भयावह रिसाव

भोपाल गैस कांड पर विशेष


सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की पॉल्युशन मॉनिटरिंग लैब (पीएमएल) ने विषैले रसायनों की उपस्थिति का पता लगाने के लिये यूनियन कार्बाइड इण्डिया लिमिटेड (यूसीआईएल) फ़ैक्टरी के भीतर और इसके आसपास पानी और मिट्टी के नमूनों की जाँच की।

पीएमएल ने यूसीआईएल में विभिन्न कीटनाशकों के उत्पादन के लिये इस्तेमाल की जा रही प्रक्रियाओं की जाँच की और इनके आधार पर मिट्टी तथा पानी के नमूनों की जाँच के लिये रसायनों के चार समूहों का चयन किया। इसने क्लोरिनेटेड बेंज़ीन कम्पाउंड में 1,2 डाइक्लोरोबेंज़ीन, 1,3 डाइक्लोरोबेंज़ीन, 1,4 डाइक्लोरोबेंज़ीन तथा 1,2,3 ट्राइक्लोरोबेंज़ीन की जाँच की।

ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशकों में अल्फा, बीटा, गामा तथा डेल्टा हेक्साक्लोरोसाइक्लोहेक्सेन (एचसीएच) की जाँच की गई। यूसीआईएल को दो मुख्य उत्पादों-कारबारिल तथा एल्डीकार्ब की भी जाँच की गई। पाँच हेवी मेटल्स, जैसे सीसा (लेड), कैडमियम, क्रोमियम, पारा तथा संखिया (आर्सेनिक) की भी जाँच की गई।

हमने जाँच क्यों की


यूसीआईएल तीन अलग-अलग तरह के कीटनाशक तैयार करती थी : कारबारिल (व्यावसायिक नाम सेविन), एल्डीकार्ब (व्यावसायिक नाम टेमिक), तथा व्यावसायिक नाम सेविडोल के अन्तर्गत बेचा जाने वाला कारबारिल तथा गामा हेक्साक्लोरोसाइक्लोहेक्सेन मिश्रण (जीएचसीएच)। जीएचसीएच को ग्रेड एचसीएच से प्राप्त किया जाता है। यह एचसीएच के विभिन्न रसायनों (आइसोमर्स) का मिश्रण (मुख्यतः अल्फा, बीटा, डेल्टा तथा गामा एचसीएच) होता है।

यूसीआईएल इस्तेमाल के लिये टेक्नीकल ग्रेड एचसीएच खरीद कर जीएचसीएच प्राप्त करती थी और शेष बचे आइसोमर्स को अपशिष्ट पदार्थ के रूप में फेंक देती थी।

कारबारिल तथा एल्डीकार्ब जैसे दोनों रसायन कीटनाशकों के कार्बामेट समूह में आते हैं; दोनों अत्यधिक विषैले हैं; पानी में अत्यधिक घुलनशील हैं और मिट्टी में फैलते हैं। अतः, फ़ैक्टरी के भीतर और इसके आसपास मिट्टी तथा पानी में इन दोनों कीटनाशकों का मिलना कोई हैरानी की बात नहीं है।

एचसीएच और इसके अइसोमर्स अत्यधिक प्रभावशाली होने के साथ-साथ विषकारी ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक होते हैं। तथा एचसीएच के विभिन्न आइसोमर्स की उपस्थिति प्लांट में प्रोसेसिंग, सेविडोल फॉर्मुलेशन के लिये जीएचसीएच के इस्तेमाल और फ़ैक्टरी के भीतर और बाहर अपशिष्ट पदार्थों का निपटान करने के स्थल (जिसे यूसीआईएल द्वारा सोलर इवापोरेशन पोंड भी कहा जाता है) में अन्य आइसोमर्स के निपटान के कारण होता है।

हेक्साक्लोरोबेंज़ीन (एचसीबी) टेक्निकल ग्रेड एचसीएच में अशुद्धि के रूप में होती है और इसकी उत्पत्ति यूसीआईएल फ़ैक्टरी में विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं के उप-उत्पाद के रूप में होती थी।

क्लोरिनेटेड बेंज़ीन कम्पाउंड अत्यन्त प्रभावशाली होते हैं और यूसीआईएल द्वारा इनका उपयोग एचसीएच अथवा एचसीबी के सोल्वेंट्स अथवा डीग्रेडेबल उत्पादों के रूप में किया जाता था। उदाहरण के लिये 1,2 डाइक्लोरोबेंज़ीन का इस्तेमाल यूसीआईएल के मुख्य उत्पाद सेविन के उत्पादन में रसायन के रूप में इस्तेमाल होने वाले अल्फा-नेप्थोल के उत्पादन में सोल्वेंट के रूप में किया जाता था। क्लोरोनेटिड बेंज़ीन कम्पाउंड का उपयोग कीटनाशकों एवं फफूंदीनाशकों के रूप में किया जाता है।

पारा जैसे हेवी मेटल का इस्तेमाल सेविन प्लांट में सीलेंट के रूप में किया जाता था और क्रोमियम का उपयोग यूसीआईएल फ़ैक्टरी के कूलिंग प्लांट में कूलेंट के रूप में किया जाता था।

हमने नमूने कहाँ से प्राप्त किये


पीएमएल के वैज्ञानिकों ने मिट्टी और जल के नमूने एकत्र करने के लिये दिनांक 28-29 अक्तूबर, 2009 को भोपाल का दौरा किया।

पीएमएल ने मिट्टी के 8 नमूने एकत्रित किये
एक नमूना यूसीआईएल के अपशिष्ट भण्डारण शेड में जमा किये गए अपशिष्ट पदार्थों से लिया गया। यह ऐसा अपशिष्ट था जिसे सरकार खतरनाक अपशिष्ट निपटान स्थल पर भेजने का प्रयास कर रही थी।

मिट्टी के छह नमूने यूसीआईएल फ़ैक्टरी के भीतर विभिन्न स्थानों से प्राप्त किये गए। मिट्टी का अन्तिम नमूना सोलर इवापोरेशन पोंड से प्राप्त किया गया था। यह ऐसा स्थान है जहाँ यूसीआईएल द्वारा अपशिष्ट पदार्थों का भण्डारण किया जाता था।

जल के 12 नमूने लिये गए
जल का एक नमूना फ़ैक्टरी के भीतर से प्राप्त किया गया- यह जल प्लांट परिसर के भीतर खाई में भरा बरसात का पानी था।

