गांधी के सपने का गांव ''हिवरे बाजार''

16 Jun 2009
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प्रशांत दुबे
एक गांव जहां पर लोग अपने उपनाम के रूप में लगाते हैं अपने गांव का नाम। एक गांव जहां पर व्यापक मंदी के इस दौर में मंदी का कोई असर नहीं हैं। एक गांव जहां से अब कोई पलायन पर नहीं जाता है। एक गांव जहां पर कोई भी व्यक्ति शराब नहीं पीता हैं । एक गांव जहां पर शिक्षक स्कूल से गायब नहीं होते हैं। एक गांव जहां पर आंगनवाड़ी रोज खुलती है। एक गांव जहां पर बच्चे कुपोषित नहीं है। एक गांव जहां पर राशन व्यवस्था ग्रामसभा के अनुसार संचालित होती है। एक गांव जहां पर गांव की सड़कों पर गंदगी नहीं होती है। एक गांव जिसे जल संरक्षण का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। एक गांव जहां हर घर गुलाबी रंग से पुता है। एक गांव जहां गांव के एकमात्र मुस्लिम परिवार के लिये भी मस्जिद है। यह उस गांव के हाल हैं जहां सत्ता दिल्ली/बंबई में बैठी किसी सरकार द्वारा नहीं बल्कि उसी गांव के लोगों द्वारा संचालित होती है। यह कोई सपना सा ही लगता है, लेकिन यह सपना साकार हो गया है महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के गांव ''हिवरे बाजार'' में । ''हिवरे बाजार'' प्रतिनिधि है गांधी के सपनों के भारत का।

महात्मा गांधी ने कहा था कि ''सच्ची लोकशाही केन्द्र में बैठे हुये 20 आदमी नहीं चला सकते हैं, वह तो नीचे से हर एक गांव में लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिये। सत्ता के केन्द्र इस समय दिल्ली,कलकत्ता व मुबई जैसे नगरों में है। मैं उसे भारत के 7 लाख गांवों में बांटना चाहूंगा।'' गांधी का यह हमेशा एक आदर्श वाक्य की तरह लगता रहा है लेकिन इस आदर्श वाक्य को हिवरे बाजार ने साकार कर दिया है। यह बिल्कुल फिल्मी पटकथा की तरह लगता है लेकिन है बिल्कुल सत्य। 1989 में हिवरे बाजार ने कुछ पढ़े-लिखे नौजवानों ने यह बीड़ा उठाया कि क्यों न अपने गांव को संवारा जाये ...! गांववालों से बातचीत की गई तो गांववालों ने ''कल के छोकरे'' कह कर एक सिरे से नकार दिया। युवकों ने हिम्मत न हारी और अपनी प्रतिबध्दता दोहराई। गांव वालों ने भी युवकों की चुनौती को गंभीरता से लिया और 9 अगस्त को सौंपी गई नवयुवकों को एक वर्ष के लिये सत्ता। सत्ता मिली तो नवयुवकों ने सत्ता सौंपी पोपट राव पवार को। पोपट राव पवार उस समय महाराष्ट्र की ओर से प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेलते थे। हिवरे बाजार में अब 9 अगस्त को क्रांति दिवस मनाया जाता है।

युवकों ने इस एक वर्ष को अवसर के रूप में देखा। गांव में पहली ग्रामसभा की गई और चुनी गई प्राथमिकतायें। बिजली, पानी के बीच बात शिक्षा की भी आई। सामूहिक सहमति बनी शिक्षा के सवाल पर। इस समय स्कूल में शिक्षक बच्चों से शराब बुलाकर स्कूल में पीते थे। स्कूल में न तो खेल का मैदान और न थी बैठने की व्यवस्था। ग्रामसभा में सबसे पहले युवकों ने गांव वालों से अपील की कि अपनी बंजर पड़ी जमीन को स्कूल के लिये दान दें। शुरू में दो परिवार तैयार हुये और बाद में कई। एक अतिरिक्त कक्ष के निर्माण के लिये स्वीकृत 60,000 रूपये की राशि आई। उचित नियोजन व गांववालों के श्रमदान की बदौलत दो कमरों का निर्माण किया। यह युवकों का गांववालों को विश्वास देने वाला एक कृत्य था। एक वर्ष खत्म हुआ, समीक्षा हुई। गांव वालों ने अब इन नवयुवकों को पांच वर्षों के लिये सत्ता सौंपने का निश्चय किया।

पोपटराव के कुशल नेतृत्व में युवकों ने गांव का बेसलाईन तैयार करना शुरू किया। गांव में औसतन प्रतिव्यक्ति सालाना आय 800 रूपये थी। गांव के हर परिवार से लोग पलायन पर जाते थे, गांव में रह जाते थे केवल तो बूढ़े, महिलायें और बच्चे। जिन लोगों के पास जमीन थी वो केवल एक फसल ले पाते थे। सिंचाई के लिये पानी तो था ही नहीं। कुल मिलाकर 400 मि.मी. वर्षा होती थी। पोपट राव कहते हैं कि हमने सामूहिक रूप से इस विषय पर सोचना शुरू किया। पहले गांव वाले वनविभाग द्वारा लगाये पौधों को ही काट कर ले जाते थे। जब हमने तय किया गया कि भू-सुधार व जल संरक्षण के काम किये जायेंगे तो हमने 10 लाख पेड़ लगाये और 99 फीसदी सफल हुये। अब इस जंगल में वनविभाग को जाने के लिये भी ग्रामसभा की अनुमति लेनी होती है। पोपट राव कहते हैं कि शुरू में कई निर्णयों पर बहुत विरोध हुआ जैसे कि टयूबवेल कृषि में उपयोग नहीं किए जायेंगें, और ज्यादा पानी वाली फसलें नहीं लगाई जायेंगी। गन्ना केवल आधे एकड़ में ही लगाया जायेगा, जो कि हरे चारे के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।, हमने कहा कि गांव के हित में यह निर्णय ठीक होगा, इसके दूरगामी परिणाम सामने आयेंगे।

हम सबने मिलकर जलग्रहण क्षेत्र का काम करना शुरू किया। कुछ सरकारी राशि और कुछ श्रमदान। तीन चार वर्षों बाद वॉटरशेड़ ने असर दिखाना शुरू किया। भूजल स्तर बढ़ा और मिट्टी में नमी बढ़ने लगी। लोगों ने दूसरी और तीसरी फसल की ओर रुख किया। अब यहां सब्जी भी उगाई जाती है। भूमिहीनों को गांव में ही काम मिलने लगा। लोगों का पलायन पर जाना बंद हुआ। ग्राम की ही ताराबाई मारुति कहती हैं कि पहले मजदूरी करने हम लोग दूसरे गांव जाते थे। आज हमारे पास 16-17 गायें हैं और हम 250-300 लिटर दूध प्रतिदिन बेचते हैं। पूरे गांव से लगभग 5000 लिटर दूध प्रतिदिन बेचा जाता है। आज गांव की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय सालाना 800 रूपये से बढ़कर 28,000 हो गई है यानी पांच व्यक्तियों के परिवार की औसत आय 1.25 लाख रूपये सालाना है।

पूरे देश में आंगनवाडियों के जो हाल हैं वे किसी से छिपे नहीं है। लेकिन लगभग आधे एकड़ में फैली है यहां की आंगनवाड़ी। यहां की दीवारें बोलती हैं। इस आंगनवाड़ी के आंगन में फिसल पट्टी है, पर्याप्त खेल-खिलौने हैं, प्रत्येक बच्चे के लिये पोषणाहार हेतु अलग-अलग बर्तन, स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था है। बच्चों का नियमित परीक्षण होता है। यहां बच्चे कुपोषित नहीं है। यह आंगनवाड़ी समयसीमा से भी नहीं बंधी है। गांववाले जानते हैं कि बच्चे का मानसिक व शारीरिक विकास 6 वर्ष की उम्र में ही होता है तो फिर आंगनवाड़ी तो बेहतर होना ही चाहिये। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ईराबाई मारुति कहती हैं कि जब इन बच्चों की जिम्मेवारी मेरी है तो फिर मैं क्यों कतराऊं ! मैं कुछ गड़बड़ भी करती हूं तो फिर मुझे ग्रामसभा में जवाब देना होता है। वे बडे गर्व से कहती हैं कि मेरी आंगनवाड़ी को केन्द्र सरकार से सर्वश्रेष्ठ आंगनवाड़ी का पुरस्कार मिला है। पोपटराव बताते हैं कि हमारे गांव में पहले से ही दो आंगनवाड़ी थीं और तीसरी आंगनवाड़ी बनाने का आर्डर आया। हम सब लोगों ने विचार किया कि हमारे यहां बच्चों की संख्या उतनी तो हैं नहीं कि तीसरी आंगनवाड़ी आनी चाहिये, फिर उसके लिये संसाधन वगैरह भी चाहिये। हम उतनी निगरानी भी नहीं रख पायेंगे। हमने शासन को पत्र लिख कर तीसरी आंगनवाड़ी को वापिस लौटाया।

अच्छा, वो जो स्कूल 1989 में बना था, वो आज भी वैसे ही है या फिर उसमें कुछ सुधार हुआ। पहले बच्चों को पांचवीं के बाद से ही बाहर जाना पड़ता था, जिससे अधिकांष बालिकायें ड्राप आऊट हो जाती थीं। अब स्कूल हायर सेकेण्ड्री तक हो गया है। स्कूल का समय शासन के अनुसार नहीं चलता है, बल्कि ग्रामसभा तय करती है। स्कूल में मध्यान्ह भोजन भिक्षा के रूप में नहीं बल्कि बच्चों के अधिकार के रुप में। शिक्षिका शोभा थांगे कहती हैं कि हम लोग ग्रीष्मकालीन अवकाश में भी आते हैं। यहां पढ़ाई किसी बड़े कॉन्वेन्ट स्कूल से बेहतर होती है। यही कारण है कि आज, हिवरे बाजार के इस गांव में आसपास के गांव और शहरों से 40 प्रतिषत छात्र-छात्रायें आते हैं। पोपटराव कहते हैं कि हमारे यहां शिक्षकों को ग्रामसभा में तो आना जरुरी है लेकिन चुनाव डयूटी में जाने की आवश्यकता नहीं है।

गांव में एएनएम आती नहीं है बल्कि यहीं रहती हैं। गांव के हर बच्चे का टीकाकरण हुआ है। हर गर्भवती महिला को आयरन फोलिक एसिड की गोलियां मिलती हैं। स्थानीय स्तर पर मिलने वाली समस्त स्वास्थ्य सुविधायें गांव में गारंटी के साथ मिल जायेंगी। एएनएम कार्ले लता एकनाथ कहती हैं कि गांव में उचित स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध कराना मेरी जिम्मेदारी है। यदि मुझसे कुछ गड़बड़ी होती है तो मुझे ग्रामसभा में जवाब देना होता है।

जरा बात करें देश में सबसे भ्रष्ट, राशन व्यवस्था की। राशन व्यवस्था में यहां पर सबसे पहले तो प्रत्येक कार्डधारी को राशन बांट दिया जाता है लेकिन उसके बाद राशन बचने पर ग्रामसभा तय करती है कि इस राशन का क्या होगा ? ग्रामसभा कहती है कि इसे अमुक परिवार को दे दीजिये, तो मुझे देना होता है। मैं मना नहीं कर सकता हूं। राशन दुकान संचालक आबादास थांगे बहुत ही बेबाक तरीके से कहते हैं कि मुझे फूड इंस्पेक्टर को रिश्वत नहीं देना होती है। मेरी तौल में कुछ दिक्कत हो या कुछ और तो मुझसे ग्रामसभा में जवाब तलब किया जाता है। और जब मुझे रिश्वत नहीं देना है तो फिर मैं फर्जीवाड़ा क्यों करूं ?

पोपटराव कहते हैं कि 1995 में हमने लैण्ड सेटलमेंट की बात की तो कुछ लोगों ने विरोध किया। लेकिन सब कुछ था तो गांव के हित में ही। किसान नामदेव जयवंता थांगे कहते हैं कि मैंने पहले विरोध किया लेकिन बाद में गांव हित में जमीन दी। आज चारों और हरियाली है, पेयजल व सिचांई का जल पर्याप्त है। राव कहते हैं कि अब बाहरी लोगों की नजर हमारी जमीन पर है। हमने फिर नियम बना लिये हैं कि हमारी जमीन किसी बाहर व्यक्ति को नहीं बेची जायेगी। इससे गरीब हमेशा गरीब रहेगा और अमीर और अमीर हो जायेगा। नजर तो सैज़ वगैरह के लिये भी लगी थी।

ये सारे महत्वपूर्ण निर्णय जहां पर बैठकर लिये जाते हैं, उस जगह का नाम है ग्राम संसद। इसकी बनावट भी दिल्ली के संसद भवन की ही तरह है। पोपट राव कहते हैं कि पहले तो गांव में दो ग्रामसभा ही होती थीं, लेकिन हमने बाद में अपनी जरूरत के मुताबिक ग्रामसभायें करनी शुरू कीं। हम महीने में चार ग्रामसभायें करते हैं। दरअसल हमारी यह ग्रामसभा एक निर्णय सभा है, हम ग्रामसभा में कोशिश करते हैं कि हर व्यक्ति आये और बात करे। महिलायें विशेष रूप से आये और बात रखें। जाहिर है कि उनकी बात को सुना जाये। यदि नहीं सुना जायेगा तो फिर वे ग्रामसभा में आयेंगे ही क्यों ? फिर कहां रह जायेगी यह ग्राम सत्ता ? इस बात के समर्थन में जुम्बर बाई यादव कहती हैं कि मैंने ग्रामसभा में यह कहा कि ग्राम के सार्वजनिक शौचालयों में महिलाओं का नाम लिखा जाना चाहिये और यह हुआ।

यही नहीं ग्रामसभा ने कुछ और फैसले लिये जिनके बगैर हिवरे बाजार की बात अधूरी होगी। एक ओर तो पूरे देश में हिन्दु-मुस्लिम दंगें हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हिवरे बाजार की ग्रामसभा ने गांव के रहमान सैयद के एकमात्र मुस्लिम परिवार के लिये श्रमदान और पंचायत की ओर से मस्जिद बनाने का फैसला लिया। ग्रामसभा ने यह भी सोचा कि सरपंच तो इतनी जगह घूमते हैं और उनके लिये वाहन की बहुत जरूरत है तो फिर क्या ! 10 दिनों में 5 लाख रूपये की व्यवस्था हो गई। वाहन आया और अब यह वाहन गांव का वाहन है। पोपटराव जहां भी जाते हैं वहां पर बच्चों, महिलाओं और किसानों को ले जाते हैं। इससे उनका एक्सपोजर होता है और हमारी गांव की सामूहिक दृष्टि मजबूत होती है। यही कारण है कि 1989 के बाद से यहां चुनाव नहीं हुये, तारीख आती है और निर्विरोध सत्ता सौंप दी जाती है पोपट राव पवार के हाथों में।

पारदर्शिता यहां मुंह नहीं चिढ़ाती है । यहां पंचायत भवन में प्रतिमाह पैसों का पूरा रिकार्ड लिखकर टांग दिया जाता है। पंचायत सचिव ज्ञानेष्वर लक्ष्मण कहते हैं कि साल के अंत में ग्रामसभा का पूरा रिकार्ड गांव वालों के सामने और बाहरी लोगों को बुलाकर बताया जाता है। सूचना के अधिकार व स्वराज पर काम कर रहे मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि जब मैं इस गांव गया तो मुझे लगा कि मैं किसी और देश में हूं। न भ्रष्टाचार, न सरकारी ढ़र्रा बस अपना राज, ग्रामस्वराज। कबीर से जुड़े मनीष सिसोदिया और उनके साथियों ने हिवरे बाजार से प्रभावित होकर ''स्वराज'' नामक फिल्म ही बना ड़ाली।

हिवरे बाजार'' को इस साल देश की सर्वश्रेष्ठ पंचायत का पुरस्कर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने दिया है। महाराष्ट्र सरकार ने भी अनेक पुरस्कारों से नवाजा है हिवरे बाजार को। रोजाना बाहरी लोग गांव को देखने और स्वराज को समझने यहां आते हैं। एक समय था कि जब गांव में हर आठवें दिन पुलिस आ जाती थी। एक समय यह ऐसा गांव था कि नवयुवक आस-पास में यह बताने से कतराते थे कि हम हिवरे बाजार के निवासी हैं। आज इस गांव के लोग गर्व से कहते हैं कि हम हिवरे बाजार के निवासी हैं। बाला साहेब रमेश ने तो अपने उपनाम की जगह लगा दिया है अपने गांव का नाम। हिवरे बाजार, गांधी के सपने का साकार रूप है। हिवरे बाजार जैसे प्रयास भ्रष्टाचार की इस दलदल और सत्ता के इस भूखे साम्राज्य में रोशनी की किरण दिखाते हैं। कल्पना कीजिये उस दिन की जब देश के 7 लाख गांव ''हिवरे बाजार'' होंगें। जहां होगी अपनी सत्ता, अपना स्वराज।

Tags - Agriculture, Afforestation,, Ahmadnagar (D), Anti-Poverty Programmes, Farmers, Gram Sabhas, Panchayats, Public Participation, Rural Development, Water Conservation, Water Distribution, Water Management, Watershed Development
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