एक बार फिर देशवासियों को कुर्बानी देनी होगी : हरीश मैसूरी

22 May 2014
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भुवन पाठक द्वारा हरीश मैसूरी का लिया गया साक्षात्कार पर आधारित लेख।

हरीश जी आप अपना पूरी परिचय दीजिए?
मै गोपेश्वर में रहता हूं। वर्तमान में उत्तरांचल के चमोली जिले में न्यूज रिपोर्टिंग का काम करता हूं। इसके अलावा मैं, जल, जंगल, जमीन, महिलाओं तथा शराब से जुड़े जन आंदोलनों में भी भाग लेता रहता हूं जिससे मुझे कई व्यवहारिक अनुभव प्राप्त हुए हैं।

मैसूरी जी, उत्तराखंड के जन आंदोलनों से जुड़े रहने के कारण आपने वहां के ऐसे कई आंदोलन देखे जिसमें वहां के नागरिकों ने अपने अधिकारों के लिए तथा अपनी जीवनचर्या को सुधारने के लिए संघर्ष किया, उनमें जल, जंगल, जमीन के आंदोलन हों या मसूरी का चिपको आंदोलन हो या फिर उत्तराखंड के पृथक राज्य का आंदोलन ही क्यों न हो उसमें वहां के सभी लोगों ने बढ-चढ़कर भाग लिया। आप इन सब आंदोलनों के बारे में थोड़ा-थोड़ा बताइए कि इनके पीछे लोगों की मान्यता क्या थी तथा इन आंदोलनों के क्या परिणाम निकले आदि।
अगर हम आंदोलनों की बात करें तो उत्तराखंड में आंदोलनों का एक लंबा-चौड़ा इतिहास रहा है यहां लगभग हर क्षेत्र के लिए आंदोलन हुए हैं। उत्तराखंड में आज जितने भी स्कूल हैं, उनमें से लगभग 90 प्रतिशत स्कूल आंदोलनों के द्वारा ही स्थापित हुए हैं। उत्तराखंड पुरातन काल से ही शिक्षा का केन्द्र रहा है यहां वैदिक काल से लेकर भारतीय दर्शन तक जितने भी ग्रंथ लिखे गए हैं उन सबकी रचना यहीं की गई है।

उत्तराखंड की जनता राष्ट्र की मुख्यधारा से कभी अलग नहीं हुई फिर वो चाहे राजे-रजवाड़ों का समय रहा हो या गोरखाओं का। 1962 अर्थात भारत-चीन युद्ध के बाद तक यहां परंपरागत रोजगार ही होता था। लेकिन उसके बाद उसकी स्थिति छिन्न-भिन्न होती चली गई, लोग फौज में भर्ती होने लगे लेकिन जैसे-जैसे फौज में भी पढ़ा-लिखा होना अनिवार्य हो गया और वहां फैक्ट्रियां तो उपलब्ध नहीं थी तो ऐसी स्थिति में वहां के लोगों ने पढ़ना-लिखना शुरू किया ताकि वो शिक्षित होकर रोजगार के लिए बाहर भी जा सकें। वो पढ़ने-लिखने के बाद रोजगार के लिए तो बाहर जाते थे लेकिन पढ़ाई वहीं करते थे। इसके लिए उन्होंने वहां शिक्षा के लिए आंदोलन चलाया।

पहले-पहल वहां पौलित्य का बहुल्य था उसके लिए वहां संस्कृत महाविद्यालय खोलने के लिए आंदोलन हुए। आज के दौर में जब अंग्रेजी स्कूलों की होड़ लगी है तो इसके लिए हम आंदोलन तो नहीं कर रहे हैं लेकिन समय की मांग को देखते हुए इसके लिए होड़ तो लगी ही हुई है। दूसरा हमने देखा कि उत्तराखंड में जंगलों के लिए भी आंदोलन चलते रहे हैं। उत्तराखंडवासियों का वनों से अपना एक गहरा तारतम्य रहा हैं।

हम अपने बांस के वृक्षों को बचाने का प्रयास न जाने कितनी पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। वहां पीढ़ियों से आम, पैया, बड़,पीपल तथा तुलसी को पूजने का प्रचलन चलता रहा है। 1974 के आस-पास अंग्रेजी शासन के दौरान वो लोग अक्सर यहां जंगलों का ठेका डाला करते थे। उस समय यहां साइमन एण्ड कंपनी नाम की बड़ी-बड़ी कंपनियां जंगल काटने आती थी उनके विरोध में तथा अपने पर्यावरण की रक्षा करने के लिए हमारे चंडी प्रसाद भट्ट, चक्रधर प्रसाद तिवारीे, सिरपाल सिंह कुंवर, महाजोशी मठ के बहुत सारे लोग, काॅमरेड गोविंद सिंह तथा गौरा देवी जी ने आंदोलन चलाए।

जंगलों को बचाने के लिए चले आंदोलन के समय चंडी प्रसाद भट्ट जी ने सभी राजनीतिक पार्टियों को बुलाकर यह तय किया कि अगर ये लोग हमारे पेड़ों को काटकर ले भी जा रहे होंगे तब भी हमें उन्हें रोकेंगे। इस प्रकार उस दौर में भट्ट जी ने बहुत महत्वपूर्ण काम किए। आज हमें लगता है कि पेड़ कट जाने के बाद उन्हें रोकने से क्या लाभ हमारा मकसद तो जंगलों को कटने से बचाना है। इसलिए हमने तय किया कि हम इन पेड़ों से चिपक जाएंगे, अपने हाथों के बीच पेड़ को जकड़ लेंगे।

उस समय के अधिकारी हमारी इन बातों को सुनकर बहुत हंसे लेकिन आगे चलकर उन्हें हमारी बातों तथा हमारी शक्ति को मानना ही पड़ा। साइमन एण्ड कंपनी को हमारे जंगलों से बैरंग लौटना पड़ा। हमारे देश ने इस आंदोलन को समझने का प्रयास किया हो, न किया हो, लेकिन जिन देशों में जंगल नष्ट होते जा रहे थे उन्होंने इस आंदोलन की महत्ता को जरूर समझा और फिर इस आंदोलन को एक नई दिशा मिल गई।

इस आंदोलन की सफलता के लिए महिलाओं की भागीदारी तथा उनके सामर्थ्य को आज भी याद किया जाता है। आज ही नहीं बल्कि कई वर्षों से भारत के नागरिक शराब की समस्या को झेलते आ रहे हैं और इसके खिलाफ आंदोलन भी लगातार जारी रहते हैं। आज से पहले भी सरकार को राजस्व की आवश्यकता थी जिसके लिए वो शराब को बढ़ावा देते आ रहे थे। लेकिन आज शराब के कारण पीड़ित परिवारों की महिलाएं शराब से एकत्र राजस्व से होने वाले विकास का विरोध कर रही हैं। लेकिन फिर भी सरकार पर इन बातों का कुछ प्रभाव नहीं पड़ रहा है। जिसके कारण आज घर-घर में ठेके खुल गए है।

आज तो मुख्यमंत्री ही शराब का सबसे बड़ा माफिया बन गया है, और वो तय करता है कि देश के जनता को कौन सा ब्रान्ड पिलाना है तथा कौन सा नहीं पिलाना है, कौन से ब्रांड पर कितना ठेका पड़ना है, कौन सा ब्रांड बेचना है आदि। आज सरकार ही सबसे बड़ी माफिया बनती चली जा रही है। हमारे देश में पहले लोकल शराब बनाने की परंपरा कायम थी लेकिन आज उसे अवैध बताया जा रहा है जबकि उससे इतने लोगों को नुकसान नहीं होता था जितने कि आज सरकारी शराब के कारण हो रहा है।

पहले शराब का इतना प्रचलन नहीं था लेकिन आज हमारी फौज में भी जब कोई 14-15-20 साल का लड़का भर्ती होता है तो उसे बीस साल से ही शराब पीना सिखा दिया जाता है। और जब वह रिटायर होता है तो वो पक्का शराबी बन जाता है क्योंकिउसे महीने में 8-10 बोतल कैंटीन से मिलती रहती है जिसका लाभ उठाने के फेर में वो पक्का शराबी बन जाता है। उत्तराखंड में आंदोलन तो होते रहे हैं लेकिन आज वहां आंदोलनों की ज्यादा आवश्यकता है क्योंकि आज वनों, नदियों पर तो संकट आ ही रहे हैं इसके अलावा जल पर भी संकट मंडराने लगा है।

आपको ये सुनकर ताज्जुब होगा कि आज ऋषिकेश से लेकर बद्रीनाथ और बद्रीनाथ से लेकर अलकनंदा नदी तक सौ छोटे-बड़े बांध प्रस्तावित हैं। हमारी नदियों को विदेशी एवं प्राइवेट कंपनियों को टुकड़ों में बेचा जा रहा है। आज लोगों का नदी पर मुर्दा फूंकने तक का अधिकार जाता जा रहा है। आज से पहले हम नंद प्रयाग में एक परियोजना को देख रहे थे लेकिन आज उस पर निजी कंपनी का अधिकार हो गया है।

आज लोगों की आजादी इतनी छिन गई है कि वो धूल तक का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। अब उनकी दादागिरी इतनी अधिक बढ़ गई है कि वो आज हमारा पानी, हमारी नदी तथा हमारे जल, जंगल तक को बेचने लगे गंगा पर बनने वाले बांधों में तो पानी सड़ता रहता है जिससे हमारी गंगा तक का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है। मैंने बहुत पहले अग्नि पुराण में ये बात पढ़ी थी जिसमें स्पष्ट लिखा था कि कलयुग के प्रथम चरण में ग्राम देवता नष्ट हो जाएंगे और द्वितीय चरण में गंगा लुप्त हो जाएगी मुझे लगता है कि उसकी शुरूआत हो चुकी है।

आज कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर हमारे पानी पर टिकी हुई है। हिमालय को मीठे पानी का अतुल भंडार कहा जाता है इसीलिए पूरी दुनिया इस पानी को बेचकर पैसा कमाने की इच्छा रखती है। आज हमारे जंगलों खासकर उत्तरांचल के जंगलों को लूटने का खतरनाक खेल शुरू हो रहा है। आज से पहले तक वहां के ग्रामीण लोग ही जंगलों को बचाया करते थे लेकिन आज सरकार नेशनल पार्क तथा नेशनल सेंचुरी बनाने का बढ़ावा दे रही है।

इसे देखने पर तो ऐसा लग रहा है जैसे वो जंगलों को बचाना चाहती है लेकिन कल ऐसा भी हो सकता है कि इनका ठेका किसी प्राइवेट कंपनियों को दे दिया जाए। नेपाल में हम इस खतरे को भुगत रहे हैं, भारत में भी ये खतरा आने वाला है। आज की तारीख में डील और डिफाइन नहीं है। आज भारत ने सबसे ज्यादा जंगलों तथा उसके जानवरों को बचाने का प्रयास किया है। फिर भी ये दुनिया का सबसे ज्यादा खतरनाक प्रयोग है कि इतने छोटे एरिया में कम से कम 10 से 12 तक छोटे नेशनल पार्क और 18 के आस-पास प्रस्तावित पार्क तक लगा दें, तो 18 के आस-पास नेशनल सेंचुरी बनेगी।

इनके बीच में जंगली जानवर , बाघ, तथा आदमी भी रहेगा जिससे आदमी के अस्तित्व पर भी संकट है क्योंकि ऐसा करके हम बाघ को आदमी की कीमत पर बचाएंगे। ऐसा करके सरकार यह सिद्ध करना चाहती है कि हम बाघों को बचा रहे हैं लेकिन हम ऐसा कह रहे हैं कि जब दुनिया का पहला बाघ आदमी ने नहीं बनाया तो दुनिया का अंतिम बाघ को भी आदमी नहीं बचा पाएगा और दुनिया को कोई भी सरकार नहीं बचा पाएगी।

आज सरकार को बाघों को बचाने में लाभ भले ही हो रहा हो लेकिन पब्लिक को कुछ लाभ नहीं हो रहा है। आज जिसके इकलौता बच्चे को बाघ खा जाता है जिसके घर में आग लग जाती है उसके संरक्षण के लिए सरकार कुछ भी नहीं कर रही है इसलिए लोगों के मन में छटपटाहट है वो आंदोलन करने के लिए एकजुट हो गए हैं। अभी तक लोग अपने-अपने स्तर पर आंदोलन कर रहे थे लकिन अब वो संगठित होते जा रहे हैं।

आपने मैती आंदोलन के बारे में पूछा, इसके बारे में मुझे बहुत ज्यादा अनुभव नहीं है। लेकिन मेरी, मुलाकात मैती आंदोलन के प्रेरक नारासन जी से कई बार हुई। इस आंदोलन के द्वारा पेड़ों को बचाने का प्रयास किया गया। आज से पहले भी हमारे यहां शादी-ब्याह में पेड़ लगाने की परंपरा रही है और इस आंदोलन ने इस परंपरा को और भी बढ़ावा दिया है ताकि लोग पेड़ों के महत्व को समझें और उन्हें बचाने का प्रयास करें।

उत्तराखंड राज्य आंदोलन से लोगों की क्या अपेक्षा थी वो अपनी अपेक्षाओं में कितना खरा उतरा है?
उत्तराखंड बनने से पहले, दिल्ली तथा लखनऊ के एयर कंडीशनर कमरों में बैठे अधिकारी वहां की विषम परिस्थितियों को जाने बिना कल्पना में ही वहां के लिए योजना बनाते थे। इन योजनाओं से वहां के लोगों को कुछ भी लाभ नहीं मिल पाता था इसीलिए वहां के लोगों ने मिलकर पृथक राज्य के लिए आंदोलन किया। इस आंदोलन में सभी पुरूष, महिलाएं तथा बच्चे भी सड़कों में देखे गए। इस आंदोलन का कोई एक नेता नहीं था बल्कि प्रत्येक व्यक्ति इसका नेता था। ये एक इतना बड़ा आंदोलन था जो इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था।

आखिरकार यह आंदोलन सफल हुआ और उत्तराखंड के साथ-साथ उसमें कुछ मैदानी इलाके भी जोड़ दिए गए। उसकी राजधानी तय करने की बात भी अधर में लटकती रही, उन्होंने देहरादून की बजाए गैरसैंण को राजधानी बना दिया। गैरसेंण में राजधानी होने से हमें यह लग रहा है कि हमारी राजधानी लखनऊ की अपेक्षा लंदन चली गई है। लखनऊ में हम किसी मंत्री से मिलकर अपना काम तो करवा सकते थे लेकिन अब तो ऐसा भी नहीं हो सकता। आज वहां किसी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को अपना तबादला भी करवाना है तो उसे मुख्यमंत्री जी से सलाह-मशवरा करना पड़ता है और जब तक वह मुख्यमंत्री से नहीं मिलेगा उसका काम नहीं हो सकता।

इसके अलावा एक और खतरनाक बात हो गई है, पहले उत्तराखंड के विधायक अपनी नीतियां तथा नियम बनाते थे लेकिन वो आज केवल ठेकेदारों के नुमाइंदे बनकर रह गए हैं। वो सिर्फ ठेके का ध्यान रखते हैं कि किसको देना है और कितना देना है। आज विधायकों को विधायक निधि दी जाती है उसका कोई मानक ही नहीं है, वहां के विधायक उस पैसे को अपने चुनिंदा गांवों या जहां-जहां उसके चमचे रहते हैं वहां कमीशन लेकर ठेकेदारी देता है। उससे अच्छा तो तभी था जब डी.आर.डी.ए. के पास योजना थी। कम से कम वे गांव में एक मानक के हिसाब से बांटने का काम तो किया करते थे।

आज खुद विधायक के कुछ दायित्व नहीं रह गए हैं वो खुद 5 साल के लिए ठेकेदार की तरह रहता है। पृथक राज्य बनने से केवल इतना लाभ हुआ है कि आज 70 बेरोजगार लोगों को विधायक की कुर्सी मिल गई है, उससे उसे एक मोटा वेतन तथा गाड़ियां मिल गई हैं। और उनके पीछे-पीछे अनेक ठेकेदार पैदा हो गए हैं। आज उत्तराखंड में ऐसी-ऐसी नीतियां चलाई जा रही हैं जो आज से पहले तक वहां नहीं थी। जो महिलाएं शराब की घोर विरोधी थी, आज उन्हीें महिलाएं के नाम से शराब के ठेके दिए जा रहे हैं। आज चंगोली की 554 महिलाओं के नाम से शराब के ठेके खुले हुए हैं लेकिन खुद उन महिलाओं को भी इस बात की जानकारी नहीं है। इस प्रकार आज वहां इतनी बड़ी साजिश की जा रही हैं जो बिना राजनीतिक सहयोग से कर पाना संभव नहीं है।

उत्तराखंड राज्य बनने से पहले हमने कई सपने देखे थे, वो सपने तो पूरे नहीं हुए उल्टे आज उस पर बुरे प्रभाव ही पड़ते जा रहे हैं। हमारी उत्तराखंड की सरकार ने अपना लाभ कमाने के लिए 26 विधेयकों को आंख मूंदकर हस्ताक्षर कर दिए और उसी दिन वो विधेयक पास भी हो गया जिस दिन उन विधेयकों का वेतन बढ़ाया गया था। उससे मिला पैसा विधायकों की अपनी जेब में चला गया। मुझे कहते हुए बहुत दुःख हो रहा है लेकिन मैं, नाम लेकर कहना चाहता हूं कि विपिन त्रिपाठी के बेटे पुष्पेश त्रिपाठी ने भी ऐसी हीे बातें की जिसकी हमें उम्मीद नहीं थी। आज लगभग सभी राजनैतिक पार्टियां और उसके कार्यकर्ता एक जैसे ही हो गए हैं।

मुझे लग रहा था कि वो इन सब बातों का विरोध करेंगे लेकिन उन्होंने विरोध का एक शब्द बोले बिना ही हस्तााक्षर कर दिए और चुपचाप वेतन जेब में डाल लिया। इस प्रकार आज की सरकार भी अपने विधायकों तथा कर्मचारियों को बढ़े हुए वेतन, पेंशन तथा भत्ते आदि का लालच दिखाकर खतरनाक कामों एवं विधेयकों को भी पास कराने लगे हैं। आज हमें उन विधेयकों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए और उन्हें निरस्त करना चाहिए। उस समय विधायकों को विधायक कोष में एक करोड़ रुपया मिलने लगा, अब वो उस पैसे को बांटेंगे।

आज उत्तराखंड में क्वालिटी मौजूद है या क्वान्टिटी?
आज वहां न क्वालिटी है और न ही क्वान्टिटी। इसके अलावा उसकी जांच करने वाला भी कोई नहीं है। वहां 5 साल के लिए कोई भी आता है और 5 साल के बाद चला जाता है। जो नेता 5 साल तक कुर्सी पर बैठा होता है, तो उस समय राज्य की जो स्थिति रहती है उसके जाने के बाद भी वही स्थिति रहती है और किसी दूसरे के गद्दी पर बैठने पर भी राज्य की स्थिति जस की तस बनी रहती है।

उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़ने वाले को राज्य बनने के बाद भी कुछ नहीं मिला और ताज्जुब की बात तो है कि इस आंदोलन के दौरान कुछ लोग तो आंदोलन के लिए अपना सब कुछ लुटा रहे थे वहीं कुछ स्वार्थी लोगों ने उसी दौरान अपने स्वार्थ पूरे किए, जिस स्थान पर पेड़ लगे होने के कारण उनका मकान नहीं बन पा रहा था उस दौरान उनका मकान आसानी से बन गया क्योंकि आंदोलन के नाम पर पेड़ों को कटवा दिया गया। अर्थात चीड़, सुराई या तुंद के पेड़ को रातों-रात चक्का जाम के नाम पर काट दिया गया। उस दौरान और भी खतरनाक प्रयोग हुए एक समय था जब अकाउन्टेन्ट को छुट्टी नहीं मिलती थी लेकिन उस दौरान उसने आंदोलन को भड़काया और 4 महीने की छुट्टी पर चले गये और उस दौरान अपना मकान बनवा लिया।

जो लोग आंदोलन में शामिल थे, जो उस दौरान मुजफ्फरनगर कांड या अन्य कांडों में शामिल रहे, जिन्होंने बहुत अत्याचार सहे, लाठियां खाई और जेल में रहे लेकिन वे मेडिकल न दे पाए जिससे न तो उन्हें कोई नौकरी मिली और न ही किसी तरह का मुआवजा ही मिला। इसके विपरीत जो लोग किसी भी तरह से आंदोलन में शामिल नहीं थे उन्होंने झूठी मेडिकल रिपोर्ट देकर नौकरी भी प्राप्त की और उन्हें सभी तरह के मुआवजे भी मिले। इस प्रकार उत्तराखंड बनने के बाद इस प्रकार के खतरनाक प्रयोग होते रहे।

जैसे कि आपको पता ही है कि वर्तमान में उत्तराखंड राज्य के प्राकृतिक साधनों जल, जंगल तथा जमीन पर मल्टीनेशनल का कब्जा बढ़ता जा रहा है और ये सभी प्राकृतिक संसाधन निजी हाथों में जाते जा रहे हैं तो ऐसी विषम परिस्थितियों में उत्तराखंड के बेरोजगार युवाओं के लिए क्या संभावनाएं हैं। यहां के युवा लगातार पलायन करते जा रहे हैं और यहां के संसाधनों पर लगातार कब्जा होता जा रहा है तो इन विषम परिस्थितियों में युवाओं के लिए क्या संभावनाएं दिखाई दे रही हैं?
बाहर जाकर बसने और यहां वापस आकर बसना इतना महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि एक जमाने में जब लोगों (मुसलमानों) ने देहरादून को कब्जे में किया, मैं, इस कास्ट विशेष या धर्म विशेष के लोगों का नाम नहीं ले रहा हूं तो, उस समय मुसलमानों ने बड़े गांवों को कब्जे में किया लेकिन आज वो गांव खाली पड़े हैं।

लगभग कई गढ़वाली लोग देहरादून शिफ्ट हो रहे हैं। तो ये आने और जाने की परंपरा लगी रहती है हमें, इससे विचलित नहीं होना चाहिए लेकिन इस बात से जरूर विचलित होना चाहिए कि हमारे पूरे उत्तराखंड के युवाओं में दिशाहीनता और चिंतन के धार कुंद हो रहे हैं। खासकर उत्तराखंड आंदोलन के बाद की हमारी नई पीढ़ी अब किसी आंदोलन की तैयारी में नहीं लग रही है बल्कि वो कुछ ठेकेदारी की तरफ अग्रसर होती जा रही है, उनमें से कुछ शराब के ठेके डालने की तैयारी में लगे हैं। सारे विश्व में छाई संस्कृति यहां भी दिखने लगी है जैसे यहां भी टेलीविजन तथा साइबर कैफे जैसे आधुनिक संस्कृति की सभी तकनीकें प्रवेश कर चुकी हैं जिससे हमारे वहां के बच्चे भी प्रभावित होते जा रहे हैं।

शिक्षा के स्तर में निरंतर गति से कुछ परिवर्तन आते जा रहे हैं, उसके क्या कारण हैं? आप कह रहे हैं कि मीडिया के प्रभाव के कारण वो इस तरफ बढ़ते जा रहे हैं। आपको क्या लगता है कि इसके लिए यही कारण जिम्मेदार हैं या कुछ और भी कारण हैं? आज रोजगार के संबध में विषम परिस्थितियां मौजूद हो गई हैं, कोई युवा अगर स्कूल, काॅलेज से निकलता है तो उसके सामने रोजगार एक बड़ी समस्या के रूप में खड़ी दिखाई देती है। अगर वह अपने घर में ही कुछ रोजगार तलाशे तो वहां भी जल-जंगल-जमीन पर भी सरकार का कब्जा हो गया है जिसे वो चाहकर कुछ घरेलू रोजगार का प्रबंध नहीं कर पाता है। क्या आपको लगता है कि इन स्थितियों के लिए केवल मीडिया ही जिम्मेदार है या आज के दौर का विकास भी इसके लिए जिम्मेदार है?
मैं, तो चिंतन की बात कर रहा था क्योंकि चितंन ही सबसे बड़ा होता है अगर वह ही कुंद हो जाए तो सब कुछ नष्ट होने लगता है और विकास हो ही नहीं पाता है। आज से पहले तक शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान अर्जित करना होता था क्योंकि वो मानते थे कि अगर आपके ज्ञान-चक्षु खुल जाएं तो रोजगार एक गौंड़ प्रयोजन हो जाते हैं लेकिन आज हमारे सभी वामपंथी साथी शिक्षा को रोजगार से जोड़ने की बात कर रहे हैं। विद्यालयों में आज विद्या पूरी तरह से लय हो गई है।

एक जमाने में विद्या के आलय होते थे वहां आज विद्यालय हो गई है, आज हम लोग शिक्षा के ढांचे को सूचनाओं को संग्रह केन्द्र बनाने लगे हैं और इसी कारण हम ज्ञान के प्रति दिशाहीन होते जा रहे हैं। आज लोग पढ़े-लिखे तो नहीं हैं लेकिन उन्होंने गुणा भाग नहीं पढ़ा है बल्कि उन्होंने विद्यालयों से सूचना केंद्रों में बदल चुके केंद्रों से सूचनाएं प्राप्त करने के साथ-साथ सब तरह की कम्प्यूटराइज्ड शिक्षा प्राप्त ही है। कम्प्यूटरों तथा इसी तरह के मशीनी उपकरणों में संवेदनाएं तो होती नहीं हैं जिससे हमारे दिमाग भी संवेदनहीन होते जा रहे हैं। आज की आधुनिक तकनीकी में संवेदनाओं और समय का आभाव हो गया है।

हम ये कह रहे हैं कि आज ज्ञान की धार कुंद हो गई है इसलिए विद्यार्थियों की समझ विकसित नहीं हा पा रही है और जहां तक हमारे संसाधनों की बात है, आज भी प्रकृति में मौजूद तमाम विरोधाभासों के बावजूद भी हमारे यहां जल के पर्याप्त भंडार मौजूद हैं।

हां , यह बात सही है कि आज हमारा चिंतन कुंद हो गया है और हमने सोचना बंद कर दिया है और दूसरा आज की राजनीति ने हमारे खान-पान तथा रहन-सहन को पूरी तरह से प्रभावित कर दिया है तो क्या ऐसे में हमें नई राजनीति खड़ी करनी चाहिए क्योंकि आज राजनीति हमारे जन-जीवन तथा शिक्षा जैसे सभी क्षेत्रों को प्रभावित कर रही है। क्या हमें एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था को अपनाना चाहिए जिसका आधार राजनीति हो?
जी! ये बात बिल्कुल ठीक है कि आज विद्यार्थियों के साथ ऐसे प्रयोग किए जा रहे हैं जो पहले कभी नहीं किए गए थे। आज एन.सी.आर.टी. के तमाम निदेशक भी विद्यार्थियों के लिए सिलेबस तय करते समय सरकार के निर्देशों का ही पालन करते हैं। ऐसी स्थिति में मुझे नहीं लगता कि जिस छात्र की सोचने-समझने एवं चिंतन की धारा कुंद हो गई हो वह किसी बाहर से संचालित ज्ञान से कुछ सीख भी पाएगा कि नहीं और वो राष्ट्रहित में कुछ कर पाएगा ऐसा भी नहीं लगता है। आज राजनीतिक रूप से तथा पार्टियों की विचारधारा के आधार पर शिक्षा में कई खतरनाक प्रयोग किए जा रहे हैं। उस प्रयोगों के ऐसे प्रभाव आएंगे जिसका खामियाजा केवल समाज को ही नहीं भुगतना पड़ेगा बल्कि पूरे देश को भुगतना पड़ेगा।

आज हमारी शिक्षा व्यवस्था भी बाहर से संचालित हो रही है। हमारी शिक्षा का आर्ट डिजाइन मानलो अमेरिका से तैयार होकर आता है। वहां 16-17 साल का बच्चा (अभी कल-परसों की खबर है) भी बंदूक उठाता है और 7-8 लोगों को मार डालता है। तो इससे हम भी उसी संस्कृति की तरफ बढ़ते जा रहे हैं हमारे खिलौने तथा हमारे मार्केट भी चीन तथा अन्य देशों के सामान से भरते जा रहे हैं। आज वो ऐसी पिचकारियों का प्रयोग कर रहे हैं जिससे होली के दिन पानी फेंका जाता है जिससे बच्चों को बहुत मजा आ रहा है तो वो दिन भी दूर नहीं जब वो इस तरह की बंदूकों से गोली भी चलाने लगेंगे। हमारे देश में भी प्राथमिक विद्यालय से लेकर उच्च विद्यालयों तक विदेशी शिक्षा प्रणाली ही पनपती जा रही है।

आप आज की शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा के बारे में जो कुछ भी कह रहे हैं मैं, उससे पूरी तरह सहमत हूं। एक जमाने में राजऋषि पुरूषोत्तम टंडन और डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे शिक्षाविद् शिक्षा तथा राजनीति के क्षेत्र में आते थे आज वहीं इस क्षेत्र में सारे ठेकेदार, माफिया, जैसे लोग आ रहे हैं इसमें 26 हत्याओं के आरोपी उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध मंत्री तथा डी.पी. यादव जैसे लोगों के नाम लिए जा सकते हैं। तो क्या वे लोग शिक्षा के बारे में कुछ भी सोच सकते हैं? शिक्षा के बारे में तो वही सोचेंगे जिनका शिक्षा से संबध हो, लेकिन आज इस बारे में हत्यारे तथा माफिया लोग सोच रहे हैं। एक जमाने में हमारे देश में राज्य सभा अर्थात उच्च सदन का निर्माण इसीलिए किया गया था कि अगर जनता मूर्ख, डकैतों तथा माफियाओं को चुन भी ले तो राज्य सभा में कुछ अच्छे लोगों तथा कुछ क्षेत्रों में नाम कमाए हुए लोगों को वहां स्थापित किया जाए जिनकी मदद से देश तथा समाज का भला हो सके।

लेकिन आज माफिया तथा शराब माफिया के तौर पर काम करने वाले व्यक्ति, दुर्भाग्य से मैं उनका नाम नहीं ले सकता वे, हमारी राज्य सभा के सदस्य बने बैठे हैं। अगर हमारी राजनीति में ऐसे लोग मौजूद रहे तो न केवल हमारी शिक्षा व्यवस्था बल्कि हमारा सब कुछ ही चौपट हो जाएगा।

शिक्षा की तरह इन राजनीतिज्ञों ने हमारी धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं के साथ भी छेड़छाड़ की है। आज हम धर्म को एक हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। राजनीतिज्ञों का अपना तो कोई धर्म नहीं है लेकिन वे औरों की धार्मिक मान्यताओं में हस्तक्षेप करते नजर आते हैं। आज हमारी संसद में ऐसे नेता भी बैठे हुए हैं जिनकी चार बीवी मुसलमान हैं और दो बीवी हिन्दू हैं, अब आप ही बताइए उस आदमी का क्या धर्म हो सकता है, या धर्म से उसका क्या लेना-देना हो सकता है? लेकिन फिर भी यही लोग धर्म को एक औजार के रूप में प्रयोग कर रहे हैं।

ये लोग धर्म के नाम पर लोगों को भड़काने का प्रयास करते रहते हैं लेकिन गोधरा कांड ने इनकी पोल खोल दी। गोधरा कांड के रूप में इन लोगों का कहना था कि इसे इन्होंने ही फैलाया है लेकिन जब इस विषय पर बनी कमेटी ने उनसे पूछताछ की तो इन्होंने कहा कि यह तो एक साधारण दुर्घटना थी और बाद में उसका राजनीतिकरण किया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि ये राजनीतिज्ञ तो प्राकृतिक आपदाओं पर भी नजर गड़ाए बैठे हैं कि कहां आपदा घटे और हम उसका राजनीतिक रूप से प्रयोग करें। फिर चाहे सूनामी हो, भूकंप हो या किसी भी तरह की रेलवे दुर्घटना हो सभी तरह की प्राकृतिक दुघर्टनाओं में राजनीतिक रूप से लाभ कमाने का प्रयास किया जाता है। ऐसी राजनीति से ज्ञान, ध्यान, दर्शन या चिंतन की उम्मीद कैसे रखी जा सकती है।

ये सारी पद्धतियां चाहे वो शिक्षा हो, अर्थतंत्र हो, धर्म हो या फिर स्वास्थ्य हो लगभग सभी में कुछ न कुछ गड़बड़ दिखाई देती है। आपको क्या लगता है कि इस तरह के माहौल एवं विषम परिस्थितियों में किस तरह की मुहिम चलाने की आवश्यकता है?
इस सब के लिए हर परिवार, हर मोहल्ले और हर परिवार में जागरूकता आनी चाहिए। ऐसा नहीं कि इस सब से सभी परिवार पीड़ित नहीं हैं। पीड़ित तो हैं लेकिन उनके ज्ञान की धारा कुंद हो गई है जिससे वो समझ नहीं पा रहे हैं कि उनको क्या करना चाहिए। उनके अंदर छटपटाहट तो है लेकिन वो बाहर नहीं आ पा रही है और मुझे लगता है कि यही स्थिति सबसे खतरनाक होती है।

आज जब हमारे ज्ञान की धारा कुंद हो गई है, हमारी शिक्षा में केवल सूचनाएं ठूंसी जा रही हैं और हमारी राजनीति में भी दोष आ गए हैं तो ऐसी स्थिति से बाहर निकलने के लिए हमें किस तरह के आंदोलन की आवश्यकता है? या हमारे युवाओं, महिलाओं, बुजुर्गों तथा पुरूषों को किस तरह के आंदोलन के प्रयास करने चाहिए? आपने दो शब्दों का प्रयोग किया है विद्या और ज्ञान, आप इसे क्या मानते हैं? अगर आप इसपर कुछ बोल पाएं तो हमें समझने में आसानी होगी।
मैं ये जरूर कहना चाह रहा हूं कि ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं है जिसको घुमा दिया जाए और एक दिन में हमारा आंदोलन या समाज की दशा-दिशा ठीक हो जाए। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसमें कुछ सुधार नहीं किया जा सकता। हम बड़े आशावादी हैं और इसके लिए हमें साफ-साफ देखना पड़ेगा कि हम किस चिंतन से प्रभावित हो रहे हैं। गांधी जी ने एक चीज कही थी कि अगर आप किसी देश को नष्ट करना चाहते हैं तो सबसे पहले उसकी संस्कृति को नष्ट करो।

इस समय वो काम हो भी रहा है पूरी दुनिया में सभी देशों की अपनी-अपनी संस्कृति थी, भारत की भी अपनी स्मृद्ध संस्कृति थी। लेकिन आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां सबको अंग्रेज बनाने पर तुली हुई है। आज अधिकतर लोग अंग्रेजों के बाल, स्टाइल तथा भाषा का प्रयोग करने लगे हैं ताकि वे न केवल मानसिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी अंग्रेज की ही तरह दिखाई दें। इससे हमारे देश की अपनी संस्कृति, वेश-भूषा, खान-पान, रहन-सहन तथा अपना चिंतन भी खत्म हो जाएगा, हम भी यंत्रवत होकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह सोचने लग जाएंगे। हमें इन सभी बातों पर गहराई से विचार करना होगा।

हमें अपने देश के मूल चिंतन पर विचार करना होगा। जैसे स्वामी रामदेव जैसे एक अदना से आदमी ने हरिद्वार में बैठकर (वो कितने सही हैं या गलत हैं इसके बारे में मैं, कुछ नहीं कहना चाहता हूं) एक रात में ही सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ड्रग माफियाओं के लिए चुनौती खड़ी कर दी। आज लोग पहले उनके प्रयोग करते हैं और उसके बाद उसके लाभ या नुकसानों की गिनती करते हैं। हम अपनी शिक्षा में भी इसी तरह के प्रयोग कर सकते हैं। वैसे तो हम कह रहे हैं कि पूरे कम्प्यूटर चिप्स में पूरी धरती के पांचों तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीरा मौजूद हैं लेकिन कम्प्यूटर चिप्स में इसके बारे में चिंतन करने वाला शायद ही कोई शब्द हो।

पूरे मैकेनिज्म को अपने अंदर समाने वाला कम्प्यूटर इसके बारे में चिंतन करने से मना करता है और वहीं हमारा भारतीय दर्शन का चिंतन इसी पर केन्द्रित रहता है। वो किसी धर्म, जाति, भ्रम में नहीं पड़ते थे वे तो केवल मौलिक चीज को पकड़ते थे। हम क्षिति, जल, पावक, समीर, आकाश के संरक्षण के लिए उपाय करते थे कि हमारी किस तरह की वर्जनाएं, सीमाएं तथा परिवर्तन हों। हमें कब उठना, कब सोना है तथा किस तरह का चिंतन-मनन करना है इन सभी बातों की जानकारी देना हमारा मकसद होता था। ऐसे में अपराध की गुंजाइश नहीं रहती थी। लेकिन जब हमारा चिंतन दिमाग पर आधारित होकर एक ही रात में करोड़पति बनने का होता है तब हमारे लिए पूरी संस्कृति, पूरा आचार-विचार खत्म हो जाता है।

आज शिक्षा से वैल्यू खत्म करके हम वैट के पीछे पड़ गए हैं। आज हमें मौलिक चिंतन करने की जरूरत है जो सिर्फ और सिर्फ शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। इसी के माध्यम से हम जल, जंगल तथा जमीन के संरक्षण की बात कर पाएंगे। हमने कभी भी हिन्दू-मुस्लिम को लड़ाने या भारत पाक सीमा बनाने के बारे में नहीं कहा, हमने अमेरिका तथा चीन की चिंता कभी नहीं की। बल्कि हमारा चिंतन तो वसुधैव कुटुम्बकम् पर आधारित रहा। आज वे भी ग्लोब विलेज की बात कर रहे हैं।

उन ग्लोब विलेजों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कोकाकोला तथा पेप्सी आदि उत्पादों के लिए जगह है और जो बाकी पूर्ण रूप के गांव हैं वहां ये सब चीजों की मनाही है। विश्व में रेड क्राॅस जैसी मल्टीनेशनल अधिकारी संस्थाए थी वो आज रेड क्राॅस इंडिया, अमनेस्टी-इंटरनेशनल था आज वो अमनेस्टी-इंडिया हो गया। इस प्रकार जो संस्थांए पूरी दुनिया में काम करने के लिए एकजुट रहती थीं उन्हें काट दिया गया है।

ग्लोबल विलेजों का निर्माण भी इसलिए किया गया है ताकि सिर्फ उनकी चीजें बिक पाएं और हमारा कोई भी उत्पाद वहां न बिकने पाए इसके लिए पैटेन्ट और डब्ल्यू.टी.ओ. जैसे तमाम खतरनाक प्रयोगों से गुजरना पड़ता है। अगर मुझे वर्ष का सही ज्ञान हो तो वर्ष 1974 में एक यूपेक संगठन बना था वह तेल बेचने वालों का संगठन था। उन्होंने कहा कि हम तेल को दो रुपए बैरल क्यों बेचें हम अपने तेल को दौ सौ रुपए बैरल बेचेंगे। जिस समय यह बात हो रही थी उस समय विश्व बैंक जरूरतमंद लोगों को कर्जा बांटा करता, अगर वह हमें दो करोड़ रुपया देता तो उस खबर को अखबार के फ्रंट पेज में जगह दी जाती थी लेकिन आज वह एक प्राइवेट संस्था को दो हजार करोड़ रुपया देता है तो कोई खबर नहीं बनती है।

इसके कारण यूपेक देशों का जो संगठन बना, ये विश्व बैंक के द्वारा मार्केट में पैसा लगाते हैं। आज बहुराष्ट्रीय तथा विश्व बैंक में कोई फर्क नहीं रह गया है, ये विश्व बैंक का मुखौटा बनकर काम करती हैं। वो मल्टीनेशनल के द्वारा पैसे को मार्केट में फेंकते हैं। ये अपनी पोलिसी के तहत हमसे कई शर्तें मनवाते हैं और हमें उनकी शर्तों को मानना पड़ता है। जब हमने कहा कि नहीं, हम ये सब नहीं चलने देंगे हम सजल धारा का प्रयोग नहीं करेंगे, हम जे.एफ.एम. नहीं चलाएंगे तो उन्होंने कहा कि आप सर्व शिक्षा का प्रयोग कर लीजिए। वो तो आपके अपने देश की योजना होगी।

उसकी शर्तों के अनुसार आप पहले हमसे कर्जा लो, फिर अपनी योजना निम्न नियमों के आधार पर बनाओ तो इस प्रकार ये सर्व शिक्षा वाला भी उन्हीें का छुपा हुआ एजेंडा है। इस प्रकार आज छुपे हुए खतरे बढ़ते जा रहे हैं आज हमारी सरकार बहुत सारी साजिशें चला रही हैं यहां तक कि इन योजनाओं को पूरा करने और इन्हें चलाते रहने का समय भी सरकार ही तय करती है। इसी तरह वाशिंगटन डिसिजन का मूल उत्पाद निकला ‘सजल’। आज भी हम भारत में पानी को कृष्ण भगवान समझते हैं, प्याऊ लगाते हैं और दान करते हैं। लेकिन अब वे भारत में भी पानी को एक उत्पाद के रूप में परिचय कराना चाहते हैं।

लेकिन आज से पहले तक जब हमने पानी के संबंध में जो विकास किए या जिन योजनओं पर काम किया तब ये सजल जैसी चीज कहां थी? हम पहले से ही पुदीना सरसेत वगैरह लगाया करते थे, पानी को शुद्ध करने के गुण जानते थे, हमारी बहुएं शादी होने के बाद पहला काम पंदेर पूजने का किया करती थी अर्थात वो एक रस्म की तरह पानी को पूजने का काम किया करती थी।

वहां के लोग पत्थरों के सीने को चीरते हुए मीठे पानी को निकाला करते थे उस समय यह सजल तो नहीं हुआ था। आज सजल के नाम से हमारे ऊपर विश्व बैंक का कर्जा चढ़ गया है। उसके लिए आज ऐसे खतरनाक नारे दिए जा रहे हैं कि कोई भी सामान्य आदमी उन नारों से भ्रमित हो सकता है। आज हमारे सारे गांव सजल के दुष्चक्र में फंस चुके हैं। उन गांवों की सभी जानकारियां जैसे कुत्ता, बिल्ली, गाय, बैल, भैस, मिट्टी, पत्थर तथा गोबर के साथ-साथ वहां कितने पत्ते झड़ते हैं, इन सब के भी आंकड़े तैयार करके वन संस्थाओं तथा इससे संबधित अन्य संस्थाओं से कई बार जांच कराकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दे दिए जाते हैं। आज लगभग पूरी दुनिया के कम्प्यूटरों में वो जानकारियां पहुंच चुकी हैं और वे लोग अपने लाभ के लिए उन आंकड़ों का प्रयोग करते आ रहे हैं।

