दृष्टिकोण, उद्देश्य एवं उभरते मुद्दे

19 Sep 2015
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नौवीं पंचवर्षीय योजना

नौवीं योजना को हमारे देश की स्वतन्त्रता के 50वें वर्ष में आरम्भ किया जाएगा। लोक हित आयोजना के एक नये युग में प्रवेश नौवीं योजना का मुख्य कार्य होगा जिसमें केन्द्र और राज्य सरकारें ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में लोग भी पूरी तरह लाभ ले सकेंगे। समानता सुनिश्चित करने और अर्थव्यवस्था की वृद्धि-दर तेज करने के लिए भागीदारीपूर्ण योजना प्रक्रिया एक अनिवार्य शर्त है।

यद्यपि वृहद आर्थिक व्यवस्था का निष्पादन आठवीं पंचवर्षीय योजना में अच्छा रहा है, कुछ बड़ी कमजोरियाँ भी उभरकर सामने आई हैं। विशेषकर वृद्धि के पैटर्न से गरीबों और कमजोर वर्गों को लाभ नहीं पहुँचा है। नौवीं योजना को इस तरह तैयार करने की आवश्यकता है कि वह इन कमजोरियों को इस तरीके से दूर करे कि वृद्धि के लाभ गरीबों तक पहुँचे।

आठवीं योजना के दौरान देश को अच्छे कृषि मौसम प्राप्त हुए परन्तु उनसे कृषि क्षमता को बढ़ावा नहीं मिला। कृषि क्षेत्र में निवेश, विशेषकर सिंचाई क्षमता उत्पन्न करने की दिशा में, लक्ष्यों से कम रहे हैं। कृषि अर्थव्यवस्था पर दबाव अब प्रदर्शित होने लगा है। वर्ष 1995-96 में खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट आई और गेहूँ की उगाही भी लक्ष्य से नीचे रही। पिछले वर्ष अनाजों के मूल्यों में जो वृद्धि हुई, वह जारी है। वार्षिक योजना 1996-97 के अतिरिक्त सिंचाई लाभ कार्यक्रम जैसी स्कीमों द्वारा इस प्रवृत्ति को बदलने के प्रयत्नों के बावजूद आठवीं योजना के दौरान सिंचाई क्षमता विस्तार में जो कमी रही, वह आगामी पंचवर्षीय योजना के दौरान सबसे अधिक बनी रहेगी।

नौवीं पंचवर्षीय योजना की यह स्थिति दूर करने के लिए गम्भीर प्रयत्न करने होंगे। कृषि एवं ग्रामीण आय का स्तर बढ़ाने के ठोस उपाय करने होंगे और इन्हें उन कार्यक्रमों की दिशा में लक्षित करना होगा जिनका लक्ष्य छोटे, मझोले और सीमान्त कृषक तथा भूमिहीन श्रमिक हैं। सिंचाई के लिए जल का प्रावधान, भारत के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में व्यापक आधार पर निवेशों का प्रावधान, आधार-संरचना तैयार करने के लिए उचित नीति उपायों द्वारा इनका समर्थन सम्पूर्ण विकास कार्यक्रम के अति महत्त्वपूर्ण घटक होंगे। आठवीं योजना के दौरान सभी आधार संरचना क्षेत्र में व्यावहारिक रूप से वास्तविक क्षमता की प्राप्ति लक्ष्यों से काफी कम रही है। उदाहरण के लिए ऊर्जा उत्पादन क्षमता में 30538 मे.वा. की निहित क्षमता वृद्धि की तुलना में योजना के पहले चार वर्षों में वास्तविक उपलब्धि 14798 मे.वा. ही रही।

बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे देश के बड़े राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि अपरिवर्तित रही। इससे क्षेत्रीय असन्तुलन उत्पन्न होता है और निर्धनता स्तरों के लिए इसके परिणाम गम्भीर होते हैं।निर्धनता की समस्या पर्याप्त रोजगार के अवसर उत्पन्न करने पर निर्भर करती है। यह विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पुरुष कामगारों के मामले में श्रम समय और बेरोजगारी दर काफी अधिक बढ़ गई है। आर्थिक वृद्धि एवं रोजगार के अवसर अपने-आप में गरीबों की जीवन-दशा सुधारने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकते। इनके साथ-साथ ऐसे उपाय भी करने होंगे जिनसे जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो। इस प्रयास को मूर्त रूप देने के लिए पहले ही अनेक कदम उठाए गए हैं जो उन व्यापक प्राथमिक उपायों की रूपरेखा प्रदर्शित करते हैं जिन्हें नौवीं पंचवर्षीय योजना में शामिल किया जाएगा। जुलाई, 1996 में आयोजित मुख्यमन्त्रियों के एक सम्मेलन में वित्तीय अड़चनों के बावजूद इन कार्यक्रमों के लिए परिव्यय 15 प्रतिशत बढ़ाने की सहमति हुई थी। नौवीं पंचवर्षीय योजना में प्रतिवर्ष इस प्रतिबद्धता को जारी रखा जाएगा। यद्यपि इस कार्यक्रम के उद्देश्यों को पारस्परिक परामर्श की प्रक्रिया द्वारा निर्धारित किया गया है, परन्तु प्रत्येक विशिष्ट क्षेत्रक के लिए लक्ष्य नियत करने में राज्यों को पूरी स्वतन्त्रता दी गई है। इन लक्ष्यों की उपलब्धि की मॉनिटरिंग राज्य और केन्द्र सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से की जाएगी।

कृषि से सम्बन्धित आधार-संरचना, सिंचाई एवं जल योजना, बिजली, रेलवे, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी जैसी दूसरी आधार-संरचनाओं के लिए योजना की पद्धति मूल न्यूनतम सेवा कार्यक्रम के लिए तैयार की गई पद्धतियों से भिन्न होगी। निजी क्षेत्रक, सहकारिताओं और स्वैच्छिक संगठनों से अधिक पूँजी निवेश प्राप्त करने और अन्तरराष्ट्रीय प्राइवेट निवेशों की प्राप्ति के लिए प्रत्येक क्षेत्रक में नीतियों का पता लगाया जाएगा। लक्ष्यों को राष्ट्रीय रूप से परिभाषित किया जाएगा परन्तु कार्यक्रमों को चुनने, स्कीमों को चरणबद्ध करने और वित्तपोषण के लिए उचित साधन चुनने में राज्यों और स्थानीय सरकारों को अधिक स्वतन्त्रता दी जाएगी।

