छत्तीसगढ़ में औद्योगिक विकास के मायने

21 Dec 2018
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Chhattisgarh
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जिन्दल स्ट्रीप्स लिमिटेड रायगढ़ से 8 किमी की दूरी पर पतरापाली नामक स्थान पर मुख्यतः कच्चे पदार्थों की सुलभता के आधार पर 1991 में 450 करोड़ रुपयों के पूँजी निवेश के साथ स्थापित किया गया। संयंत्र के प्रमुख उत्पाद स्पंज आयरन, फैरो एलॉय तथा स्टील स्ट्रक्चर हैं। सीमेंट उत्पादन में छत्तीसगढ़ का योगदान उल्लेखनीय है, जिसका प्रमुख कारण सीमेंट उद्योग के लिये आवश्यक चूना पत्थर के विशाल भण्डारों (36015.6 लाख टन) का इस क्षेत्र में होना है। प्रदेश में सीमेंट उद्योग के स्थानीयकरण में प्रमुख कारक चूना पत्थर तथा कोयले की समुचित मात्रा में उपलब्धता तथा रेलमार्गों की समीपता रही है। अधिकांश सीमेंट - संयंत्र रेलमार्गों के निकट स्थापित हुए हैं।

औद्योगिक विकास आर्थिक विकास की प्रक्रिया का एक मुख्य अंग है। छत्तीसगढ़ प्रदेश खनिज एवं वनोपज सम्पदा से सम्पन्न राज्य है। यहाँ की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित उद्योगों से खनिज आधारित उद्योगों की ओर उन्मुख हो रही है। अतः प्रदेश में औद्योगिक विकास की अपार सम्भावनाएँ विद्यमान हैं।

औद्योगिक विकास के साथ ही पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विशेष उल्लेखनीय है। औद्योगिक इकाइयों से उत्पन्न विषैली गैसें, ठोस अपशिष्ट पदार्थ तथा दूषित जल का दुष्प्रभाव पर्यावरण एवं मानवीय स्वास्थ्य पर पड़ना अवश्यम्भावी है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में छत्तीसगढ़ प्रदेश के औद्योगिक विकास एवं उद्योगों द्वारा पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों का अध्ययन किया गया है।

भारत के मध्य पूर्व में स्थित छत्तीसगढ़ प्रदेश 17046’ उत्तरी अक्षांश से 24006’ उत्तरी अक्षांश तथा 80015’ पूर्वी देशांश से 84051’ पूर्वी देशांश तक विस्तृत है।

प्रदेश में औद्योगिक विकास के प्रमुख आधार के रूप में कोयला महत्त्वपूर्ण ऊर्जा संसाधन है। प्रदेश में 213518.6 लाख टन कोयले के संचित भण्डार हैं, जो मुख्यतः प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र के अन्तर्गत सम्मिलित हैं। कोयले की वृहद मात्रा में उपलब्धता इस क्षेत्र में ताप विद्युत संयंत्रों की स्थापना का प्रमुख आधार है।

प्रदेश में कोयले की खानों के फलस्वरूप ही इस क्षेत्र में रेल संचार तथा दूर संचार सेवाओं एवं विद्युत ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में असाधारण वृद्धि हुई है। प्रदेश में कोयला उत्खनन का कार्य साउथ ईस्टर्न कोल फील्ड्स लिमिटेड (एस.ई.सी.एल.) द्वारा किया जा रहा है। प्रदेश में कोयला उत्खनन के प्रमुख क्षेत्र कोरबा, रायगढ़, सरगुजा तथा बिलासपुर जिले हैं।

प्रदेश की खनिज सम्पदा के अन्तर्गत लौह अयस्क, चूना पत्थर, डोलोमाइट, बाक्साइट प्रमुख खनिज पदार्थ हैं, जो प्रदेश में भिलाई इस्पात संयंत्र, बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना तथा सीमेंट एवं इस्पात उद्योग की स्थापना में सहायक सिद्ध हुए हैं।

प्रदेश में लौह अयस्क (23012.6 लाख टन) के भण्डार मुख्यतः बस्तर, दुर्ग, राजनांदगाँव एवं रायपुर जिले में उपलब्ध हैं। चूना - पत्थर प्रदेश का एक प्रमुख खनिज संसाधन है, जिसके (36015.6 लाख टन) के संचित भण्डार मुख्यतः प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्रों में उपलब्ध हैं। चूना पत्थर की उपलब्धता इस क्षेत्र में सीमेंट उद्योग के स्थानीयकरण का एक प्रमुख कारण है। बाक्साइट प्रदेश का महत्त्वपूर्ण धातु खनिज है, बाक्साइट (4138.2 लाख टन) के भण्डार मुख्यतः सरगुजा, बिलासपुर, रायगढ़, राजनांदगाँव तथा बस्तर जिलों में उपलब्ध है। डोलोमाइट के संचित भण्डार (5930.06 लाख टन) मुख्यतः रायपुर, बिलासपुर तथा बस्तर जिलों में उपलब्ध हैं।

प्रदेश में उपलब्ध अन्य खनिजों में क्वार्टजाइट (200 लाख टन), क्वार्ट्ज (240 लाख टन) फ्लोराइड, कोरण्डम (24 टन), टिन अयस्क (6773.59 टन) लेड, मीका, ग्रेफाइट, फेल्डस्पार (.7 लाख टन), तांबा अयस्क तथा अग्नि मृत्तिका (70 लाख टन), सोना (2805 किग्रा) एवं अलेक्जेंडराइट हैं।

प्रदेश की कुल 43.85 प्रतिशत भूमि पर वन फैले हुए हैं। वन क्षेत्र का सर्वाधिक विस्तार बस्तर में (55.03%) तथा दुर्ग में सबसे कम (20.19%) है। प्रदेश में संरक्षित वन की मात्रा 52.46%, आरक्षित वन 40.42% एवं अवर्गीकृत वन 7.10% है। प्रदेश के वनों में साल तथा सागौन के वृक्ष प्रमुख हैं। प्रमुख वनोपज के अन्तर्गत काष्ठ एवं जलाऊ चट्टा तथा लघु वनोपजों में बाँस, तेंदूपत्ता, हर्रा, सालबीज, गोंद इत्यादि सम्मिलित हैं।

छत्तीसगढ़ प्रदेश मूलतः कृषि प्रधान क्षेत्र है। खाद्यान्न फसलों में चावल का स्थान प्रमुख है। प्रदेश में चावल का औसत उत्पादन 4186.34 हजार मीट्रिक टन है। कृषि तथा उद्योगों के समरूप परिवहन साधनों का पर्याप्त विकास देश के आर्थिक विकास में सहायक होता है। सड़क परिवहन की दृष्टि से प्रदेश में सड़क मार्गों की कुल लम्बाई 33295.11 किमी है। जिनमें से पक्की सड़कों की कुल लम्बाई 10846.19 किमी है। प्रदेश में प्रमुख 9 राष्ट्रीय राजमार्ग, 14 राजमार्ग तथा 56 जिला सड़कें हैं।

प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में सड़कों का घनत्व अन्य भागों की अपेक्षा अधिक है। रायपुर, दुर्ग में प्रति 100 किमी क्षेत्र में सड़कों का घनत्व क्रमशः 15.07 तथा 13.69 किमी है, वहीं सरगुजा तथा बस्तर में यह घनत्व क्रमशः 2.07 तथा 2.03 किमी है।

औद्योगिक विकास हेतु विद्युत की भूमिका सर्वोपरि है। छत्तीसगढ़ प्रदेश में वर्तमान विद्युत उत्पादन क्षमता 3730 मेगावाट है। वर्ष 1998-99 में यहाँ कुल 25783.89 मिलियन यूनिट विद्युत का उत्पादन हुआ। प्रदेश में विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में कोरबा ताप विद्युत गृह (पूर्व) (कुल क्षमता 400 मेगावाट), हसदेव ताप विद्युत गृह कोरबा (पश्चिम) (कुल क्षमता 840 मेगावाट) तथा एनटीपीसी इकाई द्वारा 2100 मेगावाट क्षमता का कोरबा सुपर ताप विद्युत गृह संचालित है। इसके अतिरिक्त सीपत (बिलासपुर) में 2000 मेगावाट क्षमता की नई विद्युत उत्पादक इकाई की स्थापना प्रस्तावित है।

