चंदौली का लाल मोती की खेती से चमका रहा किस्मत


नई पहल - उत्तर प्रदेश के महुरा प्रकाशपुर गाँव में युवक ने मोती की खेती का सफल प्रयोग कर दिखाई नई राह

स्वाति नक्षत्र में ओस की बूँद सीप पर पड़े, तो मोती बन जाती है। इस कहावत से आशय यही है कि पूरी योजना और युक्ति के साथ कार्य किया जाए तो किस्मत चमक जाती है। उत्तर प्रदेश के चंदौली में मोती की खेती का सफल प्रयोग कर एक नवयुवक ने नई उम्मीदें जगा दी हैं। पारम्परिक कृषि के समानान्तर यह नया प्रयोग इस पूरे क्षेत्र में विकास के नए आयाम गढ़ सकता है।

शुरुआत : बनारस मंडल के चंदोली जिले में महुरा प्रकाशपुर गाँव है। जहाँ शिवम यादव ने मोती उत्पादन शुरू किया है। पूरे विंध्यक्षेत्र में मोती उत्पादन का यह पहला कारोबारी प्रयास है। शिवम की सफलता को देख अब इलाके के कई लोग उनसे प्रशिक्षण लेने आ रहे हैं।

कहाँ से सीखा हुनर : कम्प्यूटर एप्लीकेशन में स्नातक के बाद शिवम ने नौकरी या पारम्परिक कृषि के बजाय नया करने की ठानी। उन्हें पता चला कि भुवनेश्वर की संस्था ‘सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वाटर एक्वाकल्चर’ मोती उत्पादन का प्रशिक्षण देती है। शिवम ने 2014 में प्रशिक्षण लेकर गाँव में मोती उत्पादन शुरू किया।

कैसे बनाते हैं मोती : शिवम ने 40 गुणे 35 मीटर का तालाब बनाया है। इसमें वे एक बार में दस हजार सीप डालते हैं। इनमें 18 माह बाद सुन्दर मोती बनकर तैयार हो जाते हैं। सीप को तालाब में डालना तो आसान है, लेकिन इससे पहले की प्रक्रिया थोड़ी कठिन है। यह एक तरह की शल्यक्रिया होती है। एक-एक सीप के खोल में बहुत सावधानी पूर्वक चार से छह मिलीमीटर तक का सुराख किया जाता है। इस सुराख के माध्यम से सीप के अन्दर नाभिकनुमा धातु कण (मैटल टिश्यु) स्थापित किया जाता है। इसे इयोसिन नामक रसायन डालकर सीप के बीचों-बीच चिपका दिया जाता है।

प्राकृतिक और कृत्रिम में है ये अन्तर : दरअसल, सीप में मोती का निर्माण तभी शुरू होता है, जब कोई बाह्य पदार्थ इसके अन्दर प्रवेश कर जाए। सीप इसके प्रतिकार स्वरूप एक द्रव का स्राव करता है। यही द्रव उस बाह्य कण के ऊपर जमा होता रहता है। अन्त में यह मोती का रूप ले लेता है। मोती बनने के इस रहस्य का पता भारतीय मनीषियों को बहुत पहले से था। दरअसल, स्वाति नक्षत्र यानी शरद ऋतु में मीठे पानी में पैदा होने वाला सीप ठंड पाकर थोड़ा खुल जाता है। ऐसे में वर्षा जल या बाह्य कण इसमें प्रवेश कर जाए तो मोती बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। 13वीं सदी में चीन में मोती की खेती शुरू होने के प्रमाण मिलते हैं।

जापान से मँगवाते हैं मैटल टिश्यु : शिवम ने बताया कि मैटल टिश्यु वह जापान से मँगवाते हैं। इस पर तीस हजार रुपये प्रति किलो की दर से खर्च आता है। एक किलो में पाँच हजार सीप होते हैं। पूरी प्रक्रिया में प्रति सीप करीब 15 रुपए खर्च होते हैं। छह रुपए मैटल टिश्यु की कीमत, चार रुपए दवा व मजदूरी पर। सीप डालने पर तालाब में सरसों की खली, गेहूँ की भूंसी, गोबर घोल डालते हैं, तीन से पाँच रुपये उसका खर्च। इस विधि से प्राप्त एक मोती की कीमत तीन सौ से 20 हजार रुपए तक है।

 

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