योजना के विनिर्दिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वित्तीय अपेक्षाओं के अन्तर्गत दृढ़ निश्चय और कठिन निर्णय लेने की इच्छा-शक्ति आवश्यक होगी। विकास प्रक्रिया की निरन्तरता एवं स्थायित्व के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों के राजस्व घाटों को कम करने हेतु दृढ़ प्रयत्नों की आवश्यकता है।

कुशलतापूर्ण शुल्क (टैरिफ) स्तर प्राप्त करने के साथ-साथ आधारभूत आर्थिक सुधारों को प्रभावी रूप से कार्यान्वित किया जाएगा। पूँजी खाता परिवर्तनीयता प्राप्त करनी होगी जिसे ऐसी परिवर्तनीयता की पूर्वापेक्षाओं की प्राप्ति सुनिश्चित करके हासिल किया जाएगा। इसके अलावा किए गए पूँजी निवेशों से प्राप्त होने वाले प्रतिफल में सुधार लाने के लिए प्रतिस्पर्धा और उत्पादकता की घरेलू रुकावटों को दृढ़ निश्चय के साथ दूर करना होगा।

अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि


आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) को गम्भीर भुगतान सन्तुलन के संकट की पृष्ठभूमि में आरम्भ किया गया था जो 1980 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में अत्यधिक वित्तीय व्यय और अत्यधिक ऋणों से उत्पन्न हुई थी। उभरते हुए संकट को देखते हुए सरकार ने स्थिति नियन्त्रित करने के लिए जुलाई, 1991 में स्थायित्व के अनेक उपाय आरम्भ किए। सबसे पहला कदम रुपये का पर्याप्त अवमूल्यन था। इसके अलावा केन्द्रीय सरकार का वित्तीय घाटा वर्ष 1990-91 में 8.3 प्रतिशत से कम करके 1991-92 में 5.9 प्रतिशत कर दिया गया था। सरकार ने व्यापार और औद्योगिक नीति, 1991 में संरचनात्मक सुधार की प्रक्रिया भी आरम्भ की जिसका उद्देश्य पिछले वर्षों के वृहद आर्थिक असंतुलन और दूसरी विकृतियों को ठीक करना था।

सारणी-1 में दिखाया गया अर्थव्यवस्था का वास्तविक वृद्धि निष्पादन उम्मीद से आगे निकल गया प्रतीत होता है। यह अधिकांश वृद्धि निष्पादन कृषि क्षेत्र के परवर्ती अच्छे निष्पादन को प्रदर्शित करता है, जो चार वर्षों के दौरान 1995-96 में इसमें कमी आने के बावजूद 3.8 प्रतिशत वार्षिक औसत वृद्धि दर पर था। योजना के पहले दो वर्षों में धीमी वृद्धि के बाद औद्योगिक क्षेत्र में भी 1994-95 और 1995-96 में वृद्धि हुई है। योजना के अंत तक 7.6 प्रतिशत के लक्ष्य से यह थोड़ी ही कम रही।

जहाँ तक मूल्यों का सम्बन्ध है अर्थव्यवस्था का निष्पादन मिश्रित किस्म का रहा है। प्रारम्भ में स्थायित्व उपायों के बाद सम्पूर्ण मूल्य सूचकांक द्वारा मापित समग्र मुद्रास्फीति दर अगस्त, 1991 में 16 प्रतिशत से गिरकर 1992-93 में औसत 10 प्रतिशत और 1993-94 में और कम होकर 8.3 प्रतिशत हो गई थी। 1994-95 में इसमें फिर तेजी आई परन्तु 1995-96 के दौरान जनवरी, 1996 में 5 प्रतिशत पहुँचने के बाद यह औसत 7.8 प्रतिशत हो गई थी। जहाँ तक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के अनुसार जीवन निर्वाह व्यय का प्रश्न है, मुद्रास्फीति दर काफी अधिक है, जो 9.3 से 9.6 प्रतिशत वार्षिक तक है।

सारणी-1
वृहद संकेतक

क्र.सं.

वृद्धिदर

सातवीं योजना

आठवीं योजना

 

 

 

 

लक्ष्य    

सम्भावना

1.

कारक लागत पर सकल घरेलू उत्पाद

6.04

5.6

5.92

(i)

कृषि

3.35

3.1

3.5

(ii)

उद्योग

7.54

7.6

7.24

(iii)

सेवाएं

7.46

6.1

6.66

2.

कीमतें

-

-

-

(i)

सम्पूर्ण मूल्य सूचकांक

6.66

-

9.24

(ii)

औद्योगिक कामगारों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक

7.96

-

9.34

(iii)

कृषि श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक

7.49

-

9.63

टिप्पणी: मूल्यों पर आँकड़े 1995-96 तक के हैं।

 


जैसा कि अर्थव्यवस्था के वृहद आर्थिक संकेतकों से प्रदर्शित होता है, सकल घरेलू उत्पाद की प्रत्याशित वृद्धि दर की तुलना में आठवीं योजना के पहले चार वर्षों में निष्पादन अच्छा पाया गया परन्तु जहाँ तक वृहद आर्थिक निष्पादन का प्रश्न है, इसके अंतर्गत संवेदनशीलता और कमियों के अनेक क्षेत्र हैं जिन्हें नौवीं योजना की कार्यनीति तैयार करते समय स्पष्ट रूप से दूर करना होगा।

