चीन ने छोड़ा, भारत ने ओढ़ा

20 May 2013
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चीन का तथाकथित अनुभव बटोरने से सत्रह वर्ष पूर्व बाढ़ नियंत्रण के उपायों पर बिहार में विचार-विमर्श की एक गंभीर कोशिश हुई थी। 1937 में पटना के सिन्हा लाइब्रेरी में 10 से 12 नवंबर तक महत्वपूर्ण सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन में बिहार के तत्कालीन सभी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, नेता, बाढ़ विशेषज्ञ, अभियंता और सरकारी अधिकारी सहित राज्यपाल श्री हैलेट भी शामिल हुए थे। यह सम्मेलन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुए बाढ़ नियंत्रण के उपायों की चर्चा की व्यापक अभिव्यक्ति था। पीली नदी की समस्या के स्थायी समाधान के लिए चीन ने 1952 से सोवियत संघ के विशेषज्ञों को राय देने के लिए आमंत्रित किया था। मई 1954 में हमारे विशेषज्ञ पीली नदी पर बने तटबंधों द्वारा बाढ़ नियंत्रण के प्रयासों को देखने चीन गये थे और जनवरी 1954 में सात सदस्यीय सोवियत विशेषज्ञ दल पीली नदी के तटबंधों की असफलता पर नया रास्ता सुझाने चीन गया था। श्री ए.ए. कोरोलीफ के नेतृत्व में चीन गये सोवियत विशेषज्ञों के इस दल ने जो सुझाव दिया उसके आधार पर चीन ने अप्रैल 1954 में यह प्रस्ताव किया कि पीली नदी की सहायक नदियों पर बांधों की श्रृंखला तैयार की जाये। इससे जल विद्युत का उत्पादन किया जाये, नौ परिवहन का भी विकास हो एवं जलाशयों में संचित जल का सिंचाई के लिए उपयोग किया जाये। साथ ही जब तक ये योजनाएं कार्यान्वित हों तब तक जल तथा भू-संरक्षण के विशेष कार्यक्रम चलाये जाये।

चीन में बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबंध की तकनीक कोसी तटबंध परियोजना शुरू होने के पूर्व ही “एक्सपायर्ड” घोषित हो चुकी थी। उन दिनों वहां बड़े बांधों का प्रयोग शुरू करने का मन बन रहा था। यह सब जानते हुए भी उत्तर बिहार में उस एक्सपायर्ड तकनीक को महज राजनीतिक निहितार्थ के लिए लागू किया गया। बाढ़ से तात्कालिक राहत दिलाकर उसका राजनीतिक-आर्थिक फायदा बटोरने के लिए तटबंध परियोजनाएं लागू की गई, जबकि इस राजनीतिक फैसले से डेढ़ दशक पूर्व चली एक लंबी बहस के परिणामस्वरूप यहां भी तटबंध “आउट डेटेड” घोषत हो चुके थे। इस गलत फैसले पर जनता को चुप रखने के लिए चीन का झूठा मॉडल प्रस्तुत किया गया।

