चने की बढ़वार और उपज घटकों पर बुवाई की तिथियों, प्रजातियों और फास्फोरस स्तरों का प्रभाव (Growth and yield attributes of chickpea (Cicer arietinum) as Influenced by sowing dates, varieties and levels of phosphorus)


सारांश:


भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक, आयातक और उपभोक्ता है। गत कई वर्षों से देश में चावल व गेहूँ का पर्याप्त भंडार है, परंतु दालों की कमी रही है। जिसके परिणामस्वरूप दालों की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता वर्ष 1961 में 65 ग्राम से घटकर वर्ष 2011 में मात्रा 39.4 ग्राम रह गई। जबकि इसी अवधि में आनाजों की उपलब्धता 399.7 से बढ़कर 423.5 ग्राम हो गई। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2030 तक दालों की आवश्यकता 32 मिलियन टन होगी। भारत की आधे से अधिक आबादी के लिये दालें न केवल पौष्टिकता का आधार है, बल्कि प्रोटीन का सबसे सस्ता स्रोत भी है। साथ ही भोजन में दालों की पर्याप्त मात्रा होने से प्रोटीन की कमी से होने वाले कुपोषण को भी रोका जा सकता है। विश्व स्तर पर दालें स्वास्थ्य, पोषण, खाद्य सुरक्षा और टिकाऊ पर्यावरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रबी में उगायी जाने वाली दलहनी फसलों में चने का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, दिल्ली व उत्तर प्रदेश में छोलिया का प्रयोग हरी सब्जी के रूप में बहुतायत में किया जाता है। उत्तर भारत में छोलिया की मांग दिसम्बर व जनवरी के महीनों में चरम सीमा पर रहती है। जबकि उत्तर भारत में छोलिया की फसल फरवरी के अंत में ही बाजार में आती है जो मार्च के अंत तक चलती रहती है। दिसम्बर-जनवरी के समय बाजार में छोलिया की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये दक्षिण भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों से फसल ऊँचे भाव पर बाजार में बिकती है। दक्षिण भारत में इस समय मौसम उत्तरी भारत की अपेक्षा छोलिया की फसल के लिये उपयुक्त रहता है। परिणामस्वरूप छोलिया की फसल जल्दी ही बाजार में आ जाती है। परंतु दक्षिण भारत से उत्तर भारत के शहरों तक उत्पाद लाने में यातायात व अन्य व्यय बढ जाता है। इसके साथ ही छोलिया की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। अतः बाजार में प्रचलित छोलिया की कीमत (रु.30/-कि.ग्रा.) का मात्र 60 प्रतिशत ही किसानों को मिल पाता है। इसलिए छोलिया की खेती स्थानीय क्षेत्रों में ही की जाए तो परिवहन व अन्य रख-रखाव में होने वाले खर्चों में कमी करके किसान भाई छोलिया की खेती से अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।

Abstract


India is the world’s largest producer, importer and consumer of pulses. Over the years, while the country has accumulated a huge surplus of wheat and rice, the pulses remain in short supply. Consequently, the per capita availability of pulses progressively declined from 65 ga day in year 1961 to merely 39.4 g in year 2011, whereas, availability of cereals has gone up from 399.7 to 423.5 g. The projected pulses requirement by the year 2030 is estimated at about 32 million tons. Pulses are the most economical source of vegetable protein for hilly, tribal and rural populations. Pulses globally can play in advancing health and nutrition, food security and environmental sustainability. Chickpea (Cicer arietinum) play a vital role among leguminous crops cultivated in winter season. Chickpea is the premier pulse crop of Indian sub continent. In India, the entire harvested area of chickpea is about 9.6 million hectare with production and productivity are 8.8 million tons and 920 kg/ha, respectively. It is generally grown as a pulse and green vegetable in Punjab, Haryana, Madhya Pradesh, Delhi and Uttar Pradesh with 33 percent of the world’s area and 22 percent of the production. The demand of green pods of chickpea is remain in peak during December and January particularly in North India. However, green pods of chickpea are available at the end of February in North India and remained in the market till the end of March. Green pods of chickpea transported from southern part to northern part of India at a high price to fulfill the increasing market demand during December-January. During this period weather condition is favourable for chickpea cultivation in south India as compare to North India. Consequently the green pods of chickpea are easily and early available in South India. Hence, transportation and other expenses increase to bring green pods of chickpea from Southern India to North India. Besides, the quality and quantity of green pods of chickpea are also affected adversely. Further the farmers get only 60 percent of the prevalent market price of green pods of chickpea. Keeping in the view the above mentioned facts a field experiment was carried out at the research farm of Division of Agronomy, Indian Agricultural Research Institute, New Delhi to evaluate the influence of sowing dates, varieties and levels of phosphorus on the growth and yield attributes of chickpea. So that chickpea cultivation may become more profitable and productive to the local farmers. Furthermore, consumers may get fresh, cheap and better quality green pods of chickpea at lower price.