इसकी कमजोरी का पहला बड़ा क्षेत्र कृषि की निरन्तर वृद्धि बनाए रखने की सम्भावना का है। आठवीं योजना के दौरान अधिक वसूली और उत्पादन एवं रोजगार में जिस उच्च वृद्धि का अनुभव किया गया था, वह कृषि क्षेत्र के प्रत्याशित निष्पादन की तुलना में अधिक सशक्त होने का परिणाम था। लगातार आठ अनुकूल मानसूनों के कारण ऐसा संभव हुआ। भारतीय कृषि मौसम से सम्बन्धित परिस्थितियों पर निर्भर बनी हुई है और इससे सम्बन्धित कमजोरी को दूर करने के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होगी। इसे कृषि निवेश और ऋण उपलब्धता बढ़ाए बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए सिंचाई हेतु पर्याप्त पूँजी निवेश, भूमि सुधार, प्रौद्योगिकी विकास और प्रसार की आवश्यकता होगी।

आठवीं योजनावधि के दौरान खाद्य मूल्यों में पर्याप्त वृद्धि हुई है जो अंशतः उगाही मूल्यों में वृद्धि का परिणाम है। उगाही और खाद्य मूल्यों में वृद्धि से कृषि के लिए व्यापार के संदर्भ में सुधार में मदद मिली है। इससे गरीबों के जीवन-स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, विशेषकर भूमिहीनों पर इसका असर हुआ है जो खाद्यान्न के प्रमुख खरीददार हैं। कृषि वर्ष जुलाई से जून तक का है। जून, 1996 में गेहूँ का मूल्य जून, 1995 की तुलना में 10 प्रतिशत अधिक और चावल का मूल्य 7.2 प्रतिशत अधिक था। कृषि वर्ष 1996-97 के पहले चार महीनों में गेहूँ का मूल्य 18.4 प्रतिशत और चावल का मूल्य 9.4 प्रतिशत बढ़ा जो उगाही मूल्यों में वृद्धि की तुलना में अधिक है।

प्रति व्यक्ति आय के सम्बन्ध में अंतर्क्षेत्रीय असमानताएँ बढ़ी हैं। कुछ अधिक आबादी वाले और कम विकसित राज्यों में वृद्धि राष्ट्रीय औसत से कम है। बिहार में राज्य घरेलू उत्पाद द्वारा आकलित प्रति व्यक्ति आय 1990-91 में 1204 रुपए से कम होकर 1994-95 में 1980-81 के मूल्यों पर 1067 रुपए रह गई। इसी अवधि के दौरान उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय जो 1990-91 में 1652 रुपए थी, 1994-95 में बढ़कर 1663 रुपए हो गई। इससे इन राज्यों में गरीबी की रेखा से नीचे की आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

आठवीं योजना में रोजगार के सम्बन्ध में औसत वृद्धि 2.6 प्रतिशत से बढ़ाकर 2.8 प्रतिशत करने का लक्ष्य था जिसके लिए यह आशा की गई थी कि योजना के पूर्वार्द्ध में 80 से 90 लाख रोजगार और उत्तरार्द्ध में 90 से 100 लाख रोजगार उत्पन्न होंगे। अद्यतन आँकड़े आठवीं योजना के पहले दो वर्षों के सम्बन्ध में ही उपलब्ध हैं। वर्ष 1987-88 और 1993-94 के बीच रोजगार में वार्षिक वृद्धि 2.23 प्रतिशत थी जो आठवीं योजना के पूर्वार्द्ध में प्रत्याशित वृद्धि से कम थी। पुरुष कामगारों की वर्तमान दैनिक बेरोजगार स्थिति की दर में वृद्धि सबसे अधिक चिन्ता का विषय है जो 1987-88 में 5.54 प्रतिशत से बढ़कर 1993-94 में 5.91 प्रतिशत हो गई है। ग्रामीण पुरुष कामगार की वर्तमान दैनिक बेरोजगारी स्थिति दर 4.58 प्रतिशत से बढ़कर 5.64 प्रतिशत हो गई है। शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में स्वरोजगार में कमी के साथ-साथ नैमित्तिक रोजगार में वृद्धि हुई है। नैमित्तिक मजदूरी रोजगार में 1987-88 में 31.2 प्रतिशत वृृद्धि हुई जो 1993-94 में 33.5 प्रतिशत हो गई अर्थव्यवस्था की निरन्तर वृद्धि बिजली, परिवहन और संचार जैसी आधारभूत सुविधाओं की पर्याप्त उपलब्धता पर निर्भर करती है। आठवीं योजना लक्ष्यों के मामले में ही नहीं, सातवीं योजना की तुलना में भी काफी पीछे रही है। इसका मुख्य कारण पूँजी निवेश की धीमी गति है। यद्यपि विद्यमान सुविधाओं के सुधरे हुए क्षमता उपयोग के कारण नकारात्मक प्रभावों का अनुभव उनकी सम्पूर्णता में अभी किया जाना है, परन्तु क्षमता-सुधार की भी एक सीमा है। अंततः ऐसा कोई विकल्प नहीं है जो अपेक्षित क्षमता उत्पन्न कर सके। सरकार के वित्तीय घाटे को नियन्त्रित करने के प्रयत्न सार्वजनिक पूँजी निवेश के मामले में उचित अनुपात में नहीं हो पाए हैं, विशेषकर उन क्षेत्रों में जो बजटीय सहायता पर अधिक निर्भर करते हैं। सरकार के कुल व्यय में पूँजी व्यय का हिस्सा काफी कम हुआ है जो आठवीं योजना के प्रारमभ में लगभग 30 प्रतिशत से कम होकर 24 प्रतिशत रह गया है। अपने निवेश योग्य संसाधन जुटाने की क्षमता वाले क्षेत्रों का निष्पादन मिश्रित रूप का रहा है। पेट्रोलियम और दूरसंचार का कार्य निष्पाद अच्छा रहा है और उन्होंने लक्ष्य से अधिक संसाधन तैयार किए हैं। दूसरी और विद्युत, परिवहन और सिंचाई के क्षेत्र में निष्पादन अच्छा नहीं रहा है।

