भूजल रीचार्ज के मास्टर प्लान का नजरिया बदले तो बात बने

बढ़ता भूजल दोहन
बढ़ता भूजल दोहन


भारत सरकार के सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड ने देश के लगभग 941541 वर्ग किलोमीटर ऐसे इलाके की पहचान की है जो सामान्य बरसात के बावजूद, बाकी इलाकों की तरह, तीन मीटर तक नहीं भर पाता है। अर्थात उस इलाके में भूजल का स्तर तीन मीटर या उससे भी अधिक नीचे रहता है। यह स्थिति, उस इलाके के भूजल के संकट का मुख्य कारण है।

सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड का मानना है कि, बरसात के मौसम में भूजल रीचार्ज के कृत्रिम तरीके को अपनाकर उस इलाके की खाली जगह को भरा जा सकता है। इस खाली जगह को भरने के लिये सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड ने भारत के लिये सन 2013 में भूजल रीचार्ज का मास्टर प्लान तैयार किया था। उस प्लान को इस अपेक्षा के साथ सभी राज्यों को भेजा था कि वे अगले दस सालों में मास्टर प्लान में सुझाए सभी कामों को पूरा कर लगभग 855650 लाख घन मीटर बरसाती पानी को जमीन के नीचे उतारेंगे।

मास्टर प्लान के अनुसार ग्रामीण इलाकों में भूजल रीचार्ज के लिये 22.83 लाख और शहरी इलाकों में 87.99 लाख काम किये जाने थे। इन कामों का कुल खर्च रु. 79178 करोड़ (77 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों और 23 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में) था। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड ने शहरी इलाकों में 87.99 लाख मकानों की छत पर बरसे पानी को जमीन में उतारने का सुझाव दिया है वहीं ग्रामीण इलाकों में नदी-नालों पर पानी रोकने वाली संरचनाएँ और परकोलेशन तालाब बनना था। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को भरोसा था कि इन कामों के पूरा होने के बाद ऊपर उल्लेखित इलाके में भूजल पर आधारित संरचनाओं का सूखना खत्म होगा और गिरता भूजल स्तर बहाल होगा।

सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड का मानना है कि बाँधों का पेट भरने के बाद जो पानी बचता है उसमें से केवल 8,55,650 लाख घन मीटर पानी ही कृत्रिम भूजल रीचार्ज के लिये उपयोग में लाया जा सकता है। बोर्ड का यह भी मानना है कि भारतीय प्रायद्वीप के अधिकांश इलाकों में धरती के नीचे भूजल रीचार्ज के लिये भले ही पर्याप्त स्थान मौजूद हैं पर वहाँ रीचार्ज के लिये अतिरिक्त पानी की कमी है। दूसरी ओर, नार्थ-ईस्ट, हिमाचल प्रदेश और द्वीप-समूहों में अतिरिक्त पानी की बहुतायत है पर उन इलाकों की धरती में कृत्रिम भूजल रीचार्ज के लिये पर्याप्त खाली स्थान अनुपलब्ध है। इस हकीकत का मतलब है कि भारतीय प्रायद्वीप के अधिकांश इलाकों में बरसात में कृत्रिम भूजल रीचार्ज की सम्भावना कम है। उन इलाकों में पानी के किफायती और बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग पर ध्यान देना होगा।

धन की व्यवस्था के बारे में सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड मानता है कि मनरेगा मद में उपलब्ध धन का उपयोग कृत्रिम रीचार्ज के कामों में भी किया जाएगा और तालाबों एवं पहाड़ों के ढाल पर बनी कंटूर ट्रेंचों की गाद भी निकाली जा सकेगी। उम्मीद है कि इन कामों के लिये दस साल की अवधि में मनरेगा मद से करीब 20,000 करोड़ की राशि मिल सकेगी। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड का यह भी मानना है कि कारपोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी के अन्तर्गत उद्योगों से भी लगभग इतनी ही राशि मिल सकेगी। बची राशि जो लगभग 24,178 करोड़ है, की इन्तजाम राज्य सरकारों द्वारा चालू कामों तथा अपने स्रोतों से सम्भव होगा।

उल्लेखनीय है कि आजादी से लेकर अब तक पानी पर लगभग 3.5 लाख करोड़ की राशि व्यय की गई है। यह राशि ग्राउंड वाटर मास्टर प्लान 2013 में चाही राशि से लगभग साढ़े चार गुना अधिक है। इतनी अधिक राशि खर्च करने के बाद यदि समस्या बची रहती है या कतिपय इलाकों में पनपती रहती है तो उसकी बारीकी से पड़ताल जरूरी है। कारणों की खोज जरूरी है। खामियों को खोजना और उन्हें ठीक करना जरूरी है।

