एकतरफा विकास ने दिये धरती को गहरे जख्म


करोड़ों वर्षों में पृथ्वी ने लगातार अपना सन्तुलन बनाने और बचाने के जो भी रास्ते तैयार किये, हमने एक-एक करके सब ध्वस्त कर दिये। उदाहरण के लिये, एक बड़े-बाँध की योजना अपने 10 वर्षों के निर्माण के दौरान ही लाखों-करोड़ों वर्षों में पनपे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को स्वाहा कर देती है। नदियाँ मार दी जाती हैं। वनों को झील लील लेती है। धरती को गहरे जख्म मिल जाते हैं और गाँव गायब हो जाते हैं। आज पृथ्वी को प्रकृति के प्रतिकूल हजारों योजनाएँ बर्बाद करने पर तुली हैं। मनुष्य जिसे इसको संरक्षण देना था, वही इसे भक्षण करने में लगा है।

यह बात दूसरी है कि 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस के रूप में मनाने की बात अब कही गई हो, पर हमारे धर्मशास्त्रों में पृथ्वी को पूजने की प्रथा शायद इसलिये तय की गई थी कि हम हर पल पृथ्वी के उपकारों को याद रखें। भारतीय दर्शन में पृथ्वी व उसके उत्पादों का उल्लेख जमकर किया गया है। हमारे यहाँ प्रभु स्तुति से भी पहले पृथ्वी की पूजा इसके महत्त्व को बराबर याद रखने के लिये आवश्यक थी। पर पिछले हजारों सालों में इस पृथ्वी के साथ वह नहीं हुआ, जो पिछले 100-200 सालों में हुआ है।

अजीब-सी बात है कि करोड़ों वर्षों में पृथ्वी ने लगातार अपना सन्तुलन बनाने और बचाने के जो भी रास्ते तैयार किये, हमने एक-एक करके सब ध्वस्त कर दिये। उदाहरण के लिये, एक बड़े-बाँध की योजना अपने 10 वर्षों के निर्माण के दौरान ही लाखों-करोड़ों वर्षों में पनपे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को स्वाहा कर देती है। नदियाँ मार दी जाती हैं। वनों को झील लील लेती है। धरती को गहरे जख्म मिल जाते हैं और गाँव गायब हो जाते हैं। आज पृथ्वी को प्रकृति के प्रतिकूल हजारों योजनाएँ बर्बाद करने पर तुली हैं। मनुष्य जिसे इसको संरक्षण देना था, वही इसे भक्षण करने में लगा है।

पर पृथ्वी के साथ अब ऐसा व्यवहार ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है। टुकड़ों-टुकड़ों में धरती ने ये संकेत दे दिये हैं। तमाम तरह की आपदाओं ने हमें घेरना शुरू कर दिया है। सबसे हतोत्साहित खबर केपटाउन से ही है, जहाँ हर घर के पानी के नलके बन्द कर दिये गए। ब्राजील के साओ पाउलो से भी खबर आई है कि वहाँ पानी की राशनिंग हो रही है।

मैक्सिको सिटी हो या अन्य विकसित देशों के शहरों की बात हो, पानी के संकट ने खतरे की घंटी बजा दी है। सवाल यह पैदा होता है कि जब ये शहर विकास की दौड़ में पागलों की तरह भाग रहे थे, तब क्या इस तरह के संकटों से परिचित थे। शायद नहीं, क्योंकि अगर ऐसा होता, तो सधकर चलते। बड़ी इमारतों, यातायात के लिये लम्बी चौड़ी सड़कों व विलासिता के लिये बड़े उद्योगों के साथ हवा-पानी की भी चिन्ता होती, तो यह दिन देखने को नहीं मिलता।

वर्तमान में ही देखिए, बिना बात और मौसम की वर्षा व बर्फबारी अलग तरह के नुकसानों का कारण बनी हुई है। मात्र दूसरी तरफ दक्षिण एशिया के साढ़े चार करोड़ लोग अगस्त, 2017 में अनायास अतिवृष्टि और बाढ़ से प्रभावित हुए। उसी समय करीब 1,200 लोगों ने बांग्लादेश, नेपाल और भारत में जीवन भी खोया। ऐसे ही पूर्वी अफ्रीका ने 18 महीने के सूखे के बाद बाढ़ को भी झेला है और ये सब कुछ मौसम में बदलाव से जुड़ी हुई घटनाएँ हैं। गत वर्ष ही अमेरिका के टेक्सास और लुसियाना ने तूफान जैसी आपदा झेली और हजारों लोगों को बदहाली झेलनी पड़ी।

पृथ्वी के ये विभिन्न व्यवहार अचानक ही नहीं बदले। अगर पिछले 200 सालों के विकास के साथ इसका रिश्ता निकालने की कोशिश की जाये, तो साफ है कि पृथ्वी की इस दुर्दशा में हमारी एकतरफा विकासी सोच ही सामने आएगी। चलिए, अपने देश को देखिए, इसकी तेजी से बढ़ती आर्थिकी पर भले तालियाँ पीटी जा रही हों, पर दूसरी तरफ पानी के लिये सिर फुटव्वल भी उतनी ही जोरों पर है। वर्ष 2016 में हमारे देश में 33 करोड़ लोग पानी के लिये परेशान हो गए थे। उत्तराखण्ड में भगवान के दर्शन को जाती ऑल वेदर रोड के कारण कितने लोग हताहत होंगे, इसका अभी तो अनुमान भी नहीं है, पर वहीं वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी को हम झटपट भूल गए।

शायद ही देश का कोई राज्य हो, जहाँ पानी और पर्यावरण के सुख पर्याप्त हों। आजकल दक्षिण भारत में केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश व तेलंगाना-ये सभी लू का सामना कर रहे हैं और इसका सीधा दबाव जल संसाधनों पर पड़ता है। उदाहरण के लिये, केरल और तमिलनाडु में सूखा पड़ने जा रहा है और कर्नाटक के उत्तरी जिलों में लगातार तीसरे वर्ष सूखे की मार की आशंका जताई जा रही है।

यहाँ की नदियाँ हों या पानी के अन्य स्रोत, सबके सब गहरे जल संकट में जाने को तैयार बैठे हैं और अगर गर्मी का सिलसिला यही रहा, तो त्राहि-त्राहि मचनी तय है। वैसे यहाँ पिछले वर्ष भी लगभग 35 फीसदी कम मानसून पहुँचा था। ऐसे ही आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में भूजल 50 फीट नीचे जा पहुँचा है, जबकि यह 15 से 20 फीट के बीच में रहना चाहिए था।

अब संयुक्त राष्ट्र की अन्तरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन की ताजा रपट को ही देख लें। इसका विमोचन गत वर्ष याकोमा, जापान में आईपीपीसी द्वारा किया गया था। इसमें साफ इंगित है कि पृथ्वी के दिन बुरे होने की शुरुआत हो चुकी है। इसमें जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसानों का पूरा जिक्र है। इसके अनुसार वायुमण्डल बढ़ती कार्बन की मात्रा, भूख, संसाधन, विवाद, बाढ़, पलायन जैसी बड़ी विषमताओं को जन्म देगी।

पृथ्वी की चिन्ता को तो हम नकार ही रहे हैं, पर अपने जीवन को तो संकट में डालने की हमारी हिम्मत नहीं। इसलिये ‘पृथ्वी दिवस’ का नारा पृथ्वी को बचाने से बेहतर स्वयं के जीवन को बचाने वाला होना चाहिए।


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