गरम हो रही है धरती

23 Jul 2014
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धरती की जलवायु और वैश्विक तापन पर निगाह रखनेवाली अन्तरराष्ट्रीय संस्था आई.पी.सी.सी. की ताजा रिपोर्ट में, जलवायु में आ रहे बदलावों और लगातार गरम हो रही धरती के बारे में कई खतरनाक और चिन्ताजनक बातें कही गयी हैं, वे पृथ्वी की जलवायु प्रणाली के बारे में हैं, समुद्रों के बारे में हैं, वनों और पर्यावरण के बारे में हैं और अंततः मानव जीवन के बारे में हैं। आइये, सबसे पहले रिपोर्ट के कुछ निष्कर्षों पर एक निगाह डालें।

पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल है जिसका सबसे निचले भाग में, जो 8 से 17 किलोमीटर के बीच है और जो ट्रोपोस्फियर कहलाता है, अगर कोई परिवर्तन होता है तो उसका पृथ्वी की जलवायु पर सीधा प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी के वायुमंडल में लम्बे समय से ऑक्सीजन, नाइट्रोजन कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य विरल गैसें एक निश्चित अनुपात में पायी जाती रही हैं, किन्तु उद्योगीकरण के बाद एवं जीवाश्म ईंधन के व्यापक प्रयोग के कारण कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा क्रमशः बढ़ती गयी है जिससे पृथ्वी के ताप में वृद्धि होने लगी। विश्व में कार्बन-डाइऑक्साइड के तीन प्रमुख उत्सर्जक देश अमेरिका, चीन एवं रूस हैं जो क्रमशः 23.7, 13.6 एवं 7.0 प्रतिशत कुल का उत्सर्जन करते हैं। भारत का इसमें योगदान 3.6 प्रतिशत है और वह आठवें नम्बर पर आता है। इसमें कोई शक नहीं है कि मानवीय गतिविधियों के कारण धरती और समुद्र गर्म हो रहे हैं और 1950 के बाद से यह प्रक्रिया तेज हुई है। इस परिवर्तन की गति इतनी ज्यादा है कि हजारों वर्षों में होने वाले बदलाव अब एक दशक में ही हुए जा रहे हैं। पृथ्वी का वातावरण एवं समुद्र गर्म हुए हैं, बर्फ तेजी से पिघल रही है, समुद्र की सतह का स्तर बढ़ रहा है तथा वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ी है।

सन् 1850 के बाद प्रत्येक दशक से, पिछले तीन दशक क्रमशः अधिक से अधिक गर्म होते गये हैं एवं 1983 से 2012 का समय शायद उत्तरी गोलार्ध का सबसे गर्म समय था, वर्ष 1880 से 2012 के बीच धरती का औसत तापक्रम करीब 0.850 डिग्री बढ़ा।

धरती के गर्म होने में समुद्रों का गर्म होना सबसे ज्यादा योगदान देता है, जो लगभग 90 प्रतिशत से ज्यादा है। ऊपरी समुद्री सतह (0700 मीटर गहराई तक) 1971 से 2010 के बीच सबसे अधिक गर्म हुई। इन दशकों में सबसे ऊपरी सतह (0.75 मीटर) लगभग 0.110 अंश सेंटीग्रेड प्रति दशक की दर पर गर्म होती रही है।

पिछले दो दशकों में ग्रीनलैंड एवं अंटार्कटिक में जमा रहनेवाली बर्फ तेजी से पिघली है और ग्लेशियर, जो पानी के स्थायी स्रोत रहे हैं, तेजी से सिकुड़ रहे हैं। बर्फ के पिघलने से समुद्र सतह की ऊंचाई 1901 से 2010 के बीच करीब 19 सेंटीमीटर बढ़ी हैं। जो पिछले दो हजार वर्षों में आये बदलाव से भी कहीं ज्यादा है।

पृथ्वी के पर्यावरण में कार्बन-डाइऑक्साइड, मीथेन एवं नाइट्रस ऑक्साइड में भारी बढ़ोतरी हुई है, इतनी जितनी पिछले 8,00,000 वर्षों में नहीं हुई। इसमें भी उद्योगीकरण के बाद कार्बन-डाइऑक्साइड का स्तर लगभग 40 प्रतिशत बढ़ा है। अब क्योंकि समुद्री पानी इसमें से लगभग 30 प्रतिशत को सोख लेता है, इसलिये समुद्र भी अधिक अम्लीय हुए हैं। वर्ष 1750 के बाद से पृथ्वी के पर्यावरण में कार्बन-डाइऑक्साइड के विकिरण की मात्रा बढ़ी है, जिसके बहुत से दुष्प्रभाव गिनाये जा सकते हैं।

