हिमालय की पुकार

इन सब हालात पर दुनिया भर में विकल्पों की तलाश, सरकारी पहल और योजनाओं पर बहस होती है। पिछले एक दशक में रियो से शुरू करके डरबन तक सालाना जलवायु वार्ताएं हुर्इं, इस मकसद से कि मानवता को कैसे बचाया जाए। इन सभी बहसों में दक्षिण एशिया की सरकारों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया। डरबन सम्मेलन में भारत और चीन की ओर सारे राष्ट्र आशा भरी निगाहों से देखते रहे। डरबन में हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफी गहन चिंताएं उभर कर सामने आईं। इसके संपूर्ण अध्ययन के लिए सिमोड नाम की संस्था को जिम्मेदारी भी दी गई।

हिमालय की छत्रछाया में विश्व की महान सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ। सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) के नेतृत्व में अन्नपूर्णा, दामोदर, गंगापूर्णा, धौलागिरी के हिमशिखर लाखों साल से यहां का विकास और विनाश देखते रहे हैं। अफगानिस्तान से लेकर भारत के पूर्वी छोर तक फैली हुई यह पर्वतमाला घोर संकट में है। इसी पर्वतमाला की छांव में सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मोहनजोदड़ो की सभ्यताओं का भी जन्म हुआ। इसकी बर्फीली चट्टानों ने पूरे दक्षिण एशिया के लोगों की, साइबेरियाई बर्फीले थपेड़ों से ही रक्षा नहीं की, बल्कि हविंड तक फैले हुए वनवासियों, कृषकों और समाज के अन्य समूहों को फलने-फूलने का भी अवसर प्रदान किया। यहां बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, जिसने बामियान से लेकर कंपूचिया तक और नीचे के छोर में श्रीलंका तक को अपने प्रभाव में लिया। यहां से देखें तो काशी और गंगा तट पर संत कबीर ने ज्ञान, दर्शन और साहित्य को नई वाणी दी। वहीं चंपारण में महात्मा गांधी ने पूरी सभ्यता को नए जीवन दर्शन, शांति और विकास की नई अवधारणाओं से परिचित कराया।

विडंबना है कि धरती के जिस हिस्से पर यह सब संभव हो पाया, आज उस पर पर्यावरण संकट गहराया हुआ है। इस संकट का अहसास तो है, पर इससे उबरने के लिए क्या प्रयास हो रहे हैं? एक समय डॉ. राममनोहर लोहिया ने हिमालय और देश की नदियों को बचाने की वकालत की और देश के लोगों में एक नई चेतना विकसित करने का कार्य किया। लेकिन उनके निधन के बाद इस समस्या पर राजनीतिक दलों और सत्ता-प्रतिष्ठान में बैठे लोगों ने सोचना और बोलना बंद कर दिया। अलबत्ता देश के कुछ नागरिक, कुछ सामाजिक संगठन इस पर बोलते और लिखते हैं, मगर कॉरपोरेट से संचालित मीडिया की उदासीनता के कारण उनकी बात कभी सत्ता के गलियारों तक पहुंच ही नहीं पाती। हिमालय ग्लेशियर एक मीटर प्रतिवर्ष घट रहे हैं। यह नागोया विश्वविद्यालय के कोजी फूजिता द्वारा खींची गई तस्वीरों से पता चलता है। उन्होंने लगातार बीस वर्षों तक, 1970 से लेकर 1990 तक इस बात को प्रमाणित करके दिखाया। जब एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोरगे सागरमाथा पर विजय पाने को बढ़े तो उस समय एकरंगी नजारा था। चारों ओर सफेद रंग ओढ़े हुए बर्फीले पहाड़ थे, पर आज जो लोग वहां के आधार-शिविर में काम करते हैं उनका मानना है कि यहां काफी परिवर्तन आया है। पर्वतारोही शिविर के पास मटमैला ग्लेशियर है। जहां का दृश्य सदियों तक सौंदर्य का प्रतीक बना रहा, अब धीरे-धीरे वह सब बदल रहा है। एवरेस्ट के पहले का शिविर बर्फ की बिछी हुई चादर जैसा हुआ करता था, देखते-देखते कुछ दशकों में बदल गया।

