिसी गैस को पानी तुरंत उदासीन बना सके। छठे बंदोबस्त में वायुसेना के हेलीकाप्टर कारखाने के ऊपर मंडराते रहने वाले थे ताकि जरूरत पड़ने पर कारखाने के ऊपर पानी का छिड़काव किया जा सके। इतनी सावधानी बरते जाने के बावजूद गैस यदि तब भी रिस गई तो उस स्थिति में विशेष सायरन बजाने की व्यवस्था भी की गई थी। सेना के विशेष बचाव दस्ते भी तैयार रखे गए थे, जो सायरन के साथ ही बचाव कार्य में लग जाते।

सारे उपाय एक तरफ, लेकिन चिंता बनी ही रही कि यह अभियान किसकी निगरानी में संपन्न होगा। सरकारी विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों को कारखाने के एक-एक कलपुर्जे की जानकारी तो थी नहीं। यह जानकारी सिर्फ यूनियन कारबाइड के विशेषज्ञों को ही थी और इसीलिए यह काम प्रबंधकों के जिम्मे छोड़ दिया गया था। डाक्टर वरदराजन ने खुद कहा, ”हमसे यह उम्मीद कैसे रखी जा सकती है कि हम कारखाने के एक-एक पुर्जे के बारे में जान लें।“ रिस रही मिक खत्म करने की इस पूरी प्रक्रिया में यूनियन कारबाइड कार्पोरेशन (अमेरिका) के विशेषज्ञों को जरूरत से ज्यादा महत्व दिया गया। भोपाल कारखाने के जिन अधिकारियों को हादसे के अगले ही दिन संगीन दफाओं में गिरफ्तार किया गया था, उन्हें सोलह दिसंबर को इस शर्त पर रिहा कर दिया गया कि वे इस प्रक्रिया में सरकारी वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की पूरी मदद करेंगे! इनमें अमेरिका से आए विलियम तूमर भी थे, जिन्हें कारखाने में घुसने की इजाजत नहीं दी गई थी कि कहीं वे सबूत मिटाने की कोशिश न करें।

सब खलनायक एक बार फिर नायक बन गए थे।

15 दिसंबर की शाम मुख्यमंत्री ने घोषणा की, ”यूनियन कारबाइड कारखाने में बच रही विषैली गैस को समाप्त करने की तैयारियों पूरी हो चुकी हैं। हालांकि कारखाने में दुबारा उत्पादन यूनियन कारबाइड के पूरे नियंत्राण में रहेगा और किसी भी दुर्घटना के लिए जिम्मेदारी उनकी ही रहेगी लेकिन कारखाना चलाने के लिए अंतिम आदेश मैं खुद दूंगा। मेरे लिए निःसंदेह वह अत्यंत नाजुक और पीड़ादायी घड़ी होगी। नितांत एकाकी क्षणों में व्यक्ति की नियंता पर आस्था और बलवंत हो जाती है। विश्वास हृदय की गहराइयों से पैदा होता है। पिछले दिनों की दुखद घटनाओं ने हम सबको तोड़ कर रख दिया है और ईश्वर पर हमारा विश्वास भी डिगने लगा है। लेकिन हमें ईश्वर पर विश्वास रखना होगा। इसलिए हम इसे आस्था अभियान कहेंगे। हम सबको इसकी सफलता की प्रार्थना करनी चाहिए।“

सारी रात आस्था अभियान की तैयारियां की जाती रहीं। हर सड़क पर पानी के टैंकर और दमकल गाड़ियां खड़ी थीं। हालांकि यह समझना कठिन था कि मिक अगर फिर रिस गई तो ये गाड़ियां भला क्या कर लेंगी? चप्पे-चप्पे पर पुलिस के जवान तैनात थे जो अपनी सुरक्षा के लिए अपने पास पानी से भरी बाल्टी और गीले गमछे, तौलिए रखे हुए थे। कारखाने के उस हिस्से को, जिसमें मिक बननी थी, शामियाने से ढांक रखा गया था। दमकल वाले उसे पानी से तर कर रहे थे। हर पांचवें मिनट कारखाने के ऊपर मंडरा रहे हेलीकाप्टर से पानी का छिड़काव किया जा रहा था।