जल के ग्यारह नमूने यूसीआईएल फ़ैक्टरी के भीतर हैण्डपम्प, बोरवेल तथा डंगवेल से लिये गए। जल के नमूने फ़ैक्टरी की चारदीवारी से लगभग 3.5 कि.मी. की दूरी तक बसी कॉलोनियों से भी प्राप्त किये गए।

हमें क्या मिला


अन्दर का दूषण
एकत्रित किये गए जल के एक नमूने, मिट्टी के छह नमूनों तथा फ़ैक्टरी में सतही जल के एक नमूने तथा अपशिष्ट निपटान स्थल (सोलर इवापोरेशन पोंड) से लिये गए मिट्टी के एक नमूने की जाँच से साफतौर पर पता चला कि यूसीआईएल फ़ैक्टरी के भीतर भूमि तथा अपशिष्ट निपटान स्थल कीटनाशकों, ऑर्गेनिक कम्पाउंड तथा हेवी मेटल्स से बुरी तरह दूषित हैं।

अपशिष्ट पदार्थों के नमूने
यूसीआईएल परिसर के भीतर जमा किये गए अपशिष्ट पदार्थों में सभी चार क्लोरीनेटिड बेंज़ीन कम्पाउंड तथा 7 में से 6 कीटनाशक थे। इस नमूने में कारबारिल की मात्रा सबसे अधिक अर्थात् 9856 पीपीएम थी। नमूने में 5 में से 4 हेवी मेटल्स भी थे। पारा की मात्रा 1065 पीपीएम थी।

मिट्टी के नमूने
मिट्टी के सभी नमूनों में एचसीएच तथा इसके आइसोमर्स, एचसीबी, 1,3 डाइक्लोरोबेंज़ीन तथा 1,4 डाइक्लोरोबेंज़ीन पाये गए। मिट्टी के पाँच नमूनों में 1,2 डाइक्लोरोबेंज़ीन तथा 1,2,3 ट्राइक्लोरोबेंज़ीन पाये गए। मिट्टी के तीन नमूनों में एल्डीकार्ब तथा एक में कारबारिल पाया गया।

नमूना प्राप्ति स्थल

एचजी (पीपीएम)

पीबी (पीपीएम)

सीआर (पीपीएम)

यूसीआईएल का अपशिष्ट भण्डार शेड - डी/24 के लिये निर्धारित दीवार के समीप खत्ती से प्राप्त किये गए

1064.61

23.22

86.18

टेमिक प्लांट के निकट पायलट प्लांट पिट से (चारदीवारी के निकट)

74.14

111.78

297.7

सेविन प्लांट के भूतल से

8188.33

84.05

192.13

निर्माणाधीन फ्लाईओवर के निकट यूसीआईएल के सोलर इवापोरेशन प्लांट से

18

22.34

1064.57

 

हमने जाँच कैसे की


पीएमएल, आईएसओ 9001 प्रमाणन प्राप्त एक स्वतंत्र लेबोरेटरी है जिसमें अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य अमरीकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (ईपीए) पद्धति का अनुसरण किया जाता है। कार्बामेट्स (कार्बाइल तथा एल्डीकार्ब) की उपस्थिति का पता लगाने के लिये हाई परफॉर्मेंस लिक्विड क्रोमेटोग्राफ (विधि 8318) का इस्तेमाल किया गया। ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशकों तथा क्लोरीनेटिड बेंज़ीन कम्पाउंड की उपस्थिति का पता लगाने के लिये जाँच में गैस क्रोमेटोग्राफ (कारबैरिल तथा एल्डीकार्ब) का इस्तेमाल किया गया (ईपीए विधि 8081बी)। कीटनाशकों की उपस्थिति की पुष्टि क्रोमेटोग्राफ-मास स्पेक्ट्रोमीटर का इस्तेमाल करके भी की गई (ईपीए विधि 8270सी)। सीसा तथा क्रोमियम की उपस्थिति की जाँच के लिये फ्लेम तकनीक का इस्तेमाल करके एटोमिक एब्ज़ॉर्पशन स्पेक्ट्रोमीटर (एएएस) का विश्लेषण किया गया। इसी प्रकार, एएएस-वेपर तकनीक के माध्यम से विश्लेषण के द्वारा संखिया और पारा की उपस्थिति का पता लगाया गया। इन हेवीमेटल्स के सम्बन्ध में मिट्टी और पानी विश्लेषण हेतु ईपीए विधियों का उपयोग किया गया।

नमूनों में कुल कीटनाशक एवं क्लोरीनेटिड बेंज़ीन कम्पाउंड की मात्रा 185 पीपीएम (अटल अयूब नगर की अोर चारदीवारी के निकट पोंड में) से लेकर 5874 पीपीएम थी (सेविडोल फार्मूलेशन प्लांट से) सेविडोल फॉर्मूलेशन प्लांट से लिये गए मिट्टी के नमूने में गामा-एचसीएच (लिंडेन) की मात्रा 2782 पीपीएम थी।

मिट्टी के सभी नमूनों में संखिया तथा क्रोमियम पाये गए। दो नमूनों में पारा पाया गया तथा छह में से पाँच नमूनों में सीसा पाया गया। पाये गए क्रोमियम की मात्रा 18 पीपीएम से 298 पीपीएम थी। इसकी मात्रा टेमिक प्लांट के निकट अत्यधिक थी।

दो नमूनों में पारा पाया गया और इसकी अधिकता काफी मात्रा में थी। सेविन प्लांट के तल से लिये गए मिट्टी के नमूने में इसकी अधिकता 8188 पीपीएम थी। और अब सेविन प्लांट के भीतर तात्विक पारा भी देखा जा सकता है।

जल का नमूना


फ़ैक्टरी परिसर के भीतर एकत्र किये गए सतही जल का नमूना अत्यधिक दूषित था और जाँच करने पर इसमें सभी कम्पाउंड पाये गए।

आवासीय क्षेत्र रसायनों के प्रभाव से दूषित


अपशिष्ट निपटान स्थल
मिट्टी के नमूनों में सभी क्लोरीनेटिड बेंज़ीन कम्पाउंड तथा ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक पाये गए। पाँच हेवीमेटल्स में से चार पाये गए। इस नमूने में क्रोमियम की मात्रा 1065 पीपीएम थी। यूसीआईएल कूलेंट के रूप में क्रोमियम का प्रयोग करता था तथा कूलिंग वॉटर को सोलर इवापोरेशन पोंड फेंक देता था।

बाहरी प्रदूषण


भूजल के सभी ग्यारह नमूने यूसीआईएल फ़ैक्टरी के आसपास बसी कॉलोनियों से लिये गए और क्लोरीनेटिड बेंज़ीन कम्पाउंड और ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशकों से दूषित पाये गए। चार भूजल नमूनों में कार्बानेट्स पाये गए।

