छोटे जल संरचनाओं को सहेजना जरूरी : रमेश डिमरी

28 May 2014
0 mins read
जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के अध्यक्ष रमेश डिमरी से भुवन पाठक द्वारा की गई बातचीत पर आधारित साक्षात्कार।

रमेश जी आप अपने राजनैतिक पृष्ठभूमि के बारे में हमें कुछ बताएं।
एम.ई.एस. में ठेकेदारी करने के बाद मुझे ठेकेदारी ही पसंद नहीं आई क्योंकि वहां लगभग सभी लोग लूट-खसोट करने पर ही लगे रहते हैं फिर चाहे वो सरकारी संस्थान हो या प्राइवेट इस सब को देखते हुए मैंने ठेकेदारी ही छोड़ दी और 1991 से दुकान चला रहा हूं। यहां आने के बाद मैं कांग्रेस से जुड़ा रहा। उस समय मैं, शशिभूषण जी से जुड़ा था वो कांग्रेस पार्टी में थे तथा एम.एल.ए. के चुनाव लड़ रहे थे लेकिन उनके चुनाव प्रचार के दौरान ही मुझे पता चल गया था कि इनका कुछ नहीं हो सकता। उसके बाद मैंने कांग्रेस छोड़ दी और बी.जे.पी. में आ गया, वहां मैं, मुन्ना सिंह चौहान के साथ जुड़ गया। वे उत्तराखंड न्यासी पार्टी से जुड़े हुए थे लेकिन बाद में उनका बी.जे.पी. के साथ विलय हुआ और हम भी उनके साथ ही बी.जे.पी. में आ गए और तबसे हम बी.जे.पी. के ही साथ हैं।

उसके बाद मैं पहली बार व्यापार संघ से चुनाव लड़ा और अपने यार-दोस्तों की मदद से जीत गया। बस मेरी राजनीति की इतनी ही पृष्ठभूमि है।

जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति बनााते समय आपके मन में क्या आया जो आपने इसका गठन किया।
हमने देखा कि सरकार इतनी बड़ी परियोजना बना रहा है जिसमें तपोवन, चमतो, पनघट, गोचर, पनसारी, हौली तथा शैलंग जैसे कई गावों अर्थात लगभग पूरे जोशीमठ को छूते हुए शैलंग तक की लगभग सभी भूमि जा रही थी लेकिन फिर भी लोग उसका विरोध नहीं कर रहे थे क्योंकि वहां सरकार ने मीडिया के द्वारा ये बातें फैला दी कि वहां के लोगों को डेढ़ लाख रुपए नाली से लेकर दो लाख रुपए नाली तक दिया जाएगा।

इसके हिसाब से कोई भी व्यक्ति करीब 35 लाख रुपये तक का मालिक बन रहा था, तो कोई 25 का तो कोई 50 लाख का बन रहा था इसीलिए लोग विरोध नहीं कर रहे थे। उन्हें लगता था कि जब सरकार उनको उनकी जमीन के बदले इतने सारे पैसे दे रही है तो उन्हें खेती-बाड़ी करने की क्या आवश्यकता है।

लेकिन हमें मालूम था कि उन्हें शासन स्तर पर इतना पैसा मिलने वाला नहीं है। फिर हमने अतुल सती जी, शशिभूषण सती तथा भगवती प्रसाद लंबूरी के साथ मिलकर जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति का गठन किया।

शैलंग गांव की स्थिति को ही देख लीजिए वहां की भूमि का मूल्य छः हजार रुपए नाली है अगर, सरकार चाहेगी भी तो हद से हद वो छः हजार से बढ़ाकर बारह हजार कर सकती है लेकिन इसके ऊपर वो कुछ भी नहीं देगी और उस बारह हजार नाली में उनका कुछ भी होने वाला नहीं है और उनकी सारी की सारी भूमि भी चली जाएगी। और अगर शैलंग वाले लोग जोशीमठ में भूमि खरीदने आएंगे भी तो उस मूल्य पर उन्हें वहां कोई भी जमीन नहीं मिलेगी। क्योंकि वहां की भूमि की कीमत तो पहले ही बढ़कर 35 से 55 हजार हो गई है आगे बढ़कर एक से डेढ़ लाख तक पहुंच सकती है।

