भूजल प्रबंधन- वर्तमान एवं भविष्य की महती आवश्यकता


पृथ्वी पर पाये जाने वाले प्रत्येक जीव का जीवन जल पर ही निर्भर होता है। अतः इसकी उपलब्धता नितान्त आवश्यक है। पानी को हम प्रकृति का मुफ्त या निशुल्क उपहार समझते हैं, जब वस्तुस्थिति यह है कि पानी प्रकृति का मुफ्त नहीं वरन् बहुमूल्य उपहार है। अतः यदि हमने जल का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग एवं संरक्षण नहीं किया तो हमारे अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा। प्रकृति ने हमें सभी वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराई है। परन्तु व्यक्ति की जल के प्रति स्वार्थ की प्रवृत्ति एवं लापरवाही, इस उपहार को युद्ध का कारण बना रही है। आज चिन्ता का विषय है कि साधन सम्पन्न लोग दैनिक जीवन में जल के बेतहाशा दोहन के साथ-साथ जल को मनोरंजन के रूप में दुरूपयोग कर रहे हैं। हमें यह जान लेना चाहिए कि यह एक सीमित संसाधन है एवं समूचे जीव जगत की सम्पदा है। वस्तुतः जल पर प्रत्येक जीव (पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, गरीब एवं अमीर) का अधिकार है। आज शहरी वातावरण एवं साधन संपन्न क्षेत्र में रहते हुए हम पानी की कमी का वास्तविक आंकलन नहीं कर पा रहे हैं।

पृथ्वी पर जल मंडल है, उसमें कुल 1,46,00,000 घन किलोमीटर जल है। इसमें से 97 प्रतिशत महासागरों में है जो लवणीय होने के कारण हमारे काम का नहीं है। अन्य 2 प्रतिशत हिमनदों तथा पर्वत शिखरों को आच्छादित करने वाली बर्फ के रूप में है तथा एक प्रतिशत से कम हमारे उपयोग के लिए है। इस न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध जल में भी कहीं-कहीं पर गुणवत्ता का प्रश्न चिह्न लग जाता है और इन्हीं स्रोतों पर अधिकांश स्थल जीवियों को निर्भर रहना पड़ता है। अतः हमें यह समझना चाहिए कि जल की हर बूंद अनमोल है। तथा इसका संचयन एवं संरक्षण समय की महती आवश्यकता है।

विगत लगभग 60 वर्षों से भारत में पानी की उपलब्धता एक तिहाई रह गई है। अर्थात् 1952 के मुकाबले अब 33 प्रतिशत पानी समाप्त हो चुका है, जबकि आबादी 36 करोड़ से बढ़कर 115 करोड़ हो गई है, अर्थात तीन गुना से भी ज्यादा स्थिति यह हो गई है कि हम लगातार भूजल पर निर्भर होते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह है रहा है कि भूजल स्तर प्रतिवर्ष एक फीट की गति से नीचे जा रहा है।

आज विकट स्थिति बन चुकी है कि निरंतर पृथ्वी माता की गोद से भू-जल रूपी अमृत निकालते रहने के कारण देश के 5723 में से लगभग 850 ब्लॉक डार्क जोन में आ चुके हैं और यह संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इस स्थिति से देश की भी हिस्सा बच नहीं पाया है। कई शहरों में टैंकर ही पानी की आपूर्ति के एकमात्र साधन बन चुके हैं। देहाती क्षेत्रों में तो स्थिति बड़ी विकट है, वहां अधिकांश महिलाएं घर की जल व्यवस्था में अपना बहुत समय एवं श्रम लगाती है। जल के अंधाधुंध दोहन से जमीन के नीचे के भंडार तो खाली हो ही रहे हैं, नदियाँ भी वर्षा के कुछ माह बाद ही सुख जाती है तथा कई समाप्त होने के कगार पर है। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (WWF) के 2007 के प्रतिवेदन के अनुसार नदियों में जल की कमी होने का कारण जलवायु परिवर्तन और पानी का अत्यधिक दोहन है।

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भूजल प्रबंधन-वर्तमान एवं भविष्य की महती आवश्यकता (Ground water management-An immense need of present & future scenario)


डी डी ओझा

सारांशः


पृथ्वी पर पाये जाने वाले प्रत्येक जीव का जीवन जल पर ही निर्भर होता है। अतः इसकी उपलब्धता नितान्त आवश्यक है। पानी को हम प्रकृति का मुफ्त या निःशुल्क उपहार समझते हैं, जब वस्तु-स्थिति यह है कि पानी प्रकृति का मुफ्त नहीं वरन बहुमूल्य उपहार है। अतः यदि हमने जल का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग एवं संरक्षण नहीं किया तो हमारे अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा। प्रकृति ने हमें सभी वस्तुएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराई हैं। परन्तु व्यक्ति की जल के प्रति स्वार्थ की प्रवृत्ति एवं लापरवाही, इस उपहार को युद्ध का कारण बना रही है। आज चिन्ता का विषय है कि साधन सम्पन्न लोग दैनिक जीवन में जल के बेतहाशा दोहन के साथ-साथ जल का मनोंरजन के रूप में दुरुपयोग कर रहे हैं हमें यह जान लेना चाहिए कि यह एक सीमित संसाधन है एवं समूचे जीव जगत की सम्पदा है। वस्तुतः जल पर प्रत्येक जीव (पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, गरीब एवं अमीर) का अधिकार है। आज शहरी वातावरण एवं साधन सम्पन्न क्षेत्र में रहते हुए हम पानी की कमी का वास्तविक आंकलन नहीं कर पा रहे हैं।