उपर्युक्त विद्युत इकाइयों के अतिरिक्त ग्राम माचाडोली में मिनीमाता हसदेव बांगो जल विद्युत परियोजना संचालित की जा रही है, जिसकी स्थापित उत्पादन क्षमता 120 मेगावाट है।

औद्योगिक नीति एवं कार्य योजना 1994 के अन्तर्गत उद्योगों के लिये विद्युत नीति तैयार की गई है, जिसके अनुसार विद्युत उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु निजी क्षेत्र के सहयोग को प्रोत्साहन दिया जाएगा। निर्यातोन्मुखी एवं निरन्तर उत्पादन करने वाली औद्योगिक इकाइयों को यथासम्भव विद्युत कटौती से मुक्त रखा जाएगा।

उद्योगों को विक्रय तथा वाणिज्य कर की सुविधा के अन्तर्गत 10 लाख रुपए तक स्थाई पूँजी निवेश वाली इकाइयों को कर मुक्ति, स्थाई पूँजी निवेश का 100 प्रतिशत तथा आस्थगन की सुविधा 150 प्रतिशत तक रहेगी। महिला उद्यमियों, अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के उद्यमियों द्वारा स्थापित इकाइयों को 1 वर्ष की अतिरिक्त सुविधा रहेगी।

सन्तुलित क्षेत्रीय विकास हेतु प्रदेश के समस्त जिलों के ‘उद्योग शून्य विकास खण्ड’ में स्थापित लघु, बृहत तथा मध्यम उद्योगों को ‘स’ श्रेणी में वर्गीकृत जिलों के समान वाणिज्यकर मुक्ति की सुविधा दी जाएगी।

औद्योगिक केन्द्र विकास निगम द्वारा स्थापित केन्द्रों में भूमि उपलब्ध ना होने पर विकास केन्द्रों की सीमा से पाँच किमी के अन्दर स्थापित होने वाले उद्योगों को उस क्षेत्र की सामान्य सुविधा से एक वर्ष की अतिरिक्त सुविधा की पात्रता रहेगी। थ्रस्ट सेक्टर को विस्तारित कर ऑटोमोबाइल, कृषि उपकरण, कृषि तथा खनिज आधारित उद्योग, जीवन रक्षक औषधियाँ, खाद्य प्रसंस्करण, रेशम तथा चमड़ा, फिश कैनिंग इत्यादि उद्योग सम्मिलित किये जाएँगे।

सहकारी क्षेत्र में नए उद्योगों की स्थापना होने पर तीन वर्ष की अतिरिक्त अवधि के लिये वाणिज्य कर मुक्ति की सुविधा प्रदान की जाएगी। शत-प्रतिशत निर्यातक इकाइयों को दो वर्ष की अतिरिक्त अवधि हेतु वाणिज्यिक कर की सुविधा तथा 8 वर्ष की अवधि के लिये प्रवेश कर से छूट दी जाएगी।

लघु उद्योग इकाइयों के लिये लागू अनुदान योजना के अन्तर्गत सामान्य उद्यमियों हेतु अधिकतम सीमा 25 हजार रुपए प्रतिवर्ष तथा अनुसूचित जाति एवं जन जाति के उद्यमियों को ब्याज अनुदान दर छह प्रतिशत कर दी गई है।

कृषि तथा शहरी अनुपयोगी पदार्थों के प्रसंस्करण संयंत्रों की स्थापना हेतु विशेष योजना तैयार की जाएगी। कुटीर तथा ग्रामोद्योग के विकास के लिये खादी तथा ग्रामोद्योग हथकरघा, हस्तशिल्प, चर्मशिल्प उद्योगों के क्षेत्र में आवश्यक उपकरणों की सहायता देकर रोजगार स्थापित किया जाएगा।

आदिवासी बहुल जिलों में सुव्यवस्थित ग्रामीण औद्योगीकरण हेतु राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा परिवर्तित ‘जिला ग्रामीण उद्योग परियोजना’ के चरण बद्ध कार्यान्वयन के प्रयास किये जाएँगे। रेशम उद्योग के विकास हेतु ग्राम पंचायतों की सक्रिय भागीदारी प्राप्त की जाएगी। निजी क्षेत्रों में रेशम के ककून उत्पादन को प्राथमिकता दी जाएगी। हाथ करघा क्षेत्र में बुनकरों को उचित दाम पर सूत प्रदाय कर हाथ करघों के आधुनिकीकरण के कार्यक्रमों में वृद्धि की जाएगी।

चयनित महत्त्वपूर्ण उद्योगों को विशेष सुविधाओं के अन्तर्गत थ्रस्ट सेक्टर के उद्योगों को विशेष सुविधाएँ दी जाएँगी। कृषि आधारित उद्योगों को सहकारी क्षेत्रों हेतु प्रोत्साहित किया जाएगा। सोयाबीन प्रोसेसिंग उद्योगों के लिये कच्चे माल के संग्रहण हेतु प्रतिबन्धों को समाप्त किया जाएगा।

खनिज आधारित उद्योगों के अन्तर्गत निजी क्षेत्र की भागीदारी को खनन में प्रोत्साहित किया जाएगा। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व प्रदेश की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर ही आश्रित थी। फलतः उद्योगों के रूप में चावल, दाल तथा तेल मिलें ही मुख्य थीं।

वर्ष 1935 में छत्तीसगढ़ प्रदेश में 46 चावल मिलें थीं तथा तेल मिल के अन्तर्गत 6 इकाइयाँ पंजीकृत थीं। प्रदेश की एकमात्र आरा मिल वर्ष 1947 में बिलासपुर जिले में पंजीकृत थी। प्रदेश में टसर सिल्क तथा कोसा उत्पादन के महत्त्वपूर्ण केन्द्र रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग तथा रायगढ़ थे। बृहत स्तरीय उद्योगों के अन्तर्गत सन 1935 में रायगढ़ में स्थित रायगढ़ जूट मिल तथा राजनांदगाँव में 1892 में स्थापित प्रथम कपड़ा मिल ‘केन्द्रीय प्रान्त कपास मिल’ (Central Provinces Cotton Mill) थी। 1965 में मिल में प्रतिदिन औसतन 2,319 श्रमिक कार्य कर रहे थे।

स्वतंत्रता के पश्चात कुछ वर्षों तक प्रदेश की औद्योगिक स्थिति में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ था। लघु स्तरीय उद्योगों के अन्तर्गत चावल मिल, दाल मिल तथा तेल मिलें मुख्य थीं। स्वतंत्रता के पश्चात इनकी संख्या में कुछ वृद्धि अवश्य हुई।

स्वतंत्रता के पश्चात वर्ष 1949 से 1968 के मध्य छत्तीसगढ़ प्रदेश में चावल मिलों की संख्या 269 थी। वर्तमान में मिलों की संख्या 679 है। प्रदेश में आटा मिल एक मात्र रायपुर जिले में स्थापित थी। वर्ष 1949 में तीन आटा मिल तथा वर्ष 1964 में 6 मिलें थीं। इन कारखानों में प्रतिदिन औसतन 204 कामगारों को रोजगार मिलता था।

प्रदेश में दाल मिलों की संख्या 16 थी, जो मुख्यतः रायपुर एवं दुर्ग जिले में केन्द्रित थीं। वर्ष 1949 में रायपुर जिले में केवल 1 दाल मिल थी, जिसकी संख्या 1958 में 20 तथा 1964 में घटकर 14 हो गई। वर्ष 1968 में इन मिलों की संख्या 13 हो गई, जिनमें प्रतिदिन 164 कामगार कार्य करते थे। दुर्ग में 1951 में 1 दाल मिल थी, जिसकी संख्या में 6 तथा 1965 में बढ़कर 3 हो गई। वर्तमान में दाल मिलों की संख्या 212 है।