पटना सम्मेलन : जो सच था, सामने आया


चीन का तथाकथित अनुभव बटोरने से सत्रह वर्ष पूर्व बाढ़ नियंत्रण के उपायों पर बिहार में विचार-विमर्श की एक गंभीर कोशिश हुई थी। 1937 में पटना के सिन्हा लाइब्रेरी में 10 से 12 नवंबर तक महत्वपूर्ण सम्मेलन हुआ था। उस सम्मेलन में बिहार के तत्कालीन सभी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, नेता, बाढ़ विशेषज्ञ, अभियंता और सरकारी अधिकारी सहित राज्यपाल श्री हैलेट भी शामिल हुए थे। यह सम्मेलन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुए बाढ़ नियंत्रण के उपायों की चर्चा की व्यापक अभिव्यक्ति था। इसमें बहस मुख्यतः तटबंध के पक्ष-विपक्ष पर केंद्रित थी। हालांकि सम्मेलन में बाढ़ की समस्या एवं उसके निदान पर इलाकावार चर्चा हुई।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद इस सम्मेलन के मुख्य वक्ता थे। अस्वस्थ होने की वजह से पटना में रहकर भी सम्मेलन में शामिल न हो सके। बिहार के तत्कालीन वित्त मंत्री श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा, जो उस सम्मेलन में शामिल थे, को उन्होंने बिहार की बाढ़ समस्या एवं उसके निदान की दिशा पर एक लंबा पत्र लिख भेजा था। अनुग्रह बाबू ने पूरे पत्र को सम्मेलन में पढ़कर सुनाया था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद अपने पत्र में उत्तर बिहार की तमाम नदियों की अवस्थिति एवं प्रवृत्ति की पूरी तस्वीर पेश करते हुए प्रथमतः सम्मेलन के सामने यह सवाल रखा था कि क्या नदियों के प्रवाह में आने वाले परिवर्तन को किसी वैज्ञानिक अवधारणा के तहत परिभाषित किया जा सकता है? अगर ऐसा करना संभव है तो क्या नदियों की जल निकासी की व्यवस्था को दुरुस्त कर उसकी धारा का नियंत्रण संभव है ताकि, बाढ़ विभीषिका से बचाव संभव हो? उन्होंने सम्मेलन में शामिल अभियंताओं के समक्ष बाढ़ नियंत्रण के लिए नदियों की जल निकासी-व्यवस्था को दुरुस्त करने के साथ साथ कृत्रिम जलाशय बनाने की संभावनाओं पर भी जिज्ञासा जाहिर की थी ताकि अतिरिक्त जल जमाकर सिंचाई के लिए उसका इस्तेमाल किया जा सके।

राजेंद्र बाबू ने बाढ़ नियंत्रण के लिए उस समय तक बने तटबंधों के परिणामों की चर्चा करते हुए तटबंधों पर कई शंकाएं जाहिर की थी। नदियों पर तटबंध निर्माण को विनाशकारी प्रयोग की संज्ञा देते हुए उन्होंने बाढ़ नियंत्रण के लिए उत्तर बिहार की नदियों का “उचित इलाज” (रिजनेबल ट्रीटमेंट) करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनका मानना था कि अक्सर किसी वैज्ञानिक अनुसंधान के बिना बाढ़ समस्या के लिए तटबंधों के निर्माण का समाधान पेश किया जाता है।

गंडक तटबंध को एक बड़े उदाहरण के रूप में पेश करते हुए उन्होंने अपने पत्र में लिखा “यह सही है कि इस तटबंध ने बाहरी इलाकों को बाढ़ से सुरक्षा दिलाने में भूमिका निभाई है। लेकिन तटबंधों में घिरे होने के कारण इस नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है।, और, संभव है कि एक वक्त ऐसा भी आयेगा जब नदी का तल तटबंधों के बाहर की ज़मीन से काफी उत्तर उठ जाये। तब तटबंधों को और ऊंचा करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति आये न आये, अगर कभी यह तटबंध किसी बिंदु पर टूटेगा तो प्रलय मचेगा। और संभव है, इसके साथ नदी की धारा में परिवर्तन हो जाये।

पिछले 15 सालों में यह देखा गया है कि पुनपुन की बाढ़ से बचाव के लिए गंगा के किनारे पटना के दक्षिण, तटबंध को बार बार ऊंचा किया गया। गंगा का तल बढ़ने के कारण तटबंध को ऊंचा करते जाना आवश्यक है या नहीं, यह सवाल नहीं है। इससे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि नदी का तल बढ़ने पर क्या किया जाये? उत्तर बिहार में बने सरकारी, गैर सरकारी, जमींदारी और निजी तटबंधों का जो हश्र पिछले दिनों सामने आया है उससे यह महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि क्या तटबंधों से नदी को बांधना ही बाढ़ नियंत्रण का अंतिम और कारगर उपाय माना जाय? मैं समझता हूं कि तिलयुगा तटबंध इस सवाल का जवाब है। उस तटबंध से जो अपेक्षाएं थी वह अब तिरोहित हो चुकी है।