इसके अलावा वहां इतनी अधिक भूमि नहीं है कि सभी लोग वहां बस सकें। इन्हीं सब बातों को लेकर हम जमीन की कीमत वाले मुद्दे को लोगों के बीच लेकर गए। यहां कई जलस्रोत हैं, कई फल-पट्टी, खुमानी, सेब, आडू, राजमा, अखरोट आदि सभी फसलें पैदा की जाती हैं लेकिन पानी कीे कमी के कारण वो सभी फसलें बेकार हो जाएंगी। क्योंकि उसके बाद हम केवल वर्षा पर ही निर्भर रहेंगे, अगर बारिश आएगी तो फसल होगी, नहीं आएगी तो सब कुछ चैपट हो जाएगा। तो इन्हीं सब बातों को सोचते हुए हमलोगों ने जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति का गठन किया।

गठन बनाने के बाद हम गांव-गांव घूमे। हमारी बातें सभी लोगों को पसंद आई और सभी लोगों ने कहा कि वो हमारे साथ हैं। सब लोगों ने हमें अपने साथ होने का आश्वासन तो दिया लेकिन वो हमारे साथ नहीं आते थे क्योंकि उनके सामने तो डेढ़-दो लाख रुपए नाली का ही लालच आ जाता था। इसके अलावा कास्तकार लोग भी अपनी जमीन से ऊब चुके थे क्योंकि उनके द्वारा उगाए हुए आलुओं को कभी सरकार 80 रुपए प्रति क्विंटल देती थी तो कभी 100 रुपए देती थी जिसमें उनको कुछ भी लाभ नहीं मिलता था केवल मात्र उनकी लागत ही निकल पाती थी क्योंकि 150 रुपए तो हल लगाने वाला ले जाता था उसके बाद बीज और खाद भी खरीदनी है और कमरतोड़ मेहनत तो है ही।

ऐसे में उन्हें लगने लगा कि जब सरकार उनकी जमीन के इतने अच्छे पैसे दे रही है तो अपनी जमीन को भी क्यों न बेचें तो इसी लालच में लोग हमारे साथ नहीं जुड़ पाए। उसके बावजूद भी हमने प्रयास जारी रखा, और जोशीमठ क्षेत्र के लोगों को अपने साथ जोड़ना शुरू किया हमने उन्हें बताया कि इससे जो नुकसान सबको होगा वो तो होगा ही लेकिन इसके साथ ही साथ हमें और भी नुकसान होंगे क्योंकि एन.टी.पी.सी. ने हमें ‘जोशीमठ’ को प्रभावित क्षेत्रों की श्रेणी में नहीं रखा है।

इसी प्रकार मान लो कि जिस तरह टिहरी का टनल टूटने से हादसा हुआ उसी तरह का हादसा यहां भी हो गया तो पूरा का पूरा जोशीमठ ही नष्ट हो जाएगा और वैसे भी ये रेत और पत्थरों के टीलों पर बसा हुआ शहर है जिसमें बाद में पत्थरों के सिवाय कुछ भी नहीं दिखाई देगा।

इसके लिए 12 किलोमीटर लंबी टनल बनेगी जो कि 20 फुट होगी, अगर यहां पर विस्फोट हुए तो सब मकानों पर क्रेक आ जाएंगे और अगर नीचे विस्फोट हुआ तो हम तो पूरी ही तरह बर्बाद हो जाएंगे। सबसे बड़ी बात ये है कि धार्मिक तीर्थाटन नगरी होने के नाते यहां पर नीचे विष्णु प्रयाग है जो कि, हिंदुस्तान का प्रथम प्रयाग कहलाता है और इस सबसे उसका अस्तित्व को ही खतरा हो जाएगा यहां तक कि इससे प्रयाग को ही खतरा हो जाएगा तो ऐसी स्थिति में प्रयागराज इलाहाबाद कैसे कहलाएगा, जो कि सीधे-सीधे हमारी धाार्मिक भाावनाओं पर चोट कर रहा है। इस प्रकार हम तो चारों और से ही नष्ट हो रहे हैं।

