दिशाहीनता का खामियाजा

11 Jan 2015
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सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र ने माना कि पिछले साल केदारघाटी में आई भारी तबाही की एक वजह नदियों पर बने बाँध हैं। इससे कोर्ट ने उन्हें बिना सोचे-समझे मंजूरी देने वालों के विरुद्ध कार्रवाई की उम्मीद की है। लिहाजा, केन्द्र और राज्य दोनों में खलबली है। सवाल यह भी है कि पनबिजली योजनाओं के बूते ऊर्जा राज्य के सपने का क्या होगा? उत्तराखण्ड का भविष्य एक बार फिर चौराहे पर खड़ा दिखाई दे रहा है। पिछले चौदह साल से उत्तराखण्ड पावर स्टेट होने का जो सपना देख रहा था, दिशाहीन नीति की वजह से वह धुँधला हो रहा है। राज्य गठन के रोज से हुक्मरानों ने सूबे की नदियों में बह रहे पानी को पॉवर में बदल डालने के दावे ठोंके थे। बड़ी-बड़ी बातें की गई। एक दशक में उत्तराखण्ड को आत्मनिर्भर बना डालने की दलीलें पेश की गई। मगर समृद्धि की इबारत जिन हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्टों पर लिखी जा रही थी, उनके अब रेत के महल की तरह से ढह जाने का खतरा पैदा हो गया है।

उत्तराखण्ड में ज्ञात इतिहास की भीषणतम् त्रासदियों में एक जून 2013 की आपदा ने समूचे राष्ट्र को बुरी तरह से झकझोर डाला था। देश और दुनिया को उन कारणों की पड़ताल के लिए मजबूर कर डाला था कि आखिर इस भीषण आपदा की मारकता को बढ़ाने का गुनाहगार कौन है? देश की सर्वोच्च अदालत में मुकदमा चल रहा है।

उत्तराखण्ड से लेकर केन्द्र सरकार तक के वे तमाम नीति नियामक कठघरे में हैं जिन्होंने उत्तराखण्ड के गंगा-यमुना और अलकनन्दा घाटी क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी दी। अदालत पूछ रही है कि अगर परियोजनाओं से पर्यावरण को क्षति पहुँची है, तो इन्हें मंजूरी देने वालों के खिलाफ क्या कार्रवाई होने जा रही है? मगर इन सवालों के बीच उत्तराखण्ड का भविष्य एक बार फिर चौराहे पर खड़ा दिखाई दे रहा है। ये सवाल शिद्दत से तैर रहा है कि अब ऊर्जा राज्य के सपने का क्या होगा?

वैसे देश की ऊर्जा जरूरतों की चिन्ता सुप्रीम कोर्ट को भी है और वह कई बार अपनी इस चिन्ता को जाहिर भी कर चुका है। न्यायालय ये भी मानता है कि जल विद्युत् परियोजनाएँ बिजली उत्पादन का सबसे सस्ता माध्यम है। यही धारणा राज्य गठन के दिन से ही उत्तराखण्ड सरकार की भी रही है। इसलिए पूर्व मुख्यमन्त्री एन डी तिवारी ने पनबिजली परियोजनाओं पर फोकस किया और सभी मुख्यमन्त्रियों ने अपनी-अपनी सोच और दृष्टी के आधार पर इन्हें आगे बढ़ाने का प्रयास किया।

बेशक यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि राज्य गठन के बाद से उत्तराखण्ड सरकार अपने दम पर एक मेगावाट बिजली का उत्पादन क्यों नहीं कर पाई है? क्योंकि पिछले 14 सालों में बिजली का जो उत्पादन बढ़ा है उसमें अविभाजित यूपी के जमाने से निर्माणाधीन प्रोजेक्टों और सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली परियोजनाओं में राज्य की हिस्सेदारी का योगदान है। लेकिन बड़ा सवाल ऊर्जा राज्य के उस सपने का है, जिसे सूबे के हुक्मरान और नीति-नियन्ता आज तक दिखाते आए हैं।

एक मोटे अनुमान के अनुसार उत्तराखण्ड की करीब 17 प्रमुख नदियों में 500 से ज्यादा बड़ी, मध्यम और छोटी पनबिजली परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं। इनमें से कुछ परियोजनाओं पर काम चल भी रहा है। इन परियोजनाओं के पूरा होने पर राज्य को करीब तीन से चार हजार मेगावाट बिजली का इज़ाफा हो सकता है। ये आँकड़ा राज्य की ऊर्जा ज़रूरतों से कहीं ज्यादा है। लाज़िमी है कि अतिरिक्त ऊर्जा की खपत देश के दूसरे राज्यों में होगी।