गलत स्थानों पर नदी पुलों का निर्माण भी बाढ़-विभीषिका का ज़िम्मेवार है। किसी भी सामान्य जन को यह सहज दिख सकता है कि सारण जिले में मांझी के निकट घाघरा नदी पर बना पुल सिताबदियारा के समृद्ध गाँवों को तबाही के गर्त में धकेलने का मुख्य कारण है। सीतामढ़ी-मुज़फ़्फ़रपुर सड़क से जुड़े पुलों को भी अपना स्थान बदलना पड़ता है ताकि बागमती के पानी को रास्ता मिले। लेकिन उनके स्थानों के चयन में गलती होने के कारण पूरे इलाके को तबाही झेलनी होती है। अतः सड़क या नदी पुलों की योजना बनाते समय नदी को प्रवृत्ति और मिट्टी की प्रकृति का विशेष ख्याल रखना चाहिए।

हमें रेलपथ और जिला बोर्ड की सड़कों के रूप में बने बड़े तटबंधों को नहीं भूलना चाहिए। मैंने स्वयं देखा है कि रेलपथ की एक तरफ जहां कई फीट गहरा पानी जमा हो जाता है वहीं दूसरी तरफ एकदम पानी नहीं होता। कोई आश्चर्य नहीं कि इनमें हर वर्ष दरारें पड़ती हैं। परंतु सबसे अधिक आश्चर्य इस बात पर होता है कि बाढ़ समाप्त होने के पश्चात इन दरारों को बंद कर दिया जाता है। कभी पुल या कलवर्ट नहीं बनाये जाते ताकि पानी की निकासी का मार्ग अवरुद्ध न हो।”

सम्मेलन का उद्घाटन तत्कालीन राज्यपाल श्री हैलेट ने किया था। उन्होंने अपने भाषण के आरंभ में कहा “पिछले 78 वर्षों के तकनीकी रिकार्डों को देखने से पता लगता है कि 22 प्रतिशत वर्षों में बाढ़ें सामान्य से कम, 55 प्रतिशत वर्षों में सामान्य, 21 वर्षों में सामान्य से ऊपर तथा केवल 2 प्रतिशत वर्षों में असाधारण बाढ़े आयी हैं। दूसरे शब्दों में, प्रभावित क्षेत्रों के निवासी प्रत्येक 5 वर्ष में एक बड़ी तथा केवल 50 वर्ष के अंतराल पर ही एक खतरनाक बाढ़ की चपेट में आते हैं। समस्या इतनी है....।”

उन्होंने तटबंधों को बाढ़ समस्या को केवल एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का माध्यम करार देते हुए आगे कहा “यदि पानी अपनी प्राकृतिक सतह पा लेता है तो बाढ़ आसानी से निकल जाती है, जिससे क्षति काफी कम होती है। बिहार में हिमालय से उतरती हुई नदियां अपने पानी के साथ काफी मात्रा में साद (सिल्ट) लाती है। यदि इन्हें तटबंधों में कैद किया जाय तो ये नदियां पूरी गंगा घाटी में धीरे-धीरे साद जमा करती जायेंगी। इससे यहां की धरती का सामान्य तल ऊंचा होता रहेगा (यानी नदी तल हमेशा भूतल से नीचे रहेगा)। तब बाढ़ें आयेंगी पर वे उतनी विनाशकारी न होगी। तटबंध कुछ समय के लिए निश्चित रूप से बाढ़ सुरक्षा प्रदान करेंगे, परंतु ये अंततः टूटेंगे और तब जो क्षति होगी वह बिना तटबंध की स्थिति में होने वाली क्षति से कहीं अधिक घातक होगी। मैं समझता हूं कि कभी न टूटने वाले तटबंध न तो हम लोग और मिसीसिपी घाटी में बसने वाले अमरीकावासी ही कभी बना पायेंगे।”

