चुल्लू भर पानी ही बचता है, पठारी तालाब में

2 Jan 2016
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पहला पानी बरसते ही मंगला सिलावट पठारी में डोंडी पीटकर ऐलान करता- ‘खलक खुदा का मुलक बाश्शाका...’ और अगले दिन सवेरे हर घर से एक आदमी तालाब के घाट पर आ जाता था। जो खुद नहीं आ पाते वे अपनी ऐवज में किसी और को भेजते।

पहला पानी बरसते ही मंगला सिलावट पठारी में डोंडी पीटकर ऐलान करता- ‘खलक खुदा का मुलक बाश्शाका...’ और अगले दिन सवेरे हर घर से एक आदमी तालाब के घाट पर आ जाता था। जो खुद नहीं आ पाते वे अपनी ऐवज में किसी और को भेजते।

फिर सब लोग ‘बूढ़े नवाब’ के पीछे चल देते, पखी साफ करने, लेकिन इसकी तैयारी बहुत पहले से शुरू हो जाती थी। पठारी अट्ठाइस गाँव की बहुत छोटी-सी रियासत थी। नवाब को फुरसत बहुत थी और काम निकालने का तज़ुर्बा भी। गर्मियाँ जब चरम सीमा पर होतीं, तो सुबह-शाम नवाब घाट पर होते और साथ में होतीं आमों की डलियाँ। ‘बूढ़े नवाब’ जोर से आम तालाब में फेंकते और बच्चों का झुण्ड कूद जाता तालाब में। जिसके हाथ लगता, वह उसी का ईनाम होता। आमों के लालच में पचासों बच्चे हर रोज सुबहो-शाम तालाब पर इकट्ठे होते।

फिर जब डोंडी पिटती, तो ये बच्चे भी बड़ों के साथ ‘बूढ़े नवाब’ के पीछे लग लेते, पखी साफ करने। पखी क्या थी, एक अनगढ़ पत्थरों की बनी दीवाल थी, जो इसलिये बनाई गई थी कि गैयननाथ पहाड़ से उतरा पानी, फालतू न बहकर, तालाब की ओर जाये। लगभग दो किलोमीटर लम्बी पखी पठारी रियासत की सीमा से शुरू होती थी। अपने हिस्से के पहाड़ पर गिरी हर बूँद को तालाब तक ले जाने की सालाना कोशिशों से पखी ने अच्छे खासे नाले का आकार ले लिया था। करीब दो सौ मीटर के तीखे ढलान की वजह से बारिश में पानी का बहाव बहुत तेज रहता था। बरसात के बाद मवेशियों और इंसानों की आवाजाही से यह नाला गन्दा हो जाता थ। दीवाल के पत्थर लुढ़क आते थे। गोबर जमा हो जाता था और झाड़ियाँ उग आती थीं। बच्चे और बड़े सब मिलकर, पखी की सफाई करते, झाड़ियाँ काट डालते और दीवाल की मरम्मत करते, ताकि गैयननाथ पहाड़ से तालाब की तरफ बहते पानी के रास्ते में कोई रुकावट न आये और वह आसानी से तालाब में समा जाये।

यही तालाब तो था, पठारी का जीवन आधार। तालाब पक्का बना हुआ था। पूरब की ओर जो पाल थी, उसमें पत्थर की मोटी-मोटी शिलाएँ लगाई गई थीं, ताकि वे पानी के थपेड़े बर्दाश्त कर सकें। मछलियों के शिकार पर सख्त पाबन्दी थी। तालाब का पानी इतना साफ रहता था कि तली में पड़ा चमकता सिक्का भी बच्चे गोता लगाकर निकाल लाते थे। गाँव की निस्तारी जरूरतें इसी तालाब से पूरी होती थीं और पाल से सटे हुए कुएँ और बावड़ियाँ भी इसकी वजह से पेयजल से भरे-पूरे रहते थे।

इसी तालाब के एक हिस्से में दीवाल खड़ी करके महलों में ‘डुहेला’ बनाया गया था। करीब 100 फीट लम्बा और पचास फीट चौड़ा यह डुहेला पानी से हमेशा लबालब रहता था। उसमें तालाब से पानी की निर्बाध पूर्ति का इन्तजाम था। डुहेला एक किस्म का ‘शाही स्विमिंग पूल’ था।