इस तरह देखा जा सकता है कि हमारी प्यारी धरती और जीवनदायी समुद्र पिछले सौ वर्षों में एक ऐसी प्रक्रिया से गुजरे हैं जिसके दूरगामी परिणाम होंगे।

धरती के गरम होने का कारणः ग्रीन हाउस प्रभाव


धरती के तापमान में क्रमशः वृद्धि का प्रमुख कारण वायुमंडल में ऐसी गैसों की सांद्रता में वृद्धि है, जो प्रायः प्रकाश की लौटनेवाली लम्बी तरंगवाली किरणों को सोख लेती हैं, जिससे वायुमंडल के तापमान में वृद्धि हो जाती है। वे सभी प्रकार की गैसें जो ऐसा करने में समर्थ हैं ‘ग्रीन हाउस गैस’ के नाम से जानी जाती हैं।

ये दो प्रकार की होती हैं। पहली-जो प्रकृति द्वारा उत्सर्जित की जाती हैं, जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड मीथेन तथा नाइट्रस ऑक्साइड हैं और दूसरी ओजोन तथा सीएफसी. जैसी गैसें है जो मानव द्वारा उद्योग के लिये प्रयुक्त की जाती हैं। इन सभी गैसों का मुख्य गुण यह होता है कि ये पृथ्वी पर आने वाले प्रकाश की छोटी तरंगवाली किरणों को तो आने देती हैं परंतु लौटनेवाली लम्बी तरंगवाली किरणों (इन्फ्रारेड किरणों) को वायुमंडल में सोख लेती हैं, जिससे वायुमंडल का तापमान बढ़ने लगता है। इन ग्रीन हाउस गैसों की गर्माहट क्षमता में काफी अंतर पाया जाता है क्योंकि इन गैसों की अवरक्त किरणों (इन्फ्रारेड किरणों) को सोखने की क्षमता अलग-अलग होती है।

प्राकृतिक रूप से उत्पन्न कुछ गैसें ही ग्रीन हाउस प्रभाव दिखाती हैं इनमें मुख्यतः कार्बन डाइऑक्साइड जल वाष्प, ओजोन तथा नाइट्रस ऑक्साइड शामिल हैं। मनुष्य द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले वातानुकूलन यंत्र और अन्य ठंडे करनेवाले साधन बड़ी मात्रा में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं। खाद और उर्वरक भी वातावरण में नाइट्रस की वृद्धि का कारण हैं।

पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल है जिसका सबसे निचले भाग में, जो 8 से 17 किलोमीटर के बीच है और जो ट्रोपोस्फियर कहलाता है, अगर कोई परिवर्तन होता है तो उसका पृथ्वी की जलवायु पर सीधा प्रभाव पड़ता है तो उसका पृथ्वी के वायुमंडल में लम्बे समय से ऑक्सीजन, नाइट्रोजन कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य विरल गैसें एक निश्चित अनुपात में पायी जाती रही हैं, किन्तु उद्योगीकरण के बाद एवं जीवाश्म ईंधन के व्यापक प्रयोग के कारण कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा क्रमशः बढ़ती गयी है जिससे पृथ्वी के ताप में वृद्धि होने लगी। विश्व में कार्बन-डाइऑक्साइड के तीन प्रमुख उत्सर्जक देश अमेरिका, चीन एवं रूस हैं जो क्रमशः 23.7, 13.6 एवं 7.0 प्रतिशत कुल का उत्सर्जन करते हैं। भारत का इसमें योगदान 3.6 प्रतिशत है और वह आठवें नम्बर पर आता है।

क्या होंगे इस वैश्विक तापन के दुष्प्रभाव?


अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि वर्तमान दर से ही ऊष्माकारी गैसों की मात्रा में वृद्धि होती रही तो 21 वीं सदी के अंत तक पृथ्वी के औसत तापमान में 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि दर्ज की जा सकती है। भारत में बंगाल की खाड़ी के आसपास यह वृद्धि 2 डिग्री सेंटीग्रेड तक होगी। जबकि हिमालयी क्षेत्र में पारा 4 डिग्री सेंटीग्रेड तक चढ़ सकता है। यह वृद्धि मानव सभ्यता में भारी उलटफेर की क्षमता रखती है। सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात और समुद्री हलचलों में वृद्धि इसी का नतीजा है।

ध्रुवीय बर्फ भंडारों के पिघलने से तटीय बस्तियों के जलमग्न होने का खतरा है। मैदानी क्षेत्रों में पानी की कमी होने से कृषि उत्पादन पर भारी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इससे खाद्यान्नों की उपज गड़बड़ा जाएगी और भोजन की कमी की आशंका भी बन सकती है।