बदले में राज्य को आमदनी होगी। यही सम्भावित आमदनी उत्तराखण्ड को आत्मनिर्भरता की राह पर ले जाएगी। ये सपना उत्तराखण्ड के हुक्मरानों द्वारा आज तक दिखाया जा रहा है। मगर जून 2013 में आई भीषण बाढ़ ने इन बिजली प्रोजेक्टों के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है। आपदा से हुई बेतहाशा क्षति के बाद बिजली प्रोजेक्टों के विरोध में स्वयंसेवी संस्थाओं के मंचों पर चल रही बहस हरेक की जुबां पर तैरने लगी।

आपदा के तीन महीने के भीतर 13 अगस्त, 2013 को सुप्रीम कोर्ट में श्रीनगर गढ़वाल स्थित अलकनन्दा हाइड्रो पॉवर कम्पनी लिमिटेड के खिलाफ अनुज जोशी सुप्रीम कोर्ट पहुँचे। जोशी ने अलकनन्दा नदी में बाढ़ से श्रीनगर गढ़वाल में जो तबाही मची, उसके लिए जीवीके की पनबिजली परियोजना को जिम्मेदार ठहराया। न्यायालय ने रवि चोपड़ा समिति बनाई और उससे गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन रही पनबिजली परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की रिपोर्ट माँगी।

जानकारों की मानें तो वन मन्त्रालय को जब ये आभास हुआ कि यह समिति कुछ सख्त सिफारिशें कर सकती है तो उसने एक नई समिति बनाई। सर्वोच्च न्यायालय में रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट 28 अप्रैल, 2014 को दाखिल हुई। मन्त्रालय ने दूसरी समिति की भी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की।

अब इसके बाद विभिन्न बाँध कम्पनियों ने भी उसमें अपनी याचिका दायर की इस मामले में कोर्ट को मन्त्रालय के सुस्त रुख पर कुम्भकर्ण सरीखी उपमा देनी पड़ी। कोर्ट ने पर्यावरण के जानकार प्रो. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित करने को कहा। इस कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट को जो रिपोर्ट सौंपी उसमें 24 पनबिजली परियोजनाओं को आपदा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया और उन पर तत्काल रोक लगाने की अनुशंसा की गई।

कोर्ट ने इन परियोजनाओं पर रोक लगा दी। तब से ये मामला कोर्ट में विचाराधीन है। नौ दिसम्बर से कोर्ट इस मामले की विवेचना कर रहा है। इस पूरे मामले में अभी तक केन्द्र सरकार परियोजनाओं के पक्ष में दिखाई दे रही थी। उसकी रिपोर्ट इस बात का आभास दे रही थी। लेकिन पिछले तीन दिनों के दौरान सरकार, गजब का यूटर्न लिया है। कोर्ट में हलफनामा देकर केन्द्र ने मान लिया है कि उत्तराखण्ड में आई आपदा में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पनबिजली परियोजनाओं का भी हाथ है।

केन्द्र की स्वीकारोक्ती के बाद कोर्ट ने स्पष्टतः यह जानना चाहा कि वास्तव में बिजली परियोजनाएँ जिम्मेदार हैं की नहीं। इस पर भी केन्द्र ने हामी भर दी। अब कोर्ट ने उन गुनाहगारों के खिलाफ कार्रवाई की अपेक्षा की है जिन्होंने इन परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान की। लाजिमी है कि कोर्ट के कड़े रुख से केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय में खलबली मची होगी। जाहिर है, इसका असर उत्तराखण्ड में भी दिखाई देगा।

मगर उत्तराखण्ड के सामने सबसे बड़ी पहेली उन जल विद्युत परियोजनाओं के भविष्य से जुड़ी है, जिन्हें धरातल पर उतारने के लिए राज्य का जल विद्युत निगम पूरी तरह से कमर कस चुका है। कई मध्यम और छोटी परियोजनाओं की निविदाएँ बुलाए जाने की तैयारी भी चल रही है। राज्य के पॉवर सेक्टर का भविष्य और दिशा दोनों ही अब कोर्ट के अन्तिम रुख पर टिकी है और जब तक यह निर्णय मुकाम तक नहीं पहुँचता तब तक ऊहापोह की स्थिति बनी रहेगी।

