भ्रष्टाचार का बांध

25 Aug 2010
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‘‘सबसे पहले यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार का कारण न व्यक्ति है, न विकास है। अगर विकास के ढांचे में भ्रष्टाचार का बढ़ना अनिवार्य है तो वह फिर विकास ही नहीं है।‘‘ किशन पटनायक

सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों को दिए गए विशेष पुनर्वास पैकेज के अन्तर्गत हुए फर्जी रजिस्ट्री कांड की जांच कर रहे न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) एस.एस.झा आयोग के सम्मुख गवाही के लिए आ रहे सैकड़ों दलितों और आदिवासियों के साथ हुई धोखाधड़ी के प्रमाण देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण ने स्वीकार किया है कि उसने तकरीबन 2902 व्यक्तियों को यह पैकेज स्वीकृत किया है। इसमें से 1486 व्यक्तियों को एक किश्त का ही भुगतान हुआ है अर्थात उन्होंने अभी तक जमीन नहीं खरीदी है। इसके बावजूद रजिस्ट्रियों की संख्या 3800 का आंकड़ा पार कर चुकी है। गौरतलब है कि इस विशेष पुनर्वास पैकेज में प्रति परिवार 5.50 लाख रुपए का भुगतान होना था। इससे इस भ्रष्टाचार में समाहित धनराशि की कल्पना की जा सकती है।

मध्यप्रदेश सस्कार ने नर्मदा घाटी परियोजनाओं की पुनर्वास नीति में जमीन के बदले जमीन के सिद्धांत व वायदे के बावजूद नकद धनराशि मुहैया करवाकर लोगों से कहा था कि वे स्वयं ही भूमि खरीद लें। इस योजना के अन्तर्गत 50 प्रतिशत राशि अग्रिम दिए जाने एवं बाकी की 50 प्रतिशत रजिस्ट्री दिखाए जाने के बाद भुगतान किए जाने का प्रावधान था। सामान्यतौर पर विचार करने से ही स्पष्ट हो जाएगा कि भ्रष्टाचार की पूर्व नियोजित योजना के तहत ही यह पैकेज घोषित किया गया होगा। क्योंकि कोई भी विक्रेता बिना पूरा धन लिए दूसरे व्यक्ति के नाम अपनी जमीन कैसे कर देगा?

दोस्तोयेव्सकी ने अपराध और दंड में जो लिखा है वह इस घोटाले का दूसरा पहलू हो सकता है। वे लिखते हैं, ‘वह एक सवाल में बेहद उलझा रहता था। ऐसा क्यों है कि लगभग सभी अपराध इतने फूहड़पन से छिपाए जाते हैं और इतनी आसानी से उनका पता चल जाता है?‘ उनका यह भी कहना है, ‘ठीक उसी क्षण जब समझदारी और सतर्कता की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बच्चों जैसी और हद दर्जे की लापरवाही की वजह से हर अपराधी इच्छाशक्ति और विवेक बुद्धि खो देने का शिकार हो जाता है।‘ मध्यप्रदेश के देवास जिले की बागली व हाट पीपल्या तहसील के जंगलों में बसे दलित व आदिवासी आयोग के दतर में हतप्रभ से बैठे हैं क्योंकि उनको पट्टे पर मिली जमीनों का विक्रय पत्र उनके आँखों के सामने है, और उस पर किसी अन्य की तस्वीर चिपकी हुई है। सबमें आश्चर्यजनक बात यह है कि सरकार द्वारा पट्टे पर दी गई जमीनों को बेचा ही नहीं जा सकता, इसके बावजूद सरकारी अमले ने दलालों के साथ मिलकर सैकड़ों ऐसी रजिस्ट्रियां करवा दी हैं। इसमें रजिस्ट्री कराने वाला वकील भी एक ही है। कई ऐसे व्यक्तियों के नाम से रजिस्ट्रियां कर दी गई हैं जिनका देहान्त हुए एक दशक से भी अधिक हो चुका है।

यह सारा घोटाला इतनी बेशर्मी और सीनाजोरी से हुआ है जैसे कि घोटाला करने वालों को इस बात का डर ही नहीं था कि कभी उनकी चोरी पकड़ी की जा सकती है। या फिर दोस्तोयेव्सकी ने अपराध और दंड में जो लिखा है वह इस घोटाले का दूसरा पहलू हो सकता है। वे लिखते हैं, ‘वह एक सवाल में बेहद उलझा रहता था। ऐसा क्यों है कि लगभग सभी अपराध इतने फूहड़पन से छिपाए जाते हैं और इतनी आसानी से उनका पता चल जाता है?‘ उनका यह भी कहना है, ‘ठीक उसी क्षण जब समझदारी और सतर्कता की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बच्चों जैसी और हद दर्जे की लापरवाही की वजह से हर अपराधी इच्छाशक्ति और विवेक बुद्धि खो देने का शिकार हो जाता है।‘ यहाँ भी यही हुआ और नर्मदा बचाओ आंदोलन की सतर्क निगाहों में ये घोटाला प्रकाश में आया और जांच आयोग गठित हुआ।

