गंगा शरणम गच्छामि


गंगोत्री से लेकर, सागर-मिलन तक देखें, तो हर-पल हर क्षण हमने अपनी माँ की दुग्ध-धारा को बाँटा है, अपने लोभ के शमन के लिये और अपनी भूख की शान्ति के लिये। पर, माँ की जिन्दगी कैसे बची रहे, कैसे सँवरती रहे, हम पतितों ने कभी प्रयास भी नहीं किया। माँ के दूध की अन्तिम बूँद भी सोखना चाहते हैं हम, परन्तु माँ को बचाने की न कोई चिन्ता, न कोई कवायद। अब माननीय हाईकोर्ट को यह बताना पड़ रहा है कि जिस माँ को तुम केवल एक जल-स्रोत मानते हो, वह केवल एक स्रोत नहीं, बल्कि आत्मा से परिपूर्ण एक जीवित जीवन है और हमारे-आपके बराबर ही उनके भी अधिकार हैं। हालांकि सुबह में अखबार पढ़ने से गुरेज ही करता हूँ, क्योंकि सुबह-सुबह एकाध अच्छी खबरें पढ़ने के चक्कर में कई सारी दुखद घटनाओं की भी जानकारी हो जाती है। इसके कारण, दिनभर आप मानसिक अवसाद में डूबे रह जाते हैं। यह बात दीगर है कि जब कोई आलेख के छपने की खबर रहती है, तो निश्चित रूप से एक आँख दबाकर अपने वाले आलेख को भी खोजता रहता हूँ कि कैसा छपा है।

कभी-कभी अखबारी पन्नों को पलटते-पलटते किसी ऐसी खबर पर आप रुक जाते हैं, जिसके कारण सारी अवधारणा-मान्यताएँ या तो टूटती हुई सी या फिर जुड़ती हुई सी दिखती हैं। एक बार फिर माननीय हाईकोर्ट के निर्देशानुसार एक नई ‘माँ’ का अवतरण हुआ है, हम सबके जीवन में। पहले तो नई माँ का स्नेह मिलने की अग्रिम बधाई स्वीकार करें। हो सकता है, हाईकोर्ट को यह लगा हो कि घर की उपेक्षित माँ को तो डंडा घुमाकर उनका अधिकार दिलवा दिया गया, पर घर के बाहर जो माँ है, जिनके अंश से ही पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति सम्भव हुई है, उस उपेक्षित माँ को भी जीने देने के लिये बड़ा डंडा घुमाना ही पड़ेगा।

हमारी मानसिकता यह हो सकती है कि इसमें कौन सी नई बात हो गई? हम तो आरम्भ से ही माँ गंगा को मातृ-रूप से में ही पूजते और मानते आये हैं। हाँ, यह सही है, परन्तु जिस बेरुखी-बदनीयती और आपराधिक रूप से हमने और हमारे समाज ने माँ गंगा का मानसिक और भौतिक बलात्कार किया है, वह किसी भी सूरत में क्षम्य तो नहीं ही है। जो माँ सदियों से मानव प्रजाति की प्राणदायिनी और जीवनदायिनी रही है, वही माँ आज कुछ साँसों की भीख माँगती दिखती है, बस अपने आपको जीवित रखने मात्र के उद्देश्य से।

गंगोत्री से लेकर, सागर-मिलन तक देखें, तो हर-पल हर क्षण हमने अपनी माँ की दुग्ध-धारा को बाँटा है, अपने लोभ के शमन के लिये और अपनी भूख की शान्ति के लिये। पर, माँ की जिन्दगी कैसे बची रहे, कैसे सँवरती रहे, हम पतितों ने कभी प्रयास भी नहीं किया। माँ के दूध की अन्तिम बूँद भी सोखना चाहते हैं हम, परन्तु माँ को बचाने की न कोई चिन्ता, न कोई कवायद।

अब माननीय हाईकोर्ट को यह बताना पड़ रहा है कि जिस माँ को तुम केवल एक जल-स्रोत मानते हो, वह केवल एक स्रोत नहीं, बल्कि आत्मा से परिपूर्ण एक जीवित जीवन है और हमारे-आपके बराबर ही उनके भी अधिकार हैं। आखिर यह नौबत आई क्यों? माँ भी तो एक सीमा तक ही हमारे अपराधों और पापों को ढँक सकती है न, जब माँ के जीवन पर ही बड़ा प्रश्न-चिह्न खड़ा हो जाये, तो किसी-न-किसी को तो आना ही पड़ेगा। हाईकोर्ट यह आदेश एक तरफ, कम-से-कम अब तो अपनी मातृ-रूप गंगा को बचाने की कवायद कर ही लें, कहीं देर न हो जाये।

वैश्विक इतिहास में केवल न्यूजीलैंड के वांगानुई नदी को ही एक जीवित आत्मा मानकर, मानव के बराबरी का अधिकार मिला है। यहाँ तो गंगा को हम सदियों से ही मइया और माँ ही कहते आये हैं, फिर भी हमारे-आपके समाज में माँ की प्रतिष्ठापना निश्चित रूप से सुखदता का अहसास दिये होता है।

मैं तो समर्पित हूँ गंगा शरणम गच्छामि...।

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