प्रदेश में तेल मिलें मुख्यतः रायपुर, बिलासपुर तथा दुर्ग जिले में स्थित थीं, जिनकी संख्या 12 थी। वर्ष 1949 में रायपुर जिले में पंजीकृत कारखाने के रूप में 1 तेल मिल थी। वर्ष 1951 में इनकी संख्या 3 तथा 1960 में 7 हो गई। वर्ष 1968 में इनकी संख्या बढ़कर 9 हो गई। बिलासपुर जिले में 1950 में केवल 1 तेल मिल तथा दुर्ग जिले में 1965 में 2 मिलें पंजीकृत थीं। वर्तमान में तेल मिलों की संख्या 18 है।

वर्ष 1949 से 1969 के मध्य छत्तीसगढ़ प्रदेश में आरा मिलों की संख्या 38 थी। वर्तमान में 414 आरा मिलें स्थापित हैं। वनोपज पर आधारित उद्योगों में बीड़ी निर्माण इकाइयों की संख्या प्रदेश में 1950 से 1968 के मध्य 60 थी। वर्तमान में इन इकाइयों की संख्या 74 है।

प्रदेश में औद्योगिक विकास का प्रारम्भ पंचवर्षीय योजनाओं के साथ ही हुआ, जब सन 1957 में तत्कालीन सोवियत रूस के सहयोग से भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना हुई। इसके पूर्व प्रदेश में खनिज आधारित उद्योगों की मात्रा नगण्य थी। सार्वजनिक क्षेत्र में भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना से प्रदेश की आर्थिक एवं औद्योगिक गतिविधियों को बल मिला, जिसके फलस्वरूप अनेक नवीन उद्योगों की स्थापना हुई, जिनमें से अधिकांश इस्पात संयंत्र के सहायक उद्योग थे।

प्रदेश में द्वितीय पंचवर्षीय योजनाकाल (1956-61) के मध्य मात्र 2 बृहत एवं मध्यम स्तरीय इकाइयाँ मुख्यतः दुर्ग जिले में स्थापित थीं। तीसरी पंचवर्षीय योजना काल में जहाँ 8 बृहत एवं मध्यम स्तरीय इकाइयाँ स्थापित हुईं, वहीं वार्षिक योजना काल (1966-69) में 4 तथा चौथी पंचवर्षीय योजना काल में पुनः 8 इकाइयाँ स्थापित हुईं।

पाँचवी योजनाकाल (1974-79) में कुल 12 तथा छठी योजना काल (1980-85) में 15 बृहत एवं मध्यम स्तरीय इकाइयाँ स्थापित हुईं। सातवीं योजना काल (1985-90) में 44 तथा आठवीं योजना काल (1992-97) में सर्वाधिक 57 इकाइयों की स्थापना हुई, जिनमें से रायपुर में 38, दुर्ग में 7, रायगढ़ में 6, राजनांदगाँव में 3, बिलासपुर, जांजगीर, चांपा तथा कोरबा में 1-1 इकाइयाँ स्थापित हुईं। नवीं पंचवर्षीय योजना काल (1997-2000) में मात्र 4 नई इकाइयाँ स्थापित हुईं, जिनमें से रायपुर में 43 तथा बिलासपुर में 1 बृहत एवं मध्यम स्तरीय इकाई स्थापित हुई।

बृहत एवं मध्यम स्तरीय उद्योगों के अन्तर्गत प्रदेश में स्थापित 165 बृहत एवं मध्यम स्तरीय उद्योगों में से रायपुर में 84, दुर्ग में 29, राजनांदगाँव में 12, बिलासपुर में 11, रायगढ़ में 9, कोरबा में 6, जांजगीर चांपा में 4, बस्तर में 4 तथा महासमुन्द में 4 एवं धमतरी जिले में 2 बृहत एवं मध्यम इकाइयाँ स्थापित हैं।

वर्ष 1960 से पूर्व प्रदेश में बृहत एवं मध्यम उद्योगों की संख्या 4 थी। 1960-70 के मध्य, 16 नई इकाइयाँ स्थापित होने के साथ ही बृहत एवं मध्यम इकाइयों की संख्या बढ़कर 20 हो गई। इस प्रकार वर्ष 1970-80 में प्रदेश में इन इकाइयों की संख्या 40 हो गई। वर्ष 1980-90 के मध्य, प्रदेश में 52 नई इकाइयों की स्थापना के साथ ही इनकी संख्या 96 हो गई। वर्ष 1990-2000 के दौरान प्रदेश में 69 नई इकाइयों की स्थापना के साथ ही प्रदेश में बृहत एवं मध्यम इकाइयों की संख्या 165 हो गई।

पिछड़ी एवं विकासशील अर्थ व्यवस्था वाले क्षेत्रों के लिये औद्योगीकरण के माध्यम से उद्योगों के विकास के साथ ही कृषि उत्पादन, रोजगार तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि को भी प्रोत्साहन मिलता है। उत्पादन के आधार पर उद्योगों को बृहत उद्योग, मध्यम उद्योग, लघु उद्योग तथा अति लघु उद्योग में वर्गीकृत किया जाता है। प्रदेश में बृहत एवं मध्यम स्तरीय उद्योग के अन्तर्गत 165 औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित हुई हैं। प्रदेश में लौह इस्पात उद्योग के अन्तर्गत 9 इकाइयाँ कार्यरत हैं, जिनमें से रायपुर में 3, दुर्ग में 2, रायगढ़ में 2, बिलासपुर में 2 तथा चांपा में 1 लौह इस्पात एवं स्पंज आयरन इकाई स्थापित है। उपर्युक्त इकाइयों में कुल पूँजी निवेश की मात्रा 205956.22 लाख रुपए तथा रोजगार की मात्रा 68094 है।

भिलाई इस्पात संयंत्र दुर्ग जिले में मुम्बई - हावड़ा मुख्य रेलमार्ग पर भिलाई नामक स्थान पर स्थापित है। इस क्षेत्र में संयंत्र स्थापना का मुख्य कारण प्रथम यहाँ आवश्यक संसाधन जैसे लौह खनिज, चूना पत्थर, कोयला, मैंग्नीज समीपवर्ती क्षेत्रों में उपलब्ध है तथा द्वितीय शिवनाथ एवं खारुन नदी इस क्षेत्र में प्रवाहित होती है। संयंत्र की इस्पात उत्पादन क्षमता 40 लाख टन वार्षिक है तथा संयंत्र की कुल लागत 2300 करोड़ रुपए है। संयंत्र में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या 51000 है।

भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना का विकासकारी प्रभाव प्रदेश में विशेष रूप से रायपुर, दुर्ग तथा राजनांदगाँव जिले पर पड़ा है, अतः भिलाई, दुर्ग तथा रायपुर एक औद्योगिक पुंज के रूप में उभर कर सामने आए हैं, जहाँ मुख्यतः इस्पात संयंत्र के सहायक उद्योगों की स्थापना हुई है।

इस्पात संयंत्र के सहायक उद्योगों की कुल संख्या 166 है, जिनमें से भिलाई में 106, रायपुर में 29, दुर्ग में 23 तथा राजनांदगाँव में 8 सहायक उद्योग स्थापित हैं। संरचना की दृष्टि से इन उद्योगों को इंजीनियरिंग तथा फैब्रिकेशन उद्योग (95), खनिज आधारित उद्योग (33), रासायनिक उद्योग (20), कृषि पर आधारित उद्योग (3), वनोपज पर आधारित उद्योग (5) तथा अन्य उद्योग (10) में वर्गीकृत किया जा सकता है।