सातवीं योजना के दौरान तैयार किए गए गरीबी कम करने और सामाजिक क्षेत्रों के सुधार में राज्य के हस्तक्षेप के कार्यक्रमों को उनकी विषय-वस्तु एवं व्याप्ति के मामले में परिवर्तनों के साथ जारी रखा गया परन्तु सहगामी अनेक मूल्यांकनों से यह प्रदर्शित हुआ कि जहाँ कार्यान्वित किए गये कार्यक्रम निर्धनों को वर्धमान आय प्रदान करने और प्रति वर्ष 10 लाख से अधिक श्रम दिवसों के अनुपूरक मजदूरी रोजगार प्रदान करने में सफल रहे हैं, वहाँ अधिकांश मामलों में गरीबी की रेखा को पार करने में सफल नहीं रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, महिला एवं बाल विकास, आवास, जलापूर्ति और शहरी विकास जैसे सामाजिक क्षेत्रों में जो अपने योजना परिव्ययों के लिए वित्त पोषण हेतु बजटीय सहायता पर पूर्ण रूप से निर्भर करते हैं, व्यय कम रहा है, जैसा कि सारणी-2 में दिखाया गया है।

कुल योजना परिव्यय में राज्यों का हिस्सा कम होता रहा है। आठवीं योजना में 41.5 प्रतिशत के अनुमान की तुलना में यह 36.4 प्रतिशत रहा। चिन्ता का विषय यह है कि जब राज्यों के हिस्से में कमी आती है तो जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कृषि, आधारभूत न्यूनतम सेवाओं, स्वास्थ्य, शिक्षा और बिजली के सेक्टरों को गम्भीर रूप से इस कमी का सामना करना पड़ता है।

सारणी-2
सामाजिक क्षेत्र में पूँजी निवेश
(सातवीं योजना के मूल्यों पर)

क्र.सं.

क्षेत्र

सातवीं योजना

आठवीं योजना

 

 

 

लक्ष्य

सम्भावना

1.

शिक्षा

7686 (3.51)

13616 (4.52)

8553 (3.89)

2.

चिकित्सा एवं जन स्वास्थ्य

3687 (1.69)

5263 (1.75)

3553 (1.62)

3.

परिवार कल्याण

3121 (1.43)

4516 (1.50)

2962 (1.35)

4.

आवास

2723 (1.24)

3663 (1.21)

2763 (1.26)

5.

शहरी विकास

2113 (0.97)

3666 (1.22)

2598 (1.18)

6.

अन्य सामाजिक सेवाएं

15629 (7.15)

24166 (8.01)

16218 (7.38)

 

योग

34960 (15.98)

54890 (18.20)

36647 (16.67)

टिप्पणी:  (क) कोष्ठकों में दिखाए गए आँकड़े सरकारी क्षेत्र के पूँजी निवेश का प्रतिशत हैं।

 (ख) आठवीं योजना के आँकड़े 1992-93 से 1995-96 की अवधि के लिए हैं।

 


सरकार द्वारा ब्याज भुगतानों में तीव्र वृद्धि द्वारा सरकारी संसाधनों पर दबाव और बढ़ा है जो आठवीं योजनावधि के दौरान कुल सरकारी व्यय के लगभग 21 प्रतिशत से बढ़कर 29 प्रतिशत से अधिक हो गया है। इसका आंशिक कारण 1993-94 प्रतिशत से बढ़कर 29 प्रतिशत से अधिक हो गया है। इसका आंशिक कारण 1993-94 से निवल सरकारी ऋणों में पर्याप्त वृद्धि है। यद्यपि सामान्य सन्दर्भ में वित्तीय घाटा 1993-94 में 1992-93 की तुलना में 20,100 करोड़ रुपये बढ़ा, सरकारी ऋणों में यह वृद्धि 21,700 करोड़ रुपये की रही। इसके परिणामस्वरूप वित्तीय घाटे के गैर-ऋण वित्तपोषण की सीमा 1992-93 में लगभग 30 प्रतिशत से कम होकर 1993-94 में 18 प्रतिशत से भी कम हो गई (जो मोटे तौर पर 1980 के दशक का औसत था)। वर्ष 1994-95 में वित्तीय घाटा केवल 800 करोड़ रुपये बढ़ा परन्तु ऋणों की धनराशि 5,700 करोड़ रुपये बढ़ गई। वर्ष 1995-96 में यह प्रवृत्ति सामान्य रूप से विपरीत रही और वित्तीय घाटे के ऋण वित्तपोषण का अनुपात कुछ कम हो गया।

हाल के वर्षों में अत्यधिक सरकारी ऋणों के कारण भी ब्याज की दरों में तेजी से वृद्धि हुई है। विशेष रूप से नये सरकारी ऋणों पर ब्याज दर 1990-91 में 11 प्रतिशत से बढ़कर इस समय 13.5 प्रतिशत से अधिक हो गई है। इसका मुख्य कारण है वित्तीय सेक्टर के सुधार के लिए एवं बैंकिंग सेक्टर पर बोझ कम करने के लिए सभी नये निर्गमों पर निर्धारित प्रतिफल को बाजार निर्धारित प्रतिफल में परिवर्ति करने का निर्णय।

विदेशी क्षेत्र में आठवी योजना के दौरान जो सकारात्मक विकास देखे गए हैं, उन्हें कुछ सावधानी के साथ समझने की जरूरत है। विशेष रूप से योजना के पहले चार वर्षों के दौरान यद्यपि अमेरिकी डालर के सन्दर्भ में आयातों की वृद्धि दर 17.3 प्रतिशत वार्षिक रही परन्तु आयातों का मात्रात्मक सूचकांक 34.1 प्रतिशत की औसत दर से बढ़ा है। इस अंतर का मुख्य कारण आयात की कुछ भारी मदों के यूनिट मूल्य में गिरावट आना है।

भुगतान स्थायित्व सन्तुलन को बनाए रखना भी आयातों की वृद्धि दर पर निर्भर करेगा। इस बात को समझने की आवश्यकता है कि भारतीय निर्यात का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा विनिर्माण सेक्टर से उत्पन्न होता है। प्रत्याशित आयातों की तेज वृद्धि दर को देखते हुए निर्यातोन्मुखी स्कीमों को पुनः सशक्त बनाने की आवश्यकता है ताकि विनिर्माण के औसत निर्यात रुझान को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ाया जा सके। इसके अलावा निर्यात बास्केट के (विशेषकर कृषि उत्पादों के) विविधीकरण के उपाय भी करने होंगे।