जल के सभी नमूनों में पाई गई कीटनाशकों की अधिकता भारतीय मानक ब्यूरो (आईएस :14543) द्वारा निर्धारित एकमात्र अनिवार्य भारतीय जल मानदंड से 1.1 से 38.6 गुना अधिक थी। सभी भूजल नमूनों में औसत अधिकता 0.006 पीपीएम थी जो निर्धारित मानदंड से 12 गुना अधिक थी।

शिवनगर में चौरसिया समाज मन्दिर के निकट हैण्डपम्प से लिया गया जल का नमूना भी काफी दूषित पाया गया। इसमें कारबारिल (0.011 पीपीएम अथवा मानक से 110 गुना ज़्यादा), लिंडेन (0.004 पीपीएम; मानक से 40 गुना ज़्यादा) तथा पारा (0.024 पीपीएम, मानक से 24 गुना ज्यादा) अधिक थी। यह स्थान यूसीआईएल फ़ैक्टरी से 3 कि.मी. से अधिक दूरी पर था।

सम्बन्ध


यूसीआईएल फैक्टरी के भीतर पाये गए रसायनों तथा यूसीआईएल के निपटान स्थल पर पाये गए अपशिष्टों की रूपरेखा फ़ैक्टरी परिसर के आसपास बसी कॉलोनियों से लिये गए भूजल के नमूनों के अनुरूप थी। क्लोरीनेटिड बेंज़ीन कम्पाउंड तथा कीटनाशकों के मामले में यहाँ यूसीआईएल के अलावा कोई और स्रोत नहीं था। प्लांट स्थल आवासीय कॉलोनियों की तुलना में थोड़ी ऊँचाई पर ढलानदार स्थल पर था।

सामान्य समूह के रूप में पर्यावरण में कार्बामेट्स की मात्रा का प्रभाव मामूली पाया गया। लेकिन प्लांट के बन्द होने के 25 वर्ष बाद भी भूजल में इसका प्रभाव साफतौर से देखा जा सकता है। जिससे यह पता चलता है कि यूसीआईएल प्लांट लगातार भूजल को दूषित कर रहा है।

25 वर्ष से अधिक समय से क्षेत्र के निवासी रसायन मिश्रित भूजल से प्रभावित हो रहे हैं। ये लोग तब तक प्रभावित रहेंगे जब तक इस फ़ैक्टरी में प्रदूषण रहेगा।

इसके परिणाम से यह भी पता चलता है कि समूचा स्थल अत्यधिक दूषित है। फ़ैक्टरी परिसर के भीतर जमा किया गया अपशिष्ट पदार्थ स्थल पर उपस्थित कुल दूषण का मात्र एक छोटा सा भाग है। सरकार द्वारा सिर्फ जमा किये गए अपशिष्ट पदार्थों के निपटान पर ही ध्यान दिया जा रहा है लेकिन यूसीआईएल फ़ैक्टरी द्वारा उत्पन्न पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं पर उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

(लैब अध्ययन सपना जॉनसन, रमाकांत साहू, निमिषा जादोल तथा क्लारा डूका द्वारा किया गया था।)

कोई सफाई नहीं


25 साल बीतने के बाद भी हजार टन खतरनाक अपशिष्ट यूनियन कार्बाइड फ़ैक्टरी के आसपास फैला हुआ है।

मध्य प्रदेश सरकार ने कहा है कि भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों को अपना शिकार बना चुकी यह कीटनाशक कम्पनी जल्दी ही आम जनता के लिये खोली जाएगी। इसे मृत लोगों को श्रद्धांजलि स्वरूप स्मारक का रूप दिया जाएगा। इस स्मारक के लिये दिल्ली के एक वास्तुविद् ने अपना प्रस्ताव पेश किया है जिसमें प्रदर्शनी दीर्घा, पीड़ित व्यक्तियों की कास्ट आयरन से बनी मूर्तियों को दर्शाने वाला वॉकिंग प्लाजा, देखने के लिये टावरों तथा बाजारों की व्यवस्था की जानी है। यह प्रस्ताव सरकार द्वारा आयोजित एक प्रतिस्पर्धा के अन्तर्गत सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया है। प्रस्ताव के लिये अभी स्वीकृति की प्रतीक्षा है।

मध्य प्रदेश सरकार के प्रधान सचिव एस.आर. मोहंती ने डाउन टु अर्थ के साथ बातचीत में कहा कि इससे इस आशंका को दूर किया जा सकेगा कि इस स्थल पर अभी भी विषैले पदार्थों का प्रभाव है। शहर में यह भी अफवाह फैली हुई है कि इस स्थान के आसपास की 35 हेक्टेयर भूमि प्रमुख रीयल एस्टेट है। चूँकि फ़ैक्टरी शहर में है, इसलिये शहर इस भूमि को अधिगृहीत करना चाहता है।

जानलेवा ढलाव


त्रासदी के 20 वर्ष बाद भी, कोई भी व्यक्ति बन्द हो चुकी फ़ैक्टरी में पड़े खतरनाक अपशिष्ट के निपटान की ओर ध्यान नहीं दे रहा है। सुनवाई के दौरान भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा द्वारा इसके दीर्घगामी विषैलेपन और सफाई की बात कही गई थी लेकिन फिर भी, इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। क्षतिपूर्ति राशि तथा अस्पताल का निर्माण ही केन्द्र बिंदु में रहे। 1989 में और फिर इसके बाद 1991 में, जब माननीय न्यायालय ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ आपराधिक आरोप लगाने के प्रति अपनी सहमति दी थी, तब श्री मिश्रा उच्चतम न्यायालय की दोनों महत्त्वपूर्ण निर्णय सुनाने वाली बेंच में शामिल थे।

इस भयावह त्रासदी के 10 वर्ष बाद अर्थात् 1990 के दशक के मध्य में यूनियन कार्बाइड ने कम्पनी के शेयर इसकी भारतीय कम्पनी को बेच दिये। 1997 में एवरेडी इंडस्ट्रीज़ इण्डिया लिमिटेड, जिसने यूनियन कार्बाइड के शेयर खरीदे थे, ने नागपुर के नेशनल एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) को दूषित स्थल के अध्ययन के लिये नियुक्त किया। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यह अध्ययन क्यों शुरू किया गया, लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि यहाँ पर इलेक्ट्रॉनिक फ़ैक्टरी स्थापित करने की योजना थी। भोपाल में सक्रिय कार्यकर्ताओं के पास उपलब्ध रिपोर्ट से पता चलता है कि नीरी को कीटनाशक, सेविन (कारबैरिल) से लिंडेन और एल्फा नैप्थोल की मात्रा का पता नहीं चला।

