भू-जल का कृत्रिम पुनर्भरण

30 Jan 2010
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(Artificial Recharge of ground water)
कृत्रिम पुनर्भरण में वर्षा अथवा सतही जल के प्राकृतिक अंतः निस्पंदन को भूमिगत स्तर समूह में किन्हीं निर्माण विधियों (Construction method), जल विस्तारण (Spreading of water) अथवा प्राकृतिक स्थितियों को कृत्रिम परिवर्तन द्वारा बढ़ा दिया जाता है। इसके लिए अनेक प्रकार की विधियाँ विकसित की गई हैं, जिसमें कंटूर नालियाँ, गली फ्लग, चेक डेम, रिचार्ज पिट एवं साफ्ट, स्टॉपडेम, परकोलेशन टैंक, डाइक, संकनपोंड निर्माण आदि हैं।

कृत्रिम पुनर्भरण के उद्देश्यः

(1) भू-जल भंडारण में वृद्धि तथा प्राकृतिक सम्पदा के रूप में उसे सुरक्षित रखना।
(2) सतही एवं भूमिगत जल भंडार के बीच समन्वय स्थापित करना।
(3) तेजी से घटते भू-जल स्तर को रोकना एवं उसमें वृद्धि करना।
(4) भू सतह के अपरदन को रोकना।
(5) मौजूद जलस्रोत, नलकूप एवं कुओं को पोषित करने के लिए स्थानीय तौर पर सतही जल वितरण प्रणाली निर्मित करना।
(6) भू-जल की गुणवत्ता, खारेपन एवं भारीपन को सुधारना। साथ ही रोगाणुओं से मुक्त करना।
(7) कृषि के लिए खेतों में नमी की वृद्धि करना।

कृत्रिम पुनर्भरण के लिए जानकारी: किसी भी क्षेत्र में कृत्रिम पुनर्भरण का कार्य प्रारंभ करने के पूर्व उस क्षेत्र की जलवायु, भौगोलिक संरचना, भू-गर्भीय संरचना, मृदा की अवस्था तथा पुनर्भरण हेतु जल की मात्रा तथा जल उपयोग (पेयजल/सिंचाई/उद्योग) की जानकारी आवश्यक है।

जलवायु : जिस क्षेत्र कृत्रिम पुनर्भरण का कार्य किया जाना है, उस क्षेत्र की औसत वर्षा तथा तापमान एवं आर्द्रता आदि की जानकारी आवश्यक है। इससे हमें उस क्षेत्र में वर्षा की जल की मात्रा एवं वाष्पीकरण की दर का पता लग सकता है।

भौगोलिक संरचना : क्षेत्र की भौगोलिक संरचना किस प्रकार है, यह जानना अतिमहत्वपूर्ण है। क्षेत्र समतल है या ढालूदार। ढालूदार क्षेत्र में ढाल अधिक है या कम है, यह जानकारी आवश्यक है। अधिक ढाल होने से वर्षा जल के बहाव की गति अधिक होगी, जिससे पुनर्भरण की दर कम रहती है एवं मिट्टी का कटाव अधिक रहता है। ऐसे स्थान पर भू-जल पुनर्भरण संरचनाओं का निर्माण कर (अवरोध लगाकर) बहाव की दर को कम किया जा सकता है। इससे वर्षा जल धीरे-धीरे जमीन में रिसकर भूजल भंडारण में वृद्धि कर सकता है।

मिट्टी की स्थिति :

क्षेत्र में किस भू सतह पर किस प्रकार की मिट्टी है, यह जानना अति आवश्यक है। अलग-अलग सतहों में भू-जल के रिसाव की दर भी अलग-अलग रहती है। काली, लाल, पाली, चिकनी मिट्टी में रिसन की दर कम या नहीं के बराबर रहती है। जबकि दुमट, रेतीली एवं चट्टानी मिट्टी में यह दर अत्यधिक रहती है।

भौमिकी संरचना :


क्षेत्र में किस प्रकार की चट्टाने पाई जाती हैं, यह जानना भी अति लाभप्रद है। आग्नेय चट्टानों (Igneous Rock ), बेसाल्ट, ग्रेनाइट आदि में अपरदित शैलों (Weathered Rock), संधि दरारों, इंटरट्रेपियन बेड आदि में ही भूमिगत जल संग्रहीत हो पाता है।

अवसादी शैल (Sedimentary Rock) जैसे बलुआ पत्थर, शैल, चूने का पत्थर आदि में छिद्रों, दरारों या उनकी सतहों (Layers) के अंदर भूमिगत जल एकत्रित हो जाता है।

कायांतरित शैल (Metamorphic Rock) जैसे स्लेट, नीस, शिफ्ट आदि में दरारों एवं संधियों में ही केवल भूमि जल संग्रहीत रहता है।

पानी का उपयोग : क्षेत्र में भूमिगत जल का उपयोग किस प्रयोजन हेतु (पीने/कृषि/उद्योग आदि) किया जा रहा है, इसकी जानकारी अत्यावश्यक है। पेयजल हेतु पुनर्भरण विधियों को अपनाते वक्त भूमि जल प्रदूषित न हो, इसके लिए विशेष सावधानी रखने की आवश्यकता है।

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