देश में प्रौद्योगिकी के स्तरों में, विशेषकर औद्योगिक सेक्टर में आठवीं योजना के दौरान सुधार पाया गया है। परन्तु यह अधिकांश विकास देश के अंदर प्रौद्योगिकी क्षमताओं के पर्याप्त विकास के बजाय प्रौद्योगिकी के पुराने आयात पर निर्भर रहा है राष्ट्र की प्रौद्योगिकी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए एक प्रौद्योगिकी नीति तैयार करनी आवश्यक है जो उत्पादकता एवं गुणवत्ता में पर्याप्त वृद्धि ही सुनिश्चित नहीं करेगी बल्कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धा भी बढ़ाएगी।

दृष्टिकोण


योजना आयोग का विश्वास है कि संघीय प्रणाली में योजना बनाने का प्रमुख कार्य राष्ट्रीय उद्देश्यों एवं विकास कार्यनीतियों के लिए एक सम्मिलित प्रतिबद्धता और साझेदारी का दृष्टिकोण तैयार करना है जो सभी सरकारी स्तरों पर ही नहीं, बल्कि सभी दूसरे आर्थिक एजेंटों के बीच भी होगा। कोई भी विकासात्मक कार्यनीति तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक अर्थव्यवस्था का प्रत्येक घटक एक सामूहिक उद्देश्य की दिशा में कार्य नहीं करता। नौवीं योजना के दृष्टिकोण का एक प्रमुख कार्य ऐसा साझेदारी वाला दृष्टिकोण तैयार करना है।

ऐसे दृष्टिकोण पर आधारित नौवीं योजना का प्रमुख कार्य है। आठवीं योजना की सफलताओं को आगे बढ़ाना और समस्याओं, विशेषकर कृषि में पूँजी गठन, गरीबों का जीवन स्तर, बुनियादी सुविधा, सामाजिक सेक्टर, क्षेत्रीय असमानता और वित्तीय घाटों जैसे क्षेत्रों की समस्याओं को दूर करना है। आर्थिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में भारतीय अर्थव्यवस्था द्वारा की गई पर्याप्त प्रगति के बावजूद विकास कार्य अपनी पूर्णता से काफी दूर है और संसाधनों की तंगी अभी बनी हुई है। इसके अलावा भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी नाजुक है और अधिक खुली आर्थिक प्रणाली का संचालन विवेकपूर्ण सरकारी हस्तक्षेप द्वारा किया जाना होगा ताकि इस नाजुक स्थिति से धीरे-धीरे उबरा जा सके।

भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी भी भारी संख्या में ऐसे लोग हैं जो ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में अत्यधिक निर्धनता में जीवन-यापन कर रहे हैं। असंगठित श्रमिकों, विशेषकर भूमिहीन कृषकों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होगी। इसके अलावा विभिन्न सामाजिक वर्गों में बड़ी असमानताएँ विद्यमान हैं। कमजोर वर्ग के लोगों में अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ, दूसरे पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक शामिल हैं। इसके अलावा महिलाएँ और बच्चे और शारीरिक रूप से विकलांग तथा अशक्त व्यक्ति भी इस श्रेणी में आते हैं। समाज के इन वर्गों के लिए सुनियोजित राज्य हस्तक्षेप की आवश्यकता है जिससे इन्हें शिक्षा एवं रोजगार के पर्याप्त अवसर प्रदान किए जा सकें।

अतः आज की योजना प्रक्रिया को नीति योजना पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है ताकि आर्थिक प्रणाली के लिए जो संकेत दिए जाते हैं, वे राष्ट्रीय उद्देश्यों के अनुरूप कार्य करने के लिए विभिन्न आर्थिक एजेंटों को प्रेरित कर सकें। विशिष्ट रूप से निवेश-पैटर्न सेक्टरीय नीतियों द्वारा निर्धारित किए जाएँगे।

अंत में भारतीय प्रणाली की संघीय प्रकृति को समझते हुए योजना प्रक्रिया को एक सामूहिक नीति दृष्टिकोण विकसित करना होगा जिसे केन्द्र और राज्य दोनों द्वारा अपनाया जा सके। इस प्रकार योजना प्रक्रिया को केन्द्र और राज्यों के बीच, राज्यों के अपने बीच, एवं उप-राज्यों और राज्यों के बीच तीन स्तरों पर नीति समन्वय करना होगा।

विकास प्रक्रिया में, विशेषकर विकास परिव्ययों की प्रभावकारिता सुधारने में आठवीं योजना में लोगों की पहल और भागीदारी को महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में स्वीकार किया गया था। इस क्षेत्र में प्रगति पूरी तरह संतोषजनक नहीं रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि विकास कार्यनीति में सरकार के दूसरे स्तरों को पूर्ण रूप से एकीकृत नहीं किया गया था। नौवीं योजना में ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायती राज निकायों और शहरी क्षेत्रों में नगरपालिकाओं को विकास प्रक्रिया में सीधे ही शामिल किया जायेगा। लोगों की भागीदारी उनके चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से वास्तविक जनतंत्रीय विकेन्द्रीकरण द्वारा प्राप्त की जाएगी।

लोगों की भागीदारी के दूसरे स्वरूपों को भी सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। योजना के प्रारम्भिक दिनों से ही सहकारिताओं को समानता, सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाली अत्यधिक महत्त्वपूर्ण संस्थाओं के रूप में देखा जाता रहा है। सहकारिताओं को सख्त नौकरशाही के नियन्त्रण से मुक्त करने की आवश्यकता है। स्वयंसेवी वर्ग, कामगारों या छोटे उत्पादकों के संघ आदि संस्थाओं को भी प्रोत्साहन दिया जाएगा। इन संस्थाओं के संगठन एवं संवर्धन में स्वैच्छिक सेक्टर के साथ सरकार की सक्रिय भागीदारी रहेगी।