नीरी के अधिकारियों ने डाउन टु अर्थ को इस बात की पुष्टि की है कि उन्हें निश्चित रूप से विषैले प्रभाव की अधिकता उच्च स्तर पर मिली है और फ़ैक्टरी में दूषित प्रभाव का पता लगाया है।

इसके बाद, 1999 में वैश्विक गैर-सरकारी संगठन ग्रीनपीस ने फ़ैक्टरी के भीतर और इसके आसपास इसी प्रकार का अध्ययन किया। इस रिपोर्ट ने व्यापक स्तर पर दूषित प्रभाव की पुष्टि की थी। इसी समय बड़े पैमाने पर विक्रय सम्बन्धी गतिविधियाँ भी सामने आईं, जब यूनियन कार्बाइड एक अन्य अमरीकी रासायनिक संस्थान डाउ केमिकल कम्पनी को बेच दी गई।

इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर नज़र डालते हुए भोपाल के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने इस मामले को न्यूयॉर्क डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में उठाया। उन्होंने फ़ैक्टरी से निरन्तर प्रदूषकों के रिसाव के कारण आम आदमी तथा सम्पत्ति को पहुँचने वाले नुकसान से राहत प्रदान करने की माँग की। अमरीकी कोर्ट में यह लड़ाई आज भी जारी है। लेकिन, वर्ष 2004 में भोपाल के एक सक्रिय कार्यकर्ता आलोक प्रताप सिंह ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की। उन्होंने याचिका में आरोप लगाया कि स्थल पर प्रदूषण के लिये डाउ कम्पनी जिम्मेदार है। साथ ही उन्होंने माननीय कोर्ट से निर्देश प्राप्त किये कि कम्पनी निरन्तर एवं दीर्घगामी प्रदूषण प्रभावों के लिये उत्तरदायी है। उनकी याचिका के प्रति यह भी आदेश दिये गए कि स्थल को तुरन्त स्वच्छ किया जाये।

अपशिष्ट पदार्थों का एकत्रीकरण...


2005 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की जबलपुर बेंच ने अपशिष्ट को हटाए जाने के सम्बन्ध में कई निर्देश दिये थे। पहले चरण में नीरी को अपशिष्ट पदार्थों में विषाक्तता की जाँच करने और इसके उपचार के बारे में सुझाव देने के लिये कहा गया था। पहले चरण में सफाई का अनुबन्ध हैदराबाद की कम्पनी रामकी एनवायरो इंजीनियर्स लिमिटेड को दिया गया था। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि कम्पनी किस प्रकार अपशिष्ट को एकत्र करेगी और किस प्रकार उसका भण्डारण करेगी। लेकिन यह प्रतीत होता है कि 1990 के पूर्वार्ध में एकत्र किया गया अपशिष्ट पुनः पैक करके ‘सुरक्षित’ शेड में रख दिया गया है- जहाँ से रिसाव हो रहा है।

सरकार का इनकार


अतः हर बार बारिश होने पर यह अपशिष्ट बहकर मिट्टी में अवशोषित हो जाता है। कम्पनी के अधिकारी इसका स्पष्टीकरण शेड के छत का टूटा होना बताते हैं। जिसे सरकारी ठेकेदारों ने निर्मित किया था।

...लेकिन निपटान के लिये कोई कदम नहीं


न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि 390 टन अपशिष्ट को एकत्र करके उसे उपचारित किया जाना चाहिए। न्यायालय ने 2007 में आदेश दिया कि जलाए जाने योग्य अपशिष्टों को गुजरात स्थित एक निजी सुविधा में भेज दिया जाये। (40 टन अपशिष्ट को मध्य प्रदेश के धार जिले के पीथमपुर स्थित रामकी की निजी लैंडफिल में भेज दिया गया) इसके बाद गुजरात में अंकलेश्वर स्थित अपशिष्ट निपटान सुविधा भरुच एनवायरो-इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (बीईआईएल) की अपशिष्ट भण्डारण सुविधा को उपयुक्तता पर विवाद उत्पन्न हो गया (देखें ‘भोपाल से भरुच’ डाउन टु अर्थ के 30 अप्रैल, 2008 के अंक में)।

यूनियन कार्बाइड कचरापर्यावरणविदों ने आरोप लगाया है कि इस सुविधा में अनुचित रखरखाव के कारण कुछ वर्ष पहले एक बड़ी दुर्घटना हुई थी। प्रारम्भ में गुजरात को अपने पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश से खतरनाक अपशिष्ट उठाने की अनुमति दी गई थी। इसने यह कहते हुए अपशिष्ट उठाने को मना कर दिया कि यह कार्य काफी विशाल है और उसकी सुविधा उपलब्ध नहीं है।

बीईआईएल के मालिम राजू श्रॉफ के निजी गैर-सरकारी संगठन सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एंड एग्रोकेमिकल्स (सेंटेग्रो) ने इससे सम्बन्धित हितों को प्रकट किये बिना कानूनी मामला भी शुरू किया है।

भोपाल के पर्यावरणविद द्वारा दायर सूचना के अधिकार आवेदन में यह प्रमाण सामने आया कि किस प्रकार सेंटेग्रो ने यूनियन केमिकल्स और उर्वरक मंत्रालय के साथ साँठगाँठ करके अपशिष्ट को बीईआईएल को भेजने की अनुमति ली।

वर्ष 2009 के प्रारम्भ में श्रॉफ ने केन्द्र सरकार को लिखे अपने पत्र में इस बात को स्वीकार किया है कि उनकी कम्पनी की सुविधा अपर्याप्त है और वह इतनी विशाल मात्रा में अपशिष्टों का निपटान करने में असमर्थ है। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘इन परिस्थितियों में उनके लिये अपशिष्ट को जलाने के लिये किसी बाहरी (सदस्य) उद्योग का अपशिष्ट लेना मुश्किल होगा।’

