हिमालय का संकट

पहाड़ी क्षेत्रों में विकास कार्यों में भ्रष्टाचार और प्राकृतिक संपदाओं की लूट को रोकने के लिए सरकार पर जनपक्षीय नीतियों को बनवाने और उसे लागू करने के लिए दबाव डालना बेहद जरूरी है। हिमालय दिवस के मौके पर पहाड़ के लोगों को एक संकल्प लेना होगा कि वह हिमालय की मर्यादा को क्षरित करने के किसी भी प्रयास में शामिल नहीं होंगे।

कल हिमालय दिवस है, लेकिन हिमालयी समाज और प्रकृति, दोनों आज असहज परिस्थितियों में हैं। पिछले कुछ समय से उत्तराखंड के कई इलाकों में भूस्खलन हो रहा है, जिसके कारण वहां का जनजीवन काफी प्रभावित हुआ है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि वहां के लोग एक नई हिमालयी नीति चाहते हैं। जिस बात को अक्सर नजर अंदाज कर दिया जाता है, वह है विभिन्न राजनीतिक दलों की जल, जंगल और जमीन के प्रबंधन की नीतियाँ और राजनीतिक फायदे के लिए उनका आपराधिक तत्वों से गठजोड़। यही वजह है कि हिमालय के विभिन्न हिस्सों की पारिस्थितिकी पर अलग-अलग असर पड़े हैं। इसके कारण समुदायों की उनके प्राकृतिक संसाधनों पर हकदारी और आय अर्जन के विकल्पों पर भी बदलाव आया है।

हिमालयी नीति बनाने की मांग तो ठीक है, पर सवाल उठता है कि पहाड़ी इलाकों में निर्माण कार्यों में भारी विस्फोट न करने, पारिस्थितिकी के अनुकूल उद्यम लगाने, नदियों के तटबंधों और उसके आसपास के रिहायशी इलाकों में खनन न करने तथा जैविक खेती करने या अपने जलस्रोतों की देखभाल करने तथा भूकंप अवरोधी संरचनाओं के निर्माण से किसने रोका है? ये बड़े बांध बनाने, जलविद्युत परियोजनाएं लगाने या कई लेन की सड़कें बनाने जैसे काम नहीं हैं, जो सरकारी नीतियों से प्रभावित हो सकते हैं। मगर ये पारिस्थितिकी को जरूर प्रभावित करते हैं। पारिस्थितिकी संरक्षण के लिए व्यक्तिगत आचरण में शुचिता व संवेदनशीलता का बहुत महत्व है।

परंतु अफसोस कि इसी की भारी कमी है। उत्तराखंड के तीर्थस्थलों में भी हिमालयी नदियों में गंदगी बहाई जाती है। बहुमूल्य प्रजाति की लकड़ियों व झाड़ियों का जलावन के रूप में इस्तेमाल आम बात है। इसके लिए पहले से नीतियाँ बनी हैं, लेकिन व्यक्तिगत आचरण की शुचिता न होने के कारण ऐसा लगातार हो रहा है। जैव विविधता के विनाश का संकट हिमालय की पारिस्थितिकी के लिए भारी संकट है। जैव विविधता की रक्षा के लिए राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय नियमन, संधियां व प्रोटोकॉल भी हैं, फिर भी जैव विविधता की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तस्करी जारी है, जिसमें कई मामलों में स्थानीय लोग एवं अधिकारी ही लिप्त पाए गए हैं।

आज पहाड़ों के दुर्गम इलाकों में स्थिति ऐसी है कि वहां बाहर के लोगों की तो छोड़िए, पहाड़ी लोग भी काम करना नहीं चाहते हैं। यही कारण है कि आज पहाड़ों के स्कूल, कॉलेज, अस्पताल खाली पड़े हैं। इसीलिए चाहे जितनी भी अच्छी हिमालयी नीति बन जाए, जब तक स्थानीय समुदाय पहाड़ी इलाकों में जाना पसंद नहीं करेंगे, तब तक हिमालयी क्षेत्र के विकास और उसके पारिस्थितिकी संरक्षण की बात बेमानी होगी। उत्तर प्रदेश में पर्वतीय विकास मंत्रालय होने के बावजूद उत्तराखंड राज्य इसलिए बना कि पहाड़ी इलाकों की उपेक्षा हो रही थी, पर आज अलग राज्य बनने के दस वर्षों बाद भी दुर्गम पहाड़ी इलाकों और हिमालयी पारिस्थितिकी के संरक्षण का काम अपेक्षित ढंग से नहीं हो पा रहा है। विकास कार्यों को लेकर भी एकमत नहीं है। जहां कुछ लोग भैरव घाटी, मनेरी, लोहारी नागपाला जैसी बड़ी बिजली परियोजनाओं को यहां की पारिस्थितिकी के लिए घातक मान रहे हैं, वहीं कुछ लोग इसे जन आकांक्षाओं के अनुरूप बता रहे हैं।

अतः बेहतर होगा कि पहले से हिमालय के पक्ष में जो नीतियाँ बनी हैं, उनका सही तरीके से क्रियान्वयन हो। इसके लिए जरूरी है कि हम ऐसे लोगों को चुनकर संसद या विधानसभा में भेजें, जो इस क्षेत्र के विकास और पारिस्थितिकी संरक्षण के लिए काम करें, न कि खनन माफियाओं, शराब के ठेकेदारों और पर्यावरण का विनाश करने वालों के पक्ष में। पहाड़ी क्षेत्रों में विकास कार्यों में भ्रष्टाचार और प्राकृतिक संपदाओं की लूट को रोकने के लिए सरकार पर जनपक्षीय नीतियों को बनवाने और उसे लागू करने के लिए दबाव डालना बेहद जरूरी है। हिमालय दिवस के मौके पर पहाड़ के लोगों को एक संकल्प लेना होगा कि वह हिमालय की मर्यादा को क्षरित करने के किसी भी प्रयास में शामिल नहीं होंगे। हिमालयी समाज के आर्थिक विकास के अवसरों को बचाने की दिशा में भी यहां के लोगों को गंभीरता से विचार कर कार्य करने की जरूरत है।
 

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