एसटीपी और नदी अस्मिता

गंगाजल को प्रदूषित करता नाला
गंगाजल को प्रदूषित करता नाला

गंगाजल को प्रदूषित करता नाला (फोटो साभार - विकिपीडिया)नदी अस्मिता शब्द व्यापक अर्थों वाला शब्द है। वह नदी की अस्मिता को प्रदर्शित करने वाला कुदरती आईना है। इसलिये उस आईने में वही नदी दिखाई देगी जिसकी अस्मिता बरकरार है। ऐसी नदी को अविरल होना अनिवार्य है। उसमें पलने वाले जीवन को स्वस्थ तथा सुरक्षित होना अनिवार्य है। उसकी जैवविविधता को समृद्ध होना अनिवार्य है। उसके पानी में अपने आप साफ होने की कुदरती क्षमता मौजूद होना अनिवार्य है। उसके द्वारा व्यवधान रहित हो कुदरत द्वारा सौंपे दायित्वों का भली-भाँति निर्वाह करना अनिवार्य है। सारा विकास इसी अस्मिता की रक्षा कर किया जाना चाहिए।

आधुनिक युग में अधिकांश नदियाँ अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही हैं। नदी अस्मिता के अधिकांश घटक, बेहद कठिन दौर के मुहाने पर खड़े हैं। नदी अस्मिता की आंशिक बहाली मुख्यधारा में है। इस खामी के कारण नदी का प्रवाह, कछार और कछार में बसने वाला जीवन असुरक्षित हो रहा है।

नदियाँ जिन समस्याओं से जूझ रही हैं उनमें प्रमुख हैं कम होता गैैर-मानसूनी प्रवाह, पानी में बढ़ती गन्दगी, घटती बायोडायवर्सिटी और अविरलता पर बढ़ता संकट।

पिछले कुछ सालों में इन समस्याओं पर समाज का भी ध्यान आकर्षित हुआ है पर समस्या का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो हाशिए पर है। वह है कछार में पनपती विसंगतियाँ जिनके असर से कछार की मिट्टी तथा भूजल बर्बाद हो रहे हैं। वह मिट्टी तथा भूजल के अदृश्य प्रदूषण का स्रोत है। उसके कारण नदी की अस्मिता पर संकट गहरा रहा है। नदियों के पानी का अमरत्व समाप्त हो रहा है।

यह मुद्दा समाज के एजेंडे पर पूरी संजीदगी से है। समाज नदी अस्मिता के बदलाव को अनुभव कर रहा है पर वह उसे मुखरता से सामने लाने में वैज्ञानिकों जितना सफल नहीं है। उदाहरण के लिये जलीय जीवों की कम होती आबादी के आधार पर अनपढ़ मछुआरा भी बता रहा है कि नदी का पानी मछलियों के लिये मुफीद नहीं रहा। वह खराब हो गया है। नाविक बता रहा है कि नदी उथली हो गई है। उसे पार करने के लिये अब नाव की आवश्यकता नहीं है। नदी में स्नान करने वाला अनुभव के आधार पर बता रहा है कि पानी में अशुद्धता बढ़ गई है। नदी के पानी में आचमन करने वाले भी बता रहे हैं कि पानी की गन्ध बदल गई है। पानी पीने वाला बता रहा है कि पानी का स्वाद बदल गया है। फसल पर पड़े असर के आधार पर किसान पानी की गुणवत्ता पर अपनी सटीक राय देने में सक्षम हो चुका है। यह सही है कि समाज की टीप सांख्यकीय आँकड़ों या रासायनिक परीक्षणों पर आधारित नहीं है। वह नदी अस्मिता के संकट को प्रदर्शित करने वाला अवलोकन आधारित अनुभवजन्य ज्ञान है।

नदियों की अस्मिता की समग्र बहाली का मुद्दा हाशिए पर है। नदियों की अस्मिता से जुड़ा एकमात्र मुद्दा जो पिछले लगभग 30 सालों से मुख्यधारा में है वह नदियों में बढ़ती गन्दगी से मुक्ति का है। इसी कारण सारा ध्यान सीवर ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) लगाने पर हैं। सम्भवतः एसटीपी लगाने वालों को लगता होगा कि उन्हें लगाने के बाद नदियों की सभी समस्याओं यथा प्रवाह, बायोडायवर्सिटी, निर्मलता की प्राकृतिक बहाली और कुदरती जिम्मेदारियों के निर्वाह का समाधान हो जाएगा। नदी अस्मिता बहाल हो जाएगी। यहीं वे पूरी तरह गलत हैं।

प्रदूषण मुक्ति के मामले में गंगा पर सर्वाधिक ध्यान है पर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल द्वारा कराई ऑडिट रिपोर्ट से पता चलता है कि देश की नदियों के 351 हिस्से काफी प्रदूषित हैं। उनमें से 45 हिस्सों की स्थिति चिन्तनीय है। नदियों के लगभग एक तिहाई प्रदूषित हिस्से अकेले महाराष्ट्र, असम और गुजरात में हैं।

पवई से धारावी के बीच मीठी नदी, सोमेश्वर से राहेड के बीच गोदावरी, खेरोज से वास्था के बीच साबरमती और सहारनपुर एवं गाजियाबाद के बीच हिंडन नदी सर्वाधिक चिन्तनीय स्थिति में हैं। स्थापित क्षमता तथा पैदा हो रहे सीवेज का अन्तर 13196 मिलियन लीटर प्रतिदिन है। यह अन्तर लगातार बढ़ रहा है। इस कारण भारत को हर साल 8000 करोड़ डॉलर की हानि हो रही है।

यह पर्यावरणीय बिगाड़ की कीमत है। सभी जानते हैं कि सीवर के प्रभावी निपटान के लिये आवश्यक संख्या में एस.टी.पी, पर्याप्त धन और बिजली की सतत उपलब्धता के साथ-साथ कानूनों का पालन अनिवार्य है। यही वास्तविक कठिनाई है। उसके कारण बहुत सारा सीवर अनुपचारित रह जाता है।

कुछ जगह तो एसटीपी लगाने का उद्देश्य ही पराजित हो रहा है। इसके अलावा बजट आवंटन में भी विरोधाभाष है। गौरतलब है कि पिछले साढ़े तीन सालों में केन्द्र की ओर गंगा के लिये 3696 करोड़ और देश की बाकी 14 राज्यों की 32 नदियों के लिये 351 करोड़ उपलब्ध कराए गए हैं। नदियों की साल-दर-साल बिगड़ती स्थिति सम्भवतः इंगित कर रही है कि सीवेज के शत-प्रतिशत शोधन के लिये एसटीपी का विकल्प बहुत कारगर नहीं है। वह नदी अस्मिता से सम्बद्ध सारे मुद्दों के निपटारे के लिये बना भी नहीं है। इसलिये नई राह चुनना आवश्यक है।

पिछले कुछ समय से परिवहन के लिये नदियों को काम में लिये जाने की पैरवी हो रही है। गौरतलब है कि यह काम भारत में सदियों से नदी की परिस्थितियों के अनुकूल मालवाहक नावों की मदद से हो रहा था। इस कारण आज भी उस विकल्प को कुदरत के साथ तालमेल कर अपनाया जा सकता है।

यदि नई व्यवस्था नदी की मौजूदा क्षमता और कुदरत के नियमों के विरुद्ध होगी तो कालान्तर में नदी की अस्मिता को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। गाद का निपटान गम्भीर समस्या तथा आर्थिक संकट पैदा करेगा। सभी जानते हैं कि कुदरत के नियमों की अनदेखी के कारण बिहार में गंगा उथली हो रही है। बाढ़ का दंश भोग रही है।

परिवहन के लिये प्रवाह और गहराई की आवश्यकता होती है। दूसरे देशों के उदाहरण, जहाँ की जलवायु भारत से भिन्न हो, नदियों का चरित्र भिन्न हो वहाँ का उदाहरण भारत की बिल्कुल अलग परिस्थितियों के लिये अनुकूल होगा, को समग्रता में समझना आवश्यक है।

नदियों की मौजूदा हालत को देखकर लगता है कि अब आवश्यकता नदियों की अस्मिता बहाली की है। कछार की हानिकारक गतिविधियों पर लगाम लगाने की है। नदियों के प्रवाह को बढ़ाने की है। नदियों के प्रवाह को अविरल बनाने की है। जिन स्थानों पर अविरलता पर संकट है उन स्थानों पर अनुकूल व्यवस्था बनाने की है। दोहन को सन्तुलित तथा प्रकृति सम्मत बनाने की है। सही कदम उठाने के लिये कुदरत ने संकेत देना प्रारम्भ कर दिया है। सभी जानते हैं कि केरल में औसत से 36 प्रतिशत अधिक बरसात के बावजूद तीन सप्ताह बाद ही नदियों तथा जलस्रोतों का सूखना प्रारम्भ हो गया है। यह कुदरत की चेतावनी है। इस चेतावनी से सबक लेकर नए रोडमैप को गढ़ने के लिये सभी को आगे आना होगा।

 

 

 

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