दीर्घावधिक कार्यक्रम

भूमि सुधार कार्यक्रमों के अभाव में भूमिहीन मजदूरों की एक बड़ी जमात तैयार हो गई है। बाहर जाकर कमाये बिना इस क्षेत्र के लोगों की गति नहीं है और यही कारण है कि इस इलाके से बड़ी मात्रा में मजदूर दिल्ली, पंजाब, हरयाणा, गुजरात, महाराष्ट्र यहाँ तक कि आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु तक जाने लगे हैं। इस समस्या का समाधान कोई भी राहत कार्यक्रम या आपदा प्रबन्धन नहीं कर सकता। हमारी मुख्य समस्या रोटी, कपड़ा और मकान की है और बाढ़ अक्सर रोटी और मकान पर तो आफत डाल ही देती है। तन पर केवल कपड़ा बाकी रहता है, बाकी सब चला जाता है। क्या हम कभी सोचते हैं कि तीन मीटर चार मीटर आकार की एक झोपड़ी बनाने में कितना खर्च होता होगा? अगर ठीक से बांस, लकड़ी, छप्पर, छानी, खिड़की और दरवाजे का हिसाब किया जाय तो यह एक साधारण आदमी की सालाना बचत के बराबर बैठेगा। यह बचत भी उसकी तब होगी जब वह शहर में जाकर कमायेगा, स्थानीय कमाई से इसकी कोई संभावना नहीं बनती। यानी अगर परिवार के अन्य लोगों के सिर पर छप्पर की भी छत चाहिये तो घर का एक जवान बाहर कहीं शहर में जाकर रहेगा। और अगर परिवार के पास एक एकड़ जमीन है तो उस पर खाद, बीज, दवा, सिंचाई और मेहनत-मजदूरी में जितना पैसा लगेगा वह परिवार के दूसरे सदस्य को मजबूर करेगा कि वह बाहर जाकर कमाये।

अब इतनी भी जमीन बहुत कम ही परिवारों के पास बची है। भूमि सुधार कार्यक्रमों के अभाव में भूमिहीन मजदूरों की एक बड़ी जमात तैयार हो गई है। बाहर जाकर कमाये बिना इस क्षेत्र के लोगों की गति नहीं है और यही कारण है कि इस इलाके से बड़ी मात्रा में मजदूर दिल्ली, पंजाब, हरयाणा, गुजरात, महाराष्ट्र यहाँ तक कि आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु तक जाने लगे हैं। इस समस्या का समाधान कोई भी राहत कार्यक्रम या आपदा प्रबन्धन नहीं कर सकता। उधर सरकार यह मानती है कि इस समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि नेपाल में नदियों पर उस जगह बांध बना दिये जायें जहाँ यह नदियाँ पहाड़ों से मैदानों में उतरती हैं। सरकारों और राजनैतिक पार्टियों के दिमाग में तो कोसी पर प्रस्तावित बराहक्षेत्र बांध इस तरह घुसा हुआ है कि अगर गंडक, कमला या महानन्दा जैसी नदियों के क्षेत्र में बाढ़ आती है तब भी वह कोसी के बराहक्षेत्र बांध की बात करती हैं।

बिहार में 2004 की बाढ़ मुख्यतः कमला, बागमती, अधवारा समूह और बूढ़ी गंडक जैसी नदियों के कारण आई थी जिसे अब तक की सबसे भयंकर बाढ़ बताने में सरकार ने एड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया। इस साल कोसी शांत थी मगर बराहक्षेत्र बांध की फिर भी तूती बोलती थी। नेपाल में इस बांध के अध्ययन के लिए पैसा देने का दावा भी इसी साल किया गया। अब बागमती, गंडक, कमला या महानन्दा का बराहक्षेत्र बांध से क्या लेना देना है, यह तो नेतागण और सरकार जाने पर इतना जरूर है कि लोग अगर जागरूक होते तो नेताओं को जनता को बरगलाना कितना मुश्किल होता?

इसके पहले कि हम इन प्रस्तावित बांधों पर विश्वास करके उनके निर्माण की दिशा में कदम उठायें, क्या यह जरूरी नहीं है कि हम पहले अपनी उन परियोजनाओं का जायजा ले लें जो कि हमने जल-संसाधनों के विकास के लिए बनाई थीं? क्या हम जानना नहीं चाहेंगे कि इन परियोजनाओं में किस हद तक कथित उद्देश्यों की पूर्ति हुई या नहीं हुई? ऐसा अगर हो सके तो लोग स्वयं इन योजनाओं के प्रति अपना मन बना सकेंगे। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस तरह की रिपोर्ट सम्बद्ध विभाग हर साल बनाते हैं मगर उन्हें कभी आम जनता के लिए जारी नहीं करते और न ही उनसे कोई सबक लेते हैं। इन रिपोर्टों में असफलता तो साफ झलकती है मगर उसके लिए जिम्मेवार कौन है उस पर एकदम खामोशी रहती है। यह जरूरी है कि जनता से किये गये वायदों को पिछली उपलब्धियों के सन्दर्भ में देखा जाये, मगर, दुर्भाग्यवश ऐसा कभी हो नहीं पाता है।

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