दृढ़ परंपराएं

27 Aug 2010
0 mins read


तालाबों के पानी के सामान्यतः बहुत साफ न होने के दोष को यदि एक तरफ रख दें तो भी ये कंडी क्षेत्र के गांवों और वहां के पशुओं के लिए पेयजल का प्रमुख स्रोत रहे हैं। अक्सर एक ही तालाब मनुष्यों और पशुओं दोनों के लिए पेयजल के स्रोत का काम करता है।

महाराजा हरि सिंह द्वारा 1931 में स्थापित जम्मू इरोजन कमेटी ने कंडी क्षेत्र की पेयजल समस्या के बारे में अपनी रिपोर्ट में कहा थाः

“इस इलाके में लोगों के उपभोग के लिए जो जल काम में लाया जाता है, वह देखने लायक भी नहीं है। यह कोई असाधारण दृश्य नहीं है कि काई से भरे हुए इन तालाबों में भैंसें जुगाली कर रही हैं और पहले से ही गंदे इसके पानी में गोबर और पेशाब से कुछ और गंदगी का योगदान कर रही हैं। इसी तालाब के दूसरे कोने पर कुछ लोग नहाते देखे जा सकते हैं और साथ ही कुछ बेफिक्र घरेलू औरतें घरेलू कामों के लिए उसी पानी से अपना घड़ा भी भरती देखी जा सकती हैं। यह पानी रोगाणुओं और अन्य जीवाणुओं से भरा होता है और बहुसंख्यक ग्रामीण नोरवा (नारू) के शिकार रहते हैं, जो इस इलाके की बहुत सामान्य बीमारी है। मनुष्य बदहाली इससे आगे नहीं जा सकती..”

पिछले बीस वर्षों में पेयजल मुहैया कराने पर काफी पैसा खर्च हुआ है। सोतों के पाट में कुएं खोदकर ज्यादातर इलाके में पेयजल का इंतजाम किया गया है। लेकिन इसके नतीजे बहुत अच्छे नहीं हैं। जम्मू मंडल के 3,625 गांवों में से 702 गांव और लगभग 1300 पुरवों में अभी भी पेयजल उपलब्ध नहीं है। जिन गांवों में पेयजल देने का दावा किया गया है, वहां भी हफ्ते में दो-तीन दिन ही जलापूर्ति होती है और जब गर्मी के दिनों में मांग तेजी से बढ़ती है तो ग्रामीण अक्सर पेयजल के लिए पुनः तालाबों का सहारा लेते हैं।

जिन इलाकों में टोंटियों वाला पानी उपलब्ध है, वहां इसके पूरक के रूप में टैंकरों से पानी पहुंचाया जाता है। जल स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग जम्मू और कठुआ जिलों में पानी के टैंकरों पर सालाना एक करोड़ रुपए खर्च करता है। टैंकरों से पानी 50 किमी. दूर तक उन लोगों के पास पहुंचाया जाता है, जो सड़कों के किनारे रहते हैं। बाकी आबादी अपनी व्यवस्था खुद करती है और अब भी तालाब का ही पानी पीती है। गर्मियों में जब तालाब सूख जाते हैं। तो गांववाले पेयजल लाने के लिए लंबी-लंबी दूरियां तय करते हैं। इनमें से कुछ गांव जम्मू शहर के ही बाहरी इलाके में पड़ते हैं और अनेक दूसरे अखनूर, सांबा, मलवल, धंसाल, हीरानगर और पूरमंडल जैसे दूरस्थ अंचलों में पड़ते हैं।

दुर्भाग्यवश, जम्मू क्षेत्र के ज्यादातर तालाब आज भारी उपेक्षा और दुरुपयोग के शिकार हैं। जो ग्रामीण संस्थाएं श्रमदान से हर साल उनकी गाद निकालने की व्यवस्था करती थीं और प्रदूषण से उनकी रक्षा करती थीं, अब ध्वस्त हो चुकी हैं। चुनी हुई पंचायतों जैसी नई संस्थाएं संगठित रूप से काम कर ही नहीं पा रही हैं; यहां तक कि उन इलाकों में भी, जहां तालाबों का इस्तेमाल अब भी पेयजल के लिए होता है। ग्रामीण अपनी सामूहिक संपदा को श्रमदान से बचाने की बजाय सरकारी मदद का इंतजार करना बेहतर समझते हैं।