दूसरी बात इसमें ये है कि, इस क्षेत्र में एन.टी.पी.सी. का रवैया भी बहुत ही तानाशाहपूर्ण रहा है। इन्होंने अपना आफिस नगर पालिका, ब्लाक प्रमुख और होटल इत्यादि को किराए में लेकर खोला जहां पूंजीपति रहते थे ताकि लोग हो-हल्ला न कर सकें और इस तरह इन्होंने लोगों को खामोश किया। पहले उन्होंने गारीबों को रोजगार देने की बात भी की थी लेकिन फिर उन्होंने कहा कि अगर हम सफाई कर्मचारी की भी भर्ती करेंगे तो उसकी नियुक्ति विज्ञप्ति के आधार पर होगी जिसमे पूरे भारत के नागरिक शामिल हो सकेंगे तो ऐसे में वहां के बेरोजगारों को तो रोजगार भी नहीं मिल पाएगा। इन्होंने आज तक भी बाहर के लोगों को नौकरी दी और आगे भी ये उन्हीं को नौकरी देंगे। तो, इस प्रकार हमारे सामने ये सारे मुद्दे मौजूद थे। जिसके लिए हम संघर्ष करने के लिए एकजुट हो गए।

मुझे लगता है कि यहां दो बातें साफ निकल कर आ रही है, एक तो ये कि आप इस परियोजना को नहीं बनने देना चाहते हैं।
आपने ठीक कहा हम इस परियोजना को नहीं बनने देना चाहते।

और दूसरी तरफ ये जो स्थानीय लोगों को रोजगार देने का मसला है, जोशीमठ को प्रभावित क्षेत्र में शामिल करने का मसला है, भूमि के रेटों का मसला और पनघट बौचर को बचाए रखना का मामला है। इन दोनों में से जोशीमठ संघर्ष समिति किस और जाना चाहती है, स्पष्ट रूप से बताइए।
हम इस परियोजना को बनाने के पक्ष में नहीं हैं।

क्या ये आपको संभव दिखता है?
बिल्कुल, हम इसके लिए लड़ रहे हैं अभी सुप्रीम कोर्ट में हमारा मामला चल रहा है।

बाकी जो तमाम यहां के प्रभावी राजनैतिक दल हैं वो चाहे कांग्रेस के ही क्यों न हों?
हाँ, चाहे कोई भी हो, वो सब लिप्त हैं इस शहर को उजाड़ने में पूर्णतः लिप्त हैं। वो सब चाहते हैं एन.टी.पी.सी. आए यहां पर काम करे। वो तो हमलोगों को यह तक कह रहे हैं कि तुम विरोध करके गलत कर रहे हो। वो केवल अपना मतलब साधने का प्रयास कर रहे हैं अपना आने वाला कल नहीं देख रहे हैं। वो ये नहीं समझ पा रहे हैं कि जो जमीन हमारे पास आई है वो हमारे पिताजी तथा दादाजी की मेहनत से आई हैं उन्होंने इस जमीन में जी तोड़ मेहनत करके ये सब कुछ हासिल किया है, अगर आज हम वही जमीन इनको दे देंगे तो कल हम अपने बच्चों को क्या देकर जाएंगे और बिना जमीन के हमारे बच्चों का भविष्य तो अंधकारमय होगा ही।

अभी, आपको क्या लगता है यह आंदोलन कितना सफल रहा है, और इसके साथ कितने आदमी जुड़े हैं?
देखिए शुरू में हम पाँच लोग थे, उसके बाद हम 20-30 हुए फिर 40-50 हुए 70-80 हुए, आज की तारीख में हमारे साथ 400-500 से ज्यादा आदमी जुड़ चुके हैं। शुरू में लोग मानते थे कि ये सब बेकार हैं ये सब इनका ढकोसला है लेकिन अब लोग यह मान चुके हैं कि यह एक सही लड़ाई है। प्रभावित लोग भी मान रहे हैं कि ये एक सही लड़ाई है लेकिन वो अपने लालच के कारण आगे नहीं आ रहे हैं लेकिन वो अल्पकालिक फायदा ही है क्योंकि मान भी लो कि कल उन्हें 25 लाख रुपए मिल भी जाते हैं तो वे कितने दिनों तक चलेंगे, उसमें कुछ जमीन भी खरीदनी होगी, मकान भी बनाना होगा उसके बाद हम क्या खाएंगे? आय के स्रोत तो कुछ भी नहीं रहेंगे।