इसका अन्दाजा मुख्यमन्त्री हरीश रावत की तात्कालिक प्रतिक्रिया से लगाया जा सकता है। परियोजनाओं को लेकर केन्द्र सरकार के रवैए से मुख्यमन्त्री क्षुब्ध हैं। उन्होंने इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है। हरीश रावत कहते है, “उत्तराखण्ड का पर्यावरण के क्षेत्र में अहम् योगदान है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ फारेस्ट मैनेजमेंट के अध्ययन के मुताबिक, उत्तराखण्ड अपने वनों से देश को सालाना 1,61,921 करोड़ रूपए की प्रत्यक्ष और परोक्ष इको-सिस्टम सेवाएँ प्रदान कर रहा है। इस लिहाज से उत्तराखण्ड के पर्यावरणीय योगदान को खारिज नहीं किया जा सकता।” वह राज्य के हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्टों पर रोक लगाए जाने से भी व्यथित हैं।

उनका कहना है कि प्रोजेक्टों पर रोक लगाए जाने से राज्य को सालाना 1800 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। मुख्यमन्त्री का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है। उन्हें राज्य चालाना है और राज्य करीब तीस हजार करोड़ रुपए कर्ज में डूबा है। कर्ज से उबारने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए मुख्यमन्त्री आय के नए संसाधनों पर फोकस कर रहे हैं और इसके लिए उन्होंने पूर्व मुख्य सचिव इन्दु कुमार पाण्डेय की अध्यक्षता में रिसोर्स मोबलाइजेशन कमेटी बना रखी है।

जाहिर है इस कमेटी की निगाह में पॉवर सेक्टर आय का एक बड़ा स्रोत है। मगर इस स्रोत पर ही सवालिया निशान लग जाने के बाद अब कमेटी को भी इस सेक्टर से सम्भावित आय के आकलन पर पुनर्विचार करना पद सकता है।

गुनाहगार तो यहाँ भी कम नहीं


सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर उत्तराखण्ड की बिजली परियोजनाओं को आपदा के लिए गुनाहगार ठहराने वाली केन्द्र सरकार अब अपने ही बुने जाल में फँसती नजर आ रही है। कोर्ट ने उसे ऐसी फटकार लगाई कि जब वह मान रही है कि आपदा के लिए बिजली प्रोजेक्ट जिम्मेदार हैं तो अव्वल तो उन्हें पर्यावरण मंजूरी क्यों मिली?

अगर मंजूरी मिली तो उसने सब कुछ जानने के बाद उन्हें निरस्त क्यों नहीं किया? यही नहीं कोर्ट ने उन अफसरों के खिलाफ कार्रवाई के बारे में भी जानना चाहा जिन्होंने प्रोजेक्टों को मंजूरी प्रदान की। यही वह कड़ी है जिसकी लापरवाही की वजह से उत्तराखण्ड में कतिपय पावर प्रोजेक्ट एटम बम सरीखे खतरनाक हो चुके हैं। प्रोजेक्टों की पर्यावरणीय स्वीकृतियों में किस तरह के खेल हो जाते हैं, इसकी एक मिसाल हिमाचल प्रदेश में तब सामने आई जब हाईकोर्ट में जेपी ग्रुप के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर हुई।

जेपी एसोसिएट्स अलग-अलग परियोजनाओं, हाइड्रो पावर में 1,700 मेगावाट और थर्मल पवार में 5,120 मेगावाट के लिए निर्माण कर रहा है। सीमेण्ट उत्पादन में देश में इसका चौथा स्थान है। हाईकोर्ट ने यह फैसला जेपी ग्रुप द्वारा सोलन स्थित सीमेण्ट प्लांट के लिए पर्यावरण सम्बन्धी कोई भी क्लियरेंस यह कहते हुए नहीं लिया था कि इस प्लांट में 100 करोड़ से कम निवेश है, जबकि क्लियरेंस की जरूरत 100 करोड़ से ऊपर के निवेश में पड़ती है।

इस सन्दर्भ में जेपी की ओर से एक फर्जी शपथपत्र भी दायर किया गया था। लेकिन याचिकाकर्ताओं ने यह साबित कर दिया कि यह प्लांट 400 करोड़ का है। हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट की ग्रीन बेंच ने जेपी को फटकार लगाते हुए उस पर 100 करोड़ का हर्जाना भरने का आदेश दिया। कोर्ट ने सोलन में स्थित जेपी के थर्मल पावर प्लांट को अगले तीन महीनों में बन्द कर देने के आदेश दिए हैं, क्योंकि यह भी बिना पर्यावरणीय क्लियरेंस के बनाया गया है। निजी कम्पनियों के लिए इस तरह की धोखेबाजी आम बात है।

