दर्द-ए-गंगा
28 December 2013


नदियाँ भारतीय संस्कृति के जन-जीवन का एक अहम हिस्सा है। भारत में अंधाधुंध विकास तथा शहरीकरण ने पर्यावरण को नष्ट कर दिया है। जहां एक ओर नदियों, नालों, तालाबों जैसे जल स्रोतों को कांट-छांट कर परिवर्तित कर दिया गया वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में वनों, जंगलों का काटना, निरंतर पिघलते ग्लेशियर, घटती पर्वत श्रृंखलाओं की जगह कंकरीट की बड़ी-बड़ी इमारतों ने ले ली है।


अंधाधुंध भौतिकतावाद की होड़ में फंसे मानव ने नदियों को अपने जीवन से बेदखल कर दिया है जिसके कारण नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। सच तो यह है कि हमने अपनी जीवनदायिनी नदियों को वह सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हकदार थीं। देखा जाए तो दुनिया की प्रत्येक सभ्यता का जन्म किसी नदी के गर्भ से ही हुआ है।


मनुष्य ने अपने स्वार्थ के कारण नदियों के किनारे ही बड़े-बड़े उद्योग स्थापित कर दिए, जिसके कारण एक ओर नदियों का क्षेत्रफल कम हुआ दूसरी ओर प्रदूषित जल और मल के मिलने से नदियां प्रदूषित हो गई। यही नहीं रासायनिक कचरे के कारण गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियां भी जहरीली हो चुकी हैं।


भारत भी इस मसले में अपवाद नहीं है। यूँ तो भारत में नदी को ’माँ’ और ’देवी’ मानकर पूजा जाता है। पतित पावनी गंगा तो पूरे मानव जाति के लिए मां हैं जिनके जल से मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा का शोषण बदस्तूर जारी है। गंगा के हो रहे शोषण पर आधारित डाक्यूमेंट्री फिल्म।




 

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