धरती का बुखार

26 Jun 2010
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Global warming
Global warming
इंग्लैंड के पास बेहद कठिन नाम ‘ऐयाफ्याटलायोकेकुल’ वाला जो ज्वालामुखी फटा है, उसकी कोई सरल जानकारी भी किसी के पास थी नहीं यह भी नहीं मालूम कि कितने दिनों तक यह लावा उगलेगा और धुआं निकलता रहेगा। बस उससे बड़ा नुकसान यह हुआ कि कोई आठ-दस दिनों तक पूरा यूरोप ठप्प रहा। वह उड़ नहीं पाया। उसे उड़ने की बहुत बड़ी आदत है। इसलिए उसके लिए यह बहुत बड़ी खबर बन गई। यह कहीं और हुआ होता तो शायद इतनी बड़ी खबर नहीं बनती।सभी को लगा कि गर्मी इस बार थोड़ा पहले आ गई है और कुछ ज्यादा ही तेजी से आई है। अखबार वाले बता रहे हैं कि कम से कम तापमान में पिछले बीस साल का रिकॉर्ड टूटा है तो चालीस साल का रिकॉर्ड ज्यादा से ज्यादा तापमान में टूटा है। इस तरह के आंकड़े हमारे सामने रोज आते रहे हैं और लोग अपने-अपने साधनों से, अपने-अपने तरीके से इस गर्मी को झेलने का रास्ता निकालते रहे हैं। लू से होने वाले नुकसान भी सामने आए हैं। गुजरात और राजस्थान में इस बार अनेक लोगों की मृत्यु हुई है।

इससे पहले ठंड के मौसम में भी इसी तरह की बात सुनते रहे कि इस बार ठंड कुछ ज्यादा पड़ी है और देर तक पड़ी है। और उस मौसम में भी अभाव में किसी तरह जी रहे लोगों में से कुछ को अपनी जान देनी पड़ी थी। तब बेघरबार लोगों की चिंता नगरपालिकाओं को तो नहीं हुई पर देश की बड़ी अदालत ने जरूर इस बारे में न सिर्फ अपनी संवेदनाएं दिखाईं, नगरपालिकाओं को डांटा भी और तुरंत कुछ जगहों पर रैन बसेरे जैसी बुनियादी सुविधाएं खुलवाई थीं।

हमारा पढ़ा-लिखा समाज ठंड और गर्मी के मौसम के आंकड़ों को अभी हाल में इकट्ठा करना सीखा है। इसका इतिहास अंग्रेजों के आने के बाद का है। करीब सौ-सवा सौ साल पहले मौसम विज्ञान के विभाग बने थे और तब तो ये बहुत ही कामचलाऊ अवस्था में थे। पिछले दिनों में इसमें उपग्रह प्रणाली वगैरह से बहुत ज्यादा तरक्की हुई है, ऐसा माना जाता है। ऐसा माना जाता है इसलिए कि हमारे ये जो आधुनिकतम विज्ञान के यंत्र हैं, वे भी उस समय कोई ठीक जानकारी नहीं दे पाते, जब हमें वास्तव में मौसम की जानकारी चाहिए होती है।

कुछ साल पहले आई सुनामी को याद कीजिए। समुद्र तट से जुड़ी जमीन हमारे अनेक प्रदेशों में हैं। पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में महाराष्ट्र, गुजरात तक। छोटे-बड़े कई प्रदेश समुद्र में खुलते हैं। पर हम तो इस सुनामी का नाम ही भूल गए थे। और जब सुनामी आई तो किसी को भी उसकी जानकारी नहीं थी। हिंदुस्तान के ही नहीं, दुनिया भर के इतने सारे उपग्रहों के तैनात होने के बावजूद किसी को उसकी सूचना नहीं थी।

अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है, जब कुछ ही घंटों की बारिश में पूरी की पूरी मुंबई बह गई थी। वह जंगल में बसा कोई गुमनाम शहर नहीं है। देश की आर्थिक राजधानी और आधुनिकतम शहर है। वहां मौसम विभाग तो होगा ही न। उसको यह पता चलना चाहिए था कि शहर के ऊपर इतने जो बादल इकट्ठा हो रहे हैं, वे कहर ढा सकते हैं। फिर वहां हवाई अड्डा भी है। उनकी अपनी एक मौसम प्रणाली होती है जो बताती है कि कब तेज बारिश होगी, कब ओले पड़ेंगे और तेज हवाएं चलेंगी। इन्हीं आधुनिकतम माने गए यंत्रों की मदद से मिली जानकारी और चेतावनी को ध्यान में रख बड़े-छोटे जहाज ऊपर उड़ते हैं, नीचे उतरते हैं। तो हवाई अड्डे को भी पता नहीं चला। क्या वे सो रहे थे? नहीं। सब कुछ इतनी जल्दी से हुआ कि वे कुछ भविष्यवाणी ही नहीं कर पाए। तमाम आधुनिक यंत्रों के रहते हुए भी।

अगर धरती के गरम होने का असर समझना हो तो हमें अपने शरीर को उदाहरण मानकर समझना चाहिए। जब हम निश्चित तापमान पर रहते हैं तो स्वस्थ कहलाते हैं शरीर का तापमान एक डिग्री भी ज्यादा हो जाए तो कहते हैं कि बुखार हो गया। फिर हम उसे उतारने की कोशिश करते हैं क्योंकि ज्यादा तापमान सह भी नहीं सकते, उसी तरह धरती का गरम होना धरती का बुखार है वह बार-बार कह रही है कि उसका तापमान बढ़ रहा है, उसका तापमान बढ़ रहा है, उसका बुखार उतारने का उपाय किया जाए।इसी तरह, अभी कुछ ही दिनों पहले यूरोप में इंग्लैंड के पास बेहद कठिन नाम ‘ऐयाफ्याटलायोकुल’ वाला जो ज्वालामुखी फटा है, उसकी कोई सरल जानकारी भी किसी के पास थी नहीं। यह भी नहीं मालूम कि कितने दिनों तक यह लावा उगलेगा और धुआं निकलता रहेगा। बस उससे बड़ा नुकसान यह हुआ कि कोई आठ-दस दिनों तक पूरा यूरोप ठप्प रहा। वह उड़ नहीं पाया। उसे उड़ने की बहुत बड़ी आदत है। इसलिए उसके लिए यह बहुत बड़ी खबर बन गई। यह कहीं और हुआ होता तो शायद इतनी बड़ी खबर नहीं बनती।

तो मौसम को देखने का वर्तमान तरीका ज्यादा पुराना नहीं है। हमारा वर्तमान कैलेंडर तो बस 2009 साल पुराना है! इसमें से मौसम विज्ञान का इतिहास महज सौ साल का है। उससे पहले करीब 1900 साल तक लोग मौसम के आधुनिक यंत्रों के बिना भी जिंदा रहना जानते थे। इसलिए ब्रह्मांड और सौरमंडल तो छोड़िए, यह पृथ्वी, उसका वायुमंडल और उससे बनने वाला मौसम एक ऐसी पहेली है, जिसका बहुत थोड़ा-सा हिस्सा हम जानते हैं। उसमें हम क्या जानते हैं के बदले, क्या नहीं जानते हैं की सूची ज्यादा लंबी होगी। सिर्फ हमारा नहीं, पूरी मानव जाति का इतिहास यही बात बताता है।

आज यूरोप और अमेरिका के विज्ञान के आगे हम लोग भौंचक खड़े दिखते हैं। कई बार उन्हें भी जब पृथ्वी पर गर्मी, ठंड, मानसून या पानी या फिर बर्फ की भविष्यवाणी में बदलाव दिखता है, वह भविष्यवाणी खरी नहीं उतरती, तो वे एक शब्द का इस्तेमाल करते हैं। उसका नाम-एल निन्यो। कहेंगे कि यह एल निन्यो का असर है। यह क्या चीज है? यह उनके धर्मग्रंथ से लिया गया शब्द है। इस शब्द का अर्थ है- भगवान का बच्चा। यह बालक उदंड है, नटखट है, इसको पकड़ नहीं पाते। उसको गोद में बिठाकर जरा दूसरी तरफ देखा कि वह निपक, निकल जाता है। पत्थर मार के कांच तोड़ देगा या सुराही गिरा देगा। एल निन्यो। भगवान का ऊधमी बच्चा। अपनी भाषा में कहें तो बाल गोपाल, लड्डू गोपाल!

तो आधुनिकतम विज्ञान के जो जनक माने जाने वाले लोग हैं, उनने भी अपने बचाव के लिए एल निन्यो जैसा शब्द बचाकर रखा है। उसे वे वैज्ञानिक भी मानते हैं और उसको जोड़ा है प्रशांत महासागर से। इसलिए कि धरती जरा सी गर्म या ठंडी होती है तो प्रशांत महासागर इतना बड़ा है कि इस गर्मी का असर उसके पानी पर इतना पड़ता है कि एक अंगुल सतह अगर दशमलव एक अंश ज्यादा गर्म हो गई तो उससे निकली जो भाप है, उससे जो बादल बनेंगे, वे हमारे अनुमान को बिगाड़ देंगे। इसलिए हम यह मानकर चलें कि हमारा विज्ञान एल निन्यो ही है। मतलब भगवान का छोटा बालक है। हमारा मौसम विज्ञान अभी भी किशोर या वयस्क नहीं हो पाया है। वह अभी घुटने चल रहा है।

हमारे एक वन मंत्री थे। उन्होंने वन महोत्त्सव का एक दिन तय किया था। वह दिन मौसम के हिसाब से था। उस दिन पेड़ लगाने से वह टिकता था। लेकिन उस दिवस को लोग भूल गए। उसकी तारीख भी किसी को याद नहीं। अब पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाते हैं। उस दिन इतनी गर्मी होती है कि आप पेड़ लगा ही नहीं सकते। यह नयी प्लास्टिक संस्कृति जो आई है, उसने हमारे ऊपर अनेक प्लास्टिक त्यौहार भी लाद दिए हैं। इन बनावटी त्यौहारों का हम ढोल पीटते हैं। हम उनको मनाकर खुश होते रहते हैं। इस तरह जो काम हमें करना चाहिए, वह नहीं कर पाते।इसका मतलब यह नहीं कि हम इस विज्ञान को समझने की कोशिश न करें। वह तो हमें लगातार करते जाना है। लेकिन यह जानें कि हमारी हैसियत इसको पूरी तरह से समझ कर बर्ताव करने की नहीं है। कम से कम भविष्यवाणी करके अपने स्वार्थ के लिए चलने की गुंजाइश भगवान और प्रकृति बिल्कुल ही नहीं छोड़ते। इसलिए जब-तब गर्मी या ठंड ज्यादा पड़ती है या बारिश ज्यादा होती है। इसलिए समुद्र की बूंद के बराबर हमारी हैसियत है। मौसम के बारे में हमारा ज्ञान सचमुच अज्ञान ही है। इस ज्ञान को रोज चमकाएं लेकिन जब प्रकृति के सामने खड़े हों, इसका घमंड न करें।

बदलते मौसम की, गरम होती धरती की चिंता सबको है और यह स्वाभाविक है। अगर धरती के गरम होने का असर समझना हो तो हमें अपने शरीर को उदाहरण मानकर समझना चाहिए। जब हम निश्चित तापमान पर रहते हैं तो स्वस्थ कहलाते हैं। शरीर का तापमान एक डिग्री भी ज्यादा हो जाए तो कहते हैं कि बुखार हो गया। फिर हम उसे उतारने की कोशिश करते हैं क्योंकि ज्यादा तापमान सह ही नहीं सकते। उसी तरह धरती का गरम होना धरती का बुखार है। वह बार-बार कह रही है कि उसका तापमान बढ़ रहा है, उसका बुखार उतारने का उपाय किया जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा। यदि धरती को बुखार आएगा तो उस पर रहने वालों पर गंभीर संकट आएगा। इसलिए इसका उपाय समय रहते करना जरूरी है।

प्रतीक रूप में ‘अर्थ ऑवर’ मनाना स्वागत-योग्य है। लेकिन यह सिर्फ प्रतीक बन कर ही न रह जाए। ‘अर्थ ऑवर’ यानी एक विशेष दिन या रात को एक घंटे तक बिजली को बंद रखना। धरती को बचाने के ऐसे प्रतीकात्मक तरीके उन देशों के लिए तो ठीक हैं, जहां कभी एक क्षण भर के लिए भी बिजली बंद नहीं होती। नामी-गिरामी नेताओं और अभिनेताओं के नाम हो जाएं और कंपनियां इंडिया गेट पर बड़े-बड़े बोर्ड लगा दें, इससे ऐसा न हो कि हम वर्ष में एक दिन एक घंटे बिजली बंद कर ताली बजाएं, खुश हो जाएं कि अब धरती का बुखार नहीं चढ़ने देंगे। होना यह चाहिए कि जब जरूरत न हो, तब बिजली न जले। हमारे यहां तो इतनी बिजली भी नहीं है कि हम फिजूलखर्ची की बुरी आदत डालें। देश के कई हिस्सों में पांच-छह घंटे तक पावर कट होता है। उनसे क्या उम्मीद करते हैं कि वे उत्सवपूर्वक एक घंटा बिजली बंद रखेंगे? इसलिए सारे देशों में एक सी व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती।

पर्यावरण का संकट वास्तविक है और इसे नकली औजारों से नकली त्यौहारों से लड़ा नहीं जा सकेगा। इसके लिए वास्तविक तैयारी करनी पड़ेगी।कुछ माह पहले इसी तरह ‘धरती दिवस’ मनाया गया था। किसी को मालूम नहीं कि यह कब शुरू हुआ, किसने शुरूआत की। भारत सरकार का दिवस है या पर्यावरण मंत्रालय का या कि संयुक्त राष्ट्र का। एक चलन हो जाता है कि किसी ने कह दिया कि 22 अप्रैल को धरती दिवस है तो हम भी धरती दिवस मनाते हैं। इस चक्कर में हम अपने बने बनाए दिवस को भूल गए। हमारे एक वन मंत्री थे। उन्होंने वन महोत्सव का एक दिन तय किया था। वह दिन मौसम के हिसाब से था। उस दिन पेड़ लगाने से वह टिकता था। लेकिन उस दिवस को लोग भूल गए। उसकी तारीख भी किसी को याद नहीं। अब पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाते हैं। उस दिन इतनी गर्मी होती है कि आप पेड़ लगा ही नहीं सकते। यह नयी प्लास्टिक संस्कृति जो आई है, उसने हमारे ऊपर अनेक प्लास्टिक त्यौहार भी लाद दिए हैं। इन बनावटी त्यौहारों का हम ढोल पीटते हैं। हम उनको मनाकर खुश होते रहते हैं। इस तरह जो काम हमें करना चाहिए, वह नहीं कर पाते।

पर्यावरण का संकट वास्तविक है और इससे नकली औजारों से, नकली त्यौहारों से लड़ा नहीं जा सकेगा। इसके लिए वास्तविक तैयारी करनी पड़ेगी।

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