वित्तीय घाटा, विशेषकर राजस्व घाटा वृहद आर्थिक प्रबंध की प्रमुख चिन्ता का विषय होना चाहिए। नौवीं योजना में सभी स्तरों पर सरकार की वित्तीय हालत सुधारने और अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता को इष्टतम बनाने के लिए इसके ऋण कार्यक्रमों को विनियमित करने की आवश्यकता पर बल दिया जाएगा।

केन्द्र और राज्य दोनों में सरकार के राजस्व घाटों को कम करने और अंततः उन्हें समाप्त करने के लिए नौवीं योजना में एक दीर्घकालीन वित्तीय नीति दृष्टिकोण तैयार करने पर अत्यधिक जोर दिया जायेगा। प्रस्तावित विकास कार्यनीति के सफल कार्यान्वयन के लिए इन प्रस्तावों के कार्यान्वयन की सभी स्तरों पर वचनबद्धता एक पूर्वापेक्षा है।

सरकार के राजस्व घाटे को नियन्त्रित करने की आवश्यकता को विद्यमान सार्वजनिक परिसम्पत्तियों के स्वास्थ्य एवं इष्टतम उपयोग की सुनिश्चितता और सामाजिक स्कीमों/कार्यक्रमों की प्रभावकारिता के सन्दर्भ में देखना होगा। ऐसे प्रस्तावों को दृढ़ता के साथ कार्यान्वित करने और सावधानीपूर्वक मानीटर करने की आवश्यकता होगी ताकि लोक-व्यय के लाभ इष्टतम रूप में सुनिश्चित हो सकें।

तीव्र और निरन्तर निर्यात वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए नौवीं योजना सुदृढ़ विदेशी व्यापार एवं निवेश नीतियों के निर्णायक महत्वों पर जोर देगी। प्रौद्योगिकी शक्ति एवं हमारे घरेलू उत्पादों की आर्थिक कारगरता को बढ़ाने और अधिक खुली अर्थव्यवस्था की दिशा में सुचारू और प्रभावकारी परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिए योजना में जोर दिया जायेगा। औद्योगिक एवं वित्तीय नीति के ढाँचे को भी सरल और कारगर बनाया जाएगा ताकि घरेलू निवेश बढ़ाने और यथासम्भव बाहरी ऋणों पर निर्भरता कम करने के लिए गैर-ऋण बाहरी प्राप्तियों के तीव्र विस्तार को बढ़ावा मिल सके। इस सम्बन्ध में सरकार के सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम में 10 बिलियन अमेरिकी डाॅलर का वार्षिक लक्ष्य रखा गया है। नौवीं योजना इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कदम उठाएगी। घरेलू उद्यमता को, जो विकास प्रक्रिया की आधारशिला है, अपनी प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति बढ़ाने और अपनी कार्यकुशलता सुनिश्चित करने में पूरा प्रोत्साहन दिया जायेगा। विशेषकर लघु और ग्रामीण तथा घरेलू उद्योगों को वृद्धि एवं विविधीकरण के लिए उचित पर्यावरण प्रदान किया जाएगा।

आधार संरचना की पर्याप्त मात्रा, गुणवत्ता और विश्वसनीयता आर्थिक वृद्धि एवं विकास के लिए ही अनिवार्य पूर्व शर्तें नहीं हैं बल्कि देश को अन्तरराष्ट्रीय रूप से प्रतिस्पर्धात्मक बनाने और निवेश के लिए आकर्षण पैदा करने के लिए भी अनिवार्य है। इस क्षेत्रक में निवेश की आवश्यकताएँ काफी अधिक हैं। अतः विकास प्रक्रिया में प्राइवेट क्षेत्रक को प्रेरित करने की परम आवश्यकता है। सार्वजनिक क्षेत्रक जिसने अब तक आधार संरचना विकास के बोझ को वहन किया है, प्राइवेट क्षेत्रक की प्रतिस्पर्धा एवं भागीदारी से लाभान्वित होगा।

हाल के वर्षों में तीव्र शहरीकरण की समस्या काफी गम्भीर हो गई है। शहरी क्षेत्रों में अनिवार्य सेवाओं और अच्छी जीवन सुविधाओं की उपलब्धता में लगातार कमी आ रही है। यदि सुविचारित और स्पष्ट शहरीकरण की नीति के माध्यम से इस स्थिति को सुधारने की दिशा में नौवीं योजना के दौरान कदम नहीं उठाए गए तो बढ़ती आबादी के घनत्व, सुरक्षित पेयजल की कमी और अपर्याप्त शहरी सफाई से उत्पन्न स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय समस्याओं के और खराब होने की सम्भावना है। इसके लिए बीमारी निगरानी, महामारी नियन्त्रण और शहरी ठोस और तरल कूड़े-कचरे की व्यवस्था के साथ-साथ कार्यक्रम संघटकों का पता लगाना होगा।

भारतीय योजना प्रक्रिया ने आर्थिक संदर्भ में ही नहीं, बल्कि सामाजिक एवं पर्यावरणीय कारकों के क्षेत्र में भी विकास प्रक्रिया को बनाये रखने की सुनिश्चितता हेतु इनसे सम्बन्धित उपायों पर हमेशा जोर दिया है। पर्यावरण एवं विकास पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र संघ सम्मेलन की 21वीं कार्यसूची में अंगीकृत अनेक उपायों को पहले ही भारतीय योजनाओं में परिलक्षित किया जा चुका है। नौवीं योजना इस परम्परा को और आगे ले जाएगी और निरन्तर विकास के लिए अच्छी दशाओं के सृजन पर जोर देगी।

उद्देश्य


सरकार के न्यूनतम कार्यक्रम, आधारभूत न्यूनतम सेवाओं पर मुख्यमन्त्रियों के सम्मेलन और व्यापक विचार-विमर्श के दौरान विभिन्न राज्यों के मुख्यमन्त्रियों द्वारा प्रस्तुत सुझावों से उत्पन्न नौवीं योजना के उद्देश्य इस प्रकार हैं:-(1) पर्याप्त उत्पादक रोजगार उत्पन्न करना और निर्धनता उन्मूलन की दृष्टि से कृषि एवं ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देना।

(2) मूल्यों में स्थायित्व के साथ-साथ अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर तेज करना।