अब यहां नालानुमा मैली पिघलती बदशक्ल हुई बर्फ दिखाई देती है। पहले यहां सपाट बर्फीली चादर पर चलना आसान था, मगर बदलते परिदृश्य ने इसकी सूरत ही बदल डाली है। चलने के लिए अब कांटायुक्त छड़ी का सहारा लेना पड़ता है। पहले ऊंचाई वाले बर्फीले पहाड़ों पर ही इसकी आवश्यकता होती थी। यह बात आमतौर पर सभी पर्वतारोही महसूस करते हैं। उनका कहना है कि पहले खूम्बू बर्फीला झरना, जो कि नेपाल का सबसे बड़ा बर्फीला झरना भी कहा जा सकता है और सोलह किलोमीटर लंबी हिमानी का यह विशेष दृश्य हुआ करता था- नीलापन लिए उस बर्फीले दृश्य की जगह पिघलाव के कारण काले भूरे रंग वाले पत्थर दिखने लगे हैं। इसकी ऊपरी सतह पर पहले बर्फ ही बर्फ दिखाई देती थी, मगर वहां भी काले रंग में नई आकृति के पत्थर दिखाई देते हैं।

निचली सतह पर अन्य ग्लेशियर भी इसका शिकार होते जा रहे हैं। बाइर्स नामक व्यक्ति जो इसका काफी अध्ययन कर चुके हैं, उनका मानना है कि स्थिति काफी नाजुक और चिंताजनक है, क्योंकि यहां का भूदृश्य बदल रहा है। यहां कई प्राकृतिक विपदाएं महसूस की जाती हैं और निचले इलाकों में रहने वाले जन प्रभावित हो रहे हैं। एडमंड हिलेरी ने लूकला नामक छोटे-से कस्बे में एक हवाई पट्टी तैयार की थी। इसके पास इजमा नामक एक ताल है, जहां भू-परिवर्तन और बर्फ पिघलाव के कारण बाढ़ जैसे हालात बनने लगे हैं। इससे इजम ताल को खतरा है और ऊपरी सतह से आए हुए बिखरे पत्थर इसका प्रमाण हैं। हिमानी पिघलाव और उनके खिसकाव की वजह से एशिया की इन नदियों के जीवन को भी खतरा पैदा हो रहा है। गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमानी पिघलाव पर अपने साठ से अस्सी प्रतिशत पानी के लिए निर्भर रहती हैं। यहां का जन-मानस बखूबी इसे देख सकता है, महसूस करता है, क्योंकि यह बदलाव इनके जीवन को प्रभावित कर रहा है।

यह बात इन्हें किसी वैज्ञानिक से जानने की जरूरत नहीं है। जहां-जहां बर्फ हुआ करती थी, अब वनस्पति दिखाई देती है। पेड़ उखड़ने लगे हैं और सबके लिए चिंता की घड़ी है। अब यहां बेमौसमी बरसात और बर्फ का गिरना नई तरह की समस्याएं पैदा कर रहे हैं, क्योंकि जहां फरवरी के महीने में तापमान पहले शून्य से तेईस-चौबीस डिग्री सेल्शियस नीचे होता था, अब इसी महीने में शून्य से सत्रह-अठारह डिग्री सेल्सियस नीचे रहता है। अफगानिस्तान के हिंदुकुश से लेकर कैलाश मानसरोवर होते हुए नेफा के भारतीय अंतिम छोर तक लगभग पंद्रह हजार हिमानी फैली हुई हैं, पर भूमंडलीय गर्मी के कारण इनका पिघलाव नेपाल के ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के लोगों के लिए बहुत चिंता की बात है। हाल में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत, सिक्किम, भूटान होते हुए म्यांमार तक बाढ़ और भूकम्प, इंसानी बिरादरी में घबराहट पैदा करने के लिए काफी हैं।

नेपाल की भूमंडलीय गर्मी और औसतन दुनिया से दूनी होती गर्मी के कारण पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश में हर साल बाढ़ से जान-माल के नुकसान के अलावा अरबों रुपए की संपत्ति भी बर्बाद होती है। नेपाल के दक्षिण में बिहार का कोसी का इलाका हर वर्ष दर्द और बर्बादी का नया इतिहास लिखता है। इससे हजारों गांव और कई जिले डूबते हैं और सारे राहत-कार्य ऊंट के मुंह में जीरा साबित होते हैं। दो वर्ष पहले जब कोसी का बांध टूटा तो बिहार में हाहाकार मच गया था। बिहार से सटे हुए नेपाल के कोसी के असर वाले इलाकों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। इसका वहां की खेती-बाड़ी पर गहरा असर पड़ा है। एक फसल नष्ट हुई तो दूसरी फसल बोई नहीं जा सकी। बाग-बगीचे भी बर्बाद हो गए। ऐसे में आम आदमी राहत पर आश्रित होने के लिए मजबूर हो जाता है। दूसरी तरफ नई-नई किस्म की महामारी भी साथ आती है। हैजा, मलेरिया और तरह-तरह के दिमागी ज्वर जनता को लीलने के लिए तैयार रहते हैं। स्वच्छ पानी मिलना भी दूभर हो जाता है।

