इस सदी की शुरुआत में जब रियासतों के आपसी युद्ध कम हो गए और सुरक्षा का अहसास बढ़ गया तो नवाब परिवार नीचे बस्ती में बने अपने महलों में आन बसा। लेकिन तब भी नवाब अयूब अली को पीने के लिये ऊपर के कुण्डों से ही पानी लाया जाता। जंगल, पहाड़ और जड़ी-बूटियों की बीच से बहकर आया पानी ही उन्हें स्वादिष्ट, पाचक और सेहतमन्द लगता था।
पहाड़ के नीचे का मृगननाथ तालाब हो या ऊपर का मोतिया तालाब, दोनों ही इस अंचल के दूसरे तालाबों की ही तरह हैं। यहाँ कुछ अद्भुत है तो हैदरगढ़ का पुराना जल-प्रबन्ध। इसमें ज़मीन से पानी चुराने की उस्तादी की जगह बादलों की उदारता को सहेजने की सूझ है। राजस्थान में टाँकों के रूप में पाई जाने वाली यह व्यवस्था इस अंचल में अनोखी और अकेली ही है।आज जहाँ हैदरगढ़ बस्ती है उसके ठीक ऊपर बना है ‘हैदरगढ़ का किला’। पैंतीस गाँवों की छोटी-सी रियासत के शासक कभी इसी किले में रहते थे। घने जंगलों के बीच ऊँचे पहाड़ पर बना गोंडों का यह किला बाद में नवाब हैदरअली के कब्ज़े में आ गया। आज कोई भी नहीं है यह बताने वाला कि बीहड़ पहाड़ पर बने किले में पेयजल की यह आदर्श व्यवस्था गोंडों की सूझ थी या नवाब की देन।
किला ऊँचे पहाड़ पर, ऐसी जगह; जहाँ कुएँ-बावड़ियाँ खोदने की, फिर उनमें पानी निकलने की और फिर गर्मियों में भी न सूखने की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। जरूरत ने वहाँ आदर्श जलतंत्र विकसित कर दिया है। घने जंगल के बीच एक तालाब बनाया गया, मोतिया तालाब, फिर उससे पाँच फुट चौड़ी नहर सी निकाली गई। गाँव वाले उसे ‘मोरी’ कहते हैं। दो मील जंगल में गुजरने के बाद ‘मोरी’ किले मेहराब युक्त मुख्य द्वार के कुछ पहले से ज़मीन के अन्दर-ही-अन्दर ले जाई गई है। कुछ सौ फुट जमीन के अन्दर से गुजरने के बाद ‘मोरी’ कोठी नामक इमारत के नीचे से निकल कर दो हिस्सों में बँट जाती है।
दाएँ हाथ की मोरी करीब सौ फुट के बाद एक पक्के चौकोर कुण्ड में खुलती है। कुण्ड करीब चालीस फुट चौड़ा और पचास फुट लम्बा है, उसकी गहराई करीब चालीस फुट है। चूने से चिनी पतली-पतली ईटों से बने इस कुण्ड की मजबूती की गवाही उसमें आज भी भरा हुआ पानी दे रहा है। कुण्ड के एक सिरे पर छोटी सी खूबसूरत मस्जिद है। मस्जिद तो खण्डहर में बदल गई है, लेकिन उसका वह पाट आज भी मौजूद है, जिस पर से ‘वजू’ के लिये पानी खींचा जाता था।
इससे कुछ ही फासले पर इस कुण्ड से भी सवाया बड़ा दूसरा कुण्ड है। दोनों ही खुले कुण्ड ज़मीन की सतह से पाँच फीट ऊँचे इस तरह बने हैं कि उनमें सिर्फ ‘मोरी’ का पानी ही जा सकता है। आसपास बहने वाला पानी कुण्ड में नहीं उतर सकता। हैदरगढ़ में अस्सी-नब्बे साल के ऐसे कई बुजुर्ग हैं, जिन्होंने इस जल-प्रबन्ध को काम करते देखा है।