ऐसा गुजरात द्वारा भोपाल के अपशिष्ट को उठाने से इनकार करने पर न्यायालय के आदेशों की अवमानना के सम्बन्ध में उच्च न्यायालय की चेतावनी और गुजरात सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में अपील करने पर किया गया है। उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के कार्यवाहियों की अवमानना पर स्थगन आदेश दिये हैं और अब इस बात पर सुनवाई चल रही है कि भोपाल के अपशिष्ट का निपटान कहाँ होगा और इसका भुगतान कौन करेगा? सतीनाथ षडंगी द्वारा संचालित गैर-सरकारी संगठन दि भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉरमेशन एंड एक्शन, जिसने लम्बे समय तक आपदा के दौरान पीड़ितों के लिये कार्य किया था, चाहता था कि न्यायालय इस अपशिष्ट को वापस अमरीका भेजे। उसने अपने आवेदन में कहा था कि भारत विगत में भी ऐसा कदम उठा चुका है। षडंगी के वकील करुणा नंदी ने कहा कि मार्च, 2003 में तमिलनाडु पल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड को आदेश दिया था कि वह पारा युक्त 256 टन अपशिष्ट को कम्पनी की कीमत पर अमरीका भेजे।

और भी अध्ययन किये जा रहे हैं


उच्च न्यायालय के निर्देशों पर कार्रवाई करते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने 2005 में संस्थानों से कहा कि वह अपशिष्ट के उपचार की विस्तृत योजना तैयार करे। नेशनल जियोफिजि़कल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनजीआरआई) मिट्टी तथा भूजल में सन्दूषण के स्तर का मूल्यांकन कर रहा है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (आईआईसीटी) प्लांट को खंडित करने का तरीका ढूँढ रहा है जबकि नीरी उपचार योजना की लागत का अनुमान लगा रही है। इनके द्वारा संचालित अध्ययन कार्य जारी है।

प्रदूषण के प्रति आँखें बन्द


तथापि, राज्य सरकार का मानना है कि फ़ैक्टरी में किसी प्रकार का दूषित प्रभाव नहीं है। 10 नवम्बर को भोपाल गैस त्रासदी, राहत एवं पुनर्वास राज्य मंत्री बाबूलाल गौड़ ने फ़ैक्टरी के गेट सैर-सपाटा और आपदा भ्रमण के रूप में खोलने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि इससे लोगों में इस मिथ्या धारणा को समाप्त किया जा सकेगा कि फ़ैक्टरी में अभी खतरनाक रसायनों का प्रभाव है जो यहाँ की मिट्टी और पानी को दूषित कर रहे हैं।

श्री गौड़ ने प्रमाण स्वरूप रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ), ग्वालियर का पत्र दर्शाते हुए कहा कि इसमें इस बात का उल्लेख किया गया है कि नमूनों की लेबोरेटरी में जाँच करने पर यहाँ किसी प्रकार के खतरनाक विषैले तत्व नहीं पाये गए हैं। इसके विपरीत, पशुओं पर किये गए परीक्षणों के अनुसार सभी नमूनों में कीचड़-मिट्टी, चूना, नैप्थोल टार, रिएक्टर अपशिष्ट, अर्द्ध-प्रसंस्त कीटनाशक तथा सेविन टार की निम्नतम विषाक्तता पाई गई। डीआरडीओ के निदेशक आर विजयराघवन ने कहा: ‘‘70 किलो वज़न के आदमी के मुँह में यदि 200 ग्राम अपशिष्ट चला जाये अथवा वह 100 ग्राम सेविन टार खा ले तो उसकी मृत्यु नहीं होगी। वास्तव में, विषाक्तता की मात्रा को खाने के साधारण नमक से भी कम है।’’ इस प्रकार निदेशक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस स्थल को आम जनता के लिये खोला जा सकता है। षडंगी ने अपने उत्तर में कहा, ‘‘अब हम सभी सरकारी अधिकारियों को इस अपशिष्ट को खाने के लिये आमंत्रित कर रहे हैं।’’

राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी सन्दूषण की जाँच की है। वर्षों से प्लांट के भीतर और इसके आसपास कीटनाशकों का स्तर कम अथवा अधिक पाया गया है। नीरी ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की है कि यहाँ विषाक्तता का स्तर काफी अधिक है। लेकिन, राज्य सरकार का कहना है कि नीरी ने इस मामले में अपनी क्लीन चिट दे दी है।

नीरी के अधिकारियों ने डाउन टु अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उन्होंने कभी भी स्थल पर विषाक्तता होने से इनकार नहीं किया है। उन्होंने सरकार से सिर्फ इतना कहा है कि यह केवल अस्थायी तौर पर प्रवेश के लिये सुरक्षित है।

सच तो यह है कि यदि किसी कार्य में अपने हित जुड़े हों तो इससे इनकार करना सबसे बेहतर रास्ता होता है। इसीलिये अभी तक यह निर्णय नहीं लिया जा सका है कि किस प्रकार 350 टन अपशिष्ट को पैक करके भण्डार किया जाए। निश्चित रूप से फ़ैक्टरी के भीतर और आसपास फैले तथा मिट्टी और पानी में रिस रहे हजारों टन कचरे के निपटान पर कोई बात नहीं की गई है। इस प्रकार यह धीमे ज़हर के रूप में आम आदमी की जि़न्दगी को समाप्त कर रहा है।

प्रदूषक भुगतान को तैयार नहीं


डाउ ने यूनियन कार्बाइड की सम्पत्ति तो ले ली, मगर देनदारी से करता है इनकार

1999 में यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन (यूसीसी) को खरीदने वाली डाउ केमिकल कम्पनी का कहना है कि वो भोपाल फ़ैक्टरी में पड़े विषैले अपशिष्ट को साफ करने कीमत नहीं देगी। इस क्षेत्र को साफ कराने के लिये 2004 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका में डाउ को प्रतिवादी बनाया गया था।

अपने अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी के ज़रिए- जो कांग्रेस पाटी के प्रवक्ता भी हैं- डाउ ने प्रतिवादियों को सूची में से अपना नाम हटाने का अनुरोध किया था। कारण: हादसे के समय कम्पनी का स्वामित्व उसके पास नहीं था।

‘‘वहाँ पड़ा कूड़ा 1978 से वहीं है, गैस लीक होने के बहुत पहले से। चूँकि डाउ ने यूसीसी की सम्पत्ति खरीदी है, तो उसे उसकी देनदारियों की भी देखभाल करनी चाहिए।’’ ऐसा कहना है भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के समन्वयक अब्दुल जब्बार का। डाउ की 2008 की वार्षिक रिपोर्ट में यूनियन कार्बाइड के एस्बेस्टस सम्बन्धि मुकदमों की 2.2 बिलियन अमरीकी डॉलर की देनदारी स्वीकारी गई है। ‘‘सवाल यह है कि भोपाल के मामले में खरीदी गई कम्पनी की देनदारियों से वह क्यों इनकार कर रही है,’’ भोपाल सूचना एवं कार्यसमूह की रचना ढींगरा कहती हैं। मई 2005 में, केन्द्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय ने भी पर्यावरण पुनर्स्थापना के लिये अग्रिम के तौर पर डाउ द्वारा 100 करोड़ रुपए जमा कराने का निर्देश देने के लिये न्यायालय में अर्जी लगाई थी क्योंकि न्यायालय जि़म्मेदारी तय करने से पूर्व अपशिष्ट की सफाई पर ज़ोर दे रहा था। इसके परिणामस्वरूप सत्ता के गलियारों में लॉबिंग ज़ोर शोर से शुरू हुई।