बिहार में एक तरफ भूमंडलीय गर्मी के कारण यह इलाका हर साल या तो बाढ़ या फिर सूखे की चपेट में रहता है। अगर यह कहा जाए कि बिहार के लोग बाढ़ और सूखे के बीच झूलते रहते हैं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। बिहार के मैदानी इलाके से बढ़कर जब हम बंगाल और बांग्लादेश की ओर बढ़ते हैं तो जनजीवन अलग किस्म की मार सहता है। बंगाल और उड़ीसा के तट चक्रवात और बांग्लादेश के तटीय इलाके समुद्री चपेट और महाचक्रवात के दायरे में हैं। यहां सागरद्वीप, जो सुंदरवन के इलाके में है, का जलस्तर औसतन 3.14 मिलीमीटर हर वर्ष ऊपर उठ रहा है। बांग्लादेश की बीस प्रतिशत भूमि कुछ दशकों में डूब सकती है, ऐसा कुछ समुद्र-वैज्ञानिक मानते हैं। इसके कारण बांग्लादेश से वहां के प्रभावित बेसहारा लोग भारत में शरणार्थी के तौर पर आते हैं और साधनयुक्त दूसरे इलाकों में बसने निकल जाते हैं। यहां के मछुआरे कहते हैं कि मछली व्यापार और कृषि दोनों ही नष्ट हो रहे हैं।

हिमालय की चोटियों से अब बर्फ घट रहे हैंहिमालय की चोटियों से अब बर्फ घट रहे हैंपाकिस्तान में आई बाढ़ और भूकम्प से हुई बर्बादी बांग्लादेशी चक्रवात से भी भयानक है। पिछले वर्ष पाकिस्तान में आई बाढ़ से सोलह सौ से ज्यादा लोगों की मृत्यु हुई थी और सवा लाख से अधिक लोगों पर आपदा की आर्थिक मार पड़ी। यह भारत और हैती की सुनामी से प्रभावित लोगों से दुगुनी तादाद है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर सुकूर बराज की क्षति हुई तो यह बाढ़ की आंधी सिंध, रवाइबर, परवतूनका, पंजाब के कई इलाकों को बर्बाद करने के लिए काफी होगी। स्वात घाटी के छह लाख से अधिक लोग फौज और तालिबान के बीच युद्ध के कारण दयनीय स्थिति में हैं। दूसरी ओर, जापान की सुनामी के कारण वहां के आणविक बिजली उत्पादन केंद्र बर्बाद हुए और इससे उन इलाकों को घेरे में लेना पड़ा ताकि और अधिक तबाही को रोका जा सके। कुछ वर्ष पहले छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने स्वीकार किया था कि अपने एटमी कचरे को वह तिब्बत में दफनाता है। इससे वहां के पक्षी और बाकी जीव-जंतु प्रभावित हो रहे हैं।

इन सब हालात पर दुनिया भर में विकल्पों की तलाश, सरकारी पहल और योजनाओं पर बहस होती है। पिछले एक दशक में रियो से शुरू करके डरबन तक सालाना जलवायु वार्ताएं हुर्इं, इस मकसद से कि मानवता को कैसे बचाया जाए। इन सभी बहसों में दक्षिण एशिया की सरकारों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया। डरबन सम्मेलन में भारत और चीन की ओर सारे राष्ट्र आशा भरी निगाहों से देखते रहे। डरबन में हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफी गहन चिंताएं उभर कर सामने आईं। इसके संपूर्ण अध्ययन के लिए सिमोड नाम की संस्था को जिम्मेदारी भी दी गई। पर जितनी बड़ी यह समस्या है उसके अनुपात में न तो पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं और न ही कोई वैकल्पिक नीति बनाई गई है। ‘चिपको आंदोलन’ से वैकल्पिक सोच के कुछ सूत्र मिल सकते हैं। हिमालय बचाओ का नारा भारत में पहली बार डॉ राममनोहर लोहिया ने पचास के दशक के अंत में दिया था। इस पर पूरे दक्षिण एशिया में जिस तरह बहस और पहल होनी चाहिए थी, नहीं हुई। डरबन में बनी सहमति नाकाफी है। जरूरत वैकल्पिक नीतिगत सोच और विकास के नए रास्तों को तलाशने की है।

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