गंगा को श्रीहीन करता विकास

30 Aug 2009
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उत्तराखंड हिमालय में गंगा व उसकी अनेक सहायक नदियों का उदगम होता है। इस क्षेत्र को गंगा का मायका भी कहा जाता है। हमने जून में दो सप्ताह तक इस क्षेत्र की अपनी विस्तृत यात्रा के दौरान यह बार-बार देखा कि गंगा व उसकी अनेक सहायक नदियों पर बहुत तेजी से व बहुत बड़े पैमाने पर बनाई जा रही पनबिजली परियोजनाओं से इन नदियों की असहनीय क्षति हो रही है। सरकारी दस्तावेजों के अनुसार उत्तराखंड की विभिन्न नदियों पर 343 से 540 पनबिजली परियोजनाओं की पहचान की गई है।

लोगों के विस्थापन, वनों व चारागाहों के विनाश और उपजाऊ खेतों के डूबने के अतिरिक्त निर्माण कंपनियों द्वारा परियोजना के लिए समर्थन प्राप्त करने हेतु गांववासियों को बांटने का भी प्रयास किया जाता है जिससे सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है। सबसे गंभीर है पर्यावरण की तबाही व उससे जुड़े दीर्घकालीन खतरे व आपदाएं। परियोजना-प्रभावित गांवों में लोगों को धूल, प्रदूषण व विस्फोटों से उत्पन्न गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से त्रस्त पाया। कई घरों में बड़ी दरारें आ गई हैं। यह क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से वैसे ही संवेदनशील क्षेत्र है व अब जलाशय-जनित-भूकंपीयता की अतिरिक्त संभावना भी उत्पन्न हो गई है। पिछले भूकंप में सबसे अधिक मौतें जामख जैसे उन गांवों में हुई जो बांध निर्माण के लिए किए गए विस्फोटकों से बहुत कमजोर हो चुके थे।

परियोजना पूरी होने के बाद कई वर्षों बाद तक ऐसे कई खतरे उपस्थित रहते हैं। टिहरी जलाशय के असर से आज अनेक गांवों में भू-स्खलन आ रहे हैं व गांव जलाशय की ओर धसक रहे हैं। ऐसी ही गंभीर स्थिति विष्णुप्रयाग परियोजना के पास चाई जैसे गांव की है। अचानक बहुत वेग की बाढ़ मैदानी क्षेत्रों में भी दूर तक तबाही मचा सकती है। परियोजना के अनेक वर्ष बाद ट्रांसमीशन लाइन के लिए लाखों वृक्ष खतरे में पड़ते हैं।

देश व दुनिया के असंख्य लोग सुन्दरता से बहती इन नदियों से मुग्ध होते हैं। धार्मिक कारणों से असंख्य लोगों की इन नदियों के प्रति अपार श्रध्दा है। नदी-किनारे के गांववासियों विशेषकर महिलाओं ने हमें बार-बार बताया कि नदियां उनके जीवन और आस्था का केन्द्र है। पर अनेक परियोजनाओं में नदियों का जल सुरंगों में मोड़ने के कारण अनेक मीलों तक यह नदियां नजर ही नहीं आएंगी। इसके साथ ही किसानों, पशुपालकों, रेत ढोने वालों, नाविकों, मछुआरों आदि की आजीविका भी छिन रही है। अनेक श्रध्दा का केन्द्र रहे संगम व तीर्थ-स्थान भी खतरे में है।

इस प्रकार गंगा और उसकी सहायक नदियां अपने जन्म-क्षेत्र में ही खतरे में है। यह किसी भी समय गहरी चिंता की बात होती, पर अब जलवायु बदलाव व ग्लेशियर खिसकने के दौर में तो यह चिंता और भी गंभीर हो जाती है।

जल्दबाजी में और दुष्परिणामों को समझे बिना पनबिजली का अत्यधिक दोहन करने की नीति को त्यागना होगा। इसके स्थान पर प्रकृति की व्यवस्था को आदर देने वाला एक ऐसा दृष्टिकोण चाहिए जो अविरल बहने वाली जीवनदायिनी प्राकृतिक नदियों की पर्यावरण की रक्षा करने वाली भूमिका को समझता हो। यह दृष्टिकोण नदियों की रक्षा के लिए उनके जल-ग्रहण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वनीकरण पर भी जोर देता है जिसमें स्थानीय प्रजाति के जल व मिट्टी संरक्षण, खाद्य, रेशा, पत्ती की खाद, चारा व ईंधन गांववासियों को देने वाले वृक्षों को महत्व दिया जाए।

साथ ही यह भी स्पष्ट है कि नदी संबंधी नीतियां नदी किनारे के समुदायों की सहभागिता से ही बननी चाहिए ताकि उनके हितों की रक्षा हो व साथ ही स्थानीय स्थितियों की उनकी बेहतर जानकारी का अधिकतम लाभ भी प्राप्त हो सके।

किंतु इस समय पनबिजली उत्पादन को अधिकतम करने के नाम पर नदियों पर इतना बड़ा प्रहार हो रहा है कि बहुमूल्य पर्यावरणीय भूमिका निभाने वाली व करोड़ों लोगों की श्रध्दा का केन्द्र ये नदियां खतरे में है। अनेक परियोजनाओं को जल्दबाजी में आगे बढ़ाया जा रहा है। जबकि समग्रता में उनके पूरे क्षेत्र व यहां की नदियों पर असर पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

अत: हम अपील करते हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की उनके जन्म-क्षेत्र में रक्षा के लिए जरूरी कदम तुरंत उठाए जाएं अन्यथा बहुत देर हो जाएगी। बांधों व पनबिजली परियोजनाओं के वर्तमान नियोजन व क्रियान्वयन पर पूरी तरह नए सिरे से विचार होना चाहिए। साथ ही नदियों का प्रदूषण रोकने व वनों की हरियाली बढ़ाने का कार्य तेजी से होना चाहिए।

यह सब केवल हिमालय क्षेत्र के लिए नहीं अपितु बंगाल की खाडी तक नीचे के मैदानी क्षेत्रों के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हिमालय में नदियों की तबाही के दुष्परिणाम दूर तक के मैदान क्षेत्रों विशेषकर पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण समुद्रतटीय क्षेत्रों तक भी पहुंच सकते हैं।

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