प्रस्तावना


दलहनी फसलों में चने का प्रमुख स्थान है। दलहनी फसलों के अंतर्गत इसका क्षेत्रफल एवं उत्पादन सबसे अधिक है। चना एक महत्त्वपूर्ण रबी फसल है। भारत में मुख्यतः काला चना उगाया जाता है। परंतु काबुली (सफेद) चने के उत्पादन पर अब अधिक ध्यान दिया जा रहा है। काबुली चना देशी चना की अपेक्षा विभिन्न जैविक व अजैविक समस्याओं से अधिक प्रभावित होता है। चना हमारे भोजन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है जो अधिकांश प्रोटीन की आपूर्ति करता है। चना प्रोटीन और आवश्यक अमीनों अम्लों की आपूर्ति के साथ-साथ जमीन की उपजाऊ शक्ति को भी बढ़ाता है। साथ ही फसल चक्र में चना की फसल लेने से मृदा उर्वरता और गुणवत्ता में भी सुधार होता है। परिणामस्वरूप अगली फसलों का उत्पादन भी अच्छा होता है। चने का प्रयोग दाल के रूप में, भुने हुए चने या उबले हुए चनों में नमक लगातार किया जाता है। चने के छिलके व दाल पशुओं का स्वादिष्ट, पौष्टिक व ताकतवर भोजन है। चने की भूसी फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, जिंक और मैंग्नीज का अच्छा स्रोत है। हरे चने की ताजी पत्तियाँ साग बनाने में प्रयोग की जाती है। हरे चने के दानों को सब्जी के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। चने का भूसा भी पशुओं का सर्वोत्तम आहार है। चने के बेसन से विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती हैं। चने का प्रयोग खून साफ करने में भी चिकित्सीय महत्व का है। विश्व में भारत, भूमध्य क्षेत्र, इथोपिया, मैक्सिको, अर्जेटीना, चिली व पेरू में चने की खेती बहुतायत में की जाती है। भारत विश्व में सबसे अधिक चना उत्पादन करने वाला देश है। भारत में चने का क्षेत्रफल 9.6 मिलियन हेक्टेयर तथा उत्पादन 8.8 मिलियन टन है। भारत में चना उगाने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, बिहार व पंजाब प्रमुख है। हमारे देश में चने की औसत पैदावार मात्र 9.2 क्विं/हे. है।

 

सारणी 1- चने का पोषण तत्वीय संघटन

क्रमांक

घटक

पोषण मान (प्रतिशत में)

1.

कार्बोहाइड्रेट

55.5

2.

प्रोटीन

19.4

3.

वसा

4.5

4.

रेशा

7.4

5.

खनिज लवण

3.4

6.

पानी

10.2

प्रति 100 ग्राम खाद्य भाग में पोषण मान (मि.ग्रा. में)

7.

कैल्शियम

280.0

8.

फॉस्फोरस

301.0

9.

लोहा

12.3

10.

ऊर्जा

396.0

 

परिणाम एवं विवेचना


उत्तर भारत में छोलिया की सस्य प्रौद्योगिकी इस प्रकार सुनियोजित की जाए कि दिसम्बर के पहले पखवाड़े तक छोलिया की फसल में फलियों का निर्माण हो जाए तथा दिसम्बर के दूसरे पखवाड़े में फसल बाजार में आ जाए। इस संबंध में छोलिया की अल्प अवधि में तैयार होने वाली प्रजातियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। हाल में ही अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिये अन्तरराष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान (आई.सी.आर.आई.एस.ए.टी.) हैदराबाद ने छोलिया की दो अगेती प्रजातियाँ आई.सी.सी.वी. - 96029 तथा आई.सी.सी.वी. 96030 विकसित की है। जिसके परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में छोलिया की खेती में महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है। अतः उत्तरी भारत के अर्द्धशहरीकृत क्षेत्रों के लिये भी इन प्रजातियों की उन्नत खेती के लिये उचित सस्य प्रौद्योगिकी विकसित करने की नितान्त आवश्यकता है। इसके लिये छोलिया की बुवाई हेतु उपयुक्त समय का निर्धारण किया जाना चाहिए। जिससे उत्तर भारत मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, दिल्ली व उत्तर प्रदेश में खरीफ की विभिन्न फसलों जैसे कि अगेती, धान, मक्का, मूंग, ज्वार, बाजरा, उड़द व सोयाबीन की कटाई उपरांत छोलिया की खेती सुनिश्चित की जा सके। साथ ही अत्यधिक सर्दी से पूर्व चने में फलियों का निर्माण भी निश्चित किया जा सके। दलहनी फसल होने के कारण छोलिया को फॉस्फोरस की भी अधिक आवश्यकता पड़ती है। छोलिया की फसल में फॉस्फोरस की उपयुक्त मात्रा के संबंध में भी सूचना का अभाव है। अतः उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के अनुसंधान फार्म पर प्रयोग किये गये जिसका मुख्य उद्देश्य छोलिया की खेती के लिये उचित सस्य प्रौद्योगिकी विकसित करना था। साथ ही शोध का उद्देश्य छोलिया की फसल द्वारा अवशोषित की गई फास्फोरस की मात्रा का निर्धारण और छोलिया की खेती से शुद्ध आय का अध्ययन करना भी था।