नवम्बर 2006 में डाउ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एंड्रयू लिवेरिस ने अमेरीका में भारत के तत्कालीन राजदूत रोनेन सेन को लिखे पत्र में अनुरोध किया कि भारत सरकार 100 करोड़ रुपए के भुगतान की अर्जी वापस ले ले। इस पत्र में 25 अक्टूबर 2006 को न्यूयॉर्क में अमेरिका-भारत सीईओ फोरम में शीर्षस्थ भारतीय अधिकारियों द्वारा डाउ को इस ज़िम्मेदारी से मुक्त करने के आश्वासनों का जिक्र किया गया था। इसमें कहा गया, ‘‘बेशक अर्जी वापिस लिया जाना एक सकारात्मक और सार्थक इशारा होगा कि इस मामले में डाउ की जिम्मेदारी न होने के बारे में भारत सरकार जो कहती है, वहीं उसका आशय भी है।’’

जुलाई 2006 में अमरीका भारत सीईओ फोरम के अध्यक्ष की हैसियत से रतन टाटा ने भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया और तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम को पत्र लिखकर भारतीय उद्योग के सहयोग से स्थल सुधार कोष बनाने का प्रस्ताव किया। 28 नवम्बर 2006 आहलूवालिया को लिखे एक अन्य पत्र में टाटा ने कहा कि डाउ ने अपने पत्र में कहा है कि स्थल सुधार लागत के लिये डाउ द्वारा पैसा जमा कराने की रसायन और उर्वरक मंत्रालय की अर्जी वापिस कराना उनके लिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस अर्जी का मतलब है कि भारत सरकार भोपाल गैस त्रासदी मामले में डाउ को ‘जिम्मेदार’ मानती है। मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या आपकी राय में ऐसा सम्भव है। स्थल के सुधार के लिये टाटा द्वारा कोष जुटाने और उसका नेतृत्व करने का मेरा प्रस्ताव बरकरार है। शायद इससे मामले में कुछ तो आगे बढ़ा जा सकेगा।

तो जिम्मेदार है कौन?


प्रतिवादियों की सूची से डाउ केमिकल कम्पनी को हटाने से मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने इनकार कर दिया है। याचिकाकर्ता ने जोखिमपूर्ण अपशिष्ट प्रबन्धन नियमावली 1989 के प्रावधानों का उल्लेख किया है कि किसी संस्थान का कब्जेदार या संचालक उसके सुधार या पुनर्स्थापना की पूरी लागत का भुगतान करने का उत्तरदायी होगा और साफ-सफाई की अनुमानित लागत की अग्रिम राशि का भुगतान करेगा।

भारत में डाउ के वकीलों का तर्क है कि अमरीकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड का अब भारतीय शाखा यूनियन कार्बाइड इण्डिया लिमिटेड (यूसीआईएल) में कोई हित नहीं है, इसलिये उसको खरीदने वाले (डाउ) को भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती। दरअसल, अपनी एकतरफा राय में सिंघवी कहते हैं कि हादसे के समय यूसीसी भोपाल संयंत्र की मालिक नहीं थी और यूँ भी अब यूसीआईएल का कोई अस्तित्व नहीं बचा है।

सिंघवी का कहना है कि सभी दावे 1989 में सुलझा लिये गए थे जब यूनियन कार्बाइड ने ‘‘पूरा और अन्तिम हिसाब’’ दे दिया- कुल 470 मिलियन डॉलर की राशि। मगर आन्दोलनकारियों का कहना है कि उच्चतम न्यायालय के 1989 के निर्णय की 1991 में समीक्षा की गई थी और कम्पनी की आपराधिक देनदारी पुनर्स्थापित की गई थी। भोपाल में पड़ा अपशिष्ट किसी दुर्घटना का नहीं, बल्कि एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा रखरखाव में लापरवाही का नतीजा है। कम्पनी-पूर्व में यूसीसी और अब डाउ- ने कूड़ा फैलाया है और उसे उसकी भरपाई करनी ही होगी।

और इसकी कीमत क्या होगी?


यह किसी को नहीं पता। मगर यह स्पष्ट है कि यदि पूरे स्थल- 35 हेक्टेयर- को प्रभाव मुक्त करना है तो कूड़े की मात्रा अत्यधिक होगी और कीमत भी। जर्मनी और स्विटज़रलैंड से अपशिष्ट विशेषज्ञों को भोपाल लाने वाली ग्रीनपीस द्वारा 2004 में कराए गए एक अध्ययन में 25 हज़ार टन खतरनाक अपशिष्ट को साफ करने की बात कही गई। एक मोटे अनुमान के अनुसार पूरी साफ-सफाई की लागत 500-1000 करोड़ रुपए हो सकती है।

क्या भारतीय कर दाताओं को इसका बोझ उठाना चाहिए, खासतौर पर जब पर्यावरणीय उत्तरदायित्व एक स्थापित सिद्धान्त है? 1989 में तेलवाहक जहाज एक्सॉन वॉल्डेज़ एक चट्टान से टकरा गया और 10 मिलियन गैलन (38 मिलियन लीटर) तेल अलास्का तट पर फैल गया जिससे बड़े स्तर पर समुद्री जीव मारे गए थे। उस समय अमेरीकी तेल कम्पनी एक्सॉन ने पर्यावरण को हुए नुकसान के लिये लगभग 287 मिलियन डॉलर का भुगतान किया था। वाणिज्यिक मछुआरों और अन्यों को हुई आर्थिक हानि के लिये लगभग इतनी ही राशि दिये जाने की सम्भावना है। शेवरॉन मामले में, 30,000 अमेज़न बेसिन निवासियों ने 1994 में उनके जंगलों में तेल खुदाई से निकले विषैले अपशिष्ट को डालने के लिये इस तेल कम्पनी पर मुकदमा दायर किया। इस मुकदमें में भी, शेवरॉन ने टैक्साको इंक, को खरीदा था, जिसने 1964 से 1990 के दौरान तेल ड्रिलों का संचालन किया था। इसलिये शेवरान पर खरीदी गई कम्पनी की देनदारियों की ज़िम्मेदारी थी। 27 बिलियन अमरीकी डॉलर का मुकदमा हेग के मध्यस्थता के स्थायी न्यायालय में लम्बित है। वो बड़ी तेल कम्पनी भी अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। वो भी चाहती है कि इक्वाडोर की सरकार नुकसान की भरपाई करे।