इस फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा है कि इतनी बड़ी अनियमितता बिना प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत के सम्भव नहीं हो सकती। कोर्ट ने इसकी जाँच के लिए एक विशिष्ट जाँच दल (एसआईटी) भी बिठाया है। देशभर में बाँध परियोजनाएँ ऐसी ही धोखेबाज कम्पनियों के हाथों में हैं, जो शासन और प्रशासन के लोगों को खरीद कर बिना किसी सामाजिक और पर्यावरणीय सरोकारों के प्राकृतिक संसाधनों को सिर्फ अपने मुनाफे के लिए बुरी तरह लूट रही हैं और इससे उत्तराखण्ड भी अछूता नहीं है।

जहाँ 2010 में 56 प्रोजेक्टों का आबण्टन आँख मूँदकर कर दिया गया और जब भाण्डा फूटा तो उतनी ही चतुराई से ये सारी निविदाएँ एक झटके में रद्द कर दी गईं। मजेदार बात यह है कि प्रोजेक्ट उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम की हो या भारत सरकार के किसी सार्वजनिक उपक्रम की या फिर निजी कम्पनी की, पर्यावरणीय मानकों को सख्ताई से लागू कराने के मामले में राज्य व केन्द्र सरकार का रुख नदी की धारा की तरह बलखाता रहा है।

कभी पर्यावरण मन्त्रालय सख्त रुख अख्तियार कर लेता है और फिर अचानक उसका रवैया नरम पड़ जाता है। जानकारों की मानें तो सरकारी तन्त्र अगर चौकस रहे और मानकों को कड़ाई से लागू कराए तो पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को नियन्त्रित किया जा सकता है। लेकिन प्रोजेक्टों को मंजूरी देने के बाद प्रशासन परियोजना प्रबन्धन के पक्ष में खड़ा हो जाता है और पर्यावरणीय सरोकारों की आवाजें दबाने के प्रयास शुरू हो जाते हैं। इस गुनाह को अंजाम देने वाले उत्तराखण्ड सरकार में कम नहीं हैं।

क्या अब इस विकल्प पर आना होगा?


पनबिजली परियोजनाएँ बेशक सस्ता सौदा हैं, मगर आरम्भ से ही ये आशंकाएँ जताई जाती रही हैं कि पर्यावरण पर इसका बुरा असर पड़ेगा। यही वजह है कि अब छोटी पनबिजली परियोजनाओं की वकालत हो रही है। उत्तराखण्ड सरकार छोटे प्रोजेक्टों के लिए बाक़ायदा नीति का एलान कर चुकी है, जिसमें स्थानीय लोगों की सहभागिता सुनिश्चित कर बिजली उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। जन भागीदारी से छोटी जल विद्युत् परियोजनाएँ बनाने की कोशिश शुरू हो चुकी है।

इन प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए एक बजट मॉडल भी विकसित हुआ है, जिसके अनुसार एक मेगावाट की जल विद्युत परियोजना की लागत 4 करोड़ रुपए होगी। इस धन को आसपास के गाँवों के 200 लोगों की प्रोड्यूसर्स कम्पनी बनाकर बैंक लोन से जुटाया जाएगा।

बजट के अनुसार एक मेगावाट की विद्युत इकाई से यदि सिर्फ 800 किलोवाट विद्युत का उत्पादन भी होता है तो वर्तमान बिजली के रेट 3.90 रुपया प्रति यूनिट के हिसाब से एक घण्टे में 3120 रुपए, 24 घण्टे में 74,880 रुपए और एक माह में 22,46,400 रुपए की आमदनी होगी। साल भर में 2,69,56,800 रूपए की आमदनी हो जाएगी।

ऋण की किस्त 4 लाख प्रति माह भरने के अलावा, परियोजना के 10 से 15 लोगों के स्टाफ की 3.25 लाख प्रति माह तनख्वाह, मेंटेनेंस के 2.50 लाख के बाद 200 शेयरधारकों को 5,000 से 8,000 रुपया प्रति माह शुद्ध लाभ होगा। इस कमाई से इन गाँवों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सकती है। ये गाँव स्वावलम्बी बन सकते हैं। पहाड़ी गाँवों में यदि इस तरह की परियोजनाएँ जनसहभागिता से स्थापित हो जाएँ तो यह विकास का टिकाऊ तरीका हो सकता है।

