गांगेय डॉल्फिन गंगा के स्वास्थ्य का दर्पण है


पटना विश्वविद्यालय में जन्तु शास्त्र के प्राध्यापक डा. रवीन्द्र कुमार सिन्हा गांगेय डॉल्फिन (गंगा में पायी जानेवाली डॉल्फिन जिसे स्थानीय भाषा में सोंस कहा जाता है) पर अपने शोध के लिए देश एवं विदेशों में खासे चर्चित रहे हैं। यह डा. सिन्हा ही थे जिनके जोरदार प्रयासों के कारण गांगेय डॉल्फिन को राष्ट्रीय जीव घोषित किया गया और इसे मारने पर प्रतिबन्ध लगाया गया। इनके कार्यों से प्रभावित होकर एक फ्रांसिसी पत्रकार क्रिश्चियन गैलिसियन ने डा. सिन्हा पर एक वृतचित्र का निर्माण भी किया है। ‘मि. डॉल्फिन सिन्हा थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली’। डॉल्फिन सिन्हा के नाम से प्रसिद्ध डा. सिन्हा से उनकी प्रयोगशाला में बिहार खोज खबर टीम की बेबाक बातचीत के कुछ प्रमुख अंशः-

प्रश्न: नदियों में पायी जानेवाली डॉल्फिन समुद्री डॉल्फिन से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर: नदियों में पायी जानेवाली डॉल्फिन का वैज्ञानिक नाम प्लाटानेस्टा गंगेटिका है। यह समुद्री डॉल्फिन से भिन्न होती है। समुद्री डॉल्फिन देख सकती है और उसकी पीठ पर बड़े पंख होते हैं जबकि गांगेय डॉल्फिन देख नहीं सकती और उसमें ह्नेल की तरह सीकम पाये जाते हैं जो दर्शाता है कि यह कभी शाकाहारी रहा होगा। इन्हें स्थानीय लोग सोंस कहकर पुकारते रहे हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों में डॉल्फिन पायी जाती थीं। किन्तु लोगों की अज्ञानता के कारण इनकी संख्या में काफी कमी आयी है।

प्रश्न: गांगेय डॉल्फिन का शिकार क्यों किया जाता है? इसे बंद कैसे किया जा सकता है?
उत्तर: गांगेय डॉल्फिन का शिकार इसके तेल के लिए किया जाता है। यह काफी महंगा बिकता है। इस तेल का प्रयोग मछुआरे मछली पकड़ने में करते हैं। इसके तेल से मछलियां आकर्षित होती हैं और मछली आसानी से पकड़ी जाती है। इसका मांस भी बिकता है जिसे निम्न वर्ग के लोग खाते हैं। वैसे इसका मांस स्वादिष्ट नहीं होता है। इसके तेल को लेकर एक भ्रांति भी है कि यह दर्द-निवारक है। किन्तु इसका कोई भी प्रमाणिक तथ्य सामने नहीं आया है। मछली के चारे के रूप में इसके तेल के प्रयोग बन्द करने से इसका शिकार स्वतः ही बंद हो जायेगा। मछली के चारे के लिए मैंने मछली के अवशिष्ट से चारे को विकसित किया है और इसे मछुआरों के बीच लोकप्रिय बनाने की कोशिश कर रहा हूं।

प्रश्न: गांगेय डॉल्फिन गंगा के लिए कितना जरूरी है?
उत्तर: यह अमेजन, गंगा तथा उसकी सहायक नदियों की प्राकृतिक धरोहर है। इसके पारिस्थितिक संतुलन को कायम रखने में डॉल्फिन (सोंस) की अहम् भूमिका है। यह गंगा के लिए उतना ही जरूरी है जितना जंगल के लिए बाघ। यह गंगा के स्वास्थ्य का दर्पण है। इसकी घटती संख्या गंगा के लिए चिन्ताजनक है। चीन की नदियों में तो यह सन् 2006 में ही पूरी तरह समाप्त हो गया। हम चाहते हैं कि हमारे देश में ऐसा नहीं हो। हमारी भावी पीढ़ी इसे देख सके। इसके लिए प्रयास किये जाने चाहिए। अभी इसकी संख्या अनुमानतः 2500 है। इसमें लगभग बारह-तेरह सौ डॉल्फिन बिहार में है। इनकी संख्या बढ़नी चाहिए।

प्रश्न: इसके संरक्षण में उठाये गये कदम कितने सार्थक हैं?
उत्तर: भारत के प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित कर निश्चय ही प्रशंसनीय कार्य किया है। किन्तु इसके संरक्षण के लिए वैसी ही ठोस व्यवस्था करनी होगी जैसे कि बाघों के लिए किया जा रहा है। वैसे, पूरे देश के लिए कार्य योजना बनाई जा रही है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसके आवास गंगा पर ही खतरा मंडरा रहा है। गंगा को बचाने की भी पुरजोर कोशिश होनी चाहिए।

प्रश्न: क्या डॉल्फिन के संरक्षण के लिए पहले भी प्रयास किये गये थे?
उत्तर: आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए पहला राज्यादेश ई.पू. 232 में मगध के ही सम्राट अशोक ने अपने पंचम शिलालेख में पारित किया था। इस राज्यादेश में जिन प्राणियों के संरक्षण का उल्लेख था उसमें यह गांगेय डॉल्फिन भी था। पूरी दुनिया में कहीं भी वन्य एवं जलीय प्राणियों के संरक्षण के लिए पारित होनेवाला यह पहला राज्यादेश था। यह मेरे लिए भी विस्मय का कारण था। इसने भी मुझे इस प्राणी के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। वैसे, स्वतंत्र भारत में भी 1972 में वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सोंस को संरक्षित प्राणी घोषित किया गया है। सरकारी कर्मियों में भी जानकारी का अभाव है। वे गांगेय डॉल्फिन (सोंस) को मछली बताते हैं।

प्रश्न: डॉल्फिन को लेकर लोगों में कई तरह की भ्रांतियां रही हैं। लोग इसे मछली समझ इसका शिकार करते रहे हैं। क्या अब इस स्थिति में परिवर्तन आया है? मीडिया की कैसी भूमिका रही है?
उत्तर: हां! लोगों में एक समझ विकसित हुई है। तभी तो पिछले दिनों पटना में डॉल्फिन का शिकार कर रहे असामाजिक तत्वों को जागरूक लोगों ने खदेड़ दिया। परन्तु, मीडिया इसके प्रति असंवेदनशील नजर आती है। अभी भी डॉल्फिन को मछली लिखा जा रहा है। जबकि डॉल्फिन स्तनधारी प्राणी है। दुर्भाग्य से खबरे बेचने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। उदाहरणस्वरूप प्रायः खबरें छपती है कि बिहार में पटना के दानापुर में साइबेरियन पक्षी का शिकार हो रहा है। जबकि सिर्फ राजस्थान के भरतपुर में ही कुछ साइबेरियन पक्षी आते हैं। यहां स्थानीय प्रवासी पक्षी जांघिल और घोघैल का शिकार होता है। इसे ही साइबेरियन पक्षी कहा जा रहा है।

प्रश्न: आपकी डॉल्फिन (सोंस) के प्रति अभिरूचि कैसे विकसित हुई?
उत्तर: मैं गांव का आदमी था – जहानाबाद के मखदूमपुर का। गांव के लोग मृत व्यक्ति के अंतिम संस्कार के लिए पटना के गंगा घाट पर आया करते थे। मेरी दादी की मृत्यु के बाद उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए मैं भी पटना के बांसघाट पर आया। तब मेरी उम्र आठ वर्ष थी। वहीं मैंने देखा कि गंगा में एक काली चीज बार-बार पानी से उपर आ रही थी। मेरी उत्सुकता बढ़ी। मैं उसके नजदीक जाने लगा तो लोगों ने मुझे मना किया। कहा-‘‘यह सोंस है, उसके नजदीक मत जाओ, यह काफी खतरनाक होता है।’’ बात आई-गई हो गयी। फिर मैंने उच्चता पढ़ाई करने पटना के सायंस कालेज में दाखिला लिया। क्लास समाप्ति के बाद गंगा किनारे बैठ उसे निहारना अच्छा लगता था। तब मैंने फिर वहां सोंस देखा। तब बचपन की स्मृति सजीव हो उठी।

शिक्षा पूरी कर मुंगेर के आर.डी.एंड डी.जे. कालेज में व्याख्याता बना। वहां भी कष्टहरनी घाट पर बैठ सोंस देखता था। फिर मैं पटना साईंस कालेज में व्याख्याता बना। इस बीच मैं गंगा के जलीय जैव जगत एवं प्रदूषण पर शोध भी कर रहा था। इसके लिए मैं मछुआरों के साथ घूमता था। गांगेय डॉल्फिन के बारे में पहला ज्ञान उन मछुआरों से मिला था। उन्होंने बताया कि एक मादा डॉल्फिन करीब तीन वर्षों में एक बच्चे को जन्म देती है। उसे दूध पिलाती है। इन्हीं दिनों एक मछुआरे ने एक मृत नवजात डॉल्फिन लाकर दिया। मैंने उसका अंग विच्छेदन कर सूक्ष्म परीक्षण किया। लेकिन, डॉल्फिन पर कोई लिटरेचर यहां उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। तब मैं कोलकाता के नेशनल म्युजियम (इंडियन म्युजियम) गया। वहां के स्तनधारी सेक्शन के प्रभारी वी.सी. अग्रवाल से मदद मिली। उन्होंने डॉल्फिन पर प्रकाशित जान एंडरसन की पुस्तक दिखलाई। वह पुस्तक एक बाढ़ में डूब गई थी और अच्छी हालत में नहीं थी। तब उसके हर एक पन्ने की तस्वीर खींच, उसे एक पुस्तक की शक्ल दी गयी। यह पांच सौ पन्ने की पुस्तक थी। इस पुस्तक से काफी सहायता मिली।

फिर राजीव गांधी के वक्त में गंगा कार्य परियोजना (Ganga Action Plan) बनी। इस शोध कार्य में पटना विश्वविद्यालय को भी शामिल किया गया। इसमें मुख्य भूमिका मैंने ही निभाई थी। 1988 में मैंने गंगा-बेसिन रिसर्च प्रोजेक्ट पर अंतिम रिपोर्ट भेजी। इस रिपोर्ट में मैंने गांगेय डॉल्फिन का विस्तार से उल्लेख किया था। परियोजना पदाधिकारी महाराज कुमार रंजीत सिंह को उस रिपोर्ट ने काफी प्रभावित किया। अपने पटना प्रवास में उन्होंने मुझे इस विषय पर काम करने को प्रेरित किया। उन्होंने कहा-‘आप सिर्फ गांगेय डॉल्फिन पर प्रोजेक्ट बनाइये। अभी तक इस पर काम नहीं हुआ है। संसाधन मैं मुहैया कराऊँगा।’गांगेय डॉल्फिन पर जान एंडरसन की पुस्तक के अतिरिक्त कोई सामग्री नहीं थी। फिर भी मैंने एक विस्तृत प्रपोजल तैयार किया। इसके बाद कुमार रंजीत सिंह ने एक ब्रिटिश वैज्ञानिक माइक एंड्रयू को मेरे पास भेजा। वह मुझसे मिलकर प्रभावित हुए। कहा-‘तुम निश्चय ही इस पर काम कर पाओगे।’ उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि वे ‘लिनियन सोसायटी ऑफ लंदन’ से इससे संबंधित सामग्री भेजेंगे। मुझे सामग्री मिली। उसके अनुसार सिंधु नदी के डॉल्फिन पर एक जर्मन वैज्ञानिक जार्ज पिलेरी ने 1970 के दशक में काम किया था। उनकी रिपोर्ट ‘जर्नल इन्वेस्टिगेशन ऑफ सिरेसिया’ में प्रकाशित हुई थी।

इसी रिपोर्ट में सम्राट अशोक द्वारा पारित राज्यादेश का भी उल्लेख था। गांगेय डॉल्फिन को शासन की ओर से संरक्षित घोषित किया गया था। इससे मैं रोमांचित हुआ। इसी मगध की धरती से आज से करीब तेईस सौ वर्ष पहले डॉल्फिन के संरक्षण के लिए प्रथम सार्थक प्रयास हुआ था। भारत सरकार के एक दस्तावेज से भी उसकी पुष्टि हुई। इससे उत्साहित होकर मैंने International Union of Conservation of Nature से भी पत्राचार किया। इसके बाद नार्थ इस्टर्न हिल युनिवर्सिटी, शिलांग के जन्तु विज्ञान के प्रोफेसर जार्ज माइकल से संपर्क हुआ। उन्होंने ICVN से डॉल्फिन पर प्रकाशित एक पुस्तक Biology conservation of river dolphin दी। इसकी मदद से मैंने एक प्रोजेक्ट तैयार किया। 1991 में भारत सरकार के रिसर्च कमेटी अध्यक्ष एम.एस. स्वामीनाथन ने इस परियोजना पर अपनी सहमति दी।

प्रश्न: इस परियोजना पर काम करने में कोई कठिनाई?
उत्तर: समस्या तो काफी थी। किन्तु धैर्य और हिम्मत से काम करने से सफलता मिली। शुरू में तो कठिनाई यह थी कि यह पानी के बाहर सिर्फ 1-2 सेकेंड के लिए दिखता है। पानी के अंदर दिखता नहीं था। दूसरे सर्वे के लिए कोई नाविक तैयार नहीं था। नाव से घूमने के दौरान तीन बार मुंगेर और साहेबगंज के बीच अपराधियों ने बंदूक की नोक पर रोक लिया था। किन्तु अपना उद्देश्य बताने पर उन्होंने माफी मांग हमें मुक्त कर दिया। लेकिन उत्तर प्रदेश के बदायु जिले में जल दस्युओं ने सब कुछ लूट लिया। इसे बाद भी वे जाति पूछकर मारना चाहते थे। तब लगा कि हमारा समाज कितना जहरीला हो गया कि डकैती भी जाति पूछकर होती है

गांगेय डॉल्फिन गंगा के स्वास्थ्य का दर्पण हैपटना विश्वविद्यालय में जन्तु शास्त्र के प्राध्यापक डा. रवीन्द्र कुमार सिन्हा गांगेय डॉल्फिन (गंगा में पायी जानेवाली डॉल्फिन जिसे स्थानीय भाषा में सोंस कहा जाता है) पर अपने शोध के लिए देश एवं विदेशों में खासे चर्चित रहे हैं। यह डा. सिन्हा ही थे जिनके जोरदार प्रयासों के कारण गांगेय डॉल्फिन को राष्ट्रीय जीव घोषित किया गया और इसे मारने पर प्रतिबन्ध लगाया गया। इनके कार्यों से प्रभावित होकर एक फ्रांसिसी पत्रकार क्रिश्चियन गैलिसियन ने डा. सिन्हा पर एक वृतचित्र का निर्माण भी किया है। ‘मि. डॉल्फिन सिन्हा थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली’। डॉल्फिन सिन्हा के नाम से प्रसिद्ध डा. सिन्हा से उनकी प्रयोगशाला में बिहार खोज खबर टीम की बेबाक बातचीत के कुछ प्रमुख अंशः-

प्रश्न: नदियों में पायी जानेवाली डॉल्फिन समुद्री डॉल्फिन से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर: नदियों में पायी जानेवाली डॉल्फिन का वैज्ञानिक नाम प्लाटानेस्टा गंगेटिका है। यह समुद्री डॉल्फिन से भिन्न होती है। समुद्री डॉल्फिन देख सकती है और उसकी पीठ पर बड़े पंख होते हैं जबकि गांगेय डॉल्फिन देख नहीं सकती और उसमें ह्नेल की तरह सीकम पाये जाते हैं जो दर्शाता है कि यह कभी शाकाहारी रहा होगा। इन्हें स्थानीय लोग सोंस कहकर पुकारते रहे हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों में डॉल्फिन पायी जाती थीं। किन्तु लोगों की अज्ञानता के कारण इनकी संख्या में काफी कमी आयी है।

प्रश्न: गांगेय डॉल्फिन का शिकार क्यों किया जाता है? इसे बंद कैसे किया जा सकता है?
उत्तर: गांगेय डॉल्फिन का शिकार इसके तेल के लिए किया जाता है। यह काफी महंगा बिकता है। इस तेल का प्रयोग मछुआरे मछली पकड़ने में करते हैं। इसके तेल से मछलियां आकर्षित होती हैं और मछली आसानी से पकड़ी जाती है। इसका मांस भी बिकता है जिसे निम्न वर्ग के लोग खाते हैं। वैसे इसका मांस स्वादिष्ट नहीं होता है। इसके तेल को लेकर एक भ्रांति भी है कि यह दर्द-निवारक है। किन्तु इसका कोई भी प्रमाणिक तथ्य सामने नहीं आया है। मछली के चारे के रूप में इसके तेल के प्रयोग बन्द करने से इसका शिकार स्वतः ही बंद हो जायेगा। मछली के चारे के लिए मैंने मछली के अवशिष्ट से चारे को विकसित किया है और इसे मछुआरों के बीच लोकप्रिय बनाने की कोशिश कर रहा हूं।

प्रश्न: गांगेय डॉल्फिन गंगा के लिए कितना जरूरी है?
उत्तर: यह अमेजन, गंगा तथा उसकी सहायक नदियों की प्राकृतिक धरोहर है। इसके पारिस्थितिक संतुलन को कायम रखने में डॉल्फिन (सोंस) की अहम् भूमिका है। यह गंगा के लिए उतना ही जरूरी है जितना जंगल के लिए बाघ। यह गंगा के स्वास्थ्य का दर्पण है। इसकी घटती संख्या गंगा के लिए चिन्ताजनक है। चीन की नदियों में तो यह सन् 2006 में ही पूरी तरह समाप्त हो गया। हम चाहते हैं कि हमारे देश में ऐसा नहीं हो। हमारी भावी पीढ़ी इसे देख सके। इसके लिए प्रयास किये जाने चाहिए। अभी इसकी संख्या अनुमानतः 2500 है। इसमें लगभग बारह-तेरह सौ डॉल्फिन बिहार में है। इनकी संख्या बढ़नी चाहिए।

प्रश्न: इसके संरक्षण में उठाये गये कदम कितने सार्थक हैं?
उत्तर: भारत के प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित कर निश्चय ही प्रशंसनीय कार्य किया है। किन्तु इसके संरक्षण के लिए वैसी ही ठोस व्यवस्था करनी होगी जैसे कि बाघों के लिए किया जा रहा है। वैसे, पूरे देश के लिए कार्य योजना बनाई जा रही है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसके आवास गंगा पर ही खतरा मंडरा रहा है। गंगा को बचाने की भी पुरजोर कोशिश होनी चाहिए।

प्रश्न: क्या डॉल्फिन के संरक्षण के लिए पहले भी प्रयास किये गये थे?
उत्तर: आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए पहला राज्यादेश ई.पू. 232 में मगध के ही सम्राट अशोक ने अपने पंचम शिलालेख में पारित किया था। इस राज्यादेश में जिन प्राणियों के संरक्षण का उल्लेख था उसमें यह गांगेय डॉल्फिन भी था। पूरी दुनिया में कहीं भी वन्य एवं जलीय प्राणियों के संरक्षण के लिए पारित होनेवाला यह पहला राज्यादेश था। यह मेरे लिए भी विस्मय का कारण था। इसने भी मुझे इस प्राणी के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। वैसे, स्वतंत्र भारत में भी 1972 में वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सोंस को संरक्षित प्राणी घोषित किया गया है। सरकारी कर्मियों में भी जानकारी का अभाव है। वे गांगेय डॉल्फिन (सोंस) को मछली बताते हैं।

प्रश्न: डॉल्फिन को लेकर लोगों में कई तरह की भ्रांतियां रही हैं। लोग इसे मछली समझ इसका शिकार करते रहे हैं। क्या अब इस स्थिति में परिवर्तन आया है? मीडिया की कैसी भूमिका रही है?
उत्तर: हां! लोगों में एक समझ विकसित हुई है। तभी तो पिछले दिनों पटना में डॉल्फिन का शिकार कर रहे असामाजिक तत्वों को जागरूक लोगों ने खदेड़ दिया। परन्तु, मीडिया इसके प्रति असंवेदनशील नजर आती है। अभी भी डॉल्फिन को मछली लिखा जा रहा है। जबकि डॉल्फिन स्तनधारी प्राणी है। दुर्भाग्य से खबरे बेचने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। उदाहरणस्वरूप प्रायः खबरें छपती है कि बिहार में पटना के दानापुर में साइबेरियन पक्षी का शिकार हो रहा है। जबकि सिर्फ राजस्थान के भरतपुर में ही कुछ साइबेरियन पक्षी आते हैं। यहां स्थानीय प्रवासी पक्षी जांघिल और घोघैल का शिकार होता है। इसे ही साइबेरियन पक्षी कहा जा रहा है।

प्रश्न: आपकी डॉल्फिन (सोंस) के प्रति अभिरूचि कैसे विकसित हुई?
उत्तर: मैं गांव का आदमी था – जहानाबाद के मखदूमपुर का। गांव के लोग मृत व्यक्ति के अंतिम संस्कार के लिए पटना के गंगा घाट पर आया करते थे। मेरी दादी की मृत्यु के बाद उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए मैं भी पटना के बांसघाट पर आया। तब मेरी उम्र आठ वर्ष थी। वहीं मैंने देखा कि गंगा में एक काली चीज बार-बार पानी से उपर आ रही थी। मेरी उत्सुकता बढ़ी। मैं उसके नजदीक जाने लगा तो लोगों ने मुझे मना किया। कहा-‘‘यह सोंस है, उसके नजदीक मत जाओ, यह काफी खतरनाक होता है।’’ बात आई-गई हो गयी। फिर मैंने उच्चता पढ़ाई करने पटना के सायंस कालेज में दाखिला लिया। क्लास समाप्ति के बाद गंगा किनारे बैठ उसे निहारना अच्छा लगता था। तब मैंने फिर वहां सोंस देखा। तब बचपन की स्मृति सजीव हो उठी।

शिक्षा पूरी कर मुंगेर के आर.डी.एंड डी.जे. कालेज में व्याख्याता बना। वहां भी कष्टहरनी घाट पर बैठ सोंस देखता था। फिर मैं पटना साईंस कालेज में व्याख्याता बना। इस बीच मैं गंगा के जलीय जैव जगत एवं प्रदूषण पर शोध भी कर रहा था। इसके लिए मैं मछुआरों के साथ घूमता था। गांगेय डॉल्फिन के बारे में पहला ज्ञान उन मछुआरों से मिला था। उन्होंने बताया कि एक मादा डॉल्फिन करीब तीन वर्षों में एक बच्चे को जन्म देती है। उसे दूध पिलाती है। इन्हीं दिनों एक मछुआरे ने एक मृत नवजात डॉल्फिन लाकर दिया। मैंने उसका अंग विच्छेदन कर सूक्ष्म परीक्षण किया। लेकिन, डॉल्फिन पर कोई लिटरेचर यहां उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। तब मैं कोलकाता के नेशनल म्युजियम (इंडियन म्युजियम) गया। वहां के स्तनधारी सेक्शन के प्रभारी वी.सी. अग्रवाल से मदद मिली। उन्होंने डॉल्फिन पर प्रकाशित जान एंडरसन की पुस्तक दिखलाई। वह पुस्तक एक बाढ़ में डूब गई थी और अच्छी हालत में नहीं थी। तब उसके हर एक पन्ने की तस्वीर खींच, उसे एक पुस्तक की शक्ल दी गयी। यह पांच सौ पन्ने की पुस्तक थी। इस पुस्तक से काफी सहायता मिली।

फिर राजीव गांधी के वक्त में गंगा कार्य परियोजना (Ganga Action Plan) बनी। इस शोध कार्य में पटना विश्वविद्यालय को भी शामिल किया गया। इसमें मुख्य भूमिका मैंने ही निभाई थी। 1988 में मैंने गंगा-बेसिन रिसर्च प्रोजेक्ट पर अंतिम रिपोर्ट भेजी। इस रिपोर्ट में मैंने गांगेय डॉल्फिन का विस्तार से उल्लेख किया था। परियोजना पदाधिकारी महाराज कुमार रंजीत सिंह को उस रिपोर्ट ने काफी प्रभावित किया। अपने पटना प्रवास में उन्होंने मुझे इस विषय पर काम करने को प्रेरित किया। उन्होंने कहा-‘आप सिर्फ गांगेय डॉल्फिन पर प्रोजेक्ट बनाइये। अभी तक इस पर काम नहीं हुआ है। संसाधन मैं मुहैया कराऊँगा।’गांगेय डॉल्फिन पर जान एंडरसन की पुस्तक के अतिरिक्त कोई सामग्री नहीं थी। फिर भी मैंने एक विस्तृत प्रपोजल तैयार किया। इसके बाद कुमार रंजीत सिंह ने एक ब्रिटिश वैज्ञानिक माइक एंड्रयू को मेरे पास भेजा। वह मुझसे मिलकर प्रभावित हुए। कहा-‘तुम निश्चय ही इस पर काम कर पाओगे।’ उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि वे ‘लिनियन सोसायटी ऑफ लंदन’ से इससे संबंधित सामग्री भेजेंगे। मुझे सामग्री मिली। उसके अनुसार सिंधु नदी के डॉल्फिन पर एक जर्मन वैज्ञानिक जार्ज पिलेरी ने 1970 के दशक में काम किया था। उनकी रिपोर्ट ‘जर्नल इन्वेस्टिगेशन ऑफ सिरेसिया’ में प्रकाशित हुई थी।

इसी रिपोर्ट में सम्राट अशोक द्वारा पारित राज्यादेश का भी उल्लेख था। गांगेय डॉल्फिन को शासन की ओर से संरक्षित घोषित किया गया था। इससे मैं रोमांचित हुआ। इसी मगध की धरती से आज से करीब तेईस सौ वर्ष पहले डॉल्फिन के संरक्षण के लिए प्रथम सार्थक प्रयास हुआ था। भारत सरकार के एक दस्तावेज से भी उसकी पुष्टि हुई। इससे उत्साहित होकर मैंने International Union of Conservation of Nature से भी पत्राचार किया। इसके बाद नार्थ इस्टर्न हिल युनिवर्सिटी, शिलांग के जन्तु विज्ञान के प्रोफेसर जार्ज माइकल से संपर्क हुआ। उन्होंने ICVN से डॉल्फिन पर प्रकाशित एक पुस्तक Biology conservation of river dolphin दी। इसकी मदद से मैंने एक प्रोजेक्ट तैयार किया। 1991 में भारत सरकार के रिसर्च कमेटी अध्यक्ष एम.एस. स्वामीनाथन ने इस परियोजना पर अपनी सहमति दी।

प्रश्न: आपकी उपलब्धियाँ?
उत्तर: दुनिया की लाईफ सायंस की सबसे पुरानी ‘लिनियन सोसायटी आफ लंदन’ का 1996 में फैलो चुना गया। यह सम्मान पानेवाला मैं 16वां भारतीय बना। इसके बाद नीदरलैंड के राजमहल में मुझे वहां के सबसे बड़े पुरस्कार ‘द आर्डर आफ द गोल्डेन आर्क’ से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार प्रकृति के संरक्षण के लिए दिया जाता है। यह पुरस्कार पाने वाला मैं 12वां भारतीय था। ग्रामीण परिवेश में पला हुआ एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह बहुत बड़ा सम्मान था। 1992 में योजना आयोग के तत्कालीन सदस्य सैय्यद जहूर कासिम ने मुझे ‘डॉल्फिन मैंन ऑफ इंडिया’ के नाम से नवाजा। एक फ्रांसिसी पत्रकार क्रिश्चियन गैलिसियन ने मुझ पर एक डाक्युमेन्ट्री फिल्म बनाई। सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि गांगेय डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव का दर्जा हासिल हो गया।

प्रश्न: इस परियोजना पर काम करने में कोई कठिनाई?
उत्तर: समस्या तो काफी थी। किन्तु धैर्य और हिम्मत से काम करने से सफलता मिली। शुरू में तो कठिनाई यह थी कि यह पानी के बाहर सिर्फ 1-2 सेकेंड के लिए दिखता है। पानी के अंदर दिखता नहीं था। दूसरे सर्वे के लिए कोई नाविक तैयार नहीं था। नाव से घूमने के दौरान तीन बार मुंगेर और साहेबगंज के बीच अपराधियों ने बंदूक की नोक पर रोक लिया था। किन्तु अपना उद्देश्य बताने पर उन्होंने माफी मांग हमें मुक्त कर दिया। लेकिन उत्तर प्रदेश के बदायु जिले में जल दस्युओं ने सब कुछ लूट लिया। इसे बाद भी वे जाति पूछकर मारना चाहते थे। तब लगा कि हमारा समाज कितना जहरीला हो गया कि डकैती भी जाति पूछकर होती है
 

 

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