हिमालय की परंपराओं को भुलाने का दंड

29 Jun 2013
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पहाड़ों के पर्यटन का केंद्र बनने से मैदानी संस्कृति की विकृतियों ने पर्यावरण संतुलन को अस्त-व्यस्त किया।

कभी राजनीति, तो कभी अर्थनीति और कभी अनास्थावादी दर्शन के तहत हिमालयीन क्षेत्र की कई पुरानी सुंदर परंपराओं को हमने लगातार युगानुकूल बनाने की बजाय उनको सिरे से अमान्य कर दिया है, बिना यह देखे कि वे ही सदियों से इस इलाके का नैसर्गिक संतुलन और सादा जीवन का उच्च विचारों से रिश्ता कायम रखे हुए थीं। पहाड़ पर हर मानसून में मचने वाली इस विनाशलीला को एक सिखावन के रूप में लेने की बजाय यदि हम अभी भी उस पर राजनीतिक रोटियां ही सेंकने में जुटे रहे, तब तो हिमालयीन क्षेत्र ही नहीं, देश का भी भगवान ही मालिक है।

अशरण शरण हिमालय तपोभूमि और तमाम नदियों का जनक होने के साथ-साथ एक कठोर न्यायपरक दण्डाधीश की भूमिका भी निभाता रहा है। स्थित: पृथिव्यामिव मानदंड:, कालिदास ने इसके बारे में सेंतमेंत में नहीं कहा। हम सभी हिंदुस्तानी व्यास या कालिदास ही नहीं, अपनी दादी-नानियों से भी ठेठ बचपन से युद्ध, शांति, मोक्ष और प्रेम के नाना प्रसंगों से हिमालय के रिश्ते का जिक्रसुनते बड़े हुए हैं। क्यों न सुनें? पृथ्वी के समुद्र के गर्भ से पैदा होने के साथ उसने जाने कितने भूकंपों और आकाशीय खगोलपिंडों को जन्मते-मिटते देखा है। किसी व्यापारी का दिवाला निकला या किसी की पत्नी दगाबाज निकली, किसी की प्रजा ने बगावत कर दी या किसी को सपने में दिव्य आदेश हुआ और वह चला गया हिमालय की तरफ। भाइयों की हत्या के पातक से खिन्न पांडव भी देहत्याग से प्रायश्चित करने को ईशान्य दिशा में आखिरकार उसी ओर भाग गए और बाद को वेदव्यास ने पारिवारिक कलह के मारे उनके हतभागे महाकुल की आत्महत्या की कालातीत महागाथा यहीं बैठकर पूरी तटस्थता से लिखी। सुनते हैं, उनकी ही तरह 1857 के गदर में पराजित और खिन्न बड़े भारतीय नेताओं की एक टोली भी यहीं कहीं आकर लुप्त हो गई। राग-विराग, त्याग और मोक्ष यह सब हिमालय देख चुका है और जब-जब मानव जाति में बेवकूफी की इंतेहा होती है, वह एक कठोर आघात कर चेतावनी देता है। जून माह की विभीषिका एक ऐसी ही चेतावनी है।

इन पंक्तियों की लेखिका जब 1995 में केदारनाथ गई थी, तब यह मानकर चला जाता था कि अंतिम 14 किलोमीटर की यात्रा पैदल ही नहीं करनी होगी, शाम होने से पहले उसी दिन वही रास्ता फिर पैरों से नापकर रात बिताने को वापस गौरीकुंड आना होगा, इसलिए बोझ जितना कम ले जाएं, उतना भला। वजह एक वत्सला पारिवारिक वृद्धा ने यह बताई कि केदारखंड का मालिक पहाड़ों की पुत्री पार्वती के रिश्ते से सभी पहाड़वासियों का जमाई हुआ और बेटी के घरवाले केदारखंड को लड़की की ससुराल की तरह बरतते हैं। सो लंबी दुर्गम यात्रा के बाद सादगी से आराधना करने के बाद तुरंत वापस आना जरूरी ठहरा। नितांत नास्तिक भी मानेंगे कि हिमालयीन क्षेत्र की नाजुक प्राकृतिक संरचना को देखते हुए श्रद्धालुओं के लिए इस यात्रा को काफी कठिन और यह संवेदनशील इलाका कम से कम प्रवास का केन्द्र बनाने वाला ऐसा उत्तम विधान किसी बहुत सयाने दिमाग ने तैयार किया होगा।