आज गांवों में होने वाले आर्थिक सुधारों को जांचने के लिए एक और सर्वे हो रहा है, उसके बारे में आपका क्या कहना है?
हमारे सामने बड़ा खतरनाक प्रयोग हो रहा है वे पानी को बेचने का काम कर रहें हैं और हमें कहा जा रहा है कि तुम्हारा सजल हो रहा है। उसी तरह से ज्वाइंट फाॅरेस्ट मैनेजमेंट काम कर रहा है। पहले हम लोगों ने जंगल के आंदोलन चलाए, अपने जंगल बनाए, अपना प्लाॅट बचाया और हम लोग जल निधीकरण के पोषक भी रहे हैं। हमने धरती को पंच वृक्षों की पूजा का विचार दिया। हमने पूरी दुनिया को तुलसी का विचार दिया जबकि तब हमारे पास वन प्रतिबंधन की योजना भी नहीं थी। उस समय हम अपने जंगलों को बचाने की शिक्षा नहीं देते थे लेकिन फिर भी हम लोग अपने वनों को बचाने का प्रयास तो करते ही रहते थे और साथ ही साथ पेड़-पौधों को भी उगाते रहते थे। इसके अलावा हम जंगलों में खेती करने का काम भी करते रहते थे।

भले ही वन प्रबंधनों से जंगलों को नुकसान हुआ हो लेकिन उससे पैसा तो आया ही है?
हमारी ग्रामीण भारतीय संस्कृति को आज टी.वी. और इंटरनेट ने छिन्न-भिन्न कर दिया है। भारतीय संस्कृति में और कुछ हो न हो, लेकिन उसमें अपनी धरती, अपने पर्यावरण तथा अपने लोगों के प्रति चिंतन अवश्य था। जबकि आज प्रसारित बहुराष्ट्रीय संस्कृति में आम आदमी, हमारी धरती तथा उसके पर्यावरण के विषय में कोई चिंतन नहीं है, उसका तो केवल एक ही चिंतन है अपना लाभ और अपने अधिकतम लक्ष्यों को प्राप्त करना। वो सोचते हैं कि आज हमारा लाभ चार सौ करोड़ है तो अगले साल दुगना होकर आठ सौ करोड़ होना चाहिए।

जब हमारे देश में लाल बहादुर शास्त्री के समय में अकाल पड़ा और हम भुखमरी के कगार पर थे तो उस समय हमारे देश में आस्ट्रेलिया तथा अन्य देशों से लाल गेहूं और आटा आता था। लेकिन आज हमारे देश में ऐसी कई चीजें आ रही हैं जिन्हें भारत में भी पैदा किया जाता है और किया जा सकता है लेकिन अन्य शक्तिशाली देश हमारे देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करने के लिए इस तरह के प्रयोग करते जा रहे हैं। विदेशी मुल्कों की इन्हीं नीतियों के चलते कनाडा की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है और अब भारत भी उसी रास्ते पर चल पड़ा है। ऐसे में हमारी सरकारों को सही समय पर चेतना होगा और एक बार फिर हमारे देशवासियों को कुर्बानी देनी होगी। तभी हम अपने आने वाली पीढ़ी को एक सुरक्षित भविष्य दे पाएंगे। नहीं तो वन प्रबंधन से विकास कम और विनाश अधिक हो जाएगा।

एक और सवाल अभी उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून को बनाया गया है लेकिन कुछ लोग चाहते हैं कि जल्द से जल्द गैरसैंण को उसकी स्थायी राजधानी बना दिया जाए इसके बारे में आपकी क्या राय है?
इस बारे में एक बड़ा कुतर्क दिया जा रहा है कुछ लोग कह रहे हैं कि आज इंटरनेट का जमाना है तो चाहे उत्तराखंड की राजधानी देहरादून या गैरसैंण कहीं पर भी बना दी जाए हम इंटरनेट के माध्यम से अपना काम चला लेंगे। इसलिए हम कह रहे हैं कि जब आप कहीं से भी डील कर लेंगे तो गैरसैंण से ही क्यों नहीं कर लेते और गैरसैंण को राजधानी घोषित कर दीजिए।

गैरसैंण को राजधानी बनाने में आम जनता भी सहमत है। वहां के आम आदमी ने उत्तराखंड राज्य मिलने से पहले ही गैरसैंण को वहां की राजधानी घोषित कर दिया था और राज्य के लिए आंदोलन बाद में लड़ा गया। उत्तराखंड क्रांति दल ने गैरसैंण के चन्द्र नगर में राजधानी का शिलान्यास भी कर दिया था और बीजेपी ने वहां अपना शिक्षा कार्यालय भी खोला ताकि कल राजधानी बनने पर इसका प्रयोग किया जा सके। लेकिन आज कुछ-कुछ दल इसे राजधानी बनाने पर मुकर गए हैं और खासकर हमारी वर्तमान सत्ता के अध्यक्ष कहते हैं कि गैरसैंण को राजधानी बनाना चाहिए लेकिन पार्टी और सरकार कुछ और ही कह रही है उसके लिए उन्होंने आयोग का गठन कर दिया है और उसके कार्यकाल को बढ़ाते जा रहे हैं।

वे राजधानी के विषय को पांच साल तक लटकाते रहना चाहते हैं जबकि उत्तराखंड की पृथक राज्य के रूप में घोषणा करते समय उन्होंने कहा था कि तीन महीने के अंदर गैरसैंण को राजधानी बना दिया जाएगा। अगर गैरसैंण को राजधानी बना दिया तो उत्तराखंड का विकास अपने-आप ही हो जाएगा। चारों तरफ सड़कें बनेंगी, ढाबे खुलेंगे, पर्यटन बढ़ेगा और साथ ही साथ रोजगार भी बढ़ता जाएगा।

अंग्रेजों ने पौड़ी, नैनीताल तथा मसूरी जैसे शहर बसाए तो क्या हम, उत्तराखंड के लोग शहर बसाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे हैं। हमें इस सब के लिए एक बार फिर से आंदोलनकारी शक्तियों को एकजुट होना चाहिए। आज हमें शराब के खिलाफ तथा गैरसैंणको राजधानी बनाने के पक्ष में एकजुट हो जाना चाहिए। बस में यही कहना चाहता हूं।
 

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