पृथ्वी पर जो जलमण्डल है, उसमें कुल 1,46,00,00,000 घन किलोमीटर जल है इसमें से 97 प्रतिशत महासागरों में है जो लवणीय होने के कारण हमारे काम का नहीं है अन्य 2 प्रतिशत हिमनदों तथा पर्वत शिखरों को आच्छादित करने वाली बर्फ के रूप में है तथा एक प्रतिशत से कम हमारे उपयोग के लिये है। इस न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध जल में भी कहीं-कहीं पर गुणवत्ता का प्रश्नचिन्ह लग जाता है, और इन्हीं स्रोतों पर अधिकांश स्थलजीवियों को निर्भर रहना पड़ता है। अतः हमें यह समझना चाहिए कि जल की हर बूँद अनमोल है तथा इसका संचयन एवं संरक्षण समय की महती आवश्यकता है विगत लगभग 60 वर्षों से भारत में पानी की उपलब्धता का एक तिहाई रह गई है अर्थात 1952 के मुकाबले अब 33 प्रतिशत पानी समाप्त हो चुका है, जबकि आबादी 36 करोड़ से बढ़कर 115 करोड़ हो गई है, अर्थात तीन गुना से भी ज्यादा। स्थिति यह हो गई है कि हम लगातार भूजल पर निर्भर होते जा रहे हैं।

इसका परिणाम यह हो रहा है कि भूजल स्तर प्रतिवर्ष एक फीट की गति से नीचे जा रहा है आज विकट स्थिति बन चुकी है कि निरंतर पृथ्वी माता की गोद से भूजल रूपी अमृत निकालते रहने के कारण देश के 5723 में से लगभग 850 ब्लॉक डार्क जोन में आ चुके हैं और यह संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है इस स्थिति से देश का कोई भी हिस्सा बच नहीं पाया है। कई शहरों में टैंकर की पानी की आपूर्ति के एकमात्र साधन बन चुके हैं। देहाती क्षेत्रों में तो स्थिति बड़ी विकट है, वहाँ अधिकांश महिलाएँ घर की जल व्यवस्था में अपना बहुत समय एवं श्रम लगाती हैं। जल के अंधाधुध दोहन से जमीन के नीचे के भंडार तो खाली हो ही रहे हैं, नदियाँ भी वर्षा के कुछ माह बाद ही सूख जाती है तथा कई समाप्त होने के कगार पर हैं। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फण्ड (WWF) के 2007 के प्रतिवेदन के अनुसार नदियों में जल की कमी होने का कारण जलवायु परिवर्तन और पानी का अत्यधिक दोहन है।

Abstract


Life of every organism present in planet earth is dependent on water, therefore, quantity and quality of water are of utmost significance. Water should not be considered as free but a precious gift of nature. Therefore it must be used judiciously and prudentially for sustainable future, failing which the situation shall be very formidable. Nature has provided every commodity in abundance but the greedy and negligent tendency of human beings have created a havoc in the case of water. Consumerism, Urbanization and Industrialization along with excessive unproductive use in irrigation have accentuated the situation of water crisis. Even the elite class people of our country are not only over-exploiting the water resource but are using for recreational purposes. In fact every living organism has right on water. Although, the planet earth has immense quantity of water, i.e. 1,46,00,00,000 Km3 but usable water is very limited (97%in oceans and 2% in ice glaciers). Therefore, we have to conserve every drop of water for our forthcoming generation for their survival. As mostly our dependency is on ground water sources, but unfortunately they are severely depleting owing to over-exploiting. Therefore it is exigence to make necessary efforts for proper management of ground water sources for present and sustainable future. In the present communication the extent of problem, causative factors and managemental measures will be discussed in detail.

वर्तमान में जल संकट के कारण


वर्तमान में बढ़ते जल संकट की स्थिति के लिये अनेक कारक प्रभावी हैं, परन्तु अगर हम इनकी पृष्ठभूमि देखें तो पाएंगे कि मानव इसके लिये किसी न किसी स्तर पर जिम्मेदार अवश्य है। निम्न कारकों के कारण जल आज विषम स्थिति में पहुँच गया है, ये हैं:

1. जनसंख्या वृद्धि 2. वृक्षों की अंधाधुंध कटाई 3. बढ़ता औद्योगिकीकरण 4. कम होता वर्षा का परिमाण 5. बढ़ता शहरीकरण 6. विलासिता, आधुनिकतावादी एवं भोगवादी प्रवृत्ति 7. स्वार्थी प्रवृत्ति एवं जल के प्रति संवेदनहीनता 8. भूजल पर बढ़ती निर्भरता एवं अत्यधिक दोहन 9. जल के अपव्यय की बढ़ती प्रवृत्ति 10. परम्परागत जल संग्रहण तकनीकों की उपेक्षा 11. समाज की सरकार पर बढ़ती निर्भरता 12. कृषि में बढ़ता जल का उपभोग 13. जल शिक्षा का अभाव।

जल का उपयोग प्रत्येक जगह बढ़ता जा रहा है। विश्व की 6 अरब से अधिक जनसंख्या उपयोग करने योग्य कुल जल में से 54 प्रतिशत का उपयोग वर्तमान में कर रही है। अनुमान है कि सन 2025 तक यह मात्रा 70 प्रतिशत हो जाएगी। इसी प्रकार दूसरे प्रकार के आंकड़े दर्शाते है कि प्रति व्यक्ति जल की खपत की दर यदि भविष्य में भी बनी रही तो आगामी 25 वर्षों के दौरान मानव जाति विश्व में कुल उपलब्ध मृदुजल में से 90 प्रतिशत का ही उपयोग करने लगेगी। इस स्थिति में मात्र 10 प्रतिशत जल ही अन्य जीवों के लिये उपलब्ध होगा।

यदि विश्व स्तर पर दृष्टि डालें तो जल के कुल उपयोग में से 69 प्रतिशत कृषि में, 23 प्रतिशत उद्योगों में तथा मात्र. 8 प्रतिशत घरेलू कार्यों में लगता है। भौगोलिक क्षेत्रों के अनुसार पानी के उपयोग में बदलाव भी आता है। अफ्रीकी देशों में पानी की कुल खपत में से 88 प्रतिशत कृषि में 5 प्रतिशत उद्योगों में और 7 प्रतिशत घरेलू कार्यो। में उपयोग किया जाता है। दूसरी ओर यूरोपीय देशों में 54 प्रतिशत पानी का उपयोग उद्योगों में किया जाता है। यहाँ कृषि एवं घरेलू कार्यों के लिये जल की खपत 33 प्रतिशत और 13 प्रतिशत ही है।

हमारे देश में उपलब्ध कुल संसाधन की मात्रा को 1953 घन किमी. (अरब घन मीटर) आँका गया है। इसमें से उपयोग में लाया जा सकने वाला सतही जल 690 घन किमी. तथा भूजल 396 किमी. है, अर्थात कुल उपलब्ध जल का 1,086 घन किमी. उपयोग में लाए जा सकने योग्य है।

जनसंख्या की तेजी से हो रही वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता निरंतर कम होती जा रही है। जहाँ सन 1947 में 5 हजार घन मीटर जल प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष उपलब्ध था वहीं सन 2000 में यह मात्रा घटकर 2 हजार घन मीटर रह गई थी। सन 2025 तक इससे घटकर एक हजार पाँच सौ घन मीटर, जबकि सन 2050 तक मात्र 1 हजार घन मीटर की सम्भावना है।

सारणी -1  जनसंख्या तथा जल की उपलब्धता में देश की स्थिति

वर्ष

जनसंख्या (करोड़ में)

जल की उपलब्धता (घन मीटर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति)

1947

40

5,000

2000

100

2,000

2025

139

1,500

2050

160

1,000

कृषि क्षेत्र में भू-सिंचन के लिये कुल उपलब्ध-जल का सर्वाधिक 84 प्रतिशत उपयोग में लाया जाता है। सन 1950 में कुल सिंचित भूमि का क्षेत्रफल 2.5 करोड़ हेक्टेयर के बराबर था, वहीं पाँच दशक बाद यानी सन 2000 तक इस क्षेत्र में तीन गुना से अधिक बढ़ोत्तरी हुई। ऐसा आंकलन किया गया है कि घरेलू उद्योग तथा ऊर्जा क्षेत्रों में भविष्य में जल की खपत के बढ़ने की संभावना है। औद्योगिक क्षेत्र में जहाँ अभी 4.4 प्रतिशत जल की खपत होती है, वहीं सन 2025 तक यह खपत बढ़कर 11.4 प्रतिशत हो जाएगी, क्योंकि इस समयावधि में इस क्षेत्र में काफी वृद्धि होने की संभावना है।

सारणी 2 - विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली जल की खपत

क्षेत्र

1990

2000

2025

 

घन किमी.

कुल खपत का प्रतिशत

घन किमी.

कुल खपत का प्रतिशत

घन किमी.