भोपाल कारखाने के जिन अधिकारियों को हादसे के अगले ही दिन संगीन दफाओं में गिरफ्तार किया गया था, उन्हें सोलह दिसंबर को इस शर्त पर रिहा कर दिया गया कि वे इस प्रक्रिया में सरकारी वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की पूरी मदद करेंगे! इनमें अमेरिका से आए विलियम तूमर भी थे, जिन्हें कारखाने में घुसने की इजाजत नहीं दी गई थी कि कहीं वे सबूत मिटाने की कोशिश न करें। सब खलनायक एक बार फिर नायक बन गए थे।16 दिसंबर को सुबह साढ़े आठ बजे मुख्यमंत्री की उपस्थिति में कारखाना चालू किया गया। राज्यपाल प्रो. के.एम. चांडी भी, जिन्होंने हादसे के बाद से भोपाल का पानी भी पीना बंद कर रखा था, कारखाने पधारे। बाहर कारखाने के फाटक पर अटलबिहारी वाजपेयी पुलिस वालों से भीतर जाने के लिए झगड़ रहे थे।

पहला दिन खत्म होने तक स्टोरेज टेंक नंबर 619 में रखी 15 टन मिक में से चार टन और फौलादी ड्रमों में रखी 1.2 टन मिक को कीटनाशक में बदल दिया गया था। अगली सुबह यह सारी प्रक्रिया फिर दोहराई गई और शाम होते-होते चार टन मिक और समाप्त हो चुकी थी। तीसरे दिन के खत्म होने तक बारह टन मिथाईन आइसोसाइनाईड कीटनाशक बनाकर खपाई जा चुकी थी। पहले लगाए गए अनुमान के हिसाब से अब सिर्फ चार टन मिक ही बच रही थी, लेकिन बाद में मालूम हुआ कि यूनियन कारबाइड के प्रबंधक इस बारे में भी झूठ बोल रहे थे। कारखाने में कहीं ज्यादा मिक मौजूद थी। कारखाना तीन के बजाए पूरे सात दिन चलाना पड़ा और इस दौरान बारह के बजाए चैबीस टन मिक को खपाना पड़ा।

मिक से कीटनाशक बनाने का जो काम बरसों से साधारण मजदूर करते आ रहे थे, इस दौरान वही काम पुलिस, थल सेना, वायुसेना, दमकलों और ढेर सारे देसी-विदेशी विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों की उपस्थिति में डाक्टर वरदराजन और मुख्यमंत्री कर रहे थे। आकाशवाणी पर विशेष बुलेटिन प्रसारित हो रहे थे और अखबार भी यही बताने में जुटे थे कि कितने टन गैस से कितना कीटनाशक सफलतापूर्वक बन चुका है! प्राणलेवा गैस को ठिकाने लगाने का इससे कारगर व सुरक्षित उपाय न खोजा जाना तकनीक का नहीं, राष्ट्रीय शर्म का विषय था। पर इसे तो तकनीकी विजय की तरह फहराया गया।भोपाल में आस्था अभियान से जुड़े किसी भी वैज्ञानिक या नेता का सिर उस हफ्ते शर्म से नीचे नहीं झुका था।

लगातार कई दिनों तक भोपाल के लोग यह भी नहीं तय कर पाए कि वे क्या खाएं, क्या न खाएं। क्या हवा और पानी सुरक्षित है? क्या फल और सब्जियां इस्तेमाल करना निरापद है? क्या मछली और मांस इस्तेमाल किया जा सकता है? प्रशासन की ओर से जो सूचनाएं दी गईं, उनमें भ्रम और भी बढ़ा। कहा गया पानी सुरक्षित है, पर कृपया उबालकर पिएं। सब्जियां सुरक्षित हैं, पर पकाने से पहले उन्हें अच्छी तरह धो डालें। इसी तरह कहा गया कि मछली और मांस खाने योग्य है, पर साथ-साथ मांस और मछली बेचने पर प्रतिबंध भी लगा दिया। कत्लखाने अगले आदेश तक के लिए बंद कर दिए गए। कोई अधिकारी यह बताने की हालत में नहीं था कि ये सारे आदेश क्यों और किस आधार पर दिए गए।

पहल की एकलव्य नामक एक संस्था ने। मध्य प्रदेश शासन के अनुदान से गांवों के स्कूलों में विज्ञान-शिक्षण का प्रचार करने वाली इस संस्था ने हवा, पानी, वनस्पति, अनाज व अन्य वस्तुओं की जांच का बीड़ा उठाया। लेकिन बहुत जल्द उसे समझ में आ गया कि तमाम प्रयोगशालाएं सरकारी नियंत्राण में हैं और उनमें काम करने वाले ज्यादातर वैज्ञानिक ऐसे परीक्षणों से कतरा रहे हैं।