अब मामला (और विषैला अपशिष्ट) भारतीय न्याय व्यवस्था और सरकार के पाले में है। सवाल यह है कि अगला प्रहार कब और कहाँ से होगा। पीड़ितों के लिये त्रासदी समाप्त नहीं हुई है।

नए शिकार


पहले गैस, फिर विषैला अपशिष्ट। आतंक जारी है।

पुराने भोपाल के शाकिर अली (गैस राहत) चिकित्सालय में अस्सी साल की भगवती को एक नया नाम मिला है। ‘ओ गैसवाली,’’ एक नर्स ने ऐसे पुकारा। यहाँ भर्ती हुई भगवती को आठ दिन हो गए थे जब डाउन टु अर्थ ने उससे मुलाकात की। उसके पेट और टाँगें सूज गए थे; वो न तो ठीक से चल सकती थी, न ही खा पी सकती थी। डॉक्टरों ने बताया था कि उसका जिगर कमजोर है और उसे शहर के हमीदिया अस्पताल में भर्ती होने की सलाह दी थी। जमालपुरा की निवासी, भगवती पिछले सात सालों से इस समस्या से जूझ रही है। ‘‘साँस की तकलीफ़ तो मुझे गैस रिसने की रात से ही है। अब यह पेट की तकलीफ़ और शुरू हो गई है,’’ वो बताती हैं। अपनी कमज़ोरी के बावजूद भगवती गैस त्रासदी से बचे लोगों के लिये पीने के साफ पानी का अधिकार माँगने दो बार दिल्ली तक जा चुकी हैं।

दुर्घटना स्थल के आसपास रहने वाले लोग आज भी बीमारियों, पुराने रोगों और विकृतियों के शिकार हैं। मगर कोई भी पक्के तौर पर इनका कारण नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि इसका गैस रिसाव से कितना सम्बन्ध है और जहरीले पदार्थों के सम्पर्क में रहने से यह कितना है। ऐसा इसलिये कि दीर्घकालीन महामारी अनुसन्धान को छोड़ दिया गया है और राज्य के चिकित्सा अनुसन्धान की हालत बुरी और विवाद ग्रस्त है।

गैस विपत्ति के तुरन्त बाद भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद (आईसीएमआर) को ये अध्ययन करने के लिये कहा गया था। मगर 1994 में ये अध्ययन यूँ ही छोड़ दिये गए। आरम्भिक रिपोर्टों में उत्तरजीवितों पर दीर्घकालीन और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक प्रभावों का जिक्र किया गया थाा 1989 में, यह ज़िम्मेदारी मध्य प्रदेश सरकार के पुनर्वास अध्ययन केन्द्र को सौंपी गई, जो गैस राहत और पुनर्वास विभाग के अन्तर्गत काम करता है, मगर इसके अध्ययन बहुत कम हैं और उपलब्ध भी नहीं हैं।

2006 में प्रधानमंत्री कार्यालय ने गैसकांड से बचे लोगों पर लम्बी अवधि के चिकित्सा अनुसन्धान कराने के लिये रसायन एवं पेट्रोरसायन विभाग (गैस कांड के लिये नोडल एजेंसी) को लिखा। विभाग ने आईसीएमआर को राज्य सरकार के 1.23 करोड़ रुपए वाले वार्षिक प्रस्ताव पर विचार करने को कहा। प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे नोट में विभाग ने आईसीएमआर द्वारा अनिच्छा जताने की बात कहीं (आरटीआई आवेदन के ज़रिए प्राप्त जानकारी) विभाग ने मामले को प्रधानमंत्री कार्यालय के पाले में भेजते हुए अनुसन्धान कार्य के लिये धनराशि और एजेंसी की व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी उस पर डाल दी।

दिन-पर-दिन आती कमजोरी


शाकिर अली चिकित्सालय के डॉक्टर बताते हैं कि यहाँ आने वाले लोगों में आँखों और फेफड़ों की बीमारियाँ आम हैं। यहाँ की डॉक्टर ममता मिश्रा बताती हैं, ‘‘हमें हर रोज क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मनरी डिसऑर्डर (जिसमें वायु नलियाँ संकुचित हो जाती हैं और अक्सर हालात काबू से बाहर होते हैं) के 50 से ज्यादा केस मिलते हैं।”

‘‘शहर के इस भाग में यह असम्भव है कि बच्चे कुत्तों की तरह हाँफे बिना 100 मीटर भी भाग पाएँ’’, शाकिर अली अस्पताल के बाहर पान की दुकान चलाने वाले संतोष शर्मा कहते हैं। यूनियन कर्बाइड फ़ैक्टरी के पीछे है नव जीवन कॉलोनी। यहाँ की निवासी राजपति बाई की बेटी दुर्घटना के समय छह महीने की थी। 10 वर्ष की आयु में उसे वर्टिलिगो (सफेद दाग) हो गया और तभी से उसका वजन लगातार घट रहा है। ‘‘वो अब पच्चीस की है और हालात के चलते मैं उसके लिये रिश्ता नहीं ढूँढ पा रही हूं,’’ राजपति बाई बताती हैं ‘‘बीमारियाँ इतनी ज्यादा हैं कि गरीब लोग उनके इलाज का खर्च उठा ही नहीं सकते।’’

पाइप लाइन तो बिछ गई मगर पानी का क्या?