वैश्विक तापन का प्रभाव अब विशेषतः पौधों और जन्तुओं पर दिखाई देने लगा है। पौधों और जन्तुओं की प्रजातियां लगभग 6.1 कि.मी. प्रति दशक की रफ्तार से ध्रुवों की ओर खिसक रही हैं और प्रत्येक दशक के बाद बसन्त के मौसम में जन्तुओं के अंडे देने और प्रवास काल में 2.3 दिन की कमी दर्ज की जा रही है।

हिमालयी पवर्तमालाओं में ग्लेश्यिर तेजी से सिकुड़ रहे हैं। गंगा का पवित्र उद्गम गोमुख ग्लेश्यिर पिछली एक सदी में 19 फीट प्रतिवर्ष की दर से पिघला है। ग्लेश्यिरों के पिघलने की यह गति यदि बनी रही तो सन् 2035 तक मध्य एवं पूर्वी हिमालय के सारे ग्लेश्यिर लुप्त हो जाएंगे। ग्लेश्यिरों के सूखने से नदियां सूख जाएंगी, जिससे जल संकट उत्पन्न होगा। वर्षाचक्र प्रभावित होने से फसलों पर भारी दुष्प्रभाव पड़ेगा।

हिमालयी पवर्तमालाओं में ग्लेश्यिर तेजी से सिकुड़ रहे हैं। गंगा का पवित्र उद्गम गोमुख ग्लेश्यिर पिछली एक सदी में 19 फीट प्रतिवर्ष की दर से पिघला है। ग्लेश्यिरों के पिघलने की यह गति यदि बनी रही तो सन् 2035 तक मध्य एवं पूर्वी हिमालय के सारे ग्लेश्यिर लुप्त हो जाएंगे।विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक तापन के कारण हमारे स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इससे जहां करीब 50 लाख लोगों को बीमारियां हो रही हैं, तो करीब 1 लाख लोग प्रतिवर्ष मौत के मुंह में जा रहे हैं। डेंगू का तो मौसम में परिवर्तन से सीधा सम्बन्ध है। 2030 तक डायरिया का प्रभाव भी दोगुना हो सकता है। कई तरह के विषाणु बढ़ते तापक्रम के अनुसार खुद को ढाल चुके हैं। मलेरिया, तपेदिक, डेंगू, दमा, कुष्ठ, पीला ज्वार, कालाजार, सूखा रोग मस्तिष्क ज्वर जैसे रोगों में कई गुना बढ़ोत्तरी की संभावना है।

वैश्विक तापन के कारण ही पृथ्वी के वायुमंडल में उत्पन्न होने वाले चक्रवातों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है, जिनसे सबसे ज्यादा प्रशान्त महासागर एवं हिन्द महासागर के क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। अभी तक चक्रवातों की उत्पत्ति पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में ही होती थी पर मार्च 2004 में पहली बार दक्षिणी गोलार्ध में ब्राजील के तटीय क्षेत्र में भी चक्रवात देखने को मिला।समुद्र का बढ़ता तापमान उसके भीतर निवास कर रही प्रजातियों के लिए अत्यन्त घातक है। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 17000 विभिन्न प्रजातियां अपने मूल स्थान से ध्रुवों की ओर पलायन कर रही हैं। सन् 2050 तक वनस्पतियों की 15 प्रतिशत एवं जीवों की 27 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर होंगी। तापमान में वृद्धि और पानी की कमी से खेती तो प्रभावित होगी ही, वनों की प्राकृतिक संरचना भी बदल सकती है।

तो क्या किया जा सकता है?


पृथ्वी पर मानव सम्यता को बचाये रखने के लिये एवं दीर्घकालीन सतत् विकास के लिए वैश्विक तापन की समस्या का समाधान अत्यन्त आवश्यक है। तात्कालिक रूप से हमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती को सुनिश्चित करना होगा। विकसित देशों द्वारा इन गैसों का अधिक उत्सर्जन होने के कारण उन्हें ही इसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी उठानी होगी। व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर हमें अपनी जीवन शैली में परिवर्तन लाकर उसे सादगीपूर्ण बनाना होगा। सहज एवं प्रकृति से सामंजस्यपूर्ण जीवन शैली आज की आवश्यकता है। वैश्विक तापन की समस्या पूरे विश्व की समस्या है और इससे निबटने के लिये विश्वस्तरीय प्रयासों की ही जरूरत होगी। हमें घबराने के बजाय सार्थक पहल करने की आवश्यकता है।

क्या आपको गांधी की याद आई?

सुपरिचित कथाकार, उपन्यासकार व चिन्तक। मोः 09826256733।

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