उत्तर बिहार में जूनियर इंजीनियर पद से नौकरी आरंभ करने वाले बंगाल के तत्कालीन मुख्य अभियंता कैप्टन जी.एफ. हाल भी उस सम्मेलन में उपस्थित थे। उन्हें उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या का विशद अध्ययन था। उन्होंने जनता को सीधे बांध विरोधी होने का आह्वान करते हुए कहा “बाढ़ की रोकथाम के लिए तटबंध निरर्थक है। बल्कि तटबंध बाढ़ बढ़ाने का मूल कारण है। आजकल बाढ़ नियंत्रण के लिए सरकार की ओर से पहलकदमी करने की मांग हो रही है, लेकिन मैं समझता हूं और बहुसंख्यक आबादी मेरी इस बात से सहमत होगी कि उत्तर बिहार को बाढ़ की जरूरत है न कि बाढ़ नियंत्रण की बशर्ते वह बाढ़ किसी खास क्षेत्र में केंद्रित होने के बजाय बंटी हुई हो और आक्रामक होने के बदले मामूली हो।

जल मार्गों में पड़ने वाले तमाम अवरोधी को हटा देने में ही इस समस्या का समाधान निहित है। अगर बाढ़-नियंत्रण की वर्तमान प्रक्रिया को आगे भी चालू रखा गया तो हम अपने ऐसे कर्जे का बोझ बढ़ाते जायेंगे, जिसका भुगतान हमें अंततः तबाही और विपत्ति के रूप में करना होगा। जल मार्गों से अवरोध हटाने का काम इन दिनों उड़ीसा में किया जा रहा है। इस नीति का पालन यहां भी किया जाए। अगर आवश्यक हो तो इसके लिए पूरी निर्ममता भी बरती जाए। हमें विश्वास है कि तब आज जो तबाही होती है, उससे मुक्ति मिल सकती है। साथ ही इससे देश में एक प्राकृतिक संतुलन की स्थिति भी बनेगी।”

सिन्हा लाइब्रेरी के इस बाढ़ सम्मेलन की बहस “तटबंध हां या तटबंध नहीं” से आरंभ हुई। किंतु समापन तक आते-आते यह सम्मेलन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि “नदियों की दुरुस्त जल निकासी-व्यवस्था ही उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या का सही और स्थायी समाधान है।” इस सुचिंतित समाधान के सामने आने के बावजूद आगे के वर्षों में उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या के समाधान की तलाश की बहस स्थिर नहीं हुई, बल्कि और तेज हो गई। सम्मेलन और उसके निष्कर्षों ने आगे की बहस के लिए मजबूत एवं उत्प्रेरक आधार दिया। सम्मेलन के पूर्व इस तरह की बहस का आधार महज स्थानीय अनुभवों तक सीमित था किंतु सम्मेलन से उसे राज्य स्तरीय व्यापकता मिली।

तटबंध निर्माण और उससे बाढ़ सुरक्षा में समाज के उच्च वर्गीय तबके के कई निहित स्वार्थ जुड़े थे। इस कारण वे सम्मेलन के निष्कर्ष से लगभग तिलमिला गये और तटबंध की पक्षधरता का मोर्चा और कस कर थाम लिया। दूसरी तरफ तटबंध के विनाशकारी परिणामों की भुक्तभोगी आम जनता, बाढ़ के जानकार विशेषज्ञ, अभियंता और जननेता आदि ने तटबंध का विरोध का मोर्चा संभाला। यह बहस बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध तक पूरी शिद्दत के साथ जिंदा रही। 1937 के पटना बाढ़ सम्मेलन से कोसी परियोजना के प्रारंभ होने के बीच की अवधि में बहस की गति काफी तेज थी। उन दिनों बिहार के तमाम अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ तटबंध के पक्ष-विपक्ष की खबरों, लेखों, अग्रलेखों व संपादकीय लेखों से भरी रहती थी। इस पूरी बहस में बाढ़ के स्थायी समाधान की दृष्टि से तटबंध विरोध का पलड़ा भारी रहा।

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