लोगों ने साल-दर-साल दूषित पानी का मुद्दा उठाया मगर कोई नतीजा नहीं निकला। फ़ैक्टरी के आसपास रहने वाले अधिकतर लोग भूजल पर आश्रित हैं। 1990 में बसे आरिफ नगर को हर दूसरे दिन निगम का पानी मिलता है। प्यास बुझाने के लिये यह नाकाफी है, इसलिये लोगों ने 80 फुट गहरे बोरवेल खोद लिये हैं। ‘‘पानी का रंग गन्दला और स्वाद कसैला। किसी खराबी के कारण जब कोलार बाँध से आपूर्ति बन्द होती है तो हम यही पानी पीते हैं,’’ आरिफ नगर के नलसाज़ मुश्ताक अली बताते हैं।

यूनियन कार्बाइड कचरामुश्ताक की माँ अज़ीज़ा बी हँस कर कहती हैं कि गैस पीड़ितों का सबसे नज़दीकी अस्पताल, जवाहर लाल नेहरू अस्पताल, उनके लिये दूसरे घर जैसा है। ‘‘मैंने सब सहा है। तीन साल से मेरा दायाँ पैर बेकार है। डॉक्टर इसकी वजह नहीं बता पा रहे हैं। शाम को मैं ठीक से देख नहीं पाती, उच्च रक्तचाप और साँस की समस्याएँ भी हैं,’’ वो कहती हैं। अज़ीज़ा बी के परिवार को भोपाल टॉकीज़ क्षेत्र से लाकर आरिफ नगर में बसाया गया था, जहाँ 1984 में गैस पीड़ितों को सामूहिक तरीके से दफनाया गया था।

1994 में जहरीले कूड़े पर उच्चतम न्यायालय की निगरानी कमेटी ने फ़ैक्टरी के नज़दीक भूजल के संक्रमण की खबर दी थी। न्यायालय ने यहाँ के लोगों को साफ पानी मुहैया कराने का आदेश दिया। मगर निवासियों द्वारा 2006 और 2008 में भोपाल से दिल्ली तक दो बार प्रदर्शन करने के बाद ही एक पाइप लाइन बिछाई गई मगर अनियमित आपूर्ति की शिकायत बरकरार है। राज्य का ध्यान सिर्फ प्रभावित लोगों की सूची में नए नाम जोड़ने पर ही केन्द्रित है। (देखें भोपाल में हर एक के लिये राहत)।

खुला कूड़ाघर


फ़ैक्टरी के ठीक पीछे एक सौर वाष्पीकरण झील है जहाँ संयंत्र के चालू होने के दिनों में खतरनाक कूड़ा डाला जाता था। इसके कोनों पर लगी प्लास्टिक फट चुकी है और कूड़ा बाहर की तरफ फैल रहा है। 2007 में राज्य ने इस झील के आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य का अध्ययन कराया। इसमें पता चला कि भोपाल के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले यहाँ 24 वर्ष से कम आयु वर्ग में रोगग्रस्तता कहीं अधिक थी। इसका कारण खराब पानी और सामाजिक-आर्थिक तथा पर्यावरणीय स्तर को बताया गया। ‘‘ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि यहाँ का भूजल यूनियन कार्बाइड निपटारण क्षेत्र से जहरीले स्राव के कारण संक्रमित हुआ है,’’ यह इसका निष्कर्ष था।

भोपाल की त्रासदी कभी खत्म नहीं होगी। हमें शर्म आनी चाहिए।

पाये गए रसायनों का स्वास्थ्य पर प्रभाव


1,2 डाइक्लोरोबेंजीन

1,3 डाइक्लोरोबेंजीन

1.4 डाइक्लोरोबेंजीन

लीवर, सिरहोसिस, रक्त कोशिकाएँ, फेफड़े, गुर्दे, स्नायु तथा प्रजनन प्रणालियाँ प्रभावित

1,2,3 ट्राइक्लोरोबेंजीन

रोग प्रतिरोधक, स्नायु, प्रजनन, डीवेल, ओपमेंटल तथा स्वसन प्रणालियां क्षतिग्रस्त

हेक्साक्लोरोबेंजीन

लीवर रोग, अल्सर की उत्पत्ति, हड्डियों में खराबी तथा बाल झड़ना, स्नायु परिवर्तन। कैंसर की सम्भावना।

हेक्साक्लोरोसाइक्लोहेक्सेन (सभी आइसोमर्स सहित)

कैंसर की सम्भावना, लीवर, गुर्दों, स्नायु तथा प्रतिरोधक प्रणाली में खराबी। प्रजनन तथा न्यूरोटॉक्सिक निशक्तता तथा एंडोक्राइन में अवरोध

कारबैरिल (सेविन)

मस्तिष्क तथा स्नायु प्रणालियाँ क्षतिग्रस्त। एंडोक्राइन अवरोध तथा बच्चे का असामान्य विकास।

एल्डीकार्ब (टेमिक)

क्रोमोजोम असमानताएँ उत्पन्न करती हैं, कार्सिनोजीनिक रोग प्रतिरोधक प्रणाली पर विपरीत प्रभाव डालता है।

पारा

स्नायु तंत्र के लिये विषकारी। स्मरण शक्ति, एकाग्रता पर विपरीत प्रभाव डालता है। गर्भ में पल रहे बच्चे में मामूली रूप से भाषा तथा अन्य कौशलों को प्रभावित करता है। इससे अचानक गर्भपात की सम्भावना बढ़ जाती है।

संखिया

उदर सम्बन्धी रोग, खून की कमी, स्नायु रोग, त्वचा पर जख्म होना, लीवर तथा गुर्दों में खराबी। समूह ‘ए’ मानव कैंसर की सम्भावना।

सीसा

हीमोग्लोबिन तथा एनिमिया के बायोसिंथेसिस में अवरोध पैदा करता है। गर्भपात में वृद्धि करता है, स्नायु प्रणाली को क्षतिग्रस्त करता है, शुक्राणुओं में कमी लाता है, बच्चों में शिक्षण क्षमताओं में कमी लाता है और बच्चों में व्यवहारिक प्रवृत्तियों पर बुरा प्रभाव डालता है।

क्रोमियम

अल्सर पैदा करता है, नाक की झिल्ली में छिद्र कर देता है, ग्रसनी तथा गले में जलन होती है, दमा एवं श्वसन रोग की उत्पत्ति होती है।

 

भोपाल में हर एक के लिये राहत


यूनियन कार्बाइड से प्राप्त मुआवजा

470 मिलियन अमेरिकी डॉलर (750 करोड़ रुपए, जो ब्याज जोड़ने पर बढ़कर तीन हजार रुपया हो गया)

मुआवजा पाने वाले लोगों की संख्या

574,366 (1984 में शहर की जनसंख्या का 34 प्रतिशत

मार्च 2009 तक बाँटा गया मुआवजा

1,548.93 करोड़ रुपए

भोपाल में कुल वार्ड (1984)

56 (894,539 लोग)

कुल गैस प्रभावित वार्ड

36 (559,835)

मार्च 2009 तक चिकित्सा व्यय

512.09 करोड़ रुपए

राज्य सरकार अब बाकी बचे वार्डों को भी प्रभावित (334,704 लोग) घोषित करवाना चाहती है ताकि बचा हुआ मुआवजा पाया जा सके।

 

 

स्रोत : मध्य प्रदेश सरकार, भोपाल गैस त्रासदी राहत और पुनर्वास विभाग।

(रवलीन कौर और दिनकर की रिपोर्ट)

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