परंतु आज जबकि 3000 से अधिक व्यक्तियों के साथ सीधे-सीधे धोखाधड़ी हुई है यह मामला उतनी सुर्खियों में नहीं आया जितना आना चाहिए था। क्योंकि इस घोटाले की ‘नींव‘ में ‘विकास‘ की सीमेंट लगा दी गई है। यह घोटाला अंततः आम जनता की जब से वसूल किया जा रहा है। दरअसल भ्रष्टाचार का कोई भी मामला ‘छोटा‘ या ‘बड़ा‘ नहीं होता। सभी एक से ही गंभीर होते हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले को यह कहकर दबाया जा रहा है कि खेल हो जाने के बाद इस पर विचार करेंगे। ठीक इसी तरह बांधों के मसले पर भी कहा जाने तो बाद में भी बात की जा सकती है, बांध कहीं भागा थोड़े ही जा रहा है। वैसे विकासवादियों ने इस दिशा में प्रयत्न करना प्रारंभ कर दिया है। इस संदर्भ में पहला नीतिगत परिवर्तन वे ये चाहते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय विशेषकर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को एवं स्वीकृति देने वाले अन्य सभी मंत्रालयों को यह आदेश दे कि जिन बड़ी परियोजनाओं में कुल खर्च के 50 प्रतिशत से अधिक का निवेश हो चुका हो उन पर रोक न लगाई जाए। दूसरा नीतिगत परिवर्तन पेसा अधिनियम को लेकर करने की मंशा है। इस हेतु वन अधिकार अधिनियम का सहारा लिया जा रहा है और दोनों को विरोधाभासी बताया जा रहा है।

दरअसल फर्जी रजिस्ट्री कांड के माध्यम से एक बात सामने आती है कि सरकार के कारिंदे अब व्यवस्था को जमींदारी की तरह चला रहे हैं। जमींदारी प्रथा में जमीदार मनमाने तरीके से जनता को लूटता था और इसका एक हिस्सा राजा तक पहुंचा देता था। किशन पटनायक ने सरकार के माध्यम से होने वाले भ्रष्टाचार के बारे में लिखा है, ‘अगर प्रशासन और अर्थव्यवस्था सही है तो समाज में भ्रष्ट आचरण की मात्रा नियंत्रित रहेगी। उससे राज्य को कोई खतरा नहीं होगा। उतना भ्रष्टाचार प्रत्येक समाज में स्वाभविक रूप से रहेगा। परंतु जब प्रशासन और अर्थव्यवस्था असन्तुलित है और सांस्कृतिक परिवेश भी प्रतिकूल है, तब भ्रष्टाचार की मात्रा इतनी अधिक हो जाएगी कि वह नियंत्रण के बाहर होगा, उससे जनजीवन और राज्य दोनों के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।‘

आज भ्रष्टाचार ने भारत नामक राष्ट्र के लिए ही खतरा पैदा कर दिया है। म.प्र. की बागली तहसील के किसी नामालूम से गांव से लेकर दिल्ली सल्तनत तक कोई भी जगह भ्रष्टाचार से अछूती नहीं है। समाचार पत्रों में सी.ए.जी का नाम पढ़ते ही एकाएक ध्यान जाता है कि अब कौन से विभाग के भ्रष्टाचार की बात सामने आई है। स्थितियां यहां तक बिगड़ चुकी हैं कि अब सेना में भ्रष्टाचार और आबंटित धन के यथोचित इस्तेमाल न करने की बात भी हमें नही चौंकाती। राज्य ने शासकीय कर्मचारियों की, आदिवासी बहुल व ग्रामीण इलाकों में नियुक्ति उनकी शोषण से रक्षा के लिए की थी। परंतु रक्षक का भक्षक बन जाना हमारे समय का सबसे कटु सत्य बनता जा रहा है।

न्यायमूर्ति एस.एस.झा आयोग द्वारा जांच जारी है। उनके कार्य करने की सीमाएं हैं और अंततः निर्भरता तो सरकारी अमले पर ही है। इसके बावजूद वंचित समुदाय की उम्मीदें इस आयोग पर टिकी हैं। यह आयोग सिर्फ भ्रष्टाचार को ही बेनकाब नहीं करेगा बल्कि इससे उम्मीद की जा रही है कि इसके निष्कर्षों से सरकार की ‘कल्याणकारी सोच‘ की वास्तविकता भी सामने आएगी? इस पूरे घटनाक्रम का सबसे दुःखद पहलू यह है कि इस घोटाले का जिसने थोड़ा सा भी अध्ययन किया है, वह जानता है कि इसकी जड़ में कौन है। परंतु हमारी व्यवस्था का एक पक्ष यह मानता है कि अगर आपके विरुद्ध अपराध हुआ है तो यह ‘आपकी ही‘ जिम्मेदारी है कि आप ही अपराधी को पकड़ें। इसके बावजूद उसे सजा देना या न देना व्यवस्था का अधिकार है। क्या व्यवस्था इसका उपयोग कभी जनता के पक्ष में करेगी?

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