हिमाचल प्रदेश की मिट्टियां

22 Mar 2011
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हिमाचल प्रदेश की पहाडि़यों और घाटियों में अनेक प्रकार की मिट्टियां पाई जाती हैं। स्थान और वातावरण परिवर्तन के साथ-साथ मिट्टी के रंग व आकार तथा उत्पादकता में भी परिवर्तन आ जाता है। यह प्रदेश नवीन पहाड़ी मिट्टी की भूमि है। यहां आंतरिक रूप से भूमि की बनावट और जलवायु में भिन्नता है। इसकी गहराई की रूपरेखा और ढलान की बनावट के साथ-साथ परिवर्तन आ जाता है। भूमि की बनावट के क्षेत्र में मैदानी क्षेत्र की समतल भूमि के बजाय पहाड़ी ऊंचाई के क्षेत्रों में भू-संरक्षण से संबंधित कुछ अध्ययन हुए हैं। साधारण रूप से पहाड़ी मिट्टी दो प्रकार की होती है-

1. अवशिष्ट मिट्टी, जो चट्ठान से टूट-फूटकर बनने के बाद वहीं रह जाती है और उसमें वनस्पति का सड़ा-गला अंश वहीं रहते-रहते मिल जाता है।

2. दूसरी मिट्टी जल, हिमनदी और हवा के द्वारा चट्टानों को तोड़ने और क्षरण के फलस्वरूप बनती है। यह प्रक्रिया चट्टानों के कंकड़ों को मूल चट्टान के स्थान से बहुत दूर ले जाती है।

अवशिष्ट मिट्टी


मिट्टी को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

1. कांप मिट्टीः इस प्रकार की मिट्टी नदियों द्वारा बहाकर लाए हुए पदार्थ से बनती है।
2. टिल मिट्टीः यह मिट्टी हिम-प्रवाह के प्रदेशों में पाई जाती है। इसके कण बड़े, मोटे और कड़े होते हैं।
3. लोएस मिट्टीः इस प्रकार की मिट्टी हवा द्वारा उड़ाकर लाई गई होती है। साधारणतया फसलों की उपज भूमि की गहराई और सिंचाई तथा जल की उपलब्धता पर निर्भर करती है। हिमाचल के राजस्व विभाग ने इन्हीं दो आधारों पर भूमि का वर्गीकरण किया है। इसी कारण उच्च श्रेणी की घाटियों की भूमि गहरी, समतल और अधिक उपजाऊ है। इनकी आसानी से सिंचाई की जा सकती है। दूसरी श्रेणी की भूमि ढलान पर पाई जाती है। इसमें प्रायः भूस्खलन नहीं होता है और इसके लिए उपयुक्त खेती की आवश्यकता रहती है। तृतीय श्रेणी की भूमि में फसलों की बारी-बारी से खेती संभव है।

चौथी श्रेणी की भूमि का खेती की दृष्टि से अधिक महत्त्व नहीं है, उनमें घास या झाडि़यां ही उग सकती हैं। शेष चार प्रकार की भूमि खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। उसमें पशुओं के चराने और वन उगाने के कार्य किए जा सकते हैं। इस प्रकार की भूमि पर प्रायः भूस्खलन होता रहता है, क्योंकि यह भूमि पहाड़ों की बिलकुल तिरछी ढलान पर है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों की भूमि वन्य प्राणियों के लिए ही उपयुक्त है। इन सभी प्राकृतिक कारणों व प्रदेश की विभिन्न पर्वत श्रेणियों, वादियों और ऊंचाइयों के कारण हिमाचल प्रदेश के कृषि विभाग ने मिट्टियों को पांच भागों में बांटा हैः

1. निम्न पहाड़ी मिट्टी क्षेत्र
2. मध्य पहाड़ी मिट्टी क्षेत्र
3. उच्च पहाड़ी मिट्टी क्षेत्र
4. पर्वतीय मिट्टी क्षेत्र
5. शुष्क पहाड़ी मिट्टी क्षेत्र

निम्न पहाड़ी क्षेत्र


इस क्षेत्र में समुद्रतल से 1000 मीटर तक ऊंचाई वाले भाग यानी सिरमौर की पांवटा घाटी, नाहन तहसील, बिलासपुर, ऊना, हमीरपुर, कांगड़ा के पश्चिमी भाग के क्षेत्र, चंबा का निम्न भटियात, मंडी की बल्ह घाटी और सोलन की कुनिहार घाटी आदि आते हैं। इस भाग में मिट्टी की परत अधिक गहरी नहीं है। इस क्षेत्र की मिट्टी मुलायम और चट्टानों से जुड़ी हुई है। मिट्टी के साथ छोटे-छोटे पत्थर पाए जाते हैं। इस मिट्टी की प्राकृतिक प्रतिक्रिया सामान्य है और इसमें कार्बन व नाइट्रोजन 10:1 के अनुपात में पाया जाता है। इस क्षेत्र की मिट्टी का गुण सामान्य मैदानी क्षेत्र की भांति है। इस मिट्टी में धान, मक्का, गंदम की पैदावार तथा गन्ना और अदरक की फसलें उगाई जाती हैं। इसमें नींबू प्रजाति के फल और आम के बागीचे लगाए जा सकते हैं।