इस्पात संयंत्र की स्थापना के साथ ही इस क्षेत्र में खनन कार्यों का विकास भी हुआ। भिलाई से 95 किमी की दूरी पर दल्ली राजहरा की लौह अयस्क खदानें स्थित हैं, जहाँ से संयंत्र को लौह अयस्क की आपूर्ति की जाती है। मोनेट इस्पात लिमिटेड, रायपुर से 17 किमी दक्षिण में राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 6 चन्दखुरी मार्ग पर ग्राम कुरुंद, मन्दिर हसौद में स्थापित है। यह संयंत्र वर्ष 1994 में 1594.20 लाख रुपयों की लागत से स्थापित हुआ। संयंत्र की उत्पादन क्षमता 1 लाख टन इस्पात पिंड प्रति वर्ष है।

जिन्दल स्ट्रीप्स लिमिटेड रायगढ़ से 8 किमी की दूरी पर पतरापाली नामक स्थान पर मुख्यतः कच्चे पदार्थों की सुलभता के आधार पर 1991 में 450 करोड़ रुपयों के पूँजी निवेश के साथ स्थापित किया गया। संयंत्र के प्रमुख उत्पाद स्पंज आयरन, फैरो एलॉय तथा स्टील स्ट्रक्चर हैं।

सीमेंट उत्पादन में छत्तीसगढ़ का योगदान उल्लेखनीय है, जिसका प्रमुख कारण सीमेंट उद्योग के लिये आवश्यक चूना पत्थर के विशाल भण्डारों (36015.6 लाख टन) का इस क्षेत्र में होना है। वर्तमान में प्रदेश में सीमेंट उद्योग की 13 इकाइयाँ कार्यरत हैं, जिनमें से रायपुर में 5, दुर्ग में 2, जांजगीर चांपा में 2, बस्तर में 2 तथा रायगढ़ में 2 इकाई स्थापित है। उपर्युक्त इकाइयों में कुल पूँजी निवेश की मात्रा 228846.85 लाख रुपए तथा रोजगार की मात्रा 7203 है।

प्रदेश में सीमेंट उद्योग के स्थानीयकरण में प्रमुख कारक चूना पत्थर तथा कोयले की समुचित मात्रा में उपलब्धता तथा रेलमार्गों की समीपता रही है। अधिकांश सीमेंट - संयंत्र रेलमार्गों के निकट स्थापित हुए हैं।

ग्रासिम सीमेंट संयंत्र की स्थापना वर्ष 1995 में रायपुर जिले की सिमगा तहसील के ग्राम रवान में हुई, जिसमें पूँजी निवेश की मात्रा 550 करोड़ रुपए है। संयंत्र की उत्पादन क्षमता 1.7 मिलियन टन पोर्टलैण्ड सीमेंट प्रतिवर्ष है।

लार्सन एण्ड टूब्रो (एल एण्ड टी) समूह द्वारा हिरमी सीमेंट संयंत्र की स्थापना वर्ष 1994 में हिरमी ग्राम में हुई, जिसमें पूँजी निवेश की मात्रा 500 करोड़ रुपए है। संयंत्र की उत्पादन क्षमता 1750000 टन प्रतिवर्ष पोर्टलैण्ड सीमेंट की है।

सेंचुरी सीमेंट की स्थापना वर्ष 1975 में रायपुर जिले में तिल्दा से 8 किमी दक्षिण पश्चिम में बैकुण्ठ नामक स्थान पर 30 करोड़ रुपयों की लागत से हुई। संयंत्र की उत्पादन क्षमता 15 लाख टन प्रतिवर्ष पोर्टलैण्ड सीमेंट की है।

रासायनिक उद्योग के अन्तर्गत प्रदेश में 18 बृहत एवं मध्यम इकाइयाँ कार्यरत हैं, जिनमें रसायन, उर्वरक एवं कृषि रसायन उद्योग प्रमुख हैं। इनमें दुर्ग में 6, राजनांदगाँव में 3, बिलासपुर में 2 तथा रायपुर में 7 इकाइयाँ स्थापित हैं। उपर्युक्त इकाइयों में कुल पूँजी निवेश की मात्रा 950.77 लाख रुपए तथा रोजगार की मात्रा 2350 है।

प्रदेश में प्रथम रसायन उद्योग की आधार शिला 30 अक्टूबर 1961 को धरमसी मोरारजी केमिकल कम्पनी द्वारा रखी गई। यह संयंत्र दुर्ग जिले के कुम्हारी नामक स्थान पर राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 6 पर स्थापित है। छत्तीसगढ़ मुख्यतः कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि इस क्षेत्र में धरमसी मोरारजी कम्पनी लिमिटेड की स्थापना का मुख्य कारण थी।

प्रदेश का एकमात्र एल्युमिनियम उद्योग भारत एल्युमिनियम कम्पनी लिमिटेड (बाल्को) की स्थापना 857.03 करोड़ रुपयों की लागत से 27 नवम्बर, 1965 को कोरबा नामक स्थान पर की गई। कोरबा में इस उद्योग की स्थापना का प्रमुख कारण बाक्साइट की सुलभ प्राप्ति तथा इस क्षेत्र में स्थापित ताप विद्युत संयंत्र हैं। वर्तमान में संयंत्र में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या 6442 है।

प्रदेश में विस्फोटक पदार्थ उद्योगों की संख्या 3 है, जिनमें कुल पूँजी निवेश की मात्रा 2738.35 लाख रुपए तथा रोजगार की मात्रा 495 है। ये इकाइयाँ मुख्यतः कोरबा में स्थापित हैं, इसका प्रमुख कारण कोरबा खनन क्षेत्रों में विस्फोटक पदार्थों की भारी माँग तथा क्षेत्र में उपलब्ध सुलभ विद्युत आपूर्ति है।

खाद्य पदार्थ उत्पादक इकाइयों के अन्तर्गत वर्तमान में 28 इकाइयाँ कार्यरत हैं, जिनमें से रायपुर में 12, राजनांदगाँव में 6, महासमुन्द में 4, दुर्ग में 2, धमतरी में 2 तथा भिलाई में 1, रायगढ़ में 1 खाद्य पदार्थ उत्पादक इकाइयाँ स्थापित हैं। इन इकाइयों में कुल पूँजी निवेश की मात्रा 5229.84 लाख रुपए तथा रोजगार की संख्या 2514 है।

वनोपज पर आधारित इकाइयों के अन्तर्गत प्रदेश में कुल 10 इकाइयाँ कार्यरत हैं, जिनमें से रायगढ़ में 3, रायपुर में 3, बस्तर में 2 तथा बिलासपुर एवं जांजगीर चांपा में 1-1 इकाई स्थापित है। इन इकाइयों में कुल पूँजी निवेश की मात्रा 10128.02 लाख रुपए तथा रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 4429 है।

प्रदेश में वस्त्र उद्योग मुख्यतः रायपुर जिले में केन्द्रित यूनिवर्थ इंडिया लिमिटेड है, जिसकी तीन इकाइयाँ उरला में स्थापित हैं, जिनमें कुल पूँजी निवेश की मात्रा 9072.37 लाख रुपए तथा रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 4229 है।

इंजीनियरिंग, फैरोएलॉय तथा स्टील कास्टिंग उद्योगों के अन्तर्गत 44 इकाइयाँ कार्यरत हैं, जिनमें से रायपुर जिले में 26, दुर्ग जिले में 15, बिलासपुर, राजनांदगाँव तथा रायगढ़ जिले में 1-1 इकाई स्थापित है। इन इकाइयों में पूँजी निवेश की कुल मात्रा 28812.44 लाख रुपए तथा रोजगार की संख्या 12436 है।

बृहत उद्योगों के समानान्तर लघु उद्योगों का अर्थव्यवस्था के सन्तुलित एवं तीव्र विकास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रदेश में वर्ष 1990-91 से 1998-99 तक कुल 57,125 लघु उद्योग स्थापित हुए हैं, जिनमें 16304.61 लाख रुपयों का पूँजी निवेश है तथा रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 130768 है।