बहुत ज्यादा जमा हो जाने वाली गाद ने उनकी जलग्रहण क्षमता घटा दी है। ईंट के पक्के घरों की शुरुआत के साथ ग्रामीण स्त्री की तालाब की गाद से घर पोतने की जरूरत कम हो हई है। परिणामतः आवश्यकता आधारित गाद निकालने का काम भी समाप्त हो गया है। कई तालाबों के जल प्रवेश रास्ते दबंग लोगों द्वारा दबा लिए गए हैं। श्रमदान अथवा समुदाय की सेवा के बतौर पक्का तालाब बनवाने की पुरानी परंपरा लगभग मर चुकी है। पूरे जम्मू क्षेत्र में पिछले पचास वर्षों में एक भी बड़ा तालाब नहीं बनवाया गया है।

 

भावी प्रासंगिकता

 

बहरहाल, अब जब कुछ हद तक टोंटी का पेयजल उपलब्ध है, तो तालाबों, खासकर बड़े तालाबों का इस्तेमाल क्या सीमित सिंचाई कार्यों में किया जा सकता हैं? यह ऐसा प्रश्न है, जो कई संस्थाओं को दिमाग लड़ाने पर मजबूर किए हुए है। सरकारी संस्थाओं और कुछ जिम्मेदार व्यक्तियों द्वारा कुछ प्रयोग किए गए हैं, लेकिन उन्हें जल्द ही यह बोध हो गया कि पारंपरिक कौशल का सब कुछ जान लेना सामान्य काम नहीं है। कंडी तालाब को सिंचाई के लिए इस्तेमाल करने का पहला प्रयोग 1970 के दशक में अखनूर के पास के बाडोला संघानी गांव में किया गया था। 170 मी. X 50 मी. X 7 मी. का एक तालाब आधुनिक इंजीनियरिंग से प्रेरित योजना और राजमिस्त्री के काम का इस्तेमाल करते हुए तैयार किया गया और इसके लिए एक पुराने तालाब को विस्तारित किया गया। इस प्रयोग का लक्ष्य लगभग 100 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करना था। यह योजना विफल सिद्ध हुई। यह ढांचा आज भी पानी के बगैर खड़ा है। अच्छी बारिश से यह तालाब भर तो जाता है, लेकिन समूचा पानी दो दिन के अंदर रिसाव से खत्म हो जाता है। इंजीनियरों को इसका अहसास नहीं हुआ कि इस जगह की मिट्टी बहुत ज्यादा सरंध्र थी। इंजीनियर अब इन परियोजनाओं को बचाने के उपाय के रूप में पॉलीथीन सतह अथवा सीमेंट से प्लास्टर कराने के बारे में सोच रहे हैं।

पुराने कंडी तालाबों के निर्माण में लगने वाली ‘लोक बुद्धि’ का लगता है किसी ने अध्ययन ही नहीं किया है। इस्माइलपुर, बडोरी, बरहई और गुढ़ा स्लाथियान ग्रामीण तालाब अच्छा-खासा पानी सालों साल बचाए रखते हैं और उनकी समस्या रिसाव की नहीं, बल्कि उनके जल प्रवेश मार्गों का दबा दिया जाना है।

 