(3) सभी के लिए, विशेषकर समाज के कमजोर वर्गों के लिए भोजन एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करना।

(4) सुरक्षित पेयजल, प्राथमिक स्वास्थ्य देखरेख सुविधा, सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा, आवास की मूलभूत न्यूनतम सेवाएँ प्रदान करना और समयबद्ध तरीके से सभी के साथ संबद्धता।

(5) आबादी की वृद्धि दर नियन्त्रित करना।

(6) सामाजिक मेलजोल और सभी स्तरों पर लोगों की भागीदारी द्वारा विकास प्रक्रिया की पर्यावरणीय क्षमता सुनिश्चित करना।

(7) सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन एवं विकास के एजेंटों के रूप में महिलाओं और सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों, जैसे अनुसूचित जातियों/जनजातियों और दूसरे पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों को शक्तियाँ देना।

(8) पंचायती राज संस्थाओं, सहकारिताओं और स्वयंसेवी वर्गों जैसी लोगों की भागीदारी वाली संस्थाओं को बढ़ावा देना और उनका विकास करना।

(9) आत्मनिर्भर बनाने के प्रयत्नों को सुदृढ़ करना।

उपर्युक्त उद्देश्यों को, जिनका लक्ष्य ‘समानता के साथ विकास’ प्राप्त करना है, राज्य नीति के चार महत्त्वपूर्ण आयामों के सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है जो इस प्रकार है: (क) नागरिकों की जीवन गुणवत्ता, (ख) उत्पादक रोजगार उत्पन्न करना, (ग) क्षेत्रीय सन्तुलन और (घ) आत्मनिर्भरता।

(क) जीवन गुणवत्ता


जीवन की गुणवत्ता बहु-आयामी है। जीवन की गुणवत्ता को सुधारने के लिए निर्धनता का उन्मूलन और प्राथमिक न्यूनतम सेवाओं का प्रावधान किसी भी कार्यनीति के अभिन्न अंग हैं। कोई भी विकासात्मक प्रक्रिया तब तक निरन्तर चलने योग्य नहीं बन सकती जब तक उससे इन क्षेत्रों में स्पष्ट और व्यापक सुधार नहीं होता।

अब इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि तीव्र विकास अत्यधिक निर्धनता की स्थिति को सुधारने में सहायक हैं। तीव्रीकृत विकास पर ध्यान केन्द्रित करने से गरीबी दूर करने के उद्देश्य को प्राप्त करने में मदद मिलेगी। गरीबी दूर करने से सम्बन्धित कार्यक्रमों में ऐसे उपायों को भी शामिल करना होगा जिनके द्वारा गरीबों की परिसम्पत्ति या सम्पदा बढ़ सके और निरन्तर विकास के लिए शेष अर्थव्यवस्था के साथ ऐसे क्षेत्रों को बेहतर रूप से एकीकृत किया जा सके।

देश के कुछ क्षेत्रों में कम मानव विकास संकेतकों और सामाजिक बुनियादी सुविधाओं जैसे सुरक्षित पेयजल, प्राथमिक स्वास्थ्य एवं प्राथमिक शिक्षा सुविधाओं के साथ आय का अपेक्षाकृत उच्च स्तर बना हुआ है। ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें निजी प्रयासों की अधिक सम्भावना नहीं है। अतः ऐसी बुनियादी सेवाओं की उपलब्धता के न्यूनतम मानदंड बनाने और सन्तुलित तथा समयबद्ध तरीके से इन मानदंडों को पाप्त करने के लिए जननिवेश बढ़ाने की आवश्यकता है। शहरी तथा ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में गरीबों के लिए आवास की समस्या विशेष रूप से गम्भीर है और भवन-निर्माण के लिए सहायता प्रदान करने के कार्यक्रम कार्यान्वित करने की आवश्यकता होगी।

सरकार द्वारा सभी स्तरों पर अनुभव की जा रही संसाधनों की कठिनाइयों को देखते हुए जीवन की गुणवत्ता के विभिन्न पक्षों की प्राथमिकताओं को क्षेत्र विशिष्ट आधार पर चलाना होगा। विशेष रूप से देश के उन क्षेत्रों का पता लगाना होगा जहाँ गम्भीर कमी की समस्या को कमोबेश दूर करने का कार्य विकास प्रक्रिया के अन्तर्गत किया जाएगा। गरीबी विरोधी कार्यक्रमों को उन दूसरे क्षेत्रों में केन्द्रित करना होगा जिन्हें विकास प्रक्रिया द्वारा अभी तक पर्याप्त लाभ नहीं मिला है।

(ख) रोजगार


श्रम बहुल क्षेत्रों, उप-क्षेत्रों और प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केन्द्रित करके विकास प्रक्रिया द्वारा ही अधिक उत्पादक रोजगार उत्पन्न करना नौवीं योजना का प्राथमिक उद्देश्य होगा। पिछले दशक का अनुभव यह रहा है कि तीव्र विकास से रोजगार के पर्याप्त अवसर उत्पन्न होते हैं परन्तु प्राप्त आय और कार्य वातावरण के सन्दर्भ में रोजगार की गुणवत्ता संतोषजनक नहीं है। अतः रोजगार कार्यनीतियों को अच्छी दशाएँ उत्पन्न करनी होंगी जिसके द्वारा लोगों को बेहतर जीवन स्तर और बेहतर कार्यदशाएँ प्राप्त हों और श्रम का महत्व भी बना रहे। विशेष रूप से अत्यन्त गरीबी के परिणामस्वरूप उत्पन्न गंदगी को और बाल श्रमिकों की समस्या को परिवार की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए समाप्त करने की आवश्यकता है।

अपूर्ण रोजगार और नैमित्तिक रोजगार की बढ़ती घटनाओं को समझते हुए गरीबों के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में नौवीं योजना में राष्ट्रीय रोजगार आश्वासन स्कीम को कार्यान्वित किया जाएगा।