पठारी की दक्षिणी बस्ती पेयजल के लिये तालाब के किनारे के ‘मोतिया कुएँ’ और कुछ नीचे की तरफ बनी ‘करेली की बावड़ी’ पर निर्भर थी। इनका पानी कभी कम नहीं होता था। तालाब का पानी मिट्टी में से रिसकर कुदरती तौर पर छनता हुआ इन जलस्रोतों तक पहुँचता था। उत्तरी पठारी की बस्ती हीराबाग के कुएँ का पानी पीती थी। तालाब की सतह से बहुत नीचे बने इस कुएँ में भी पानी कम नहीं पड़ता था। पानी की ऊपरी ज़रूरतों के लिये पठारी के लोग तालाब पर ही निर्भर थे। तालाब के अन्दर ही एक ‘बेलाकुआँ’ भी था। बस्ती वाले तालाब पर ही नहाते-धोते और किनारे बने शंकर जी के मन्दिरों पर जल ढारते। घाट और मन्दिर तो अब भी हैं, पर लोग अब नहाने और शिवलिंग पर जल ढारने नहीं आते। तालाब के अकेले जलस्रोत पखी में अब पत्थर की खदान खुद गई हैं। पहाड़ का पानी पता नहीं, अब किस ओर बहकर निकल जाता है, तालाब अब प्यासा ही रह जाता है। जो थोड़ा-बहुत पानी पहुँचता भी है, वह खदानों से निकली मिट्टी अपने साथ बहाकर लाता है। रिकार्ड में इस तालाब का औसत जलक्षेत्र आज भी चालीस बीघा ही माना जाता है, पर अब तालाब पहले जैसा गहरा नहीं रहा है, उथला ही होता जा रहा है। अब तो कई बरस हो गए, तालाब पूरा भर कर उफना भी नहीं है, जिससे उसकी गन्दगी बढ़ती ही जा रही है।

तालाब के किनारे तीन-तीन शिव मन्दिर हैं। पहले गर्मियों में श्रद्धालु शिवलिंगों पर जल से भरे घट रखते थे, तालाब से स्नान कर लौटते वक्त वे एक लोटा पानी घट में उड़ेल जाते थे, यह क्रम टूटे वर्षों गुजर चुके हैं। गन्दे और बदबूदार पानी का घट शिवलिंग पर कैसे धरें! और ताजा व साफ पानी लाएँ तो लाएँ कहाँ से। अब तो पानी के लिये अभिशप्त इस बस्ती में पेयजल छ: किलोमीटर दूर खड़ाखेड़ी गाँव के नलकूपों से आता है। बिजली की आँखमिचौली और पाइपों के फूटने की वजह से पठारी के लोग अब भी पुराने जलस्रोतों पर ही निर्भर हैं।

कभी तालाब के किनारे शौच जाने वालों को नवाब के हुक्म पर अपनी गन्दगी खुद उठाकर फेंकनी होती थी। दूसरी बार ऐसा करते पकड़े जाने पर उनके पाँव तालाब किनारे पड़ी लकड़ी की ‘डुढ़िया’ में बतौर सजा फँसा दिये जाते थे, हर बुधवार के बाजार में मुनादी फिरती थी कि तालाब के पाल पर शौच के लिये कोई न जाये। मुनादी खासतौर पर उन लोगों को सचेत करने के लिये होती थी, जो दूसरे गाँवों से हाट में खरीदारी करने आते थे और पठारी के रिवाज से नावाकिफ होते थे।

लेकिन कल जहाँ सजा देने वाली ‘डुढ़िया’ पड़ी हुई थी, आज वहीं देवल मन्दिर से करीब सौ मीटर दूर घाट पर ही पठारी के सफाईकर्मी, बस्ती भर का मैला डाल जाते हैं, जो बरसात के पानी के साथ बहकर तालाब में ही पहुँचता है।

जल यज्ञ अधूरा है


भाल बामोरा का फूटा तालाब ग्रामीणों की इच्छा शक्ति और अनुभवहीनता, दोनों की कहानी एक साथ सुनाता सा लगता है। गंज बासौदा से पठारी जाते समय भाल बामोरा से कुछ ही आगे दाहिने हाथ पर बने इस तालाब को गाँव वालों ने यज्ञ में बचे पैसों से बनवाया था। बाद में उसमें कुछ पैसा पंचायत ने भी लगाया। यह तालाब नीचे खेतों में बदल दिये गए उस पुराने तालाब के हट कर है, जो पता नहीं कब फूट गया था।

1975 में भाल-बामोरा में एक बड़ा यज्ञ हुआ। भरपूर खर्च के बाद भी काफी पैसा बच गया। गाँव वालों ने सोचा कि बचे हुए पैसों से तालाब बनवा दिया जाय। तीन तरफ पहाड़ियों से घिरी इस जगह को सबसे ठीक मानकर चौथी तरफ पाल डाल दी गई, बाद में वहाँ की ग्राम पंचायत ने भी तालाब पर कुछ काम करवाया, लेकिन तकनीकी कला कौशल की कमी और तालाब बनाने का अनुभव न होने से सैकड़ों बीघे में फैले पानी का दबाव पतली और कमजोर पाल सह नहीं पाई। ताल फूट गया। जल-यज्ञ अधूरा ही रह गया। बस, तब से तालाब फूटा पड़ा है अगले यज्ञ के इन्तजार में।

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