लेकिन हालिया विभीषिका की तस्वीरें दिखा रही हैं कि गुजश्ता दसेक बरसों में वैराग्य के इस ननिहाल की सुरक्षा के पारंपरिक विधान को ताक पर रखकर उस क्षेत्र में दर्जनों भारी-भरकम होटल, पर्यटन गृह और आरामतलब भक्तों को ढोकर ऐन मंदिर के द्वार तक गोद में पहुंचाने वापस ले जाने वाली चारधाम यात्राओं की एक भीड़ धार्मिक पर्यटन के नाम पर यहां खड़ी कर दी गई थी।

दरअसल, हिमालय अब वैराग्य या चिंतन का नहीं, पर्यटन का केन्द्र बनाकर बेचा जाने लगा है। नतीजतन नीचे मैदान की संस्कृति अब यहां भी अपनी पूरी विकृतियों समेत आन विराजी है। यहां भी औने-पौने दामों पर जमीन खरीदकर भारी मुनाफे में बेचने और सीमेंट इस्पात के भारी-भरकम मकानात बनवाने वाले बिल्डर, बाबू और नेता तथा टूर ऑपरेटर उपज आए हैं। मॉल और बार खुल गए हैं, स्पा बन गए हैं, बसाहट घनी हुई तिस पर हर बरस कार या बस से हर कहीं बैठे-बैठे मौजमस्ती के लिए जा पहुंचने और भीषण कचरा छोड़कर विदा होने तथा पर्यावरण संरक्षण के सारे बुनियादी नियमों को तोड़ने वाले टूरिस्ट बढ़ते जाने से इलाके का नक्शा और औसत पहाड़ी का खानपान ही नहीं, प्राथमिकताएं ही बदल गई हैं। काका कालेलकर ने कहीं लिखा है, जैसा जुग वैसे जोगी। पहले जोगी जब किसी पहाड़ की चोटी पर बसे गांव या गुफा में धूनी रमाते थे तो वह ऐसा था जैसे तितलियों द्वारा यहां से वहां तक पराग का सहज संकरण।

गांव वाले उनसे कई बातों का ज्ञान हासिल करते थे, शूरवीरों को परदेस जाकर अपने लिए नई ओपनिंग की जानकारी मिलती थी, नई जड़ी-बूटियों की बाबत जानकर पुरखिनों का घरेलू नुस्खों का कॉर्नुकोपिया मृद्ध होता और कई दफा इसी बहाने गांव की पुरानी धर्मशाला या उजड़ी चट्टी का भी जीर्णोद्धार हो जाता था। अब हर बरस पहाड़ चढ़ते वक्त कुछेक विराट नई मूर्तियां और अट्टालिकाएं दिखती हैं। पूछने पर बताया जाता है कि यह अमुक बाबाजी का अखाड़ा या आश्रम है। दिन-रात भंडारा होता है और प्रवचन भी। बाबा लोगों का ऐश्वर्य देखकर प्रेमचंद के भोले किसान की तरह सीधे-सादे स्थानीय जन के मन में आता है कि हमसे तो यही भले!

इन नए बाबाओं के विपरीत हरिद्वार में सदी पहले से इंदौर की नि:स्पृह रानी अहिल्याबाई का बनवाया प्रसिद्ध घाट और प्रतिष्ठान है। इधर पता चला कि ट्रस्टियों की ऐन नाक तले किसी स्वनामधन्य बिल्डर ने कुछ छोटे-मोटे सरकारी लोगों की मदद से कागजी फर्जीवाड़ा करा के वह पूरा घाट ही बेच डाला। बात मीडिया में आई तो बखेड़ा हुआ, लेकिन दिन-दहाड़े यह हिमाकत हो सकी, यह बात अपने आप में निगरानी की भीषण कमी की कहानी कहती है। इलाके में नदियों में पत्थरों का अवैध खनन अभी भी गायब नहीं हुआ है और बाढ़ से होने वाली विनाशक घटनाओं की वह एक बड़ी वजह है। कभी राजनीति, तो कभी अर्थनीति और कभी अनास्थावादी दर्शन के तहत हिमालयीन क्षेत्र की कई पुरानी सुंदर परंपराओं को हमने लगातार युगानुकूल बनाने की बजाय उनको सिरे से अमान्य कर दिया है, बिना यह देखे कि वे ही सदियों से इस इलाके का नैसर्गिक संतुलन और सादा जीवन का उच्च विचारों से रिश्ता कायम रखे हुए थीं। पहाड़ पर हर मानसून में मचने वाली इस विनाशलीला को एक सिखावन के रूप में लेने की बजाय यदि हम अभी भी उस पर राजनीतिक रोटियां ही सेंकने में जुटे रहे, तब तो हिमालयीन क्षेत्र ही नहीं, देश का भी भगवान ही मालिक है।

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