सफलता की कहानियाँ


हाल के कुछ प्रयासों के सफलता जरूर मिली है। जम्मू से लगभग 50 किमी. दूर तीस पूर्व सैनिकों के एक छोटे से गांव ढोरा में अब हर परिवार के पास कम-से-कम फलों के सौ पेड़ हैं। इनमें से ज्यादातर पौधे चार साल पहले लगाए गए थे। कंडी के एक सूखे गांव में ऐसी बागवानी क्रांति के अगुआ एक अवकाश प्राप्त फौजी कप्तान ढोंढा सिंह हैं। उन्होंने न सिर्फ अपनी जमीन पर 600 पौधे लगाए, बल्कि सारे ग्रामीणों को भी बागवानी की ओर मुड़ने और नई सिंचाई तकनीकी अपनाने के लिए तैयार किया। ढोंढ़ा सिंह ने 1977 में किन्नू (संतरे जैसा एक फल) के पचास पौधे रोपे। उन्होंने मृदा संरक्षण विभाग का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया कि गर्मियों के दिनों में जब सारे खुले कुएं सूख जाते हैं तब कुएं से सिंचाई की अपनी बुनियादी व्यवस्था को मदद पहुंचाने के लिए वे एक तालाब का निर्माण करें। इसके चलते अब उन्हें चार से पांच गुनी फसल हासिल होती है।

राया स्थित ड्राइलैंड हॉर्टिकल्चरल रिसर्च स्टेशन ने सीमेंट के पलस्तर वाला एक तालाब तैयार किया है जो फल के 900 पौधों की सिंचाई के लिए सालों भर पर्याप्त पानी उपलब्ध कराता है। यह तालाब पहाड़ी से उतरने वाले बरसाती पानी को सहेज लेता है और मामूली बारिश से ही इसमें बाढ़ आ जाती है। रिसाव की समस्या से निबटने के लिए तालाब में सीमेंट का पलस्तर कर दिया गया है।

सूखे कंडी क्षेत्र में जल संग्रह का सर्वाधिक प्रभावशाली प्रयोग जम्मू से 16 किमी. दूर जगती गांव में राज्य वन विभाग द्वारा किया गया है। यहां बिलानी नाले के आर-पार 5.49 मी. ऊंचा और 23.79 मी. लंबा कंक्रीट का एक बांध बनाया गया है। 1988 में मात्र 2.08 लाख रुपए की लागत से बना यह जल संग्राहक 4 वर्ग किमी. के आगोर से जुटने वाले ढेरों पानी से एक दिन के अंदर ही भर जाता है, यहां तक कि भारी गर्मी में भी यह जलाशय भरा ही रहता है। जम्मू क्षेत्र में तालाब निर्माण की पारंपरिक विधियों में जगती जलाशय एक सुधार प्रस्तुत करता है। यह पहले ही इस इलाके में महत्वपूर्ण पर्यावरणीय बदलाव ला चुका है। पानी का पुराना सोता और गांव का कुआं, जो गर्मी में सूख जाया करते थे, अब नहीं सूखते। जगती जलाशय थोड़े खर्चे और बहुत कम समय में तैयार हो गया था। कंडी क्षेत्र में ऐसी तराई किस्म की संरचनाएं कई हैं, जहां ऐसे सैकड़ों जल संग्राहक बनाए जा सकते हैं।

जम्मू क्षेत्र के पुराने तालाबों की देखरेख पशुओं के पेयजल के लिहाज से और जन समुदाय के नहाने-धोने जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करना जरूरी है। साल भर इन तालाबों से पानी उपलब्ध हो, इसके लिए इन्हें इनकी अधिकतम क्षमता तक भरना जरूरी है। और यह तभी होगा, जब इनके जल प्रवेश मार्गों को मुक्त कराया जाए। यहां कुछ पुराने तालाबों में मछली पालन शुरू किया गया है और इसका दायरा और भी तालाबों तक फैलाया जा सकता है। पुराने तालाबों को बांध बनाकर तैयार किए गए छोटे जलाशयों से पाइपों के एक जाल के जरिए जोड़ा जा सकता है और उनसे सिंचाई की सीमित व्यवस्था भी की जा सकती है। कंडी क्षेत्र में होने वाली 1,041 मिमी. की भारी सालाना बारिश यह उम्मीद जगाती है कि यदि इसके एक छोटे हिस्से को भी संचित किया जा सका तो यह इलाके की लगभग सारी जल जरूरतें पूरी कर देगा।

 

Posted by
Attachment
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading