धरती कहे पुकार के (Say unto the earth)


हर छोटे-बड़े, अमीर-गरीब के चेहरे पर लाली खिला देने वाला लाल गुलाब हवा और पानी के स्वास्थ्य और स्वच्छता का प्रतीक भी है। कहते हैं कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपनी अचकन में यह खूबसूरत फूल सजाते ही नहीं थे, दिल्ली स्थित तीनमूर्ति भवन के लॉन में फूलों की क्यारियों को सहलाने, सराहने और उनमें पानी डालने को भी तत्पर रहते थे।

इसी तीनमूर्ति भवन में स्थित प्लेनेटोरियम आज धरती और सौरमण्डल के रिश्तों और पर्यावरण की कहानी दुनिया-जहान को सुनाता है। साथ ही जगाता है जल, जंगल और जमीन के नाजुक रिश्तों के प्रति संवेदना। भारत के अन्तिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना माउंटबेटन का 1960 में निधन हुआ तो प्रधानमंत्री नेहरू ने यहीं से गुलाब के फूलों का एक पूरा पोत भेजा था एडविना के प्रति संवेदना के प्रतीक स्वरूप।

यही सन 1960 वह मानक वर्ष है, जिसका हवाला देते हुए मौसम और पर्यावरण विषय से जुड़ी दुनिया की तमाम एजेंसियों ने समूची मानवता से अपील की है कि धरती माँ की गिरती सेहत का ध्यान रखो, ताकि तुम्हारे बच्चे और उन बच्चों के बच्चे भी सीख सकें खिलते गुलाबों संग हँसने का हुनर।

कार्बन उत्सर्जन से गर्म होती धरती


विशेषज्ञों की चिन्ता है कि धरती को बुखार चढ़ गया है, मौसम का मिजाज बदल गया है, जो सरकारों को समझ में नहीं आ रहा है। जलवायु परिवर्तन की वजह से बीमारियाँ बढ़ रही हैं, लोग मर रहे हैं, लेकिन उसकी चिन्ता सरकार को नहीं है। गौर करने की बात है कि आखिर धरती माँ को हरारत है क्यूँ। कौन सा इंफेक्शन उन्हें बीमार बना रहा है। इसका जवाब छुपा है उन कार्बन प्वाइंट्स में, जिसे हटाने के लिये आज हर कारपोरेट घराना व्याकुल है।

कार्बन उत्सर्जन प्वाइंट्स मतलब अपने स्तर पर कार्बन का कम-से-कम उत्सर्जन या ऐसा काम जिससे प्रकृति का कार्बन सन्तुलन बिगड़े नहीं। कार्बन उत्सर्जन जितना ज्यादा होगा, धरती सूर्य की गर्मी को उतना ही ज्यादा सोखेगी और बढ़ेगी गर्मी। कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को कम करने की मुहिम जारी है, पर बावजूद इसके कार्बन का स्तर घटने की जगह बढ़ता ही जा रहा है।

इस बात को कुछ यूँ समझ सकते हैं कि हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जन्म से 9 वर्ष पहले सन 1980 में पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 285 पीपीएम (प्रति दस लाख कण) था। सन 1960 में जब नेहरू जी अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को कांग्रेस की कमान सौंप कर रिटायरमेंट की ओर बढ़ रहे थे, इस बीच के 80 वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 315 पीपीएम तक पहुँच चुका था। 1960 से आज तक के महज पाँच दशकों में ही कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 390 पीपीएम तक पहुँच चुका है।

आने वाली पीढ़ियों का सोचें


धरती को चढ़ रहे बुखार से चिन्तित अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक के तमाम संगठन यह मंथन करने में लगे हैं कि 1950 में जैसी धरती हमारे बाप-दादाओं ने छोड़ी थी, क्या हम 2050 के युवाओं के लिये धरती माँ को उतनी ही हरी-भरी बनाकर सौंप सकते हैं। वैश्विक संगठन 2050 के जिन युवाओं की बात कर रहे हैं, वे कोई और नहीं, आज आपकी गोदी में, शहरों के पार्कों और गाँवों के खेत-खलिहानों, स्कूलों में खेल-पढ़ रहे वे बच्चे ही हैं, जिनको जरा सी खरोंच आ जाये तो हमारा कलेजा मुँह को आ जाता है।

यह वही बच्चे हैं, जिनके स्वास्थ्य की चिन्ता में यूनिसेफ ने सभी समझदार लोगों से स्वच्छ खेतों और फुटपाथों वाले स्वच्छता मिशन की दुहाई दी है। जिनकी भलाई और भविष्य का सन्देश देती प्रियंका चोपड़ा समूचे देश में घूम रही हैं। धरती को हरारत है। लापरवाही लगातार जारी है। सरकारें उदासीन हैं और जनता लापरवाह। लगता है मियादी बुखार की तैयारी है। सयाने वैद्य और विलायती डॉक्टर हरारत को कभी हल्के में नहीं लेते, क्योंकि बुखार मियादी हुआ तो उसकी आड़ में पचासों बीमारियाँ जड़ जमा लेती हैं।

यूनिसेफ की ही स्वच्छता दूत रोज जार्ज का सन्देश है कि प्रदूषण का हर कण खतरनाक है, मानव खासकर बच्चों के स्वास्थ्य के दुश्मन बैक्टीरिया, वायरस, फंगस भी स्वच्छ पर्यावरण और वातावरण में नहीं पनपते। रोज जार्ज और यूनिसेफ अभियान छेड़ें हैं उन खेतों की स्वच्छता का, जिनमें हम खर-पतवारों को जलाने से लेकर गन्दगी फैलाने तक के वह सारे काम कर रहे हैं जो सीधे नुकसान पहुँचा रहे हैं पर्यावरण को। इतना ज्यादा नुकसान कि अन्तरिक्ष में टंगी नासा के उपग्रह कैमरों की आँखे भी दिल्ली के चौतरफा हरियाणा, पंजाब और यूपी के खेतों में जलाए जा रहे कृषि अवशेषों को समूची धरती के पर्यावरण के 10 खतरों में शुमार कर चुकी है।

तापमान बढ़ता रहा तो...


तमाम वैज्ञानिक आँकड़े चीख-चीख कर चेतावनी दे रहे हैं कि पिछली शताब्दी में धरती की सतह का औसत तापमान एक डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ चुका है। यह कितना खतरनाक संकेत है इसका अन्दाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि महज 9 डिग्री फारेनहाइट तापमान बढ़ने से हिमयुग का अन्त हो गया था। एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने का मतलब है हिमालय और इस जैसे तमाम हिमाच्छादित पर्वतों पर लाखों साल में जमा हुई बर्फ का 5 फीसदी हिस्सा पानी बनकर समुद्र में समा जाना।

जल और वायु दोनों प्रकृति की देन हैं। प्रकृति इनके बदले हमसे कुछ चार्ज नहीं करती। इनका कोई मोल नहीं, इसलिये यह अनमोल हैं। अनमोल इसलिये क्योंकि ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा’ यह पाँचों तत्व ही हमारे अस्तित्व के मूल हैं। जल हमारे जीवन का आधार है और हमारे शरीर का 80 प्रतिशत हिस्सा जल ही है। धरती हमारी माँ है, जिसने करोड़ों साल तक लगातार और कठिन मेहनत से उगाया और खिलाया है जीवन। कोई कहता है धरती पर जीवन बाहर से आया तो चार्ल्स डार्विन के विकासवादी मानते हैं कि धरती पर जो भी जीवन है, जो भी फ्लोरा फाना है वह रस-रसायनों के योग और संयोग का परिणाम है। एक डिग्री तापमान बढ़ा तो मुम्बई जैसे शहरों की आधी बस्ती समुद्र में समा सकती है। और यह कोई वैज्ञानिकों का गुणागणित भर नहीं है, अब यह सिद्ध सत्य है कि समुद्र के तापज्वार में ही कभी गुजरात गौरव द्वारका नगरी विलीन हो गई थी। अगर औद्योगिक क्रान्ति से शुरू हुई जल और वायु को प्रदूषित करने की गतिविधियाँ सूचना क्रान्ति के युग में भी जारी रहीं तो औद्योगिक युग ठीक से पहले के मुकाबले धरती के औसत तापमान में सात डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी हो जाने का खतरा है।

यह तापमान वृद्धि हिम युग के बाद धरती के तापमान में आई वृद्धि से भी ज्यादा होगी, जब धरती का ताप महज 5 डिग्री बढ़ने से समूचा पर्यावरण बदल गया था और डायनासोर युग समाप्त हो गया था।

ऑक्सीजन - हमारी मेहनत की कमाई


जल और वायु दोनों प्रकृति की देन हैं। प्रकृति इनके बदले हमसे कुछ चार्ज नहीं करती। इनका कोई मोल नहीं, इसलिये यह अनमोल हैं। अनमोल इसलिये क्योंकि ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा’ यह पाँचों तत्व ही हमारे अस्तित्व के मूल हैं। जल हमारे जीवन का आधार है और हमारे शरीर का 80 प्रतिशत हिस्सा जल ही है। धरती हमारी माँ है, जिसने करोड़ों साल तक लगातार और कठिन मेहनत से उगाया और खिलाया है जीवन। कोई कहता है धरती पर जीवन बाहर से आया तो चार्ल्स डार्विन के विकासवादी मानते हैं कि धरती पर जो भी जीवन है, जो भी फ्लोरा फाना है वह रस-रसायनों के योग और संयोग का परिणाम है।

जीवन का बीज बाहर से आया या धरती ने खुद पैदा किया, इस पर वाद-विवाद हो सकता है, किन्तु यह तथ्य निर्विवाद है कि सात महासागरों से लेकर सात महाद्वीपों तक जो भी जीवन है, उसका आधार ऑक्सीजन है, इसीलिये इस गैस से युक्त हवा को कहते हैं प्राणवायु। और यह प्राणवायु ऑक्सीजन हमने खुद कमाया है। इस पृथ्वी पर ऑक्सीजन सदा से नहीं रही, धरती माँ की सन्तानों ने ही पैदा किया यह ऑक्सीजन।

महासागरों में पनपे आदि जीवन दूतों एक कोशिका वाले नैनो बैक्टीरिया और नन्हें शैवालों ने ही समुद्र के पानी और सूरज की किरणों के योग से कार्बन डाइऑक्साइड के अणुओं-परमाणुओं को खण्ड-खण्ड करके ऑक्सीजन का वह भण्डार तैयार किया, जिसके बलबूते विशालकाय ह्वेल-हाथी और चतुर सुजान मनुष्यों की फसलें लहलहा सकीं धरती माँ की कोख में। आज यही चतुर सुजान मनुष्य मेहनत से कमाई प्राकृतिक ऑक्सीजन को फूँक-ताप कर फिर से कार्बन डाइऑक्साइड का गुबार और अम्बार खड़ा करने के अप्राकृतिक कृत्य में तल्लीन और अपने सुखसाधन विस्तार में लीन है।

फूलों की जगह पौधे


धरती पर जो भी ऑक्सीजन है, वह वनस्पतियों की देन है, इसी तथ्य को ध्यान में रखकर मार्ग नामक संस्था ने फूलों के बुके की जगह फूलों वाले पौधों से मेहमानों का स्वागत करने और शादी ब्याह, जन्मदिन और सालगिरह जैसे अवसरों पर पेड़-पौधे ही गिफ्ट करने का अभियान छेड़ रखा है। संस्था की नर्सरी निदेशक श्रुति तिवारी कहती हैं कि हम जो भी फूल या बुके गिफ्ट करते हैं, वह प्रकृति को नुकसान पहुँचाकर ही करते हैं और कोई भी बुके तीन दिन के बाद सुगन्ध और सौन्दर्य की जगह दुर्गन्ध का प्रतीक बनकर कूड़ेदान में पहुँच जाते हैं, जबकि उससे आधी कीमत का पौधों का गिफ्ट सदैव सुगन्ध और शुद्ध ऑक्सीजन के प्लांट रूप में हमारे घरों के भीतर पहुँचता है।

बुके की जगह फ्लावर प्लांट बास्केट, चिकने वाला कागज वाले ग्रीटिंग कार्ड की जगह इलेक्ट्रानिक शुभकामना सन्देश, ट्रेनों के खुले वॉशरूम की जगह बायोटायलेट और कम पानी वाली तकनीकें अपना कर हम अपने स्तर पर पर्यावरण संरक्षण व सुधार के अभियान में योगदान दे सकते हैं। करोड़ों लोगों का छोटा सा योगदान बनता है पूरी प्रकृति को राहत पहुँचाने वाला अभियान, ठीक उसी तरह जैसे समुद्र में फैले प्रदूषणकारी तेल की घटना से उपजा पृथ्वी दिवस सरीखा वैश्विक कार्यक्रम।

हर साँस की कीमत 12.5 रुपए


“प्रदूषण का सलूशन” यह स्लोगन है उस कनाडाई कम्पनी का जो शुद्ध साँस का कारोबार करने सात समंदर पार अमेरिकी महाद्वीप से चल कर दिल्ली तक आ पहुँची है। चीन और भारत के अति प्रदूषित शहरों में प्रीमियम ऑक्सीजन का बाजार तलाश रही इस कम्पनी का दावा है “पर्वतों की शुद्ध हवा वाली बोतल मुँह से लगाओ, एक साँस भरो और प्रदूषणकारी सुस्ती, आलस्य व हैंगओवर से मुक्ति पाओ।”

कम्पनी का भारतीय कारोबार देख रहे पंजाबी कनाडाई जस्टिन धालीवाल के मुताबिक शुद्ध हवा वाली 8 लीटर की बोतल का मूल्य रखा है 2800 रुपए। चीन के शंघाई और बीजिंग में 12 हजार यूनिटें बेंच चुकी वैंकूवर की इस कम्पनी ने भारतीय बाजार के मद्देनजर शुद्ध हवा की सौ बोतलें ट्रायल के तौर पर दिल्ली पहुँचा भी दी हैं।

शुद्ध हवा के कारोबार में भी कम्पनी ने अमीरी और कम अमीरी का भेद कर रखा है। जो ज्यादा अमीर हैं और अतिशुद्ध साँस अफोर्ड कर सकते हैं, उनके लिये 27 डालर कीमत वाली प्रीमियम ऑक्सीजन बोतल और जो शुद्ध साँस में थोड़ी मिलावट झेल सकते हैं, उनके लिये बैंफ एयर की बोतल 24 डालर में।

वाटर फिल्टर से एयर फिल्टर की ओर


दो दशक पहले स्वच्छ पानी के लिये वाटर फिल्टर लगाने का चलन भारतीय घरों में शुरू हुआ था। आज वाटर फिल्टर की चौथी पीढ़ी का दौर है और आरओ (रिवर्स आस्मोसिस) का चलन आम हो चुका है जो पानी को उसी तरह से छानती है जैसे कोशिकाएँ अपनी दीवारों के जरिए जैविक द्रव्यों को निथारती हैं।

दिल्ली आज विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में बारम्बार शुमार किया जा रहा है और दिल्ली की सरकार कारों के चलन पर सम-विषम तिथियों के हिसाब से नियंत्रण को मजबूर है। फिर भी प्रदूषण पर लगाम लगने की जगह अब चलन शुरू हो चुका है ऑक्सीजन पार्लरों का। ऑक्सीजन पार्लर जहाँ आप थोड़ी देर बैठकर शुद्ध हवा फेफड़ों में समेटकर फिर से शहर की जहरीली हवा झेलने को निकल पड़ते हैं। कारों में एयर फिल्टर और घरों के एयरकंडीशनरों में एयर प्यूरीफायर अब आम हो चुके हैं। किन्तु बमुश्किल 0.5 प्रतिशत आबादी मशीनों के जरिए शोधित हवा और पानी की सुविधा उठाने की क्षमता रखती है। 99.5 प्रतिशत शहरी आबादी तो उसी जहरीली हवा में साँस लेने को मजबूर है।

पोखरा, इमली, कौआ और बिल्ली


राजा रानी आवैली, पोखरा खनावैली। पोखरा के तीरे तीरे, इमली लगावैली।।
एमिली के खोदरा में बत्तिस अंडा, रामचरण फकारे डंडा।।
डंडा गयल रेट में – मछरी के पेट में।
कौआ कहे कांव-कांव-बिलार कहे झपटो।।
आ लकड़ी क टांग धेइके रहरी में पटको रहरी में पटको।।


यूपी, बिहार के गाँवों में बच्चों को लोरी के जरिए दिया जाता है पर्यावरण संरक्षण खासकर जल, जीवन और वनों के सम्बन्धों का सन्देश। इस लोरी का मर्म यह है कि राजा-रानी वही हैं जो पोखरे खुदवाते हैं, उनके किनारे इमली के पेड़ लगवाते हैं। इमली के खोखले में पक्षी अंडे देते हैं। कोई रामचरण अगर इमली तोड़ने के लिये डंडा मारता है तो उससे पक्षियों के अंडों से लेकर पोखरे की मछली तक को नुकसान पहुँच सकता है। माहौल ऐसा है जिसमें कौआ और बिल्ली भी पर्यावरण के रखवाले हैं और डंडा मारने वालों को पकड़ कर अरहर के कड़े डंठलों वाले खेत में पटक कर मारने की सजा देने के लिए तत्पर रहते हैं। राजधर्म, मानव, धर्म, पक्षी पशु और पर्यावरण धर्म की कथा देश के गाँव में बच्चों को घुट्टी में पिलाई जाती रही है।

“यदि प्रधानमंत्री सचमुच स्वच्छता चाहते हैं तो वो सबसे पहले हमारे पानी के स्रोतों को बचाएँ। आज नदियों में जो गन्दा पानी जा रहा है, वो नगर निगम डाल रहे हैं। पंचायतें डाल रही हैं। अगर पीएम सफाई चाहते हैं तो सबसे पहले इस गन्दे पानी को पीने वाले जल में मिलने से रोकने का इन्तजाम करा दें। रिवर-सीवर के सेपरेशन का जो सिद्धान्त है, उसे लागू कर दें। अगर जल स्वच्छ रहेगा, तभी जीवन स्वच्छ रहेगा। पर्यावरण सुरक्षित रहेगा। ये जो हम इंडस्ट्री बना रहे हैं, उसने भूजल के भण्डार को खाली कर दिया है। भूजल का भण्डार केवल पीने के काम में लेना चाहिए। उसको इंडस्ट्री या खेती में कतई उपयोग नहीं करना चाहिए। हम लोगों ने इस वक्त देश के 70 फीसदी भूजल को खाली कर दिया है। भण्डारों को खाली कर दिया है। हमें भूजल के भण्डारों को भरने की जरूरत है। अगर तालाबों की बात करें तो पहले हर गाँव में 2-3 तालाब होते थे। लेकिन अब तालाबों की स्थिति विकट है। बड़े शहरों के तालाब बर्बाद हो चुके हैं। ताल-पाल और जाल, ये तीनों भारत में बाढ़ और सूखा मिटाने के इलाज थे। अब तालाबों में गन्दा पानी ही इकट्ठा होता है। फिलहाल तालाबों के आसपास से अतिक्रमण हटाना जरूरी है। तालाबों पर से कब्जे हटाने की जरूरत है...” मैगसेसे पुरस्कार विजेता और वॉटरमैन के नाम से मशहूर पर्यावरणविद राजेंद्र सिंह

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