जांच सरकार ने भी करवाई। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का एक जांच दल 11 दिसंबर को भोपाल पहुंचा। उस दल ने पाया कि गैस के असर से मवेशी महज तीन मिनट में मर गए थे। मवेशियों की आंखों में पानी बहा था और मुंह से झाग निकला था। गाभिन गायें अचानक जन गई थीं। हल्के असर में आए पशुओं का दूध भी एकाएक सूख गया था और रोज 8 से 10 लीटर दूध देने वाली गायें आधा लीटर दूध भी नहीं दे पा रही थीं।

सरकारी हिसाब से मवेशी ज्यादा नहीं मरे सिर्फ 1047। हां, करीब 7 हजार पर असर जरूर पड़ा और वे बीमार हो गए।

गैस के असर वाले इलाकों में कई जगहों से पानी और मछली वगैरह के नमूने लिए गए। भोपाल की झीलों व ताल तलैया की मछलियों में रक्त की कमी पाई गई।

वनस्पति और मिट्टी पर मिक के असर का अध्ययन केंद्रिय जल प्रदूषण निवारण बोर्ड ने किया। बोर्ड ने नीम के पेड़ पर अध्ययन केंद्रित किया, क्योंकि नीम वातावरण के प्रति अपेक्षाकृत सबसे ज्यादा संवेदनशील होता है। बोर्ड ने पाया कि फैक्टरी के आसपास करीब साढ़े तीन वर्ग किलोमीटर क्षेत्रा में वनस्पतियों पर मिक का सबसे भयानक, इसके बाद साढ़े दस वर्ग किलोमीटर इलाके में बुरा, 16 वर्ग किलोमीटर इलाके में मामूली और 25 वर्ग किलोमीटर इलाके में हल्का असर पड़ा था।

पत्तियों तक ने गवाही दी।

मेथी के पौधे भी काफी संवेदनशील पौधे हैं। फैक्टरी से चार वर्ग किलोमीटर दूर तक ये पौधे पूरी तरह नष्ट हो गए थे। हादसे के आठ दिन बाद भी नए पौधे जड़ें पकड़ने को तैयार नहीं थे। नीम, अरंडी, करंज और बेर पूरी तरह बर्बाद हो गए थे। लेकिन तालाबों, तलैयों के किनारे यही पौधे व पेड़ एकदम ठीकठाक व स्वस्थ थे मानो पानी के संसर्ग ने उन्हें अपार जीवनी-शक्ति प्रदान की। वैज्ञानिकों ने इस आधार पर कहा कि भोपाल अगर ताल-तलैयों का शहर न रहा होता तो मिक का कहर और भी भयानक होता।

एहतियात के तौर पर बोर्ड ने सुझाव दिया कि गैस-प्रभावित क्षेत्रों के बेर, आम व पपीते वगैरह कम से कम एक मौसम तक इस्तेमाल न किए जाएं।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का एक दल भी भोपाल गया था। अपने अध्ययन के बाद इन वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी कि बाग-बगीचों के फलों व सब्जियों का कम से कम एक मानसून बीतने तक इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि इन पौधों की अनुवांशिकी पर भी मिक का असर पड़ा है। इन वैज्ञानिकों ने तो सारी फसल उखाउ़ डालने और जमीन को कम से कमएक साल तक परती रखने की सलाह भी दी थी।

हादसे के एक महीने बाद लखनऊ में हुई राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में भोपाल पर भी बातचीत हुई। एक वैज्ञानिक ने अपना पर्चा पढ़ते हुए बड़े उत्साह से कहा थाः ”गुलाब प्रेमियों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी कि भोपाल में गुलाब के पौधों पर मिक का कोई खास असर नहीं पड़ा है।“ भर आता है मन ऐसी शोध को देखकर। पर यह एक बहुत कड़वा सच है कि भोपाल कांड के बाद हमारे समाज में, नेतृत्व में, वैज्ञानिकों में, अधिकारियों में ऐसे सैकड़ों गुलाब हैं, जिन पर न तो जहरीली मिक का और न उससे मारे गए हजारों लोगों का कोई असर हुआ है। वे तब भी खिले हुए थे और आज 25 बरस बाद भी खिले हुए हैं।

गांधी शांति प्रतिष्ठान से सन् 1988 में प्रका”शित पुस्तक ‘हमारा पर्यावरण’ के स्वास्थ्य नामक अध्याय में छपे ‘भोपाल कांड’ के संपादित अंश।

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