कुल खपत का प्रतिशत

कृषि

460

83.3

630

8.4

770

73.3

घरेलू

25

4.5

33

4.4

52

4.95

उद्योग

15

2.7

30

4.0

120

11.4

ऊर्जा

19

3.4

27

3.6

71

6.76

अन्य

33

-

30

-

37

-

कुल

552

-

750

-

1,050

-

ऊर्जा के क्षेत्र में भी जल की खपत के वर्तमान 3.6 प्रतिशत से बढ़कर 6.76 प्रतिशत हो जाने की संभावना है (सारणी 2) इसका कारण उद्योगों में वृद्धि के साथ शहरीकरण में वृद्धि होना भी है। घरेलू उपयोगों के लिये भी जल की खपत के वर्तमान 4.4 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 5 प्रतिशत हो जाने की संभावना है। अतः इस बढ़ते जल की खपत को पूरी कर पाना सचमुच में एक चुनौती होगी, विशेषकर पेयजल पर तो बहुत ही दबाव पड़ने की संभावना है।

जल की फैक्ट फाइल: क्या आपको पता है कि हमारे जीवन हेतु जल की आवश्यकता कितनी रखी गई है। यह मात्र 65 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है, जोकि निम्नवत है।

सारणी 3- प्रति व्यक्ति प्रतिदिन जल की आवश्यकता

क्रिया

जल की मात्रा (लीटर)

पीने हेतु

5

भोजन बनाना, बर्तन धोना

10

स्नान

10

कपड़े धोना

20

शौचालय प्रक्षालन

20

योग

65

इक्कीसवीं सदी की समस्या


वैज्ञानिकों ने आंकलन किया है कि इक्कीसवीं सदी में जल संकट सबसे गंभीर संकट के रूप में उभर रहा है अतः यदि जल का विवेकपूर्ण उपयोग नहीं किया गया और पृथ्वी की कोख को फिर भूजल से नहीं भरा गया, तो आने वाले कुछेक वर्षों में ही हमें पानी की बूँद-बँद के लिये तरसना होगा। वर्तमान में, आज सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि वर्षा का अधिक से अधिक पानी धरती के भीतर पहुँचाया जाए तथा उसका संचय किया जाए। अभी वर्षा के पानी का समुचित संचयन नहीं होने के कारण अधिकांश पानी समुद्र में बहकर जा रहा है। अतः इसको रोककर भूजल का पुनर्भरण करना नितांत आवश्यक है।

भूजल प्रबंधन


चूँकि हमारे देश में सतही जल स्रोत जनसंख्या के अनुपात में अत्यल्प है, एतदर्थ हमारी पूरी निर्भरता भूजल ही है, जो निरंतर घटने के कगार पर पहुँच रहा है। वस्तुतः जल प्रबंधन निम्नांकित स्तर पर किया जाना चाहिए।

1. व्यक्तिगत स्तर पर जल प्रबन्धन 2. सामुदायिक स्तर पर जल प्रबंधन 3. संस्थानिक स्तर पर जल प्रबंधन।

व्यक्तिगत स्तर पर जल प्रबंधन: यदि हर व्यक्ति जल बचाने का संकल्प कर लेता है तो वह अपने दैनिक कार्यकलापों में भी जल दुरुपयोग को जल के विवेकपूर्ण उपयोग से सैकड़ों लीटर पानी बचा सकता है जिसे सारणी 4 में दर्शाया गया है।

सामुदायिक/ग्राम स्तर पर जल प्रबन्ध


1. पानी की आपूर्ति प्रायः नलों, हैण्डपम्पों, तालाबों, कुँओं आदि से करते हैं। इन स्रोतों से पानी का उपयोग ही व स्वच्छ तरीके से हो, इसके लिये आवश्यक है कि ग्राम स्तर पर सभी लोग मिलकर एक समिति का गठन करें।

2. यह समिति समय-समय पर बैठके करे तथा इस विषय पर विचार विमर्श करे की गाँव की जनसंख्या के अनुसार कुल कितने पानी की आवश्यकता है।

3. यह आवश्यकता किन स्रोतों से पूरी हो सकती है। गाँव में सुरक्षित पानी की आवश्यकताओं के अनुसार पेयजल एवं खाना पकाने के लिये अपने क्षेत्रों में उपलब्ध जलस्रोतों की पहचान करें। इनज जलस्रोतों का उपयोग केवल पीने व खाना पकाने के लिये करें। अन्य आवश्यकताओं के लिये शेष जलस्रोतों को परखें तथा उन्हें भी संरक्षित करें। जल के उपयोग पर निगाह रखें व आवश्यक कार्यवाही करें।

4. समिति समय-समय पर सामूहिक स्तर पर धन एकत्र करें जिससे हैण्डपम्प की मरम्मत कुएँ/तालाब को गहरा करवाना, आवश्यकता होने पर टैकरों से पानी मंगवाना, टांका बनवाना इत्यादि कार्य किये जा सकें।

5. तालाब व जोहड़ के जल संरक्षण करें।

6. जल ग्रहण क्षेत्रों में अतिक्रमण न होने दें। यदि अतिक्रमण हो तो सलाह कर हटा दें।

सारणी 4 जल उपयोग के सही एवं गलत तरीके

क्र.स.

गलत तरीके से जल उपयोग

सही तरीके से जल उपयोग

जल की बचत

1.

टब/फव्वारे से स्नान करने पर 180 लीटर

बाल्टी से स्नान करने पर 18

162 लीटर

2.

शौचालय में फ्लैश टैंक उपयोग से 13 लीटर

शौचालय में छोटी बाल्टी के उपयोग 4 लीटर

9 लीटर

3.