(ग) क्षेत्रीय सन्तुलन


उद्योग को प्राप्त अधिक स्वतंत्रता और किसी भी स्थान पर उद्योग स्थापित करने का विकल्प उपलब्ध होने से सम्भव है कुछ राज्य अन्य राज्यों की तुलना में अधिक प्राइवेट पूँजी निवेश आकर्षित करने में सफल हों। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक होगा कि बुनियादी सुविधाओं के लिए सरकारी निवेश जानबूझकर उन राज्यों को दिया जाए जो अपेक्षाकृत कम साधन-सम्पन्न हैं।

क्षेत्रीय सन्तुलन का मुद्दा अंतर्राज्यीय और बाह्य राज्यीय, दोनों स्तरों पर विद्यमान है। अतः इसे ऐसे ढाँचे के अन्तर्गत दूर करने की आवश्यकता है जो प्रत्येक राज्य की राजनीतिक और प्रशासनिक सीमाओं की तुलना में अधिक लचीला हो। प्रतिस्पर्धात्मक नीति-निर्धारण की अवधारणा से सहकारी संघवाद के ढाँचे की ओर जाना आवश्यक होगा जिसमें पड़ोसी राज्य अपने पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए एक सामूहिक कार्यनीति अपनाते हैं।

पिछड़ेपन और क्षेत्रीय सन्तुलन के मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित करने की बात पारम्परिक रूप से औद्योगीकरण के सम्बन्ध में रही है परन्तु प्रमाण इस बात को प्रदर्शित करते हैं कि क्षेत्रीय असमानताओं में कमी, विशेषकर औसत जीवन-स्तर के मामले में, कृषि और दूसरे ग्रामीण क्रियाकलापों पर अधिक ध्यान देकर ही बेहतर प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए परिवहन एवं संचार के सन्दर्भ में सुधरी हुई संबद्धता के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों और देश के शेष भागों के बीच एकीकरण का स्तर भी बढ़ाना होगा।

(घ) आत्मनिर्भरता


व्यापार और पूँजी निवेश में नये अवसरों का लाभ उठाने के लिए भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे और चरणबद्ध तरीके से उदार बनाने की प्रक्रिया का श्री गणेश किया है। इस प्रक्रिया को जारी रखने और आगे ले जाने की आवश्यकता है परन्तु ऐसा उत्कृष्ट इच्छाशक्ति के कारण होना चाहिए, न कि बाहरी दबावों या विकल्पों की कमी के कारण। नौवीं योजना में बाहरी कमजोरियों से सम्बन्धित मुद्दों का उल्लेख किया जाएगा और भारत को अन्तरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एक मजबूत और आत्मविश्वासी भूमिका अदा करने वाला देश बनाने के लिए समुचित कार्ययोजना विकसित की जाएगी।

आत्मनिर्भरता का पहला और शायद सबसे महत्त्वपूर्ण घटक भुगतान सन्तुलन क्षमता सुनिश्चित करना और अत्यधिक विदेशी ऋण से बचना है। इसके लिए मजबूत और विवेकपूर्ण वृहद आर्थिक नीति की वचनबद्धता आवश्यक है। नौवीं योजना विवेकपूर्ण वृहद प्रबंध ढाँचे और भुगतान सन्तुलन की आवश्यकताओं के वित्त-पोषण के लिए गैर-ऋण विदेशी आय पर अधिक आधारित होगी।

अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को तेज करने के लिए निवेश योग्य संसाधनों की उपलब्धता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि करनी होगी। आत्मनिर्भरता की मांग यह है कि इनमें से अधिकांश संसाधनों को घरेलू स्तर पर उत्पन्न किया जाए और बाहरी संसाधनों का सहारा उसी सीमा तक लिया जाए जहाँ तक वह विदेशी दायित्वों के निर्वाह के लिए आवश्यक हो। नौवीं योजना विदेशी संसाधनों की प्राप्ति घरेलू बचतों के स्तर और विदेशी दायित्वों को चुकाने की दीर्घकालिक क्षमता के साथ सम्बद्ध करेगी।

आत्मनिर्भरता की किसी भी कार्ययोजना में खाद्य के मामले में आत्मनिर्भरता एक मूल तत्व है। मौसम से सम्बन्धित स्थिति को देखते हुए कृषि उत्पादन में उतार-चढ़ाव के परिप्रेक्ष्य में भारत को कृषि की निरपेक्ष वृद्धि दर का एक ऐसा लक्ष्य बनाना होगा जो आवश्यकता से अधिक हो। ऐसी वृद्धि दरों के समर्थन के लिए सामान्य वर्षों में नियमित और सतत खाद्य उत्पादों के निर्यात की योजना करना और व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिए आवश्यक दशाएँ उत्पन्न करना अनिवार्य होगा।

प्राकृतिक संसाधन राष्ट्र की पैतृक सम्पत्ति है और देश के प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करना उचित नहीं होगा क्योंकि ऐसा करने से आने वाली पीढ़ियों के लिए अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी जिनके ऊपर उनका काई वश नहीं होगा। नौवीं योजना में जड़ी-बूटियों और औषधीय मूल्य के पेड़-पौधों सहित प्राकृतिक संसाधनों के समुचित उपयोग और उनके संरक्षण पर जोर दिया जाएगा। और संसाधनों की अन्तरराष्ट्रीय उपलब्धता और सक्षम भुगतान सन्तुलन की स्थिति को बनाये रखने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जाएगा।

आत्मनिर्भरता का एक महत्त्वपूर्ण तत्व प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता है। यहाँ यह वांछनीय है कि जहाँ से भी उपलब्ध हो सर्वोत्तम एवं अत्यधिक उचित प्रौद्योगिकी प्राप्त की जाए साथ ही यह भी आवश्यक है कि देश के लिए आवश्यक सभी महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों में स्वदेशी क्षमता विकसित की जाए। ‘दोहरे उपयोग’ के आधार पर व्यापक प्रौद्योगिकियों पर रखे जा रहे प्रतिबंधों को देखते हुए इस पहलू का महत्व और भी बढ़ गया है। ‘विजन 2020’ नामक एक तकनीकी दृष्टिकोण पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है। नौवीं योजना इसके कार्यान्वयन की प्रक्रिया शुरू करेगी।

(यह लेख नौवीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण-पत्र पर आधारित है।)

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