प्रदेश में बृहत उद्योगों की संख्या, पूँजी निवेश तथा रोजगार की संख्या के आधार पर औद्योगिक सूचकांक ज्ञात कर प्रदेश के विभिन्न जिलों में औद्योगिक विकास का स्तर ज्ञात किया गया है। उद्योगों की स्थापना की दृष्टि से रायपुर जिले में सबसे अधिक 84 उद्योग तथा धमतरी जिले में मात्र 2 बृहत एवं मध्यम उद्योग स्थापित हैं। पूँजी निवेश के अन्तर्गत सबसे अधिक पूँजी निवेश रायपुर जिले में (4,16,232.09 लाख रुपए) तथा सबसे कम महासमुन्द जिले में (63 लाख रुपए) है। सबसे अधिक रोजगार की मात्रा बिलासपुर जिले में (1,20,678) तथा सबसे कम धमतरी जिले में (93) रही।

औद्योगिक सूचकांक के आधार पर प्रदेश को 4 औद्योगिक विकास स्तरों में विभाजित किया गया है। उच्च औद्योगिक विकास क्षेत्र के अन्तर्गत दुर्ग एवं बिलासपुर, मध्यम औद्योगिक विकास क्षेत्र के अन्तर्गत रायपुर, कोरबा तथा जांजगीर चांपा, निम्न औद्योगिक विकास क्षेत्र के अन्तर्गत बस्तर, रायगढ़ तथा राजनांदगाँव जिले सम्मिलित हैं। अतिनिम्न औद्योगिक विकास क्षेत्र के अन्तर्गत धमतरी तथा महासमुन्द जिले सम्मिलित हैं। उद्योग विहीन क्षेत्र के अन्तर्गत प्रदेश के कांकेर, दन्तेवाड़ा, कोरिया, सरगुजा, जशपुर तथा कवर्धा जिले सम्मिलित हैं, जहाँ बृहत एवं मध्यम इकाइयाँ स्थापित नहीं हुई हैं।

औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना देश के औद्योगीकरण की गति को त्वरित करती है, क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में अधिकांशतः लघु उद्योगों की स्थापना की जाती है। छत्तीसगढ़ प्रदेश में औद्योगिक क्षेत्रों का विकास मुख्यतः छठी व सातवीं पंचवर्षीय योजनावधि (1980-85 से 1985-90) में हुआ, जब मध्य प्रदेश औद्योगिक केन्द्र विकास निगम लिमिटेड द्वारा औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना की गई। प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र रायपुर जिले में उरला तथा सिलतरा, दुर्ग जिले में बोरई तथा बिलासपुर जिले में तिफरा एवं सिरगिट्टी है। निगम द्वारा बस्तर, सरगुजा, रायगढ़ तथा राजनांदगाँव में औद्योगिक क्षेत्र स्थापित नहीं किये गए हैं।

छत्तीसगढ़ के औद्योगिक उत्थान हेतु प्रेरणादायी भिलाई इस्पात संयंत्र के पश्चात उरला का नाम आता है। औद्योगिक क्षेत्र उरला (रावांभाटा तथा भनपुरी सहित) 700 हेक्टेयर भूमि पर स्थापित है, जहाँ 60 बृहत एवं मध्यम स्तरीय उद्योग तथा 550 लघु उद्योग स्थापित हैं, जिनमें 40,000 लाख रुपए से अधिक पूँजी निवेश हुआ है एवं 16 हजार से अधिक व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रोजगार प्राप्त हो रहा है।

वर्ष 1989 में सिलतरा औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना रायपुर से 15 किमी की दूरी पर सिलतरा नामक ग्राम में की गई। यह औद्योगिक क्षेत्र 1259.286 हेक्टेयर भूमि पर स्थापित है। इस क्षेत्र में 3 बृहत एवं मध्यम उद्योग तथा 9 लघु स्तरीय उद्योगों की स्थापना हो चुकी है। बृहत एवं मध्यम उद्योगों के अन्तर्गत 1468 तथा लघु उद्योगों के अन्तर्गत 55 व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रोजगार प्राप्त हुआ है।

वर्ष 1989 में दुर्ग जिले में भिलाई इस्पात संयंत्र के निकटवर्ती बोरई ग्राम में औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना 436.83 हेक्टेयर भूमि पर हुई है। वर्तमान में यहाँ 2 बृहत स्तरीय तथा 27 लघु स्तरीय उद्योग उत्पादनरत हैं। बृहत स्तरीय उद्योगों के अन्तर्गत पूँजी विनियोजन की मात्रा 10692 लाख रुपए तथा रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 858 है। इसी प्रकार लघु स्तरीय उद्योगों में पूँजी विनियोजन की मात्रा 728 लाख रुपए तथा रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 453 है।

वर्ष 1984 में बिलासपुर जिले के सिरगिट्टी ग्राम में औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना की गई। इस क्षेत्र की विस्तार सीमा 371.56 हेक्टेयर है। इस क्षेत्र में स्थापित उद्योग मुख्यतः स्पंज आयरन, रोलिंग मिल तथा सीमेंट उद्योग है। इस औद्योगिक क्षेत्र में 6 बृहत एवं मध्यम स्तरीय उद्योगों की स्थापना हो चुकी है, जिनमें पूँजी निवेश की मात्रा 2226.62 लाख रुपए तथा रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 788 है। इसी अनुक्रम में 82 लघु उद्योग स्थापित हुए, जिनमें पूँजी निवेश की मात्रा 3064.67 लाख रुपए तथा रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 2324 है।

औद्योगिक क्षेत्र तिफरा (सिरगिट्टी सहित) 928.09 हेक्टेयर भूमि में स्थापित किया गया है। सिरगिट्टी एवं तिफरा में माह नवम्बर 2000 तक 178 लघु उद्योग स्थापित हुए हैं, जिसमें 4212.16 लाख रुपए का पूँजी विनियोजन तथा 4127 लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है। साथ ही 6 मध्यम श्रेणी के उद्योग स्थापित हुए हैं, जिनमें 2226.62 लाख रुपए का पूँजी निवेश तथा 788 लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है।

उपर्युक्त सभी औद्योगिक क्षेत्रों में दूरभाष केन्द्र, बैंक, पोस्ट ऑफिस, पेट्रोल पम्प, सड़क, बिजली, जल आदि सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई हैं।

वर्तमान समय में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या अन्तरराष्ट्रीय समस्या है। औद्योगिक विकास हेतु प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से विदोहन तथा औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि से पर्यावरण प्रदूषण अपरिहार्य है। औद्योगिक इकाइयों से उत्पन्न दूषित जल, विषैली गैसें तथा ठोस अपशिष्टों से प्राकृतिक संसाधनों का अवनयन हो रहा है। छत्तीसगढ़ प्रदेश में स्थापित ताप विद्युत संयंत्र, कोयला उत्खनन, सीमेंट एवं लौह इस्पात एवं स्पंज आयरन संयंत्र द्वारा मुख्यतः वायु, जल एवं मृदा प्रदूषण अथवा भू-अवनयन की समस्या उत्पन्न हो गई है।

कोरबा में विशेष रूप से ताप विद्युत संयंत्रों की स्थापना के फलस्वरूप पर्यावरण की समस्या, मुख्यतः वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई है। साथ ही कोयले की बृहत खुली एवं भूमिगत खदानों में खनन कार्यों से भी वायु प्रदूषित होती है।

कोरबा क्षेत्र में प्रमुख खदानें मानिकपुर, गेवरा, दीपका, लक्ष्मण, बांकी, कुसमुन्डा, सुराकछार, रजगामार तथा बल्गी है। इनमें गेवरा परियोजना का अध्ययन खनन क्षेत्रों में होने वाले पर्यावरण प्रदूषण के दृष्टिकोण से किया गया है।