नल खोलकर शेव करने से 11 लीटर

मग में पानी लेकर शेव करने से 1 लीटर

10 लीटर

4.

दंत मंजन नल खोलकर करने से 33 लीटर

दंत मंजन मग या लोटे के उपयोग पर 1 लीटर

32 लीटर

5.

नल खोलकर कपड़ों की धुलाई करने पर 166 लीटर

कपड़े धोने में बाल्टी का उपयोग पर  18 लीटर

148 लीटर

 

 

कुल बचत

361 लीटर

7. जब भी संभव हो तालाब व जोहड़ को गहरा करते रहें ताकि पानी को अधिक मात्रा में संग्रहित किया जा सके।

8. जिन तालाबों का पानी पीने के काम आता हो उनकी पशुओं एवं अन्य संक्रमणों से रक्षा करें।

9. तालाब व जोहड़ के निकट शौच न करें।

10. बरसात के मौसम के बाद में जल का जीवाणु परीक्षण करवाएं। यह सुविधा नजदीकी जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग में उपलब्ध है।

11. गाँव में नये तालाब व जोहड़ समुचित कैचमेंट के साथ हैण्डपम्प के नजदीक बनायें ताकि बरसात के पानी से भूजल का स्तर बना रहे एवं आपका हैण्डपम्प लम्बे समय तक आपको साफ पानी देता रहे।

संस्थानिक स्तर पर जल प्रबन्धन


1. घरों कारखानों, संस्थानों, व्यावसायिक और सरकारी उपयोग के क्षेत्रों में वितरण व्यवस्था का ऑडिट (परीक्षण) हो व सभी के मीटर लगें।

2. औद्योगिक क्षेत्रों के लिये पानी रिसाइकिल (पुनःचक्रित) हो।

3. साफ किये सीवेज वाटर को फसलों के काम में लाया जाए।

पानी के संरक्षण हेतु जरूरी है


1. पानी के उपयोगकर्ताओं की सहमति से उपयुक्त कानून बनें।

2. पानी के रिचार्ज के परम्परागत और आधुनिक तरीके अपनाएं।

3. पानी देने की प्राथमिकता पेयजल, सिंचाई, बिजली , औद्योगिक, पर्यटन आदि क्रम में हो।

4. पानी की कीमत इसकी उपयोगिता की सद्वृत्ति निर्धारित कर सकती है।

5. पेयजल योजना का प्रबन्धन एवं रख-रखाव जनता करे न कि सरकारी विभाग।

6. सिंचाई जल उपभोक्ता समितियाँ सक्रिय बनें।

7. सिंचाई के पानी की दरें फसल और क्षेत्रों के आधार पर निर्धारित हों। दुरुपयोग पर जुर्माना और क्रियान्वयन पर पुरस्कार प्रणाली लागू की जाए।

8. सूखाग्रस्त क्षेत्रों में कुँओं, बावड़ियों इत्यादि को धरोहर घोषित कर संरक्षित किया जाए तथा इनका सावधानीपूर्वक उपयोग हो।

वर्षाजल संग्रहण
वर्षाजल संचयन एंव भूजल कृत्रिम पुनर्भरण


वर्षाजल को एकत्रित कर उसका समुचित उपयोग करना ही वर्षाजल संचयन है। भूजल संसाधनों का कृत्रिम पुनर्भरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी क्षेत्र में विद्यमान मृदा एवं चट्टानों की रचना के अनुरूप संरचना का निर्माण कर, वर्षाजल के बहाव को एक निश्चित दिशा देकर, जल रिसाव में वृद्धि दर, भूजल भण्डार के पुनर्भरण में योगदान देना है।

वर्षाजल संचयन एवं कृत्रिम भूजल पुनर्भरण निम्न स्रोतों द्वारा किया जा सकता है 1. सतही जल का भण्डारण (तालाब, पोखर बावड़ी आदि); 2. जल का भूमिगत संचयन (टांका, कुंड आदि) एवं 3. जलभृत का कृत्रिम पुनर्भरण (artificial recharge of aquifer)

वर्षाजल संचयन एवं भूजल पुनर्भरण की आवश्यकता


1. वर्षाजल बहुतायत में उपलब्ध होता है साथ ही जीवाणुओं और कार्बनिक पदार्थों से मुक्त एवं हल्का भी होता है।

2. वर्षाजल नाले एवं सड़कों पर व्यर्थ ही बह जाता है एवं सड़कों को क्षतिग्रस्त करता है तथा यातायात में बाधा उत्पन्न करता है।

3. वर्षाजल शहर के निचले क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है तथा भूमि का कटाव भी करता है।

4. कृत्रिम पुनर्भरण किये जाने वाले वर्षाजल का वाष्पीकरण एवं निःस्वंदन कम होता है।

5. वर्षाजल पीने के लिये उपयुक्त होता है तथा इसके शुद्धीकरण हेतु खर्चीले उपायों की आवश्यकता नहीं होती है।

6. पुनर्भरण के कार्य में किसी प्रकार की ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती है।