अब इस पानी का क्या करेंगे


देहरादून देश की सर्वोच्च अदालत में केन्द्र सरकार ने हलफनामा देकर स्वीकार कर लिया है कि उत्तराखण्ड में आई आपदा के लिए राज्य में निर्माणाधीन जल विद्युत् परियोजनाएँ प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जिम्मेदार रही हैं। केन्द्र की इस स्वीकारोक्ति के बाद सबसे बड़ा धक्का उत्तराखण्ड की उन जल विद्युत परियोजनाओं को लगा है जिन पर पर्यावरण की तलवार लटकी है।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गठित कमेटी ने निर्माणाधीन व प्रस्तावित 24 प्रोजेक्टों पर तत्काल रोक लगाने की सिफारिश कर दी थी। उसी दिन से ये सवाल खड़ा हो गया था कि उत्तराखण्ड की करीब 2200 से 2500 मेगावाट की प्रस्तावित बिजली परियोजनाओं के भाग्य का क्या होगा? अब जबकि केन्द्र सरकार ने भी कमेटी की सिफारिश पर अपनी मुहर लगा दी है, तो ये बात काफी हद तक साफ हो गई है कि उत्तराखण्ड में बिजली परियोजनाओं का भाग्य अब नए सिरे से लिखा जाएगा।

निसन्देह इस तथ्य को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों में जहाँ-जहाँ भी आपदा ने कहर ढाया, वहाँ-वहाँ बिजली परियोजनाएँ निर्माणाधीन हैं। चाहे वो उत्तरकाशी हो या श्रीनगर, गढ़वाल या फिर पिथौरागढ़। पर बड़ा सवाल उत्तराखण्ड के उस पानी का है, जिसे पॉवर में बदलने के बड़े-बड़े सपने दिखाए गए।

आखिर इस पानी का उत्तराखण्ड करे तो क्या करे। एक बार फिर कवि अतुल शर्मा की कविता की ये लाइन मौजूं हो जाती हैं कि नदी पास-पास हैं मगर ये पानी दूर-दूर क्यों? टोंस, यमुना, भागीरथी, अलकनन्दा, नयार, कोसी, सरयू, रामगंगा, और काली उत्तराखण्ड की नौ प्रमुख नदियाँ हैं। ये वे नदियाँ हैं जिन पर तीन हजार मेगावाट से अधिक क्षमता की बिजली परियोजनाएँ या तो उत्पादन कर रही हैं या फिर निर्माणाधीन हैं।

डॉ. भगवती प्रसाद पुरोहित की पुस्तक उत्तराखण्ड जल प्रबन्धन में दर्ज आँकड़ों पर गौर करें तो इन सभी नदियों की कुल वार्षिक जल प्रवाह क्षमता 3208.3 करोड़ घनमीटर है। इनमें सबसे अधिक 534.2 करोड़ घनमीटर क्षमता अलकनन्दा नदी की है, जबकि सबसे कम 97.2 करोड़ घनमीटर क्षमता रामगंगा की है। यानी सूबे की ये नदियाँ पानी से लबालब हैं। इसलिए राज्य में जितनी भी सरकारें रहीं, सभी का जोर पहाड़ के पानी को पॉवर में बदल देने पर रहा। मगर बड़ी-बड़ी बातें तो हुईं, लेकिन ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जा सकी जो इस पानी का बड़े संसाधन के रूप में दोहन में मददगार होती।

सरकारों ने आँख बन्द करके बिजली परियोजनाएँ बनाने के प्लान बना डाले। कई योजनाओं पर काम भी शुरू हुआ कई प्रोजेक्टों पर सैकड़ों करोड़ रुपए का निवेश तक हो चुका है। मगर अब 14 साल बाद जाकर ये मालूम हो रहा है कि पानी को संसाधन बनाने का जो तरीका सरकार अपना रही है, वो ‘फुल-प्रूफ’ नहीं है। राज्य में आई आपदा के लिए वो सबसे बड़ी गुनाहगार है। उसी की वजह से आपदा कहर बनकर टूटी। ये बात सही है भी।

उत्तरकाशी, श्रीनगर गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग के इलाकों में बरपा आपदा का कहर इसका प्रमाण हैं। लेकिन अब बड़ा प्रश्न यह है कि उत्तराखण्ड कि बिजली परियोजनाओं का क्या होगा? ये प्रोजेक्ट बनेंगे या नहीं? क्या उत्तराखण्ड का पॉवर स्टेट बनने का सपना टूट जाएगा? आखिर नदियों में बह रहे हजारों करोड़ों घनमीटर पानी का वह क्या करेगा? जाहिर है कि ये सवाल उत्तराखण्ड सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती है? क्या सरकार नए विकल्प तलाशेगी या फिर हाथ खड़े कर देगी? अब ये बात साफ हो चुकी है कि पर्यावरण की कीमत पर बिजली परियोजनाओं की राह नहीं खुलेगी।

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