खुली खदानों में उत्खनन के परिणाम स्वरूप खदानों के ऊपरी भार अथवा अतिभार (Over burden) को समीप के खाली स्थानों पर एकत्र कर दिया जाता है, जिससे चारों ओर के प्राकृतिक वन क्षेत्र रेत व शैल के साथ विद्रुप पहाड़ों तथा विनाशपू्र्ण स्थलाकृतियों में बदल जाते हैं। भू-अवनयन तथा भूमि उपयोग की एक बड़ी समस्या इन क्षेत्रों में विद्यमान रहती है। गेवरा खदान में ऊपरी भार के अन्तर्गत कुल 300 हेक्टेयर भूमि है। इन निक्षेपों की ऊँचाई 9 से 10 मीटर तक है। गेवरा परियोजना द्वारा कुल 12 गाँव एवं 968 परिवार प्रभावित हुए हैं।

खदानों में वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण विस्फोट, कोलकटिंग तथा खुदाई है, जिससे धूल उत्पन्न होती है, फलतः वायु प्रदूषित हो जाती है। प्रदूषण का अन्य स्रोत कोयले का परिवहन भी है। औद्योगिक क्षेत्र खुसराडीह सब स्टेशन, जो कि खनन क्षेत्र से 5 किमी की दूरी पर स्थित है, में वायु में निलम्बित ठोस कणों (SPM) की मात्रा 335.5 माइक्रो ग्राम/घनमीटर तथा गेवरा सी.जी.एम. कार्यालय में ठोस कणों की मात्रा 283.83 माइक्रोग्राम/घनमीटर पाई गई। आवासीय क्षेत्र के अन्तर्गत गेवरा ऊर्जा नगर में ठोस कणों की मात्रा (156.17 माइक्रोग्राम/घनमीटर) पोन्डीग्राम (147.5 माइक्रोग्राम/घनमीटर) की तुलना में अधिक रही।

खदानों में जल प्रदूषण का प्रमुख स्रोत खदानों से निस्सारित जल तथा मशीनों की धुलाई है। गेवरा खनन क्षेत्र में निस्सारित जल लक्ष्मण नाला में छोड़ा जाता है। लक्ष्मण नाला तथा सैटलिंग पॉण्ड नं. 3 में जल का pH मान क्रमशः 5.9 तथा 6.3 रहा जो कि निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं है। जल में निलम्बित ठोस कणों की उपस्थिति 258 मिग्रा/लीटर रही। इसी प्रकार जल में प्रकाश अवरुद्धता (Turbidity) का मान निर्धारित सीमा 1NTU (National Turbidity Unit) से अधिक फिल्टरेशन प्लांट से निस्सारित जल में 2NTU, आवासीय क्षेत्र में स्थित नल के जल में 4NTU तथा कुएँ के जल में 8NTU रहा। आवासीय क्षेत्र में स्थित कुएँ के जल में कॉलीफॉर्म की उपस्थिति 12MPN (Most Probable Number) रही, जबकि जल में इसकी मात्रा नगण्य होनी चाहिए।

कोरबा शहर के पूर्व में स्थित एल्युमिनियम संयंत्र में वायु प्रदूषण का प्रधान स्रोत चिमनियों द्वारा गैसीय उत्सर्जन है, जिससे निकलने वाले प्रमुख वायु प्रदूषक तत्व निलम्बित ठोस कण, सल्फर डाइऑक्साइड तथा फ्लोराइड है। एल्युमिनियम संयंत्र के 1 किमी से 7 किमी की दूरी तक के क्षेत्र में शीत ऋतु में वायु में निलम्बित ठोस कणों की सर्वाधिक मात्रा 1884 माइक्रोग्राम/घनमीटर (ग्राम कोहरिया, 1.8 किमी. पश्चिम, ग्रीष्म ऋतु में 1009 माइक्रोग्राम/घनमीटर (ग्राम दोन्द्रो, 5 किमी उत्तर पूर्व) तथा मानसून पश्चात 1546 माइक्रोग्राम/घनमीटर (गेरवाघाट, 5.1 किमी दक्षिण पश्चिम रही।

स्पष्ट है कि शीत ऋतु में अन्य ऋतुओं की तुलना में वायु में निलम्बित ठोस कणों की मात्रा अधिक रही। शीत ऋतु में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित क्षेत्रों में यह मात्रा अधिक पाई गई, जबकि ग्रीष्म ऋतु में मुख्यतः उत्तर पूर्व तथा मानसून पश्चात दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित क्षेत्रों में यह मात्रा निर्धारित सीमा से अधिक पाई गई।

सल्फर डाइऑक्साइड की सान्द्रता अधिकतम शीत ऋतु में संयंत्र के पूर्व तथा उत्तर पूर्व दिशा में स्थित क्षेत्रों में क्रमशः भद्रापारा में 71 तथा दोन्द्रो में 67 माइक्रोग्राम/घनमीटर रही। नाइट्रोजन ऑक्साइड की सान्द्रता भी इन्हीं क्षेत्रों में क्रमशः भद्रापारा में 61 तथा दोन्द्रो में 62 माइक्रोग्राम/घनमीटर रही। ग्रीष्म ऋतु में नाइट्रोजन ऑक्साइड की सान्द्रता संयंत्र के पश्चिम दिशा में स्थित क्षेत्रों दोन्द्रों में 50 तथा जमनीपाली में 61 माइक्रोग्राम/घनमीटर रही। फ्लोराइड की अधिकतम सान्द्रता (197 माइक्रोग्राम/घनमीटर) जामबहार (3 किमी उत्तर) में रही।

कोरबा क्षेत्र के जलीय संसाधनों में हसदो नदी, डेंगुर नाला, बेलगिरी नाला तथा अहिरन नदी प्रमुख है। संयंत्र से निस्सारित जल इन्हीं नालों में छोड़ा जाता है। संयंत्र हेतु जल की आवश्यकता 20,000 घनमीटर/प्रतिदिन है तथा संयंत्र से निकलने वाले दूषित जल की मात्रा 13,000 घनमीटर/प्रतिदिन है।

जल के pH मान की दृष्टि से डेंगुर तथा बेलगिरी नाले का जल प्रदूषित पाया गया, जहाँ शीत ऋतु में जल का pH मान क्रमशः 6.9 तथा 9.6 रहा।

शीत ऋतु में जल में प्रकाश अवरुद्धता का मान सर्वाधिक डेंगुर नाले (U/S of Smelter Unit Discharge point) में 700 NTU, ग्रीष्म ऋतु में 70 NTU तथा मानसून पश्चात 650 NTU आंका गया जो निर्धारित 1 NTU की सीमा से अधिक है। प्रकाश अवरुद्धता के इस अधिक मान का अन्य प्रमुख कारण म.प्र.वि.मं. के ऐश डम्प से ऐश स्लरी का बहाव भी है।

जल में कुल ठोस पदार्थ की उपस्थिति सर्वाधिक मानसून पश्चात 1152 मिग्रा/लीटर डेंगुर नाले (U/S of Smelter Unit Discharge Point) में रही, जबकि शीत ऋतु में यह मात्रा 1030 मिग्रा/लीटर रही। ग्रीष्म ऋतु में डेंगुर नाले में यह मात्रा 1010 मिग्रा/लीटर रही।

फ्लोराइड का मान शीत ऋतु में 2.9 मिग्रा/लीटर हसदो नदी में तथा ग्रीष्म ऋतु में 2.0 मिग्रा/लीटर डेंगुर नाले (D/S of Alumina Plant waste Discharge Point) में आँका गया, जो निर्धारित 2 मिग्रा/लीटर मानक सीमा से अधिक है।

