माना की भारत सरकार ड्रिप सिंचाई व्यवस्था को आगे बढ़ा रही है, लेकिन हकीकत में तो इससे बड़े उद्योग ही फल-फूल रहे है। और छोटे किसान पीछे धकेल दिए गए हैं।
यूँ तो ड्रिप सिंचाई अनेक किसानों के दुखों का निवारण है, लेकिन इसके सामने एक बड़ी बाधा है कि यह काफी महंगा पड़ता है। एक हेक्टेयर जमीन की सिंचाई में 20 हजार से 40 हजार रुपये तक की लागत आ जाती है। भारत सरकार ड्रिप सिंचाई में निजी क्षेत्र के उद्यमियों को प्रोत्साहित कर रही है, जिसके लिए इसकी क्रियान्वयन एजेंसी, बागवानी कृषि निदेशालय इसके प्रचार-प्रसार में लगी हैं। इसमें रियायत (सब्सिडी) का भी प्रावधान है, जिसे एक अवधि के बाद में हटा लिया जाएगा।
बाजार: आज भारत में 75 कम्पनियां ड्रिप सिंचाई व्यवस्था (यंत्र) का निर्माण कर रहे हैं और उन्हें बेंच रहे हैं। जैन इरीगेशन सिस्टम नामक एक बड़े निर्माता ने अपने 200 करोड़ रुपए के व्यापार से इसके 60 प्रतिशत हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया है। एक इज़रायली कंपनी नेटाफर्म ने भी भारतीय बाजार में अपनी जगह बना ली है। विदेशी समूहों को सरकारी नियंत्रक कानूनों के अनुसार देश में अपने प्रवेश के दो साल के भीतर अपने उत्पादन की पूरी सुविधा तैयार करनी पड़ती है। इसके फलस्वरूप वे स्थापित भारतीय कंपनियों के साथ साझेदारी में काम करते हैं। इज़रायली कम्पनियों के पास भारत के बहुत से साझेदार हैं। जर्मनी, यूएस और आस्ट्रेलिया भी अच्छा कमा रहे हैं।
सरकारी खर्च: भारत की 8वीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) में लघु सिंचाई के लिए 250 करोड़ रुपए मंजूर किए गए, जिसमें 200 करोड़ रुपए ड्रिप सिंचाई के लिए रखे गए। आज सरकारी योजना के तहत छोटे किसानों, महिलाओं व अनुसूचित जाति, जनजाति के किसानों को लागत में 90 प्रशित तक की रियायत दी गई है, वहीं बड़े किसानों को 75 प्रतिशत तक की। नवीं पंचवर्षीय योजना के 475 करोड़ रुपये के कुल खर्च में से करीब 300 करोड़ रुपए ड्रिप के लिए रखे गए हैं। और इसमें छोटे किसानों, महिलाओं व अनुसूचित जाति/जनजाति के किसानों को 50 प्रतिशत तक की रियायत देने और बाकी सभी को 35 प्रतिशत की रियायत देने का प्रावधान है। पिछली पंचवर्षीय योजना में सभी श्रेणी के किसानों को सिर्फ 25 प्रतिशत तक ही रियायत देने का प्रावधान है। सरकार द्वारा ड्रिप व्यवस्था की कुल लागत का निर्धारण करके रियायत की अधिकतम राशि तय करती है।
पैसा ऊपर से आता है: रियायत व्यवस्था में काफी धांधलेबाजी है और इसका लाभ सबसे कम जरूरतमंद को पहुंचता है, ऐसा कम लागत की ड्रिप व्यवस्था के प्रोत्साहन में जुटे एक गैर-सरकारी संगठन ‘इंटरनैशनल डेवलपमेंट इंटरप्राइजेज’ (आईडीई) के अमिताभ सादंगी का कहना था। इस प्रक्रिया में काफी कागजी कार्रवाई होती है, जिसकी हर अवस्था में सरकार को मंजूरी लेनी पड़ती है, और तभी जाकर पैसा जारी होता है। जैन इरीगेशन सिस्टम के एक कर्मचारी बताते हैं कि, “इस काम को कराने में सभी तरह की कुल रिश्वत की राशि अलग रखनी पड़ती है। यह राशि कुल लागत की 20-25 प्रतिशत तक होती है। हकीकत में तो हम किसानों को कोई सरकारी रियायत के चक्कर में पड़ने के बजाय हमसे सीधे खरीदने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। ऐसे मामले में हम उन्हें 25 प्रतिशत तक की छूट दे देते हैं और यह छूट सरकारी रियायत के बराबर पड़ती है।“ वे आगे कहते हैं कि “चूँकि सरकारी रियायत पाने की प्रक्रिया में एक साल से भी ज्यादा समय लग जाता है, जिससे इसके निर्माता का लाखों रुपया फंस जाता है।“ इस पैसे को वे दूसरे ढंग से वसूलते हैं। मिसाल के लिए,16 मिमी व्यास और एक मीटर लम्बे पाइप की कीमत 5 रुपए लगाई जाती है, जबकि खुले बाजार में इसे 3 रुपए के हिसाब से खरीदा जा सकता है। ऐसी व्यवस्था होने के कारण उनका यह घाटा निकल आता है।
गुजरात में ड्रिप के उपयोग को प्रोत्साहित करने में जुटी संस्था ’आगा खाँ रूरल सपोर्ट प्रोग्राम (एकेआरएसपी) के सीईओ अपूर्व ओझा के अनुसार, वास्तव में सरकारी रियायत के कारण ही इसकी कीमत कम नहीं होती है। चूँकि उन्हें सरकार से वादे के अनुसार एक निश्चित धन राशि मिल जाती है, अत: वे इस व्यवस्था को सस्ता करने और किसानों की सहुलियत के अनुसार इसे ढालने का कोई प्रयास नहीं करते हैं।
भारतीय मानक ब्यूरो से प्रमाण-पत्र: सिर्फ उसी ड्रिप व्यवस्था को रियायत दी जाती है, जिसे भारतीय मानक ब्यूरो से इसका प्रमाणपत्र प्राप्त है। इसके लिए निर्माता को सरकार में अपना पंजीकरण करना पड़ता है। इन मानकों में बड़े खेतों में प्रयुक्त होने वाली चीजों की बनावट और आकार के मापदण्ड तय होते हैं। यूँ तो छोटे खेतों के लिए इन मानकों की कोई जरूरत नहीं है। इसके अलावा कई छोटे निर्माताओं के प्रमाणित उत्पाद, गुणवत्ता की दृष्टि से इतने खरे नहीं उतरते हैं, क्योंकि इसमें पहले से ही कीमत में कटौती करके प्रोत्साहन दिए जाने का प्रावधान जुड़ा हुआ है। इससे अंतत: इसकी कीमत बाजार की कीमत जितनी पड़ जाती है।
प्रशिक्षण का अभाव: किसानों को यह व्यवस्था चलाने और इसका रखरखाव करने के लिए कुछ न कुछ प्रशिक्षण की जरूरत तो है ही। क्योंकि इसके व्यापारी अपने निहित स्वार्थों के कारण इस व्यवस्था की देखरेख में कोई रुचि नहीं लेते हैं। दूसरे, बड़े किसानों को ही ऐसी सेवाओं का लाभ पहुंच सकता है, लेकिन छोटे किसानों की संख्या तो बहुत बड़ी है और उनमें ज्यादातर अशिक्षित भी होते हैं, अत: उनके लिए इस पर पैसा लगाने का तो सवाल ही नहीं उठता है।
यूँ तो ड्रिप सिंचाई अनेक किसानों के दुखों का निवारण है, लेकिन इसके सामने एक बड़ी बाधा है कि यह काफी महंगा पड़ता है। एक हेक्टेयर जमीन की सिंचाई में 20 हजार से 40 हजार रुपये तक की लागत आ जाती है। भारत सरकार ड्रिप सिंचाई में निजी क्षेत्र के उद्यमियों को प्रोत्साहित कर रही है, जिसके लिए इसकी क्रियान्वयन एजेंसी, बागवानी कृषि निदेशालय इसके प्रचार-प्रसार में लगी हैं। इसमें रियायत (सब्सिडी) का भी प्रावधान है, जिसे एक अवधि के बाद में हटा लिया जाएगा।
इस व्यवस्था की खामियां
आज की व्यवस्था कितनी कुशल है? क्या इससे छोटे किसानों को कोई मदद मिलती है? शायद नहीं।गुजरात में ड्रिप के उपयोग को प्रोत्साहित करने में जुटी संस्था ’आगा खाँ रूरल सपोर्ट प्रोग्राम (एकेआरएसपी) के सीईओ अपूर्व ओझा के अनुसार, वास्तव में सरकारी रियायत के कारण ही इसकी कीमत कम नहीं होती है। चूँकि उन्हें सरकार से वादे के अनुसार एक निश्चित धन राशि मिल जाती है, अत: वे इस व्यवस्था को सस्ता करने और किसानों की सहुलियत के अनुसार इसे ढालने का कोई प्रयास नहीं करते हैं।
किसान रियायत पाएं तो कैसे पाएं?
सरकारी रियायत से ड्रिप सिंचाई व्यवस्था
बनाना वाकाई एक टेढ़ी खीर है
किसान कृविअ/बाविअ को आवेदन करते हैं
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किसान कृविअ/बाविअ सेइसकी योग्यता का
प्रमाण पत्र प्राप्त करते हैं
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स्थानिय ड्रिप व्यवस्था के निर्माता से सम्पर्ककरते हैं
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निर्माता इसकी लागत राशि का
चिट्ठा बनाकर देता है
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किसान इसे जिकृअ के पास जमा करते हैं
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जिकृत वित्तीय सहायता की मंजूरी देता हैं
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बैंक से ऋण प्राप्त करते हैं
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निर्माता के पूरी राशि का भुगतान
कोई रियायत नहीं
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कृविअ को रसीद की एक प्रति देते हैं
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कृविअ जिकृत को इसकी मंजूरी देता है
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डीईओ निर्माता को इसके रियायत की राशि जारीकरता है
कृविअः कृषि विकास अधिकारी
बाविअः बागवानी विकास अधिकारी
जिकृअः जिला कृषि अधिकारी
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