मध्य पहाड़ी मिट्टी क्षेत्रः इस क्षेत्र में समुद्रतल से 1000 से 1500 मीटर तक ऊंचाई वाले भाग आते हैं। इस प्रकार की मिट्टी सिरमौर के पच्छाद और रेणुका के निम्न भाग, सोलन, अर्की, मंडी के जोगिंद्रनगर, कांगड़ा और पालमपुर, चंबा के डलहौजी, ऊपरी भटियात और चुराह के निम्न क्षेत्रों में पाई जाती है। इस क्षेत्र की मिट्टी दोमट प्रकार की है और इसका रंग भूरा होता है। इस मिट्टी की जुताई आसान है। इस मिट्टी में कार्बन और नाइट्रोजन की मात्रा 10 से 12 के बीच परिवर्तित होती रहती है। इस की मिट्टी अम्लीय प्रतिक्रिया करती है। इस क्षेत्र में अम्लीय और फास्फेट मध्यम तथा पोटाश निम्न और मध्यम के बीच पाया जाता है। यह मिट्टी आलू और मक्की की पैदावार के लिए उपयोगी है।

उच्च पहाड़ी मिट्टी क्षेत्रः इस क्षेत्र में समुद्रतल से 1500 से 2100 मीटर तक ऊंचाई वाले भाग यानी सिरमौर पच्छाद और रेणुका के ऊपरी भाग, सोलन का ऊपरी भाग, शिमला के क्षेत्र, मंडी के चच्योट और करसोग के क्षेत्र, कांगड़ा के ऊपरी पूर्वी भाग के क्षेत्र चंबा के ऊपरी चुराह व कुल्लू के क्षेत्र आते हैं। इस क्षेत्र की मिट्टी की जुताई ठीक ढंग से की जा सकती है। इस क्षेत्र की मिट्टी बलुई दोमट या चिकनी दोमट प्रकार की है तथा इसका रंग गहरा भूरा है। इस मिट्टी की परत बहुत ही मोटी होती है तथा इसमें रसायनों की भी प्रचुर मात्रा है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा उच्च से मध्यम श्रेणी की होती है, जबकि पोटाश की मात्रा मध्यम श्रेणी की होती है। इस मिट्टी की प्रतिक्रिया अम्लीय व प्राकृतिक है। भूमि अपरदन इस क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या है।

पर्वतीय मिट्टी क्षेत्रः इस क्षेत्र में समुद्रतल से 2100 से 3500 मीटर तक ऊंचाई वाले भाग आते हैं, जिसमें शिमला, सिरमौर व चंबा के ऊपरी भाग के क्षेत्र आते हैं। इस क्षेत्र की मिट्टी गाद भरी दोमट प्रकार की है। यहां की मिट्टी गहरे व भूरे रंग की है। इस मिट्टी का गुण अम्लीय होता है।

इसमें जैविक तत्त्वों की मात्रा 2.5 मीटर से 3.5 के बीच परिवर्तित होती रहती है। इसमें रासायनिक तत्त्व उच्च से मध्यम मात्रा में विद्यमान हैं। इस क्षेत्र की मिट्टी कृषि की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। मिट्टी की परत भी अपेक्षाकृत कम गहरी है।

शुष्क पहाड़ी मिट्टीः इस क्षेत्र में प्रदेश के समुद्रतल से प्रायः 2500 मीटर से ऊपर ऊंचाई वाले भाग आते हैं, जिसमें पांगी, किन्नौर व लाहुल-स्पीति क्षेत्र की मिट्टी ऊसर प्रकार की होती है तथा इसमें नमी की मात्रा बहुत ही कम है। इस प्रकार की मिट्टी में रासायनिक व जैविक तत्त्वों का बिलकुल अभाव होता है, इसलिए इसमें कृषि करना दुष्कर होता है। घाटियों व निचले साधारण ढालों की दोमट मिट्टियां अपेक्षाकृत अधिक उपजाऊ हैं। ये क्षेत्र शुष्क फलों की पैदावार के लिए उपयोगी हैं। हिमाचल प्रदेश में मिट्टी को उसकी उत्पादकता के आधार पर विभक्त किया गया है। मिट्टी का विभाजन फसल चक्र के आधार पर किया गया है। किन क्षेत्रों में कितनी बार उपज होती है, इस बात का भी ध्यान रखा जाता है। प्रदेश में मिट्टी का विभाजन निम्न प्रकार से किया गया हैः

नहरीः इसे दो भागों में विभक्त किया गया है। पहले प्रकार की सिंचाई प्राकृतिक नहरों द्वारा की जाती है, जो समीप स्थित होती है। दूसरे प्रकार की मिट्टी की सिंचाई बरसाती पानी से की जाती है।

चैहः इस प्रकार की मिट्टी की सिंचाई कुओं द्वारा की जाती है।
नादः इस प्रकार की मिट्टी में केवल धान उगाया जाता है।
एक फसलीः इस प्रकार की मिट्टी में केवल वर्ष में एक फसल उगाई जाती है।
द्विफसलीः इस प्रकार की मिट्टी में वर्ष में दो बार फसल उगाई जाती है।
ऊसरः इस प्रकार की भूमि में केवल कंटीली झाडि़यां मिलती हैं और कृषि नहीं की जाती।
बंजरः इस प्रकार की मिट्टी में दो या तीन वर्षों में एक फसल उगाई जाती है।

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