भूमिगत जल के अन्तर्गत बोरवेल के जल का pH मान शीत ऋतु में 5.2 से 8.9, ग्रीष्म ऋतु में 6.0 से 8.5 तथा मानसून पश्चात 5.4 से 7.9 पाया गया। pH का यह निम्न मान उच्च लौह सान्द्रण से सम्बन्धित है। जल में फ्लोराइड का सान्द्रण शीत ऋतु में 0.1 से 2.6 मिग्रा/लीटर पाया गया। आगर खार ग्राम के हैंडपम्प के जल के नमूने में फ्लोराइड का सान्द्रण 2.6 मिग्रा/लीटर निर्धारित सीमा (2 मिग्रा/लीटर) से अधिक पाया गया।

बाल्को एल्युमिनियम संयंत्र में 900-1000 टन ठोस अपशिष्ट की मात्रा प्रतिदिन उत्पन्न होती है। जिनमें रेडमड 800-850 टन प्रतिदिन, लाइम स्लज 18-20 टन प्रतिदिन, फ्लाई एश 50-60 टन प्रतिदिन, स्पेंट कैथोड 7-10 टन प्रतिदिन, वेनेडियम स्लज 6-10 टन प्रतिदिन तथा ब्लैक मड की मात्रा 2-5 टन प्रतिदिन है।

संयंत्र द्वारा उपर्युक्त ठोस अपशिष्टों का निस्तारण विशाल लीकप्रूफ पोखरों में किया जाता है। जिनके भण्डारण से भूमिगत जल-स्रोतों के प्रदूषण की सम्भावना बनी रहती है। साथ ही भूमि का बहुत बड़ा भाग क्षारीय होने के कारण वनस्पति विहीन दिखाई देता है। भू-अवनयन एवं भूमि उपयोग की प्रमुख समस्या इन ठोस अपशिष्टों के भण्डारण के कारण उत्पन्न होती है। ताप विद्युत संयंत्रों से निकलने वाली उड़न राख (Fly Ash) एक प्रमुख अपशिष्ट है। कोरबा क्षेत्र में प्रतिदिन 12825 से 26000 टन राख उत्पन्न होती है, जो एक गम्भीर पर्यावरणीय समस्या है। उड़न राख के कणों का आकार 24.70 माइक्रोमीटर होता है। हल्की होने के कारण यह हवा के साथ आस-पास के क्षेत्रों में उड़कर वायु तथा जल को प्रदूषित कर सकती है। अधिकांश ताप विद्युत केन्द्रों द्वारा उड़न राख का अवक्षेपन गाढ़े घोल के रूप में किया जाता है। ग्रीष्म ऋतु में उड़न राख के निक्षेपण क्षेत्र की सतह सूख जाने के कारण उड़न राख द्वारा उत्पन्न वायु प्रदूषण का दुष्प्रभाव कोरबा क्षेत्र में पाया गया है। साथ ही ऐश पाण्ड में एकत्र स्लरी से जल बहाव के कारण जल प्रदूषण की समस्या बनी रहती है।

कोरबा ताप विद्युत संयंत्र (पूर्व) की प्रथम चार इकाइयों द्वारा निकलने वाले धूलकणों का स्तर 10007 से 27500 मिग्रा/घनमीटर के बीच पाया गया जो कि निर्धारित मान्य सीमाओं से बहुत अधिक है। इस विद्युत गृह के आस-पास की वायु में निलम्बित धूल कण की मात्रा 82 से 870 माइक्रोग्राम/घनमीटर तक पाई गई। हसदेव ताप विद्युत गृह के आस-पास की वायु में निलम्बित धूल कण की मात्रा 75 से 396 माइक्रोग्राम/घनमीटर आँकी गई।

कोरबा सुपर थर्मल पावर स्टेशन से 8 किमी के क्षेत्र में वायु गुणवत्ता के अन्तर्गत संयंत्र से 2.5 किमी की दूरी पर निलम्बित धूल कणों की सान्द्रता 322.80 अधिकतम तथा प्रगति नगर जो संयंत्र से 4 किमी की दूरी पर है, में धूल कणों की सान्द्रता अधिकतम 308.60 माइक्रोग्राम/घनमीटर पाई गई। आर.पी.एम. की अधिकतम सान्द्रता 138.50 माइक्रोग्राम/घनमीटर प्रगति नगर में तथा एम.जी.आर. क्षेत्र में 135.70 माइक्रोग्राम/घनमीटर रही, जबकि जमनीपाली में यह सान्द्रता 127.80 से 113.49 माइक्रोग्राम/घनमीटर के बीच पाई गई। सल्फर डाइ ऑक्साइड एवं नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा प्रगति नगर में क्रमशः 21.50 तथा 19.50 माइक्रोग्राम/घनमीटर रही।

कोरबा क्षेत्र में उपर्युक्त औद्योगिक इकाइयों द्वारा उत्पन्न ठोस अपशिष्टों से भूमि उपयोग एवं भू-अवनयन की समस्या प्रमुख है। उड़न राख के निपटान हेतु अधिक भूमि की आवश्यकता होती है, जिसमें कृषि योग्य भूमि भी सम्मिलित होती जा रही है। भूमि उपयोग से सम्बन्धित यह एक प्रमुख समस्या है।

सीमेंट संयंत्र से निकलने वाले धूल कण वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं। सीमेंट इकाइयों से धूल कण मुख्य रूप से रॉ मिल, भट्टी तथा क्लिंकर कूलर इत्यादि से निष्कासित होते हैं। सीमेंट कार्पोरेशन ऑफ इंडिया, अकलतरा में निलम्बित धूल कण का स्तर शीत ऋतु में 176-1311 माइक्रोग्राम/घनमीटर, ग्रीष्म ऋतु में 337-696 माइक्रोग्राम/घनमीटर पाया गया, जो निर्धारित मानकों से कहीं अधिक है।

रायपुर जिले में स्थित ग्रासिम सीमेंट संयंत्र के वायु गुणवत्ता के आँकड़ों के अनुसार संयंत्र के आस-पास के क्षेत्र में धूल कणों का स्तर 81.7 से 280.3 माइक्रोग्राम/घनमीटर रहा। ग्राम गुमा जो कि संयंत्र से 7 किमी पूर्व उत्तर पूर्व में स्थित है, में अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा धूल कणों की सान्द्रता अधिक (280.3 माइक्रोग्राम/घनमीटर) रही। इस अधिकतम मात्रा का प्रमुख कारण वायु के बहाव की दिशा भी है। वायु के बहाव की दिशा सामान्यतः दक्षिण-पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर होती है। ग्राम सुहेला (संयंत्र से 6 किमी उत्तर) में धूलकणों की सान्द्रता 105.6 से 228.7 माइक्रोग्राम/घनमीटर तथा दक्षिण-दक्षिण पूर्व दिशा में 5 किमी की दूरी पर स्थित ग्राम फुंडराडीह में धूल कणों की सान्द्रता 85.7 से 268.7 माइक्रोग्राम/घनमीटर पाई गई।

मोनेट इस्पात संयंत्र (स्पंज आयरन) रायपुर से 17 किमी की दूरी पर दक्षिण में ग्राम कुरुंद मन्दिर हसौद में स्थापित है। इस क्षेत्र में मन्दिर हसौद ग्राम जो कि संयंत्र से 2 किमी की दूर पर दक्षिण दिशा में है, में ग्रीष्म ऋतु में वायु में निलम्बित धूल कणों की मात्रा 398 माइक्रोग्राम/घनमीटर पायी गई। मन्दिर हसौद चौक जो कि राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 6 पर स्थित है, यहाँ वायु में धूल कणों का स्तर सर्वाधिक 1045 माइक्रोग्राम/घनमीटर रहा, जो कि निर्धारित मानक से कहीं अधिक है।