जब सुंदरलाल जी के नेतृत्व में टिहरी बांध की लड़ाई चल रही तो उस समय तमाम आंदोलनकारी साथी कह रहे थे कि हमें बांध नहीं चाहिए, आप बड़े बांध नहीं बनाइए और आज पंचेश्वर में भी वही स्थिति हो गई है आज सरकार ने विष्णु गांव परियोजना को रन आॅफ दि रीवर के रूप में शुरू किया है तो फिर आज हम रन आॅफ द रीवर स्कीम का भी विरोध करने लगे हैं। ऊर्जा उत्पादन के बारे में प्रदेश की क्या नीति होनी चाहिए?
हमारे पास नाले और गदेरे के रूप में पानी के छोटे-छोटे बहुत से स्रोत हैं, तो क्या ये जरूरी है कि हम 2500 या 4000 मेगावाट की परियोजना ही बनाएं हम 20-50 या 100 मेगावाट की परियोजना भी तो बना सकते हैं। हमें हेलन के पार की तरह गांव की जरूरतों के अनुसार परियोजनाएं बनानी चाहिए। वहां एक गदेरे पर ही विद्युत परियोजना बनी हुई है जिससे पिथौरागढ़ तक को बिजली की सप्लाई होती है। इसमें ज्यादा लागत नहीं लगी, सबसे सुंदर और टिकाऊ काम हुआ तथा किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। इसी तरह आज हमारे जोशीमठ में आठ-दस गदेरे हैं इन गदेरों से बिजली बनाई जाए तो यहां के लोगों को बिजली भी मिल जाएगी, सरकार को कम खर्चा करना पड़ेगा, सरकार का लाभ भी हो जाएगा और किसी का नुकसान भी नहीं होगा। बड़ी परियोजनाओं में लागत भी अधिक लगती है और उससे बनने वाली बिजली हमें भी नहीं मिल पाएगी।

एन.टी.पी.सी. के दस्तावेजों के अनुसार वह, उत्तराखंड सरकार को 12 प्रतिशत ही बिजली देगी बाकी तो सब नार्थ ग्रेड में चला जाएगा। इसके बारे में आपका क्या कहना है?
ये बात पूरी तरह से सही है। आपके सामने विष्णु प्रयाग परियोजना का उदाहरण मौजूद ही है वो भी उत्तराखंड सरकार को केवल 12 प्रतिशत बिजली ही देगा और बाकी बिजली को बेचेगा। यहां की जमीन के प्रयोग से यहां बांध बना है लेकिन यहां के लोगों के लिए ही मुफ्त बिजली की सुविधा नहीं है।

क्या अभी तक आपकी एन.टी.पी.सी. के साथ कुछ बातचीत हुई है?
हमारी कोई बातचीत नहीं हुई है।

संघर्ष समिति की एन.टी.पी.सी. के साथ कोई बातचीत नहीं हुई है और उत्तरांचल सरकार के साथ?
उनके साथ भी कोई बातचीत नहीं हुई। एक बार हम पर 17/4 धारा लगाई गई थी, हमने इस बारे में पर्यटन मंत्री, क्षेत्रीय विधायक तथा थैलिसैंण विधायक गणेश गोदियाल का घेराव किया। हमने करीब साढ़े तीन घंटे तक उनका घेराव किया। हमने कहा कि जब तक आप 17/4 धारा को हटा नहीं देते, तब तक हम आपको जाने नहीं देंगे, उन्होंने हमें, कई तरीकों से समझाया और कहा कि ये हमारे कार्य क्षेत्र में नहीं आता है, हम इसको नहीं कर सकते लेकिन हम इतना वायदा कर सकते हैं कि हम इस बाबत मुख्यमंत्री से बातचीत करेंगे।

उन्होंने कहा कि आप में से चार-पांच लोग हमारे साथ देहरादून चलिए, वहां हम, आपकी बातचीत मुख्यमंत्री से करा देंगे हमने कहा कि हम चार-पांच लोग नहीं जा सकते हैं हम सभी प्रभावित लोग एक साथ ही जाएंगे ताकि मुख्यमंत्री जीे को हम सभी की समस्याओं के बारे में पता चल जाए।

सेलन गांव वालों ने भी ऐसा ही घेराव किया, उन लोगों ने भी वहां पर वही बात कही। तो वहां से पांच लोग जैसे तपोवन के प्रधान, घाघ के प्रधान, बाड़ागांव के प्रधान, पैनी के प्रधान और सेलंग के प्रधान और एक अन्य व्यक्ति तैयार हो गए। ये लोग देहरादून गए और तीन दिन तक वहीं रहे लेकिन इन तीन दिनों में मुख्यमंत्री से मिलना तो दूर उन्हें, उनके कार्यालय के बाहर तक खड़ा नहीं होने दिया गया। इस प्रकार हमारी, सरकार के साथ किसी भी तरह की वार्ता नहीं हुई।

