भूस्खलन एवं पर्यावरण ह्रास (Landslides and Environmental Degradation)

15 Jul 2016
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पुस्तक समीक्षा

मालिण गांव में भूस्खलन भारतीय सनातन परम्परा में मानव जाति का उद्भव लगभग दो अरब वर्ष पूर्व माना जाता है। हरे-भरे जंगल, झर-झर बहते झरनों, कल-कल करती नदियों, कलरव करते पक्षी, वृक्ष-वनस्पति तथा विशुद्ध प्राणवायु प्रदान करने वाले वातावरण के बीच मानव ने जब अपनी आँखें खोली होंगी तब स्थिति अतीव मनोरम रही होगी। किंतु तत्पश्चात जैसे-जैसे मनुष्य विकास यात्रा की ओर अग्रसर हुआ और तकनीकी विकास के प्रभाव स्वरूप पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का समुचित दोहन न कर अपितु विदोहन कर औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप उस समय से वर्तमान तक पर्यावरण की स्थिति में अत्यधिक परिवर्तन आ गया।

वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व इस स्थिति की भयावहता से आक्रांत है। विकास की अंधाधुंध दौड़ के कारण पर्यावरण का ह्रास तीव्र गति से हो रहा है। पर्यावरण और जीवन का परस्पर इतना घनिष्ठ संबंध है, कि पर्यावरण के बिना समस्त प्राणीजगत के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। स्वच्छ पर्यावरण न केवल मानव जीवन के अस्तित्व के लिये आवश्यक है, अपितु देश के विकास और समृद्धि के लिये भी अति आवश्यक है।

किसी भी राष्ट्र के विकास में विभिन्न प्राकृतिक सम्पदाएं महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। किन्तु आज जो आधुनिक मानव-समाज में इनका अति उपयोग या विदोहन हो रहा है, उससे ये सम्पदाएं दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है, जो भूस्खलन एवं भूकम्प जैसी विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं तथा पर्यावरण ह्रास जैसी समस्याओं को जन्म देती हैं। अत: यदि मानव को इन सभी समस्याओं से मुक्ति चाहिए तो प्रकृति अर्थात पर्यावरण के साथ संवेदना पूर्वक सामंजस्य बैठाकर ऐसे संतुलित विकास करने की जिससे पर्यावरण भी सुरक्षित रहे और मानव सहित सभी प्राणी सुख पूर्वक जीवन-यापन कर सकें। वैदिक ऋषियों की भी यही दृष्टि रही है-

‘‘यत्ते भूमि विखानामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
मा ते मर्म विमश्ग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम।।’’ (अथर्व.- 12/1/35)


अर्थात- हे भूमि माता! तेरा जो कोई भाग मैं खोदूँ या लूँगा, वह उतना ही होगा, जिसे तू पुन: शीघ्र उत्पन्न कर सके। हे खोजने योग्य पृथ्वी माता! मैं न तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवनशक्ति पर कभी आघात अर्थात चोट करूँ और न ही तेरे हृदय को हानि पहुँचाऊँ।

संपादक महोदय ने ‘‘भूस्खलन एवं पर्यावरण ह्रास’’ नामक पुस्तक के माध्यम से सीमावर्ती जनपद पिथौरागढ़ सहित देश का सामान्य जन भी जागरूक हो और इसके ज्ञान एवं अनुभव से अधिकाधिक लाभान्वित हो सके, इस उद्देश्य से हिन्दी में लिखित इकतीस सारगर्भित एवं मौलिक लेखों को दो भागों में विभाजित कर इस पुस्तक का संपादन किया गया है।

प्रथम भाग-भूस्खलन में ग्यारह लेखों में विशेषत: हिमालयी उत्तराखण्ड राज्य एवं हिमाचल प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में भूस्खलन एवं पर्यावरण ह्रास की समस्या, कारण एवं निवारण के उपायों की चर्चा की गई है तथा भूस्खलन एवं पर्यावरण विषयक शब्दों को भूवैज्ञानिक दृष्टि से परिभाषित किया गया है। भूस्खलन के सुदूर-संवेदन एवं भौगोलिक सूचना प्रणाली के द्वारा अभिमुखता, ढाल, भूस्खलन संकट, आपदा, जोखिम एवं संभावना मानचित्र तैयार किये गए हैं।

द्वितीय भाग- पर्यावरण ह्रास में बीस लेखों का संग्रह है। जिसमें जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, खाद्य प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, आदि की वैज्ञानिक व्याख्या के साथ-साथ इनका समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को दर्शाया गया है। भूस्खलन एवं पर्यावरण ह्रास के समाधान हेतु आधुनिक वैज्ञानिक विधि तथा प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा प्रदत्त समाधानों का भी विस्तार पूर्वक उल्लेख किया है।

सम्पादक महोदय ने इस पुस्तक को भारतवर्ष के सभी हिंदी भाषी राज्यों के उन छात्र-छात्राओं की समस्याओं को ध्यान में रखकर संपादन किया है जो हिंदी माध्यम से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत स्नातक स्तर पर किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में प्रवेश लेते हैं। जहाँ पर उन्हें हिंदी भाषा में पुस्तकें उपलब्ध न होने के कारण विवश होकर आंग्ल भाषी पुस्तकों से पाठ्यक्रम को विवशता पूर्वक पढ़ना पड़ता है और अनावश्यक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जोकि सीधे तौर पर उनके मौलिक ज्ञान और परीक्षा परिणाम को प्रभावित करता है। स्नातक स्तर पर भौमिकी की पुस्तकें हिंदी माध्यम में पाठकों को सुलभ कराने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संपादक की ओर से सारगर्भित लेखों का संकलन किया गया है, जो एक प्रथम एवं सराहनीय प्रयास है।

इस पुस्तक में सुधी पाठकों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उनके नदान सहित लेख प्रस्तुत किये गये हैं। पुस्तक में प्रयुक्त भाषा अत्यंत सरल, प्रचलित एवं सुबोध है तथा भूवैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली का प्रयोग किया गया है। इसमें भूस्खलन एवं पर्यावरण ह्रास से संबंधित वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तत्सम्बंधी मानचित्रों एवं आँकड़ों का भी यथोचित उल्लेख किया गया है।

इस संदर्भ में मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक सभी सुधी पाठकों सहित स्नातक छात्र/छात्राओं के लिये अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी।

मैं एक समीक्षक के रूप में इस पुस्तक को छात्र/छात्राओं के हित में संपादित भौमिकी को अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी मानता हूँ तथा शोधपत्र-लेखकों, संपादक एवं प्रकाशक को इस हेतु आभार ज्ञापित करता हूँ। मैं यह आशा भी करता हूँ कि संपादक एवं प्रकाशक अपने इस सुप्रयास को पाठकों एवं छात्र/छात्राओं के हित में निरंतर भविष्य में भी जारी रखेंगे।

समीक्षक- डा. मुकेश कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, एल.एस.एम.राज. स्ना. महा. पिथौरागढ़-262502, उत्तराखण्ड

सम्पादक- डा. आरए सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर-भूगर्भ विज्ञान विभाग, एलएसएम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़-262502, उत्तराखण्ड प्रकाशक-ज्ञानोदय प्रकाशन, सुमित्रा सदन, मल्लीताल, नैनीताल, उत्तराखण्ड

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