पुनर्भरण के लाभ


1. पुनर्भरण एवं संचयन किया जाने वाला जल, उपयोग किये जाने वाले स्थान पर उपलब्ध होता है।
2. भूजल स्रोतों की जल क्षमता में वृद्धि होती है।
3. जीवाणुओं रहित जल जलभृत में भण्डारण होता है।
4. पुनर्भरण संरचना का निर्माण कम लागत में उसी स्थान पर उपलब्ध सामग्री से किया जा सकता है।
5. भूजल की गुणवत्ता में सुधार होता है।
6. जहाँ पर भूजल और सतही जल अपर्याप्त हो, वहाँ वर्षाजल का पुनर्भरण घटते भूजल की समस्या का आदर्श समाधान है।
7. संग्रहित जल का उपयोग आवश्यकतानुसार जल के अभाव में किया जा सकता है।

पुरातन काल की वर्षाजल संचयन की विधियाँ


प्राचीन काल से ही विभिन्न तकनीकों द्वारा वर्षाजल संचयन एवं भूजल भण्डार पुनर्भरण किया जाता रहा है इनमें से कुछ इस प्रकार हैः

कुँओं बावड़ी एवं टांकों का निर्माण: कुँओं का निर्माण पेयजल एवं कृषि कार्य हेतु विभिन्न स्थानों पर करवाया जाता था। पुरातन काल में वर्षाजल संचयन एवं जलभृत के भण्डारण हेतु शहर के अनेक भागों में विशाल बावड़ियों एवं टांकों का निर्माण करवाया जाता था। बावड़ियों की बनावट एक विशेष तकनीक को अपनाकर की जाती थी, जिसमें बावड़ी का ऊपरी भाग चौड़ा रखा जाता था तथा सीढ़ियों के निर्माण द्वारा इसको क्रमानुसार पेंदे की ओर ले जाते हुए संकरा किया जाता था। खुली सतह की तुलना में बावड़ी की गहराई ज्यादा रखी जाती थी। इस तकनीक से जल की खुली सतह, सूर्य की किरणों से कम प्रभावित होती थी तथा जल की वाष्पीकरण दर भी तालाबों आदि की तुलना में कम होती थी। इस कारण वर्षाजल बावड़ी में अधिक मात्रा में एकत्रित किया जा सकता था तथा अधिक दिन तक संग्रहित रहता था।

तालाब, झील, बाँध आदि का निर्माण: पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षाजल के संचयन हेतु तालाब, कृत्रिम बाँध आदि का निर्माण करवाया जाता था ताकि वर्षाकाल में व्यर्थ बहकर जाने वाले जल को एकत्रित कर उसका उचित उपयोग किया जा सके। इसी दृष्टि से जयपुर शहर के आस-पास रामगढ़ बाँध, मानसागर (जलमहल), ताल-कटोरा, मावठा, सागर आदि संरचनाओं का निर्माण किया गया था।

भारत के विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित जल संरक्षण की प्रणालियाँ


वस्तुतः भारत को जल वाचवीय एवं भौतिक विशेषताओं के आधार पर मुख्य रूप से पाँच भागों में वर्गीकृत किया गया है, जिनमें वर्षा के वितरण एवं मात्रा के अनुसार विभिन्न प्रकार की जल संरक्षण प्रणालियाँ विकसित कर रखी हैं। इनके बारे में विवरण निम्नवत है:

1. हिमालय पर्वतीय क्षेत्र (जम्मू -कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, असम, त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर एवं नागालैण्ड राज्य के क्षेत्र)

2. जम्मू-कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश में कुहल प्रणाली द्वारा जल संचयन।

3. उत्तराखण्ड में नौला या होजी प्रणाली से जल संचयन।

4. नागालैड में जाखो प्रणाली रूपा प्रणाली से जल संचयन।

2. गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान


पंजाब में नहरें, कुएँ व झालरें, हरियाणा में आबी (तालाब), दिल्ली में सुरजकुंड, यमुना, बिहार में अहर पइन व्यवस्था, ब्रह्मपुत्र मैदान में जाम्पोई विधि द्वारा जल संग्रहण।

असम में पोरवर (डोंग) व्यवस्था।

3. पठारी भाग


1. मध्यप्रदेश की हवेली प्रणाली तथा कर्नाटक की केरे प्रणाली।
2. छत्तीसगढ़ में बंधारे व्यवस्था
3. महाराष्ट्र में फड़ प्रणाली

4. तटीय मैदान एवं द्वीप समूह


1. गुजरात व कठियावाड़ में बाव (बावड़िया) व्यवस्था द्वारा जल संचयन।
2. महाराष्ट्र में सिंचाई कार्यों हेतु शिलोत्री व्यवस्था।
3. तमिलनाडु में जल संग्रहण की इरी व्यवस्था।

5. राजस्थान में जल संग्रहण/संरक्षण की विशिष्ट व्यवस्था


1. पारंपरिक जल संग्रहण रचनाएं, यथा-नाडी, जोहड़, तालाब, झालरा, बावड़ी, कुंड, थेबा, बुई, एनिकट एवं खड़ीन,

वर्षाजल संचयन एवं कृत्रिम पुनर्भरण


वर्षाजल संचयन एवं कृत्रिम पुनर्भरण हेतु अपनाई जा सकने वाली विधियाँ:

1. छतों पर गिरने वाले वर्षाजल का संचयन एवं कृत्रिम पुनर्भरण
2. सड़क पर बहने वाले वर्षाजल का कृत्रिम पुनर्भरण।
3. परम्परागत जल स्रोतों का जीर्णोद्वार।
4. भूमिगत जल बाँध (सब सरफेस बेरियर) उप सतही डाइक।
5. चौके।
6. एनीकट एवं चेक डैम।

छतों पर गिरने वाले वर्षाजल का संचयन एवं जलमृत का पुनर्भरण


छतों पर गिरने वाला अधिकतर वर्षाजल व्यर्थ बहकर गंदे नालों में मिलकर या तो दूषित हो जाता है या उसका वाष्पीकरण हो जाता है इस कारण यह वर्षाजल पृथ्वी की सतह के नीचे विद्यमान भूजल भण्डार के सीधे सम्पर्क में नहीं आ पाता, इसके परिणामस्वरूप भूजल पुनर्भरण कम हो पाता है अतः व्यर्थ जा रहे इस वर्षाजल का कृत्रिम पुनर्भरण किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। वर्षाजल का संग्रहण निम्न सतहों से किया जा सकता है:

1. यदि भवनों की कठोर एवं पानी न सोखने वाली छते हैं तो इनका जलभरण क्षेत्र निःशुल्क रूप से उपलब्ध रहता है तथा जहाँ जल के उपयोग की आवश्यकता है वहाँ पर इन छतों से वर्षाजल एकत्रित किया जा सकता है।

2. कच्चे और पक्के क्षेत्र भू-क्षेत्रों, खुले मैदानों, पार्कों, बरसाती नालियों, सड़क खरंजे तथा अन्य खुले क्षेत्रों से बहने वाले वर्षाजल का प्रभावी रूप से संग्रहण किया जा सकता है। मैदानों में वर्षाजल संग्रहण का लाभ यह है कि जल एकत्र करने के लिये विस्तृत क्षेत्र उपलब्ध रहता है। यह तकनीक ऐसे क्षेत्रों में अधिक उपयोगी हैं जहाँ बरसात कम होती है।

3. जलीय क्षेत्र झीलों, तालाबों एवं सरोवरों में जल संग्रहण की प्रचुर क्षमता है। संग्रहित जल का उपयोग न केवल शहर की आवश्कताओं हेतु किया जाता है, अपितु इससे भूमिगत जल का पुनर्भरण भी होता है।

4. अधिकतर आवासीय कॉलोनीयों में बरसाती नालियों का तंत्र विधिवत बना रहता है। यदि इन नालियों को स्वच्छ रखा जाए तो वर्षाजल संग्रहण का यह एक सस्ता साधन है तथा जहाँ भूमिगत जल खारा अथवा पीने योग्य नहीं है वहाँ वर्षाजल के भण्डारण के विकल्प के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

वर्षाजल संग्रहण व्यवस्था में विभिन्न स्तरों पर शामिल घटक


1. जल संग्रहण क्षेत्र खुली छत, छज्जा या आंगन अथवा लॉन या खुले मैदान का उभरा हुआ क्षेत्र। आर.सी.सी. शीटों की छतों का उपयोग भी वर्षाजल संग्रहण के लिये किया जा सकता है।

2. वर्षाजल का पाइप अथवा नालियों द्वारा परिवहन इसका उपयोग जलसंग्रहण क्षेत्र से भण्डार टैंक तक पानी ले जाने के लिये किया जाता है। ये परनाले अर्धवृत्ताकार अथवा आयताकार भी हो सकते हैं।

3. फिल्टर का उपयोग छत के उपर संग्रहित पानी से प्रदूषक तत्वों को छानने के लिये किया जाता है। फिल्टर इकाई में एक प्रकोष्ठ होता है जिसमें छानने वाली सामग्री जैसे मोटी बालू तथा पानी की व्यवस्था में प्रवेश करने से पूर्व जल संग्रहण मिट्टी व कचरा हटाने के लिये बजरी की पर्त होती है और अधिक छानने के लिये चारकोल की पर्त भी डाली जा सकती है।

4. टैंक में उपयोग हेतु अथवा भूमिगत जल के पुनर्भरण के लिये संग्रहण स्थान की उपलब्धता के आधार पर से टैंक जमीन के उपर आधे उपर तथा आधे जमीन के अन्दर अथवा पूर्णतया जमीन के अंदर बनाये जा सकते हैं। निर्माण सामग्री के लिये आर.सी.सी. फेरौ सीमेन्ट चिनाई, प्लास्टिक (पॉलिथिन) अथवा धातु (गैल्वोनाइज्ड आयरन) शीट आदि का सामान्यतया उपयोग किया जाता है। टैंक में रखे पानी की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये रख-रखाव के कुछ उपाय जैसे टैंक की सफाई, जीवाणु नाशक आदि का उपयोग किया जाना आवश्यक है।