जल गुणवत्ता के अन्तर्गत मन्दिर हसौद में स्थापित बोरवेल के जल का pH मान 7.7 से 8.2 रहा, जिसमें ग्रीष्म ऋतु में pH मान अन्य ऋतुओं की अपेक्षा अधिक (8.2) रहा। कैल्शियम की कठोरता निर्धारित मानक सीमा (75 मिग्रा/ली) से अधिक ग्रीष्म ऋतु में 94, शीत ऋतु में 92 तथा मानसून एवं मानसून पश्चात क्रमशः 85 तथा 88 मिग्रा/ली पायी गई। जल में क्षारीयता का मान निर्धारित मानक सीमा (200 मिग्रा/ली) से अधिक ग्रीष्म ऋतु में 208 मिग्रा/ली रहा। मैग्नीशियम कठोरता निर्धारित मानक सीमा (30 मिग्रा/ली) से अधिक ग्रीष्म ऋतु में 324 तथा शीत ऋतु में 310 मिग्रा/लीटर पाया गया। जल में लोहे की मात्रा 1.90 मिग्रा/ली ग्रीष्म ऋतु में पायी गई, जो निर्धारित मानक 0.3 मिग्रा/ली से अधिक है।

मन्दिर हसौद क्षेत्र में स्थित तालाब के जल का pH मान ग्रीष्म ऋतु में 7.95 रहा, जो कि अन्य ऋतुओं की अपेक्षा अधिक है। जल में कैल्शियम की कठोरता सर्वाधिक 191 मिग्रा/ली ग्रीष्म में तथा मानसून में 127 मिग्रा/ली रही जो निर्धारित मानक सीमा से कहीं अधिक है। मैग्नीशियम कठोरता का मान निर्धारित सीमा (30 मिग्रा/ली) से अधिक मानसून में 172 तथा ग्रीष्म ऋतु में 266 मिग्रा/ली रहा। जल अवरुद्धता का मान मानसून में सबसे अधिक 60 तथा ग्रीष्म ऋतु में 30 NTU रहा। स्पष्ट है कि बोरवेल तथा तालाब के जल में रासायनिक तत्वों की अधिकता पाई गई।

रायपुर जिले के औद्योगिक क्षेत्र भनपुरी की औद्योगिक इकाइयों द्वारा निस्सारित दूषित जल के परिणामस्वरूप नलकूप तथा तालाब का जल प्रदूषित हो गया है तथा इस जल में अत्यधिक मात्रा में रासायनिक तत्व पाए गए हैं। नलकूप के जल की कठोरता 2.5 से 3 NTU पाई गई। आर्सेनिक कैल्शियम कार्बोनेट की मात्रा निर्धारित सीमा (200 मिग्रा/ली) से अधिक 2240 मिग्रा/ली नलकूप के जल में तथा तालाब के जल में 420 मिग्रा/ली पाई गई। मैग्नीशियम की कठोरता भी निर्धारित सीमा (30 मिग्रा/ली) से अधिक 52 से 1372 मिग्रा/ली पाई गई। क्लोराइड की मात्रा 240 से 2736 मिग्रा/लीटर (निर्धारित सीमा 200 मिग्रा/लीटर), सल्फेट की मात्रा तालाब के जल में 259 तथा नलकूप के जल में 240 मिग्रा/ली (निर्धारित सीमा 200 मिग्रा/ली) रही। स्पष्ट है कि भनपुरी औद्योगिक क्षेत्र में नलकूप तथा तालाब का जल अत्यधिक दूषित तथा रासायनिक तत्वों से युक्त पाया गया है।

भिलाई इस्पात संयंत्र से तीन किमी के क्षेत्र में निलम्बित धूल-कणों की सान्द्रता 490 से 530 माइक्रोग्राम/घनमीटर तथा 5 किमी क्षेत्र में 900 से 1200 माइक्रोग्राम/घनमीटर के बीच पाई गई। संयंत्र की परिधि में सबसे अधिक धूल कणों की सान्द्रता 6223 माइक्रोग्राम/घनमीटर रिफैक्टरी मैटीरियल संयंत्र के प्रवेश द्वार के पास एवं 5435 माइक्रोग्राम/घनमीटर सिंटर संयंत्र 1 के उत्तर में आँकी गई।

पर्यावरण प्रदूषण के फलस्वरूप मानवीय स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है। कोरबा एवं गेवरा तथा मन्दिर हसौद क्षेत्र में कोयले की धूल एवं धुएँ का प्रभाव सम्पूर्ण क्षेत्र में देखा गया तथा वहाँ के निवासियों में आँखों में जलन, दमा तथा अस्थमा की शिकायतें पाई गई। जल प्रदूषण के दुष्प्रभाव के अन्तर्गत डेंगुर नाले के जल का उपयोग करने वाले मनुष्यों में बाल झड़ने की समस्या देखी गई। इसी प्रकार भनपुरी के निवासियों में नलकूप के प्रदूषित जल से त्वचा में जलन तथा त्वचा का लाल होना जैसी समस्याएँ पाई गई।

प्रत्येक क्षेत्र की आर्थिक, भौतिक तथा सामाजिक विशेषताएँ होती हैं, जिनमें पाए जाने वाले नकारात्मक घटक औद्योगिक विकास की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करते हैं। प्रदेश में आदिवासी बाहुल्य तथा शिक्षा के स्तर में कमी औद्योगिक विकास में प्रमुख बाधा दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त परिवहन साधनों का अभाव औद्योगिक विकास में प्रमुख बाधा है। प्रदेश के दुर्गम एवं दूरस्थ क्षेत्रों में रेल साधनों के साथ-ही-साथ सड़कें भी अपर्याप्त हैं, जो उद्योगों के विकास में प्रमुख बाधा है। इन समस्याओं के अतिरिक्त बिजली की अपर्याप्त आपूर्ति तथा बढ़ी हुई दरें उद्योगों की एक प्रमुख समस्या रही है।

औद्योगिक विकास हेतु आवश्यक है कि उद्योगों की स्थापना ऐसे स्थलों पर की जाए, जहाँ से इन्हें समुचित मात्रा में कच्चे पदार्थ, श्रम की उपलब्धता, बाजार तथा आवागमन के साधनों की प्राप्ति सुनिश्चित हो सके। औद्योगिक विकास की दृष्टि से पिछड़े हुए क्षेत्रों के औद्योगिक रूप से पिछड़े होने के प्रमुख कारणों में औद्योगिक अधोसंरचना का अभाव, अविकसित बाजार तथा कुशल श्रम शक्ति का अभाव तथा अपर्याप्त परिवहन साधन हैं। इन पिछड़े जिलों में कृषि पर आधारित उद्योगों के अन्तर्गत राइस मिल तेल मिल, वन संसाधनों पर आधारित बीड़ी निर्माण इकाइयाँ, प्लाईवुड उद्योग तथा खनिज पर आधारित उद्योगों के अन्तर्गत इस्पात संयंत्र, रोलिंग मिल, ग्रेनाइट पॉलिशिंग तथा सीमेंट उद्योग इत्यादि उद्योगों की सम्भावनाएँ हैं। साथ ही हथकरघा एवं खादी व रेशम उत्पादन हेतु भी इन जिलों में अनुकूल वातावरण है।

इसके अतिरिक्त खनिज संसाधन से सम्पन्न (मुख्यतः चूना पत्थर) इस क्षेत्र में सीमेंट उद्योग के विकास की भी अच्छी सम्भावनाएँ हैं। कृषि, वनोपज एवं खनिज आधारित इन उद्योगों के विकास के लिये आवश्यक है कि प्रदेश में आधारभूत सुविधाएँ जैसे सड़क तथा विद्युत की सुलभ आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। (औद्योगिक विकास में वृद्धि के साथ ही आवश्यक है, कि पर्यावरण सन्तुलन तथा औद्योगिक विकास में सामंजस्य स्थापित किया जाए जिसके लिये आवश्यक होगा कि प्राकृतिक संसाधनों का सीमित एवं नियमित दोहन, अपशिष्टों का पुनः उपयोग तथा उत्पादन की उचित तकनीक एवं उद्योगों द्वारा होने वाले पर्यावरण प्रदूषण को रोकने हेतु उचित प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जाए।


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