उल्लेखनीय है कि मनरेगा के अन्तर्गत कुल 123 लाख जल संरक्षण संरचनाएँ बनाई गई हैं। इसके बावजूद, सन 2015-16 में देश के 678 जिलों में से 254 जिलों के 255,000 ग्रामों में पानी की कमी थी। पिछले 10 सालों में बुन्देलखण्ड इलाके में 15,000 करोड़ रुपए खर्च कर 116,000 वाटर हार्वेस्टिंग संरचनाएँ बनाई गई हैं। फिर भी बुन्देलखण्ड में भूजल स्तर की गिरावट और संरचनाओं में पानी की कमी का मामला, जमीनी स्तर पर गहरी पड़ताल का विषय बना हुआ है।

बुन्देलखण्ड के अलावा देश में और भी अनेक समस्याग्रस्त इलाके हैं। उनकी भी लगभग ऐसी ही समस्याएँ हैं। भूजल का देशव्यापी गिरता जलस्तर और उनसे जुड़ी समस्याएँ, पूरे मामले पर नए सिरे से विचार करने की माँग करता है। लगता है, समस्याओं का हल कुछ अलग प्रकार के प्रयासों में छुपा है। हो सकता है, उसका स्थायी हल बरसात के बाद किये जाने वाले भूजल रीचार्ज प्रयासों और पानी के तर्कसंगत उपयोग में छुपा हो।

जाहिर है भूजल रीचार्ज का मास्टर प्लान, 2013 की चिन्ता का केन्द्र बिन्दु वह इलाका रहा है जहाँ कुदरती रीचार्ज के बावजूद भूजल का स्तर, धरती की सतह से तीन मीटर तक, बहाल नहीं हो पाता। यदि सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के मास्टर प्लान के अनुसार काम किये जाते हैं, वे काम अपेक्षित परिणाम देते हैं और पूरे देश में सब जगह बरसात के बाद का भूजल स्तर सतह से तीन मीटर नीचे तक लौट आता है तो भी देशे में भूजल से जुड़ी अनेक समस्याओं का हल नहीं निकलेगा क्योंकि उनका असर बरसात के बाद प्रारम्भ होता है और वह गर्मी के मौसम में विकराल रूप धारण करता है।

भूजल स्तर की गिरावट का असर बहुत व्यापक होता है। वह यदि नदी तल के नीचे उतरता है तो नदी सूख जाती है। वह यदि कुओं की तली के नीचे उतरता है तो कुआँ सूख जाता है। वह यदि नलकूप की तली के नीचे उतरता है तो नलकूप सूख जाता है। उल्लेखनीय है कि भूजल स्तर का नीचे उतरना बरसात के बाद शुरू होता है और गुरूत्व बल के कारण नीचे-नीचे बहता पानी और कुओं तथा नलकूपों से निकाला जाने वाला पानी उसकी गिरावट तय करता है।

यह सिलसिला अगली बरसात के आने तक चलता है। इसलिये भूजल रीचार्ज के मास्टर प्लान, 2013 को अधिक कारगर बनाने के लिये उस पर नए सिरे से विचार किया जाना चाहिए। देश के सभी 500 सब-कैचमेंटों और सभी 3237 वाटरशेडों में बहने वाली मुख्य नदियों को जीवित करने के लक्ष्य पर काम किया जाना चाहिए। उनके कैचमेंट में मिलने वाले अतिरिक्त पानी की मात्रा का अनुमान लगाकर उसे परकोलेशन तालाबों में संचित किया जाना चाहिए। परकोलेशन तालाबों को केवल रीचार्ज तथा ट्रांजिशन जोन में बनाया जाना चाहिए। ऐसा करने के बाद ही नदी को अधिक समय तक भूजल मिलेगा। वह अधिक समय तक जिन्दा रहेगी।

तालाबों, कुओं और नलकूपों में अधिक समय तक पानी उपलब्ध रहेगा। यह तभी सम्भव है जब भूजल के मास्टर प्लान 2013 का नजरिया बदला जाये। बरसात बाद के स्थान पर बरसात के पहले के भूजल स्तर को बहाली का लक्ष्य बनाया जाये। उसे मुख्यधारा में लाया जाये। उसकी बहाली के लिये स्थानीय भूगोल और पानी की उपलब्धता आधारित रणनीति बने। रोडमैप तैयार हो। राज्यों में उत्तरदायी विभाग हो। बजट हो। परिणाम देने के लिये काम करने की आजादी हो। कोताही पर सजा हो।
 

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