आंदोलन के बारे में आपकी आगे की क्या रणनीति है?
हम सड़कों पर उतरकर आंदोलन तो करेंगे ही इसके साथ ही साथ हम कोर्ट की शरण भी लेंगे।

क्या आप लोगों ने बांध के तकनीकी पक्ष का अध्ययन किया है कि इससे कितना नुकसान होगा, भूवैज्ञानिक या पर्यावरणीय प्रमाणपत्र मिला है या नहीं आदि।
अभी जो बात सामने आई है उसके अनुसार भूवैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार जिस स्थान पर बैराज बनना है वो बहुत ही संवेदनशील इलाका है, उस स्थान की जमीन पर लगातार घिसाव हो रहा है, यह बात उन्होंने एन.टी.पी.सी. को भी लिखकर दी हुई है।

इस आधार पर इसको इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्टे लगा दिया था। उन्होंने कहा कि ये खतरे वाली जगह है और उससे पूरे क्षेत्र को खतरा उत्पन्न हो सकता है। आप अगर बनाना भी चाहते हैं तो उससे हटकर बनाइए। लेकिन एन.टी.पी.सी. वालों का कहना है कि अगर हम इस स्थान से हटकर बनाते हैं तो हमें बहुत नुकसान होगा और इसका सबूत देने के लिए उन्होंने अपने नुकसान की ऐसी रिपोर्ट पेश की है कि जैसी रिपोर्ट गैर कानूनी काम करने वाले भी पेश नहीं कर सकते हैं। और वे कोर्ट के स्टे को भी नकार रहे हैं।

इस पूरे प्रकरण में स्थानीय प्रशासन का क्या रूख है?
स्थानीय प्रशासन तो उन्हीं के साथ है। क्योंकि अगर कोई एस.डी.एम. ट्रांसफर होकर यहां आता है या यहां से जाता है तो उसे एन.टी.पी.सी. की गाड़ी छोड़ने और लेने जाती है। इसके अलावा एन.टी.पी.सी. उन्हें सभी सेवाएं दे रही है, ऐसे में तो वे उन्हीें की तरफदारी करेंगे।

साफ-साफ शब्दों में कहें तो यह टनल पूरे जोशीमठ के नीचे से जा रही है। इसके लेकर जोशीमठ के आम आदमी, वहां के दुकानदार तथा आम शहरी की क्या सोच है?
अभी यहां के प्रत्येक व्यक्ति को नुकसान के बारे में अंदाजा नहीं है। सबका कहना है कि, वहां से जा रही है तो इसका हम पर कोई असर नहीं पड़ेगा। लेकिन जब हमने इस संघर्ष समिति का गठन किया उसके बाद हमने लोगों को समझाया, तो धीरे-धीरे लोगों की समझ में आ रही है और लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। आज हम 5 से बढ़कर 400-500 हो गए हैं और आने वाले समय में लोगों की संख्या और भी बढ़ेगी।

आने वाले दिनों में हमारे साथ तपोबन तथा ढाऊ के लोग भी शामिल हो जाएंगे। आज कुछ लोग डेढ़ लाख रुपए नाली पाने का इंतजार कर रहे हैं और जिस दिन सरकार डी.एम. को भूमि अधिग्रहण करने का आदेश दे देगी, उस दिन वे सरकारी मूल्य देना शुरू कर देंगे, तो जिस दिन ऐसा हो जाएगा, उस दिन वो सब लोग भी हमारे साथ ही जुड़ जाएंगे और सड़कों पर उतर आएंगे। जब हम तपोवन, बड़ागांव, ढाक, रविग्राम, सेलंग आदि की महिलाओं से मिले, तो हमें पता चला कि उनमें से कोई भी महिला अपनी एक इंच भूमि भी बेचना नहीं चाहती है। ये केवल पुरूष वर्ग का ही ख्वाब है कि उनकी जमीन के अच्छे से अच्छे दाम मिले। लेकिन अब धीरे-धीरे 10-15 दिन में भी उनकी समझ में सबकुछ आने लगेगा और वो लोग भी हमारे बैनर तले सड़कों पर नजर आएंगे।

अदालत में जाने की कार्यवाही शुरू हुई?
अदालत में जाने का सिलसिला शुरू हो गया है अभी, उसकी दो तारीख निकल गई है और अभी 17 तारीख को उसकी तीसरी तारीख है। उसमें हमने अतुल सती जी को भेजा है, ताकि वे आगे की प्रगति को अच्छी तरह देख और समझ सकें।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading