गंगा : आस्था और आजीविका के दायरे

2 Sep 2014
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गंगा के सफाई अभियान को लेकर लंबे समय से कोशिश हो रही है। लेकिन सरकारों की इच्छाशक्ति की कमी और भ्रष्टाचार की वजह से इस दिशा में कोई खास सफलता नहीं मिली। प्रदूषण के बढ़ते खतरे और अभियान की नाकामियों का जायजा ले रहे हैं सुभाष शर्मा।

गंगा भारतीय जन-मानस, संस्कृति और सभ्यता में कई रूपों में सदियों से विद्यमान रही हैं। मुख्य रूप से आस्था का प्रतीक है गंगा, क्योंकि एक हिंदू मिथक के अनुसार राजा भगीरथ अपने पुरखों का तर्पण करने के लिए सुदीर्घ तपस्या करके गंगा को भारत भूमि पर लाए थे। तब से भारतीय उन्हें ‘देवी’ के रूप में पूजते रहे हैं; उन्हें ‘मां’ का संबोधन देते रहे हैं और उनके जल को ‘पवित्र गंगा जल’ के रूप में सभी धार्मिक, वैवाहिक और पर्व-त्योहार के अवसरों पर उपयोग में लाते रहे हैं।

यह गंगा जल मानव जीवन की तीन महत्वपूर्ण अवस्थाओं यथा जन्म, विवाह और मृत्यु के दौरान उपयोग में लाया जाता है।बड़ी विडंबना यह है कि हम गंगा को ‘देवी’ कहकर हजारों टन चमड़े का अपशिष्ट रोजाना गंगा में गिराते हैं, विशेषकर कानपुर में। हजारों मुर्दों को जला कर उनकी राख गंगा में विसर्जित करते हैं या अधजली या पूरी लाभ प्रवाहित कर देते हैं- हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, गंगासागर तक।

नगरनिगमों, नगरपालिकाओं की लापरवाही से नालों का गंदा जल (मल-मूत्र, अपशिष्ट वगैरह) और विभिन्न धार्मिक उत्सवों (दुर्ग पूजा, काली पूजा, लक्ष्मी पूजा, सरस्वती पूजा, गणेश पूजा आदि) में स्थापित लाखों मूर्तियों का विसर्जन और अस्थि-विसर्जन (हरिद्वार, प्रयाग, बनारस में) गंगा में करते हैं।

क्या गंगा के प्रति हमारे संबोधनों का यही हश्र होना चाहिए? दूसरी ओर एक जर्मन या ब्रिटिश नागरिक अपने देश की सबसे महत्वपूर्ण नदी राइन और टेम्स को न देवी कहता है, न मां कहता है और न पवित्र मानता है, मगर उसे नदी मात्र के रूप में स्वच्छ रखता है। क्या यह भारत के राष्ट्रीय चरित्र के दोहरेपन को परिलक्षित नहीं करता? कभी टेम्स की दुर्दशा वर्तमान दूषित गंगा की तरह ही थी, मगर उन्होंने एक कालबद्ध योजना बनाकर सही और सच्चे तरीके से टेम्स को साफ-सुथरा बना दिया और आज वहां प्रदूषण नहीं है।

मगर मन की खिचड़ी पकाने और कल्पना में या दीर्घ सूत्री योजना बनाने में भारतीय शासन-प्रशासन किसी से पीछे नहीं है। यहां भी गंगा कार्ययोजना बनी थी 1985 और 2003 में, दो चरणों में। इसमें खासकर औद्योगिक और घरेलू अपशिष्टों की सफाई करनी थी। मगर तीन हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद पच्चीस प्रतिशत भी सफाई नहीं हो सकी।

कालांतर में नेशनल गंगा बेसिन अथॉरिटी (2009) की स्थापना हुई, मगर पांच साल के बाद भी परिणाम वही ढाक के तीन पात। 2014-15 के राष्ट्रीय बजट में ‘नमामि गंगे’ परियोजना की घोषणा की गई है, जिसमें 2,037 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है।

गंगाइसके अलावा केदारनाथ, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस और पटना में गंगा नदी के घाटों और आस-पास के क्षेत्रों के विकास के लिए एक सौ करोड़ रुपए का अतिरिक्त प्रावधान है इसके अलावा, अनिवासी भारतीय निधि की भी स्थापना की गई है। इलाहाबाद से हल्दिया के बीच (1620 किलोमीटर) गंगा जलमार्ग विकास परियोजना की घोषणा की गई है जिससे कम से कम पंद्रह सौ टन माल की ढुलाई रोजाना हो सकेगी। इस पर 4,200 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत लगेगी और यह छह साल में पूरी होगी।

मगर ‘तरुण भारत संघ’ और ‘जल बिरादरी’ के प्रमुख पर्यावरणविद् राजेंद्र सिंह ने इस बारे में सावधानी बरतने को कहा है। हल्दिया और इलाहाबाद के बीच गंगा नदी पर सोलह बैराज बनाने के पहले फरक्का बैराज का गंगा के जल के अविरल प्रवाह, जैव- विविधता और प्रदूषण खपाने की क्षमता पर प्रभाव का विधिवत मूल्यांकन किया जाना चाहिए क्योंकि साफ तौर पर फरक्का बैराज के निर्माण से गंगा के अविरल प्रवाह में रुकावट आई, उसकी जैव-विविधता प्रभावित हुई है, बड़े पैमाने पर भूक्षरण हुआ है।

इससे बाढ़ में वृद्धि हुई है और स्थानीय लोगों का विस्थापन हुआ है। इन नए बैराजों के बनने से बिहार में बाढ़ का खतरा अस्सी गुना बढ़ने की आशंका है। उनके अनुसार गंगा नदी के पेट से गाद को निकालकर सौ टन क्षमता का जहाज चलाया जा सकता है, लेकिन भारत सरकार चार सौ पचास टम क्षमता का दोतल्ला जहाज चलाना चाहती है जिसके लिए दस मीटर ऊंचाई के बैराज बनाने होंगे।

इससे गंगा नदी काफी दूर तक प्रभावित होगी और इससे आम लोगों की बजाय उद्योगपतियों को ही ज्यादा लाभ मिलेगा। उन्होंने जल सुरक्षा अधिनियम बनाने का सुझाव दिया है जिससे समुदाय का अधिकार जल, नदी, सीवरेज से जल अलग करने, औद्योगिक उद्देश्य और सिंचाई के लिए शहरी गंदे पानी का शोधन करके उपयोग मुमकिन हो सकेगा और गंगा के कम-से-कम इक्यावन प्रतिशत पारिस्थितिकीय प्रवाह को सुनिश्चित किया जा सकेगा।

राजेंद्र सिंह के संशय निराधार नहीं प्रतीत होते क्योंकि तमाम बैराजों और बांधों ने भारत की कई नदियों, विशेषकर गंगा और यमुना, को काफी अवरुद्ध किया है जिससे स्थानीय समुदायों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है।

गंगा नदी की एक बड़ी समस्या इसका भयंकर प्रदूषण है। ‘गंगा बचाओ’ किताब के लेखक और बनाास में गंगा बचाओ अभियान से जुड़े के. चंद्रमौलि के मुताबिक सिंचाई के बाद खेतों में गंगा तलहटी में हर साल 96.3 लाख टन रासायनिक उर्वरक प्रयुक्त होता है जिसमें से कम-से-कम पांच प्रतिशत रसायन बहकर गंगा में जाता है। इसी तरह हर साल 1320 टन कीटनाशक गंगा में बह कर जाता है।

उद्योगों से निकलने वाला विषैला बहिस्रावी तत्व गंगा बेसिन में रोजाना 340 करोड़ लीटर अशोधित रहता है। प्रतिदिन 750 करोड़ लीटर अशोधित गंदा जल गंगा नदी में बह जाता है। गंदे नालों के जरिए अस्पतालों, नगरनिगमों, नगरपालिकाओं का कचरा, नहाने-धोने, शौच करने, पूजा-मूर्ति विसर्जन करने, दाह संस्कार करने आदि से नाना प्रकार के प्रदूषण गंगा में किए जाते हैं। भारत के 181 शहरों का 1100 करोड़ लीटर कचरा-अपशिष्ट गंगा में गिरता है। इसका एक तिहाई से पैंतालीस प्रतिशत तक ही शोधित होता है।

हरिद्वार में गंगा में नालाराष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकार की स्थापना 2009 में की गई। इसका मुख्य उद्देश्य था कि संपूर्णतावादी पद्धति के जरिए 2020 तक गंगा में एक भी प्रदूषक तत्व नहीं जाने दिया जाएगा। इसमें सात प्रमुख भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों द्वारा विस्तृत शोध-अध्ययन करने का भी प्रस्ताव शामिल था।

स्थानीय समुदायों से परामर्श और सहभागी प्रबंधन का विचार भी शामिल किया गया था। मगर जैसा कि के. चंद्रमौलि का कहना है कि इसमें खेती की जमीन से बहकर गंगा में आने वाला प्रदूषित पानी, ठोस अपशिष्ट वगैरह को नहीं जोड़ा गया है। इसमें पंदह-बीस सालों में बढ़ने वाले अशोधित सीवेज के गंदे जल को आंका नहीं गया है।

इसमें बत्तीस हजार करोड़ रुपए तक खर्च हो सकता है, जबकि कुल बजट प्राक्कलन सोलह हजार करोड़ रुपए का है। इसमें संपूर्णतावादी पद्धति परिलक्षित नहीं होती क्योंकि संवेदनशील पहाड़ियों, पारिस्थितिकी संरक्षण, टिकाऊ विकास वगैरह का ब्योरा नहीं दिया गया है। स्थानीय समुदा से परामर्श और सहभागी प्रबंधन महज नारे हैं क्योंकि उसे कैसे व्यवहार में लाया जाएगा, इसका उल्लेख नहीं किया गया है।

यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि 1973 में शुरू किए गए चिपको आंदोलन की जड़ में उत्तराखंड में पूर्व में आई बाढ़ भी एक कारण थी जिसका मुख्य कारण वनों का विनाश था। जून 2013 में केदारनाथ क्षेत्र में भयंकर बाढ़ आई थी जिसमें एक अनुमान से करीब दस हजार लोग गए थे (यों राज्य सरकार इससे बहुत कम मौतों को स्वीकार करती है)।

अलकनंदा और भागीरथी नदी का संगमटिहरी बांध की वजह से भागीरथी का पानी मटमैला हो गया है, उसमें गाद और कीचड़ भर गया है और गति शिथिल हो गई है। देव प्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा का संगम है। इसी जगह से उन्हें गंगा नाम मिलता है। इसलिए गंगा को जानने-समझने के लिए अलकनंदा को जानना-समझना जरूरी है। पिंडर, धौलीगंगा, रामगंगा, मंदाकिनी जैसी धाराएं अलकनंदा के साथ मिलकर पवित्र गंगा नदी (मां और देवी) बनती हैं।

आगे कर्णप्रयाग में अलकनंदा-पिंडर का संगम है। पिंडर नदी पर कई पनबिजली योजनाएं बनाने का प्रस्ताव है। एक बार पिंडर के पार हिमालय पहाड़ पर सतलुज जल विद्युत निगम परीक्षण सुरंग खोज रहा था, जिसका विरोध स्थानीय ‘मंगल दल’ की महिलाओं ने डटकर किया था और आखिरकार सुरंग का निर्माण बंद कर दिया गया। मगर जोशीमठ के ऊपर स्थित विष्णुप्रयाग का नामोनिशान मिट गया है।

यह कैसी विडंबना है कि पहले चिकित्सक दमा के पुराने मरीजों को अच्छी जलवायु का आनंद और स्वास्थ्य लाभ लेने के लिए उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश या कश्मीर-लद्दाख के पहाड़ी इलाकों में जाकर रहने की नेक सलाह देते थे, मगर अब तो विभिन्न कंक्रीट-निर्मित परियोजनाओं और पहाड़ों के काटने, तोड़ने, विस्फोट करने के कारण उत्पन्न धूल-रेत के कणों के हवा में बहुतायत मिलने से उत्तराखंड के स्थानीय लोग दमा के तेजी से शिकार हो रहे हैं।

अलकंदा की राह पर पीपलकोटी में दमा के मरीजों की संख्या काफी बढ़ रही है। इतना ही नहीं, तमाम सरकारी और गैरसरकारी निर्माण कार्यों के कारण निकलने वाले पत्थरों का मलबा सीधे नदी में गिरा दिया जाता है क्योंकि निर्माण कार्य करने वाली एजेंसियों ने उनके निष्पादन की कोई वैज्ञानिक व्यवस्था नहीं की है। जब बारूद से विस्फोट करके पहाड़ों को तोड़ा जाता है, तो निकलने वाले मलबों और बारूदों से तमाम जल जीवों और वन्य प्राणियों की हत्या हो जाती है।

जल मुर्गी और उदबिलाव वहां से लुप्त हो रहे हैं जिसकी परवाह न तो पर्यावरण और वन्य विभाग को है, न निर्माण एजेंसियों को है और न स्थानीय, क्षेत्रीय शासन-प्रशासन को। ऋषिकेश में गंगा पहाड़ से उतरकर मैदानी भाग में प्रवेश करती है। वहां गंगा के किनारे एक सौ से अधिक आश्रम बने हैं जहां देशी-विदेशी पर्यटक मोक्ष पाने के लिए ठहरते हैं और दिन-रात गंगा में गंदा पानी, कचरा वगैरह फेंकते हैं। फिर हरिद्वार, जो दाह संस्कार और अस्थि-विसर्जन का भी बड़ा तीर्थ है, में ‘हर की पैड़ी’ में जल की कमी रहती है क्योंकि गंगा की बड़ी धारा पहले ही सिंचाई के लिए मोड़ दी गई है।

बनारस में गंगा की भीषण दुर्दशा है। वहां हर साल तैंतीस हजार शवों का अंतिम संस्कार होता है और गंगा के तमाम घाटों पर सालाना दो लाख शवों के अंतिम संस्कार का अनुमान है। हर साल ढाई से तीन हजार टन अधजला मानव मांस गंगा में बहा दिया जाता है। सीवेज शोधन संयंत्र बिजली न रहने से अक्सर बंद रहते हैं। ये संयंत्र जितना पानी दो घंटे में लेते हैं, उसे शोधित करने में चौबीस घंटे लगाता हैं यानी बाईस घंटे नाले का अशोधित गंदा पानी गंगा में गिरता रहता है जिसमें जहरीले रासायनिक तत्व, शीशा, कैडमियम, निकिल, क्रोमियम आदि मिले होते हैं। गंगा का अधिकतर पानी लोअर गंगा नहर में डालकर एटा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद वगैरह जिलों में खेतों की सिंचाई की जाती है जिससे वहां हरियाली दिखती है। हर बारह साल में लगने वाले कुंभ मेले की वजह से लाखों लोग हरिद्वार नहाने जाते हैं जिससे काफी प्रदूषण होता है। नरौरा में बने परमाणु शक्ति संयंत्र में मशीनों को ठंडा करने के लिए गंगा के पानी का काफी उपयोग होता है और बाद में उसे बिना शोधित किए गंगा नहर में छोड़ दिया जाता है। स्थानीय लोगों की बार-बार मांग के बावजूद उस पानी में रेडियोधर्मिता होने की जांच शासन-प्रशासन नहीं कराता। यह सेहत के लिए खतरनाक है।

दूसरी ओर नरौरा में गंगा नहर में गाद को नहीं निकाला जाता जबकि खबर है कि उसके नाम पर करोड़ों रुपए खर्च दिखाए गए हैं। परमाणु संयंत्र की सुरक्षा भी ढीली-छाली है और संयंत्र से निकलने वाली रेडियोधर्मिता के परिणामों के लिए समुचित व्यवस्था नहीं की गई है कन्नौज (इत्र का शहर) में भी गंगा की स्थिति संतोषजनक नहीं है। वहां गंगा में मिलने वाली काली नदी और चित्रा नदी अपनी गंदगी के साथ मिलती है।

मगर इसकी चिंता किसे है? कभी इत्र की सुगंध से महमहाता कन्नौज शहर इत्र उद्योग के उजड़ने और गंगा के अतिशय प्रदूषित होने के कारण कराहता-सा लगता है। आगे कानपुर में गंगा की हालत उससे भी ज्यादा बदतर है। वहां इतनी ज्यादा गाद और कीचड़ गंगा के पेट में जमा है कि चप्पू से नाव चलाने की जगह बांस गड़ाकर नाव को पार लगाया जाता है। वहां चमड़े के सैकड़ों कारखाने हैं और शोधन संयंत्र नहीं लगा है जिससे काफी मात्रा में प्रदूषित अपशिष्ट और रसायन गंगा में गिरता है।

चमड़े के कारखाने वाले जमीन के नीचे पाइप डालकर उसमें गंदा पानी डालते हैं जिसके कारण भूजल भी प्रदूषित हो गया है और आस-पास के हैंडपंप से लाल पानी निकलता है जिससे दमा, चर्मरोग, पीलिया और हेपेटाइटिस की बीमारियां तेजी से हो रही हैं। गंगा के किनारे मरे हुए जानवरों की चर्बी (भट्ठियों में जलाकर) निकाली जाती है और सारा अपशिष्ट गंगा में बहा दिया जाता है जिससे पानी काले रंग का हो जाता है।

गंगा को मारने की तैयारीकानपुर में नगर निगम और स्थानीय लोग काफी मात्रा में कूड़ा-कचरा-गंदा पानी सीधे गंगा में डालते हैं जिससे तेज आवाज में निकलती तेज धारा डरावनी लगती है। वहां ‘राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों का पाप धोते-धोते’ चरितार्थ होता है।

आगे चलकर इलाहाबाद में दो प्रदूषित नदियों-यमुना और गंगा का मिलन होता है, जिसे संगम मानकर पूरी आस्था से एक करोड़ से ज्यादा लोग महाकुंभ में हर बारह साल पर नहाने आते हैं। लोकमान्यता है कि यमुना नदी अपनी बड़ी बहन गंगा में मिलती है और गंगा का महत्व इसलिए भी है कि गंगा पुत्रवती (भीष्म पितामह गंगापुत्र थे) हैं और महिलाओं को पुत्र-रत्म देती है जबकि यमुना वन्धया हैं। इसीलिए कहा गया है- गंगा तव दर्शनात्मुक्तिः। प्रदूषित होने के कारण गंगा जल आचमन और नहाने योग्य नहीं है।

तीर्थयात्री शायद अपने साथ तथाकथित पुण्य के साथ उल्टी-दस्त, चर्म रोग जैसी कुछ बीमारियां भी ले जाते हैं। कुंभ के दौरान दारागंज का नाला गंगा में नहीं गिराया जाता, शेष अवधि में वह गंगा में ही गिरता है।

बनारस में गंगा की भीषण दुर्दशा है। वहां हर साल तैंतीस हजार शवों का अंतिम संस्कार होता है और गंगा के तमाम घाटों पर सालाना दो लाख शवों के अंतिम संस्कार का अनुमान है। हर साल ढाई से तीन हजार टन अधजला मानव मांस गंगा में बहा दिया जाता है। सीवेज शोधन संयंत्र बिजली न रहने से अक्सर बंद रहते हैं।

गंगा के किनारे सड़ती लाशये संयंत्र जितना पानी दो घंटे में लेते हैं, उसे शोधित करने में चौबीस घंटे लगाता हैं यानी बाईस घंटे नाले का अशोधित गंदा पानी गंगा में गिरता रहता है जिसमें जहरीले रासायनिक तत्व, शीशा, कैडमियम, निकिल, क्रोमियम आदि मिले होते हैं। बनारस मृत हिंदुओं के अंतिम संस्कार और अस्थि-विसर्जन का सबसे बड़ा केंद्र है, जहां हर साल सोलह हजार टन लकड़ी शवों को जलाने में लगती है और उसकी राख यों ही गंगा में प्रवाहित कर दी जाती है।

पटना में गंगा शहर से दूर होती जा रही हैं-मुख्य दारा उत्तर की ओर जा रही है जिसका कारण मानवों की छेड़छाड़ भी है। यहां भी नगर निगम अशोधित कचरे और गंदे पानी को गंगा में छोड़ता है। गंगा के पेट से निकली जमीन पर सैकड़ों फ्लैट बिल्डर-माफियाओं ने बिना कानूनी प्रक्रिया पूरी किए बना लिए हैं जो भूकंप आने पर ताश के पत्ते की तरह धराशायी हो जाएंगे। फिर राष्ट्रीय राजमार्ग-30 पर गंगा के किनारे तमाम ईंट भट्ठे खुले हैं, जिनकी राख, कूड़ा-कचरा गंगा में डाला जाता है।

बांस घाट दाह संस्कार के लिए मुख्य स्थल है। पटना और भागलपुर के बीच डॉल्फिन (सूंस) का शिकार पहले धड़ल्ले से किया जाता था और उन्हें मारकर उससे तेल निकाला जाता था और मांस भी खाया जाता था, जबकि उसमें विषैले तत्व होते हैं। लेकिन कुछ जागरूक नागरिकों और स्वयंसेवी संसाथाओं के अथक-प्रयास से इस पर रोक लगी है और अब भारत सरकार ने डॉल्फिन को राष्ट्रीय जल जीव घोषित किया है।

भागलपुर, मुंगेर, साहेबगंज और राजमहल में भी गंगा की काफी दुर्गति हुई है और दियारा क्षेत्र में अपराधियों का बोल बाला रहता है। फरक्का बैराज बनने से गंगा की अविरल धारा अवरुद्ध हो गई और झींगा और हिलसा मछलियों का विनाश भी हो गया। फिर उसके कारण भूक्षरण और कटाव भी बढ़ गया। दरअसल, बैराज बनने से लाखों स्थानीय लोगों की जीविका छिन गई, विशेषकर मछुआरों की।

गंगा को बांधने की तैयारीगंगा पूरे भारत में दो हजार पांच सौ पच्चीस किलोमीटर लंबी हैं और देश में कुल जलस्रोतों का पच्चीस प्रतिशत है। भारत की करीब सैंतालीस प्रतिशत उपजाऊ जमीन गंगा तलहटी में है। करीब चालीस करोड़ लोग आजीविका के लिए किसी-न-किसी रूप में गंगा पर निर्भर रहते हैं- विशेषकर सिंचाई, मछली, पुरोहित, विद्युत आदि के लिए। फिर भी विकास योजनाओं, ठेकेदारों, बिचौलियों व्यापारियों, संगठित गिरोहों और व्यक्तियों ने गंगा की अविरल और निर्मल धारा को नष्ट-भ्रष्ट, अवरुद्ध और अशुद्ध कर दिया है।

यह विडंबना ही है कि बिहार में नदी की जमीन को राजस्व जमीन माना गया है, जिसके कारण अतिक्रमण होता है। जबकि उत्तर प्रदेश ने उसे वनभूमि मानकर बचाने की कोशिश की गई है। गंगा का उद्गम हिमालय में स्थित गंगोत्री है। वहां के गंगा जल और पटना के गंगा जल में जमीन-आसमान का फर्क है।

हिमालय विश्व का सबसे तरुण पर्वत है, इसलिए यह पारिस्थितिकीय दृष्टि से सबसे ज्यादा नाजुक और संवेदनशील है। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में सात बार-1979, 1986, 1998, 2001, 2005, 2006 और 2012 में बड़ी बाढ़ आपदा आई। तमाम पनबिजली योजनाओं और बांधों के बनने से पारिस्थितिकी की स्थिति बदतर हो रही है, क्योंकि नदियों के रास्ते, तट वगैरह से छेड़छाड़ की गई है और बारूद से पहाड़ियों को विस्फोट करके नष्ट किया गया है सड़क, सुरंग, बांध-निर्माण के लिए। उत्तराखंड में 557 बांध परियोजनाओं की रूपरेखा तैयार की गई है और अधिकतर राजनीतिक दल विकास के नाम पर पारिस्थितिकी की बलि चढ़ाने को तैयार हैं।

अगर ये सभी बांध बनाए गए तो उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों की कुल लंबाई 1,120 किलोमीटर होने से औसतन प्रत्येक दो किलोमीटर पर एक बांध बन जाएगा जो अविरल प्रवाह को अवरुद्ध करेगा और कई रूपों में स्थानीय लोगों का अहित भी करेगा। बांध पारंपरिक जलग्रहण स्रोतों को सुखा देते हैं। वनों, औषधियों, पशु-पक्षियों के पर्यावासों, मछलियों के वासों को नष्ट कर देते हैं और भूकंप, भूस्खलन, भूक्षरण, मलेरिया वाले मच्छर जैसे कुपरिणाम भी देते हैं।

अधिकतर पर्यावरण मूल्यांकन रपटें सतही और अवैज्ञानिक तरीके से बनाई जाती हैं जिनसे कुछ छोटी-मोटी त्रुटियों का निराकरण करके योजना की संस्तुति की जाती है। इसमें रपट तैयार करने वाली एजेंसियों का लोभ छिपा रहता है क्योंकि अगर वे उसे पर्यावरण-विरोधी करार कर दें, तो उन्हें परामर्शी के कार्य से हटा दिया जाएगा और दूसरी ओर परियोजना के इंजीनियर, ठेकेदार आदि ज्यादा प्राक्कलन बनाने और लाभ कमाने में रुचि रखते हैं।

गंगा में मिलते कचरा एवं गंदे नालेअधिक संख्या में बड़े बांधों के निर्माण से मानव-प्रकृति के बीच टकराव बढ़ता जाता है। ऐसी स्थिति में पारिस्थितिकी-हितैषी वैकल्पिक विकास मॉडल की सख्त जरूरत है, जिसमें छोटे-छोटे पनबिजली संयंत्र (पांच से दस मेगावाट) बनाए जाएं। वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों यथा पवन चक्की, सौर ऊर्जा वगैरह का अधिकतम उपयोग हो; भोजन बनाने के लिए गैस का अधिकतम उपयोग हो और नई तकनीकों से कम गैस पर भोजन बने; स्वास्थ्य के लिए देशज चिकित्सा पद्धति (आयुष) को लोकप्रिय और जनसुलभ बनाया जाए।

मौजूदा थर्मल और पनबिजली संयंत्रों में संचरण और वितरण के नुकसानों को चालीस प्रतिशत से घटाकर दस प्रतिशत किया जाए और स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी परियोजना के सूत्रण, कार्यान्वयन, अनुश्रवण, मूल्यांकन आदि सभी चरणों में बढ़ाई जाए। नदियों के बिना कोई संस्कृति, सभ्यता, अर्थव्यवस्था और समाज चिरस्थाई नहीं हो सकता। इसलिए गंगा की समूची पारिस्थितिकी को संरक्षित और सुरक्षित करने में समाज के सभी वर्ग तन, मन, धन, से जुट जाएं-यही समय की मांग है।

गंगा में प्रदूषण रोकने के बहुआयामी उपाय


प्रदूषक एजेंसी
औद्योगिक इकाइयां (चमड़ा, कालीन-कपड़े आदि कारखाने की भट्ठियां, कसाईखाना, उर्वरक एवं कीटनाशक निर्माण, अस्पताल आदि)

उपाय
i) गंगा के किनारे स्थित प्रदूषक औद्योगिक इकाइयों को अन्यत्र स्थानांतरित करना
ii) ठोस अपशिष्टों से बिजली-निर्माण (जैसे नार्वे में होता है)
iii) शोधन संयंत्रों की स्थापना
iv) नगर निगम/नगरपालिका एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना तथा प्रदूषण नियंत्रण निर्देशों का पालन
v) गंदे जल का पुनःचक्रण एवं पुनःउपयोग आदि

प्रदूषण एजेंसी नगर निगम/नगरपालिका
i) कचरा, गंदा पानी, मल-मूत्र आदि गंगा में नहीं गिराना
ii) कचरा, गंदा पानी आदि का शोधन संयंत्र लगाना तथा पुनः चक्रण, पुनः उपयोग
iii) विद्युतशवदाह गृहों का निर्माण एवं रखरखाव सुनिश्चित करना
iv) पशुओं की लाशें गंगा किनारे नहीं जलाने देना और गंगा में नहीं फेंकने देना
v) गंगा के तट पर स्थित नगरों/कस्बों के कूड़ा-करकट, कचरा आदि ठोस अपशिष्ट को जैविक-अजैविक के रूप में अलग-अलग एकत्रित करना तथा बिजली-खाद निर्माण आदि की व्यवस्था
vi) सरकारी, अर्ध-सरकारी एवं निजी अस्पतालों को चिकित्सीय कचरों के शोधन हेतु संयंत्र (इनसिनेटर) लगाने के लिए बाध्य करना
vii) गंगा तट एवं आस-पास के श्रेत्रों से अतिक्रमण हटाना
viii) खेतों से रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों आदि को गंगा में बहने से रोकना
ix) 40 माइक्रोग्राम से कम के प्लास्टिक का उत्पादन, उपयोग आदि रोकना
x) गंगा में दर्शनार्थियों को मूर्ति-विसर्जन, फूल-पत्ती, घी के दीए, चुनरी, नारियल, सीताफल आदि डालने से रोकना।
xi) गंगा के किनारे वृक्षारोपण करना
xii) गंगा के घाटों की नियमित सफाई कराना
xiii) विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए जन-जागरण करना
xiv) शौचालयों का निर्माण कराना

