दुनिया में घटती शहरी आबादी, भारत में उलटी तस्वीर


भारत को आरण्यक संस्कृति का देश भी कहा जाता है। अरण्य यानी जंगल से बना आरण्यक, जिसका दर्शन हमारा आदिवासी समाज आज भी कराता है। हिन्दू संस्कृति के तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में से एक इन्द्र भी हैं। जिन्हें देवताओं का राजा कहा जाता है। इन्द्र का एक नाम हमारे ग्रंथों में ‘पुरंदर’ भी है। पुरंदर का अर्थ होता है शहरों को नष्ट करने वाला। लेकिन हम इस तथ्य को भूल रहे हैं। जिसकी संस्कृति के देवताओं के राजा का नाम ही शहरों को नष्ट करने वाली व्यवस्था से जुड़ा हो, उसका कोई-न-कोई तो अर्थ तो रहा ही होगा। गाँवों का देश कहा जाने वाला भारत बदलने लगा है। आरण्यक संस्कृति के देश के तौर पर प्राचीन काल से विख्यात भारत की ग्रामीण जनसंख्या में लगातार गिरावट देखी जा रही है। रोजगार और अच्छी जिन्दगी की चाहत में लोग लगातार शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। लेकिन विकसित देशों से इसके ठीक उलट आँकड़ा सामने आया है। अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में शहरी जनसंख्या गाँवों की ओर रूख कर रही है।

मशहूर ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फर्म मैकिंजी ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक 2015 से 2025 के बीच विकसित देशों के 18 फीसदी बड़े शहरों की आबादी में कम-से-कम आधा फीसद की गिरावट देखी जाएगी। इस रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया के 8 फीसद शहरों में सालाना कम-से-कम आधा फीसदी और कहीं-कहीं सालाना एक से डेढ़ फीसदी तक आबादी कम होने की रुझान दिखेगी।

अब जरा अपने देश की तरफ देखें। बचपन में हमें पढ़ाया गया था कि भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी गाँवों रहती है। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। 1951 की जनगणना के मुताबिक भारत की 82.7 फीसद आबादी जहाँ गाँवों में रहती थी, वहीं सिर्फ 17.3 प्रतिशत लोग ही शहरों में रहा करते थे। लेकिन जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था ने करवट लेनी शुरू की, यह अन्तर बढ़ने लगा।

सरकारी योजनाओं और दस्तावेजों में गाँवों का विकास तो होता रहा है, लेकिन विकास की समानान्तर दौड़ में गाँव शहरों से मीलों पीछे रहे। वैसे भी अपना ढाँचा, अपनी सोच और यहाँ तक कि मीडिया का चिन्तन भी शहर केन्द्रित है। अगर गाँव में बिजली दस दिन ना आये तो मीडिया मान लेता है कि यह कोई खबर ही नहीं है। लेकिन अगर राजधानी में बिजली एक घंटा चली जाये तो देश की यह बड़ी खबर हो जाती है।

मीडिया अगर गाँवों को लेकर भी ऐसा रुख दिखाए तो शायद प्रशासन और शासन की सोच में बदलाव हो। दुर्भाग्य यह है कि प्रशासन चलाने वाले लोग हों या मीडिया के जिम्मेदार शख्स, अधिकतर का बचपन गाँव में ही गुजरा है। इसके बावजूद उनकी सोच में गाँव दूसरे नम्बर पर है। बल्कि कई बार है ही नहीं। जहाँ ऐसी सोच रहेगी और जिन्दगी की तमाम सहूलियतें शहरों की ओर केन्द्रित होंगी तो फिर गाँवों से शहरों की तरफ जनसंख्या का पलायन बढ़ेगा।

यही वजह है कि 2001 आते-आते ग्रामीण भारत की जनसंख्या घटकर 72.19 प्रतिशत रह गई और शहरी जनसंख्या पचास साल पहले के मुकाबले करीब पौने दो गुना बढ़कर 27.81 प्रतिशत हो गई। ध्यान रहे, इसी दौर में उदारीकरण की अर्थव्यवस्था ने अपने पंख तेजी से फैलाए। इसलिये शहरीकरण और तेजी से बढ़ा और 2011 की जनगणना के मुताबिक ग्रामीण जनसंख्या का अनुपात घटकर 68.84 प्रतिशत हो गया, जबकि शहरी जनसंख्या बढ़कर 31.16 प्रतिशत हो गई।

यह सब तब हुआ, जब देश में आजादी के बाद से ही ग्रामीण विकास का अलग से मंत्रालय काम कर रहा है। ग्राम्य विकास के लिये अलग से बजट प्रावधान होता है। फिर भी गाँवों तक चौबीस घंटा बिजली, साफ सड़कें और दूसरी सहूलियतें अब भी कोसों दूर हैं। ऐसे में क्या हमारी व्यवस्था को भी मारीशस की तर्ज पर नहीं ढल जाना चाहिए। भारतीय मूल के लोगों के वंशजों वाले इस देश की सरकार ने अब ग्रामीण और शहरी का भेद अपने शासन और बजट में खत्म कर दिया है। उसे लगने लगा है कि इस विभाजन से विकास की मूल धारा ठीक से पूरे देश में नहीं पहुँच पाती।

मौजूदा विकास चिन्तन शहरीकरण को ही विकास मानता है। यह बात और है कि ज्यादा कार्बन उत्सर्जन और ज्यादा कचरा शहर ही पैदा करता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की रिपोर्ट महानगर इसकी तसदीक करती है। शहर मानवता को पर्यावरण प्रदूषण की यह सौगात किस कीमत पर देते हैं। दिमाग पर थोड़ा जोर डालने पर इसे समझा जा सकता है। शहरों में गाँवों की तुलना में ज्यादा बिजली खर्च होती है। शहरों के डिब्बेनुमा घरों में अबाध बिजली ना मिले तो दम घुट जाये और कुछ दिख भी ना पाये। फिर शहरों में परिवहन के लिये अधिक ऊर्जा यानी गैस और पेट्रोलियम पदार्थ भी खर्च होते हैं।

औद्योगिक केन्द्र भी शहरों में ही होते हैं, लिहाजा औद्योगिक कचरा उत्पादन भी शहरों में ही ज्यादा होता है। लेकिन इनका असर पूरे वातावरण पर पड़ता है। जिसका असर गाँवों तक को भुगतना पड़ता है। हाल के दिनों में जिस तरह नोटबंदी को लागू किया गया है, उससे गाँवों की एक नैसर्गिक व्यवस्था मुद्रा के कम-से-कम इस्तेमाल पर भी असर पड़ेगा। कुछ साल पहले तक गाँव में मुद्रा का इस्तेमाल बड़ी खरीद-बिक्री में ही होता था। स्थानीय व्यवसाय तो अनाज के लेन-देन पर ही हो जाते थे। लेकिन अब यह सम्भव नहीं है।

भारत को आरण्यक संस्कृति का देश भी कहा जाता है। अरण्य यानी जंगल से बना आरण्यक, जिसका दर्शन हमारा आदिवासी समाज आज भी कराता है। हिन्दू संस्कृति के तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में से एक इन्द्र भी हैं। जिन्हें देवताओं का राजा कहा जाता है। इन्द्र का एक नाम हमारे ग्रंथों में ‘पुरंदर’ भी है। पुरंदर का अर्थ होता है शहरों को नष्ट करने वाला। लेकिन हम इस तथ्य को भूल रहे हैं। जिसकी संस्कृति के देवताओं के राजा का नाम ही शहरों को नष्ट करने वाली व्यवस्था से जुड़ा हो, उसका कोई-न-कोई तो अर्थ तो रहा ही होगा। इसका एक अर्थ तो यही है कि भारतीय संस्कृति कुदरती-प्राकृतिक सत्य में ही मानवता का विकास देखती रही है। चूँकि इस सत्य के नजदीक शहरर नहीं, गाँव ही आते हैं। इसीलिये भारतीय व्यवस्था में गाँवों को ही तरजीह दी जाती रही है।

यह सांस्कृतिक बोध ही रहा होगा कि गाँव हर व्यक्ति के लिये सुरक्षा का बोध भी था। बरसों पहले तक शहर जाने वाले लोग निराशा में कहते थे कि कुछ नहीं होगा तो गाँव लौट जाएँगे। यानी अपनी संस्कृति में गाँव बछड़े के लिये खूँटे के समान था। जिन्हें कुलांचे भरते हुए बछड़े को देखा है, उन्हें पता है कि खूँटा मजबूत होता है तो बछड़े की कुलांच भी उतनी तेज होती है। खूँटा कमजोर हुआ तो बछड़ा कुलांचे भर के भाग तो सकता है। लेकिन अपने केन्द्र पर टिका नहीं रह सकता है। इसीलिये मजबूत खूँटे से बछड़े के कुलांच भरने वाली कहावत ही बनी है। लेकिन मौजूदा व्यवस्था ने व्यक्ति की सोच में गाँव को लेकर जो सेंस ऑफ सिक्युरिटी रही है, वह खत्म हुई है।

अब शहरों में रोजगार प्राप्त ग्रामीण नाभि-नाल वाले व्यक्ति के सामने जैसे ही कोई संकट खड़ा हो जाता है, वह चिन्तित हो जाता है। उसे लगता है कि उसकी दुनिया अन्धेरी हो गई। यह सेंस ऑफ सिक्युरिटी के खत्म होने से ही हुआ है। बहरहाल यह पुरानी ग्राम्य व्यवस्था ही थी कि 1760 तक दुनिया की पूरी जीडीपी का आधा सिर्फ चीन और भारत के खाते में था। भारतीय जनता पार्टी के बिहार में विधायक और पूर्व नौकरशाह आर एस पांडे कहते हैं कि आधुनिकता बोध जरूरी है। लेकिन यह मान लेना कि आधुनिकता ही विकास का पर्याय है, मध्यकाल तक रही भारतीय व्यवस्था की ताकत को नकारना है। दुर्भाग्यवश इस सन्दर्भ में अध्ययन भी कम हुए हैं।

दिल्ली के इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में अक्टूबर में रवींद्र शर्मा का व्याख्यान हुआ था। इस व्याख्यान में उन्होंने कहा था, “अधिक पुरानी बात नहीं है। आजादी के बाद तक गाँव में हमारी पूरी दुनिया थी। हम लोहा भी गला लेते थे और कागज भी बना लेते थे। गाँवों में 18 कलाओं से जुड़े कारीगर होते थे। हर कारीगर से जुड़ी 12 उपजातियाँ होती थीं। तब गाँव में रौनक थी। अब वह बात नहीं है। उन्हीं गाँवों को अब जब देखता हूँ तो चारों तरफ उदासी दिखाई देती है। गाँव से रौनक गायब है। सारी कलाएँ और उद्योग विलुप्त हो चुके हैं।”
रवींद्र शर्मा ग्रामीण भारत पर आन्ध्र प्रदेश के आदिलाबाद में काम कर रहे हैं और आरण्यक संस्कृति को लेकर अध्ययन कर रहे हैं। उनका कहना है कि अब से पहले भारत में गाँव को पढ़ने और समझने का रिवाज नहीं रहा है। दुर्भाग्य से भारतीय दृष्टि को भी गैरजरूरी समझ लिया गया। पश्चिम की नजर से ही भारतीय सन्दर्भ को देखने-परखने पर बल दिया जाता रहा। इसका परिणाम विपरीत आया है। हम खुद को और अपनी ग्रामीण व्यवस्था को भी जानने से वंचित रह गए हैं। दूसरे लोगों ने जो बताया, वही हमने अब तक अपने विषय में जाना है। इस धारा को इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने सीधे उलट दिया है।

सवाल यह है कि गाँव को समझेगा कौन? और समझे भी तो कैसे, गाँधी जी ने 1909 में लिखे हिन्द स्वराज में भारत में अपनी शिक्षा पद्धति को बढ़ावा देने की कल्पना की। लेकिन आजादी के बाद वह कल्पना कहीं पीछे छूट गई। उसी शिक्षा पद्धति पर हमारा शैक्षिक दर्शन आगे बढ़ने लगा, जिसे मैकाले ने स्थापित किया था और जिसका विरोध आजादी के आन्दोलन का मुख्य सुर भी रहा। तब गाँव में चलने वाले स्कूलों को पाठशाला कहा जाता था। जहाँ घर का बोध ज्ञान और समझ की दृष्टि से होता था। शिक्षा पर काम कर रही संस्था सिद्धि के प्रमुख पवन गुप्त का मानना है कि नई शिक्षा प्रणाली ने घर और पाठशाला के बीच के फासले को बढ़ा दिया है। उन्होंने यह जिज्ञासा भी पैदा की कि 18वीं सदी तक जो भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी और हमारा गैर कृषि उत्पादन भी दुनिया भर में सबसे ज्यादा था।

जाहिर है कि इन तथ्यों ने भारतीय गाँवों को बदला है और गाँव को लेकर हमारी सोच बदल गई है। यही वजह है कि जब पश्चिमी दुनिया आरण्यक संस्कृति की ओर लौटने की कोशिश कर रही है, भारत में इसके उलट धारा बह रही है। मैकेंजी की रिपोर्ट के मुताबिक भारत ही नहीं, बल्कि समूचे दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, पश्चिमी एशिया और अफ्रीका का एक भी शहर ऐसा नहीं है, जिसमें आबादी घटने की रुझान हो। दुनिया के इस काफी बड़े हिस्से में शहरी आबादी तेजी से बढ़ रही है। लेकिन मैकेंजी के मुताबिक जापान, दक्षिण कोरिया और चीन के भी कुछ बड़े शहरों की आबादी लगातार घट रही है।

अमेरिका के उत्तरी इलाकों में कई शहरों की आबादी कम होती जा रही है। दक्षिणी अमेरिका में सिर्फ क्यूबा की राजधानी हवाना का रुझान घटती आबादी वाला है। आबादी में सबसे तेज गिरावट रूस और पूर्वी यूरोप के बड़े शहरों में देखी जा रही है। इसके अलावा जर्मनी, स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस, आयरलैंड, इटली और तुर्की के भी कई शहर बड़ी तेजी से अपनी आबादी खो रहे हैं। बेशक दक्षिणी और पूर्वी यूरोपीय देशों में बेरोजगारी की मार ने भी लोगों को गाँवों या छोटे कस्बों की तरफ रुख करने को मजबूर किया है। यानी वहाँ भी सेंस ऑफ सिक्युरिटी गाँव ने ही लोगों को सौगात में दी है। अपने यहाँ हर तथ्य को पश्चिमी नजरिए से तौलने की करीब डेढ़ सदी पुरानी सोच है। तो क्या हम खुद मैकेंजी की रिपोर्ट के बहाने अपनी आरण्यक संस्कृति को लेकर विचार करेंगे...यह सवाल अब ज्यादा मौजूं बन गया है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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