बारिश का पानी जंगलों से बहता आता और मोतिया तालाब में इकट्ठा हो जाता और फिर मोरी के जरिए दो मील का सफर तय करता हुआ इन कुण्डों में उतर जाता। मोरी जैसे-जैसे आगे बढ़ती, संकरी और गहरी होती जाती है। रास्ते में जगह-जगह मोरी में लगे हुए छोटे छेद वाले पत्थरों में से पानी तो निकल जाता था, लेकिन कचरा अटका ही रह जाता। उस कचरे को निकालने के लिये कारिन्दे तैनात रहते। दो मील तक पानी बहने से पानी की गन्दगी नीचे बैठ जाती और पानी निथर जाता। साफ-सुथरे पानी से जब एक कुण्ड पूरा भर जाता, तो उसकी मोरी बन्द करके दूसरी खोल दी जाती और जब दोनों कुण्ड पूरे भर जाते, तो तालाब की मोरी का रास्ता बन्द कर दिया जाता। बस! फिर निश्चिंत हो जाते हैदरगढ़ किले के बाशिन्दे पानी की तरफ से। यही पानी अगली बरसात तक काम आता। बीच में जब कुण्डों में पानी की और जरूरत मालूम होती, तो मोतिया तालाब की मोरी फिर से खोल दी जाती।
इस सदी की शुरुआत में जब रियासतों के आपसी युद्ध कम हो गए और सुरक्षा का अहसास बढ़ गया तो नवाब परिवार नीचे बस्ती में बने अपने महलों में आन बसा। लेकिन तब भी नवाब अयूब अली को पीने के लिये ऊपर के कुण्डों से ही पानी लाया जाता। जंगल, पहाड़ और जड़ी-बूटियों की बीच से बहकर आया पानी ही उन्हें स्वादिष्ट, पाचक और सेहतमन्द लगता था।
अब इसी हैदरगढ़ में जर्मनी की मदद से पाँच मीटर लम्बी, पाँच मीटर चौड़ी और नौ मीटर ऊँची पानी की टंकी बन रही है। इस टंकी में पैंसठ हजार लीटर पानी समाया करेगा। यह पानी बादलों का प्रसाद नहीं होगा, धरती माता का आँचल निचोड़कर टंकी भरी जाएगी।
ऊपर के कुण्डों और तालाब में बादलों का कितना प्रसाद समाता था, पता नहीं, पर तब के हैदरगढ़ के लिये वह काफी था।
बीमारी से बुरा इलाज
हैदरगढ़ के पुराने जल प्रबन्ध की तुलना में अब तिलाई पानी गाँव का मामला देखें। मंडला जिले के इस गाँव में हैण्डपम्पों के प्रदूषित पानी से सत्तर से ज्यादा बच्चे स्थायी तौर पर अपाहिज हो गए हैं।
पहले गाँव में सिर्फ एक कुआँ था, फिर सरकार ने पाँच हैण्डपम्प खुदवा दिये। नियम और सुविधाएँ होने के बावजूद भूमिगत पानी की कोई जाँच-पड़ताल नहीं हुई। पेयजल में 0.5 पीपीएम से ज्यादा फ्लोराइड की मात्रा नुकसानदेह होती है और इन हैण्डपम्पों से गाँव वालों को जो पानी मिला उसमें फ्लोराइड की मात्रा 11.5 पीपीएम थी।
बच्चे पहले फ्लोरोसिस के शिकार हुए। उनके दाँत झड़ने लगे, टाँग टेढ़ी हो गई, घुटनों और जोड़ों में दर्द रहने लगा। जेन-बलगम-सिन्ड्रोम नामक बीमारी ने उनमें स्थायी विकृति ला दी। जिस कारण से बच्चे अपाहिज बने, उसके लिये यही हमारा नया जल प्रबन्ध जिम्मेदार है। प्रदेश-भर में पाँच जिलों के एक सौ बासठ गाँवों के पेयजल स्रोतों में फ्लोराइड खतरनाक मात्रा में पाया गया है। अब इन गाँवों के हैण्डपम्पों को बन्द करने पर विचार हो रहा है।
पश्चिम बंगाल के सात जिलों का मामला भी कुछ कम गम्भीर नहीं है। वहाँ पानी में आर्सेनिक की खतरनाक मात्रा पाई गई है। इस प्रदेश के मालदह, दक्षिण चौबीस परगना, उत्तर चौबीस परगना, वर्दवान, बदियाँ, मुर्शिदाबाद और हावड़ा में आर्सेनिकयुक्त भूमिगत पानी कहर ढा रहा है। आर्सेनिक से निपटने के लिये पश्चिम बंगाल को साढ़े सात सौ करोड़ रुपए की जरूरत है।
गाँव-गाँव में नारा लिखा गया था कि ‘कुओं-बावड़ियों का छोड़ो साथ, हैण्डपम्पों का पकड़ो हाथ।’ ज्यादा सोचे-विचारे बगैर बनाए इस नारे पर किये गए अमल ने अब खतरनाक असर दिखाना शुरू कर दिया है।
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