व्यक्ति एवं समूह
i) गंगा स्नान के दौरान साबुन, तेल आदि का उपयोग/कपड़े की धुलाई नहीं करना
ii) गंगा के किनारे मल-मूत्र नहीं त्यागना
iii) गंगा में जानवरों को नहीं नहलाना और न गाड़ी आदि की धुलाई करना
iv) गंगा नदी के किनारे खेल, मनोरंजन आदि नहीं आयोजित करना
v) मानव/पशु की लाशें (समूची, जली-अधजली या राख) गंगा में नहीं फेंकना
vi) गंगा में पूजा-सामग्री या खाद्य-सामग्री आदि नहीं डालना
vii) गंगा तट पर कोई अतिक्रमण नहीं करना
viii) पुरोहितों/पंडों/पुजारियों द्वारा दर्शानार्थियों/तीर्थयात्रियों को प्रदूषण रोकने हेतु जागरूक तथा पर्यावरण-हितैषी व्यवहार, घाटों की सफाई के लिए लोगों को प्रेरित करना
ix) वृहत्तर जन-सहभागिता हेतु जनजागरण करना तथा छोटे-छोटे स्वैच्छिक समूह बनाकर सफाई करना
x) वैकल्पिक संपोषकीय विकास का प्रतिमान अपनाना जिसमें प्रदूषण न हो, प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत के अनुसार ही उपयोग हो, जन-भागीदारी हो, आर्थिक रूप से उपयोगी एवं किफायती हो तथा सांस्कृतिक रूप से स्थानीय लोगों को स्वीकार्य हो।

शासन-प्रशासन (भारत सरकार, राज्य सरकार)
i) भारत-बंग्लादेश समझौता (1996) तथा फरक्का बराज की डिजाइन की समीक्षा हो और बराज से पानी छोड़ने तथा वितरण की समुचित व्यवस्था भारत और बंग्लादेश दोनों के हित में हो
ii) गंगोत्री में लेशियर के पिघलने का वास्तविक अध्ययन हो तथा उसकी भावी प्रवृत्तियों का सही आकलन किया जाए और तदनुसार योजना बने।
iii) तिब्बत/नेपाल से निकलने वाली नदियों (ब्रह्मपुत्र, कोसी आदि) के जलप्रवाह आदि का गहन अध्ययन हो और तदनुसार योजना बनें
iv) गंगा के ऊपरी हिस्से में बनने वाले बांधों, जल विद्युत योजनाओं की समीक्षा/पुनर्विचार किया जाए और नितांत जरूरी योजनाओं को ही पर्यावरण-हितैषी बनाकर कार्यान्वित किया जाए।
v) छोटी-छोटी जलविद्युत योजनाएं बनाई जाएं जो स्थानीय लोगों की जरूरतें समान रूप से पूरी करें, जो सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य हों, जो आर्थिक रूप से किफायती हों और पर्यावरण हितैषी व टिकाऊ हों।
vi) वैकल्पिक विकास का प्रतिमान अपनाया जाए

जब स्वच्छता आंतरिक और बाह्य दोनों होती है तो ऐसी स्वच्छता देवत्व के समीप होती है: महात्मा गांधी (असम मेल में 08 जनवरी, 1946 को)

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संकट में गांगेय डॉल्फिनलेखक बिहार राज्य योजना परिषद में परामर्शी हैं। पर्यावरण, नारी विमर्श, बालश्रम व शिक्षा आदि विषयों पर केंद्रित, दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। 'भारत में मानवाधिकार' पुस्तक 2011 में राष्ट्रीय मानवाधिकार की ओर से पुरस्कृत। ईमेल- sush84br@yahoo.com

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