प्रथम प्रक्षालन: यह एक ऐसी युक्ति है जिसमें एक वाल्व होता है जो यह सुनिश्चित करता है कि प्रथम वर्षा का पानी संग्रहण व्यवस्था में प्रवेश नहीं करे तथा बह जाये। ऐसा करने की आवश्यकता इसलिये पड़ती है क्योंकि पहली वर्षा के पानी में हवा तथा जल ग्रहण क्षेत्र से मिले प्रदूषण तत्वों की मात्रा अधिक होती है। यह जल बहाव क्षेत्र में वर्षा से पहले पड़े कचरे को भी अलग करने के काम आता है।

पुनर्भरण संरचनाएं: वर्षाजल का भूमिगत जल के एक्वीफर में पुनर्भरण किसी उपयुक्त पुनर्भरण ढाँचे के माध्यम से किया जा सकता है जैसे बोरवेल, पुनर्भरण खन्दक तथा पुनर्भरण गड्ढे।

विभिन्न प्रवाह की पुनर्भरण संरचनायें सम्भव है। अनेक स्थानों पर वर्तमान संरचनाओं यथा कूप, गड्ढे तथा टांकों को पुनर्भरण संरचनाओं के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है जिससे नई पुनर्भरण संरचनाओं के निर्माण की आवश्यकता नहीं होगी।

सामान्य रूप से उपयोग में लाई जाने वाली कुछ पुनर्भरण की विधियाँ


1. खुदे हुए कूपों तथा त्यक्त टयूबवेलों के माध्यम से ;
2. पुनर्भरण गड्ढे ;
3. सोख्ता अथवा रिसावी गड्ढे;
4. पुनर्भरण खन्द;
5. पुनर्भरण गर्त।

वर्षा से जमीन के पानी की भरपाई का सस्ता ढाँचा


राजस्थान के भूजल विभाग ने छतों पर गिरने वाले वर्षाजल से जमीन के पानी की भरपाई के लिये मात्र 13 हजार रुपये की लागत की एक संरचना तैयार की है। भूजल विभाग के तकनीकी अधिकारियों द्वारा मकानों की छतों के वर्षाजल का उपयोग करने वाले इच्छुक व्यक्तियों को तकनीकी मार्गदर्शन दिया जाएगा।

वस्तुतः विभाग ने यह संरचना ऐसे स्थानों के लिये विशेषतौर पर तैयार की है जहाँ भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है विभाग से प्राप्त सूचना अनुसार ढाँचे के लिये 8 मीटर गहराई की कुई बनाई जाती है, इसमें 0.75 मीटर व्यास तथा 2 फुट ऊँचे सीमेण्ट के फर्में से इस कुई की अंदरूनी सतह बनाकर इसके पेदें में 4 इंच व्यास का एक बोरिंग जलस्तर तक किया जाता है। तत्पश्चात 5 से 9 मिमी. व्यास को बजरी रोड़ी से भर दिया जाता है। कुई के पैंदे में 2 से 5 मिमी. व्यास की 30 सेेमी. की बजरी सतह पर बिछाकर पैंदे को भरा जाता है। इसके बाद मकान की छतों पर गिरने वाले वर्षाजल को 3 से 4 इंच व्यास के पाइप से चैंबर में छोड़ा जाता है। यह संरचना 400 वर्गमीटर क्षेत्रफल की छत के लिये उपयुक्त है। इसके माध्यम से 8 से 9 हजार लीटर प्रतिघण्टा की दर से वर्षाजल से भूजल का पुनर्भरण किया जा सकता है।

अतः यदि हमें इस शताब्दी में जल की विकट समस्या से बचना है तो अभी से ही समुचित एवं विवेकपूर्ण कदम उठाने पड़ेंगे। इस कार्य में न केवल सरकार वरन आम नागरिक को जागरूक बनना होगा तथा अपने दायित्व का निर्वहन करना होगा।

संदर्भ
1. एफ ए ओ (फुड एण्ड एग्रीकल्चरल ऑर्गेनाइजेशन) एफ ए ओ प्रोडक्शन इयर बुक 1990, यू.एन. रोम स्टे, सीरीयल नं. 100.44 (1999 बी)

2. कशीफ ए, ग्रांउड वाटर इंजीनियरिंग, मेक्कग्रा हिल, न्यूयार्क, 1998 बी.

3. रघुनाथ एच एम, ग्राउंड वाटर, न्यू एज इंटरनेशनल (1998)

4. ओझा डी डी एवं भट्ट एच आर, राजस्थान के भूजल की गुणवत्ता एवं उपलब्धता का अध्ययन, इंडियन वाटर मार्क्स एसोसियेशन जर्नल, 42 (210) 28.

5. वाल्टन डब्ल्यू सी. ग्राउण्ड वाटर रिर्सोस इवेल्यूशन, मेक्कग्रा हिल न्यूयार्क (1980)।

सम्पर्क
डी डी ओझा, DD Ozha
भूजल विभाग, जोधपुर, Ground Water Department, Jodhpur-342003


भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, 01 जून, 2012



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