 

सारणी 2- बुवाई की तिथि, प्रजातियों और फास्फोरस स्तरों का छोलिया की बढ़वार और उपज घटकों पर प्रभाव

उपचार

पौधों की ऊँचाई (सेमी.)

फलियां प्रति पौधा

बीज प्रति फली

1000 दानों का भार (ग्रा.)

बुवाई की तिथि

 

 

 

 

30 सितम्बर

51.5

39.5

1.32

246.9

7 अक्टूबर

49.5

44.0

1.35

250.0

15 अक्टूबर

43.5

37.5

1.22

247.4

प्रजातियां

आई.सी.सी.वी.- 96029

52.5

45.0

1.30

259.0

आई.सी.सी.वी.- 96030

44.5

35.5

1.28

219.5

फास्फोरस स्तर (कि.ग्रा./है.)

0

44.5

36.5

1.23

235.5

13.2

48.5

40.5

1.31

252.3

26.4

50.5

42.0

1.34

256.4

 

 

सारणी 3- बुवाई की तिथि, प्रजातियों और फास्फोरस स्तरों का छोलिया की उत्पादकता और आय पर प्रभाव

उपचार

बायोलॉजिकल उपज (टन/हे.)

छोलिया उपज (टन/हे.)

फास्फोरस अवशोषण (कि.ग्रा./हे.)

शुद्ध लाभ (रु./हे.)

 

बुवाई की तिथि

 

 

 

 

30 सितम्बर

7.76

1.06

5.05

20,150

7 अक्टूबर

8.95

1.31

5.84

28,120

15 अक्टूबर

7.30

0.82

4.94

12,840

प्रजातियां

आई.सी.सी.वी.- 96029

9.03

1.20

5.76

24,915

आई.सी.सी.वी.- 96030

6.98

0.93

4.79

15,925

फास्फोरस स्तर (कि.ग्रा./हे.)

0

7.35

0.94

3.55

17,210

13.2

8.16

1.09

5.82

21,235

26.4

8.51

1.15

6.74

22,375

छोलिया की कीमत रु. 30,000/टन

हरा चारा रु. 500/टन

 

प्रयोग के अंतर्गत बुवाई की तीन तिथियाँ (30 सितम्बर 7, अक्टूबर व 15 अक्टूबर), छोलिया की दो प्रजातियाँ ( आई.सी.सी.वी. 96029- आई.सी.सी.वी. -96030) व फॉस्फोरस के तीन स्तरों (0,13.2 व 26.4 कि.ग्रा./हे.) का छोलिया की उपज व उपज घटकों पर प्रभाव का मूल्यांकन किया गया। उपचारों के अनुसार फास्फोरस की संपूर्ण मात्रा सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में बुवाई के समय दी गई। इसके अलावा फसल में नाइट्रोजन की एक समान मात्रा 20 कि.ग्रा./हे. की दर से यूरिया के रूप में दी गई। पलेवा के अतिरिक्त छोलिया की फसल में दो सिंचाईयाँ क्रमशः बुवाई के 35 व 80 दिनों बाद दी गई। सभी तिथियों में बोयी गई फसल की कटाई 15 फरवरी को की गई जब बाजार में छोलिया की अत्यधिक मांग रहती है। छोलिया की फसल को कीटों की फसल से बचाने के लिये समेकित कीट नियंत्रण प्रणाली अपनाई गई। छोलिया की फसल से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पाया गया गया कि छोलिया की दोनों प्रजातियाँ उपज, बढ़वार व उपज घटकों में पूर्णतया भिन्न थीं। छोलिया की आई.सी.सी.वी.- 96029 की कुल पैदावार, आई.सी.सी.वी.- 96030 की अपेक्षा सार्थक रूप से 29.4 प्रतिशत अधिक पाई गई (सारणी 3)। आई.सी.सी.वी. -96029 के पौधों की अधिक-ऊँचाई अत्यधिक शाखाएँ, प्रति पौधा फलियों की अधिक संख्या, 1000 हरे दानों का भार भी आई.सी.सी.वी. -96030 की तुलना में सार्थक रूप से अधिक पाया गया (सारणी 3)।

जो दोनों वर्षों के औसत के आधार पर आई.सी.सी.वी.- 96030 के मुकाबले 28.5 प्रतिशत अधिक पाई गई। सन्धू व अन्य ने भी लुधियाना में छोलिया की अगेती प्रजातियों पर ऐसे ही परिणाम प्राप्त किये। बुवाई तिथियों के संदर्भ में छोलिया की 7 अक्टूबर को बोयी गई फसल से उत्साहवर्द्धक परिणाम प्राप्त हुए। छोलिया की 7 अक्टूबर को बोयी फसल से अन्य तिथियों 30 सितम्बर व 17 अक्टूबर को बोयी गई फसल की अपेक्षा अधिक बायोलॉजिकल उपज प्राप्त हुई। जो 30 सितम्बर व 17 अक्टूबर की अपेक्षा क्रमशः 15.3 व 22.6 प्रतिशत अधिक थी (सारणी 3) छोलिया की 30 सितम्बर व 15 अक्टूबर को बोयी गई फसल से प्रायः समपरिमाप उपज प्राप्त हुई। छोलिया की 7 अक्टूबर को बोयी फसल से प्रति पौधा फलियों की संख्या, प्रति फली दानों की संख्या और दानों का टेस्ट वेट भी अन्य तिथियों को बोयी गई फसल की अपेक्षा अधिक पाया गया। छोलिया की फसल में 13.2 कि.ग्रा./हे. की दर से फास्फोरस का प्रयोग करने पर नियंत्रण (अनुपचारित) की अपेक्षा बायोलॉजिकल उपज में 10.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। जबकि फॉस्फोरस की मात्रा 26.4 कि.ग्रा./हे. तक बढाने पर 13.2 कि.ग्रा./हे. की अपेक्षा केवल 4.3 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई। फास्फोरस की 13.2 कि.ग्रा./हे. का प्रयोग करने पर नियंत्रण की अपेक्षा प्रति फली औसत दानों की संख्या में भी सार्थक वृद्धि पाई गई। परंतु फास्फोरस की मात्रा 26.4 कि.ग्रा./हे. तक बढ़ाने पर दानों की संख्या पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पाया गया। छोलिया की खेती से अधिकतम शुद्ध लाभ रु. 28,120/हे. आई. सी.सी.वी.- 96029 प्रजाति की बुवाई 7 अक्टूबर को करने पर पाया गया (सारणी 3)।

निष्कर्ष


प्रस्तुत शोध से यह निष्कर्ष निकला कि छोलिया की खेती से अधिकतम पैदावार प्राप्त करने के लिये इसकी अगेती प्रजाति आई.सी.सी.वी. - 96029 को फास्फोरस की 13.2 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर के साथ 7 अक्टूबर को बोना लाभदायक है। इस तरह किसान भाई उत्तर भारत में बड़े शहरों के आस-पास कम लागत में छोलिया की खेती कर अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं।

संदर्भ
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5. Tripathi L K, Thomas T, Singh V J, Gupta S & Kumar Rahul, Effect of nitrogen and phosphorus application on soil nutrient balance in chickpea (Cicer arietinum) cultivation. Agricultural research review. 6(2) (2015) 319-322.

6. Singh A, Singh L & Singh N P, Performance analysis of pulses in frontline demonstration, Indian J. pulses research. 18 (2) (2005) 202-205.

7. Srivastava S K, Sivarmanane N & Mathur V C, (Eds,) Agricultural Economics Research Review, 23 (2010) 137-148.

8. Malik J P, Boosting Agricultural Production an overview. Kurukshetra- A Journal of Rural Development. Ministry of Rural Development. Government of India, New Delhi. 61 (11) (2015) 5-9.

9. Simpson R J, Oberson A, Culvenor R A, Ryan M H, Veneklaas E J, Lambers H, Lynch J P, Ryan P R, Delhaize E, Smith FA, et al., Strategies and agronomic interventions to improve the phosphorus-use efficiency of farming systems. Plant Soil. 349 (2011) 89-120.

10. Yadav R L, Prasad K, Gangwar K S & Dwivedi BS, Cropping Systems and Resource Use Efficiency. Indian J. Agricu Sciences. 68 (8) (1998) 548-558.

सम्पर्क


वीरेन्द्र कुमार एवं बी गगैया, Virendra Kumar and B Gangaiah
सस्य विज्ञान संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली 110012, Division of Agronomy, Indian Agricultural Research Institute, New Delhi 110012


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